23. No. Question's answer is wrong.
Right answer is Retention(धारण)
B. Short Answer type questions
(संक्षिप्त उत्तरीय प्रश्न) :1×5=5
1. शिक्षा के चार स्तंभों के अग्रणी प्रतिपादक कौन है? (Who is the pioneer of four pillars of education?)[H.S. 2019]
Ans. जैक्स डेलर्स ।
2. मनोवैज्ञानिक डी. ओ. हेल के मतानुसार बुद्धि के दो प्रकार-क्या-क्या है? (What are two kinds of intelligence according to psychologist D.O. Hebb?)[H.S. 2019]
Ans. (i)Fluid intelligence (ii) Crystallized intelligence.
3. स्पीयरमैन के 'G' के साथ कैटल के किस प्रकार की बुद्धि की तुलना की जा सकती है? (What type of intelligence of cattell is compared to spearman's 'G'?)[H.S. 2019]
Ans. स्पीयर मैन के 'G' के साथ कैटल के 'Fluid intelligence' की तुलना की जा सकती है।
4. स्मृति का विकास शिक्षा के चारों स्तम्भों में से किससे सम्बन्धित है ? (‘Development of memory' is associated with which of the four pillars of education?)[H.S.2016]
Ans. स्मृति का विकास, डेलर्स कमीशन की शिक्षा के प्रथम स्तर 'जानने के लिए शिक्षा' (learning to know ) से सम्बन्धित है।
5. अधिगम के क्या उद्देश्य हैं? (What are the aims of learning ?) Ans. सीखने या अधिगम के दो मुख्य उद्देश्य हैं - (क) ज्ञानोपार्जन और (ख) कौशल अर्जन ।
06. अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख करें। (Mention the factors which influences Learning.)
Ans. अधिगम या सीखने को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं- (i) विषय-सामग्री का स्वरूप (Nature of the Subject-matter) (ii) बच्चों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य (Physical and mental health of children) (iii) परिपक्वता (Maturation) (iv) अधिगम या सीखने का समय (Time of learning) (v) अधिगम या सीखने की इच्छा (Will of Learning ) ।
07. गैने के वर्गीकरण में अधिगम का उच्चतर सोपान क्या हैं ? (According to Gane's classification,which is the highest stage of learning?
Ans. मैने द्वारा वर्णित अधिगम की अंतिम परिस्थिति, समस्या समाधान द्वारा सीखना, सीखने की श्रेणी का सर्वोच्च स्तर है। यह सर्वाधिक जटिल प्रक्रिया है।
8. अधिगम या सीखना क्या है ? (What is Learning ?)
Ans. अधिगम या सीखना एक व्यापक, सतत् एवं जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। सीखने के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है। व्यवहार में यह परिवर्तन वाह्य एवं आन्तरिक दोनों ही प्रकार का होता है। अतः सीखना एक प्रक्रिया है जिसमें अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में स्थायी या अस्थाई परिवर्तन दिखाई देता है।
*9. प्रेरणा क्या है ? (What is Motivation ?)
Ans. अभिप्रेरणा (Motivation) :- अभिप्रेरणा से अभिप्राय केवल आंतरिक उत्तेजनाओं से होता है, जिस पर हमारा व्यवहार आधारित होता है। दूसरे अर्थ में, "अभिप्रेरणा व्यक्ति के भीतर स्थित होती है जो उनमें क्रियाशीलता उत्पन्न करती है। यह क्रियाशीलता व्यक्ति में लक्ष्य की प्राप्ति तक चलती है।" अतः स्पष्ट है कि अभिप्रेरणा व्यक्ति की एक विशिष्ट स्थिति होती है जो उसे एक निश्चित लक्ष्य की ओर निर्देशित करती है।
10. अवधान की एक विशेषता का उल्लेख करें। (Mention any one characteristic of Attention.)[H.S.2016]
Ans. अवधान की विशेषताएँ (Characteristics of Attention) :- ध्यान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-:
1. अवधान मन में होने वाली एक प्रक्रिया है, जिसके लिए मन को सक्रिय होना पड़ता है।
2. प्रयोजन या उद्देश्य जितना प्रबल होगा हमारा ध्यान भी उसी प्रबलता से केंद्रित होगा।
11. साधारण मानसिक क्षमता क्या है ? या, स्पियरमैन के द्विकारक सिद्धान्त में 'g-factor से आप क्या समझते हैं? (What is General Mental Ability? Or, What do you mean by g-factor in spearman's two factor theory ? )[H.S.2016]
Ans. साधारण मानसिक क्षमता व्यक्ति में अंतर्निहित एक ऐसी मानसिक शक्ति है जो उसे सभी प्रकार की बौद्धिक कार्य करने में सहायता प्रदान करती है। स्पियरमैन ने अपने द्विकारक सिद्धान्त में G-type को मानसिक क्षमता कहा है।
12. साधारण मानसिक क्षमता और विशेष मानसिक क्षमता में मुख्य अंतर क्या हैं? (What are the main differences between General Mental Ability and the Special Mental Ability?)
Ans. प्रत्येक व्यक्ति में एक ही सामान्य मानसिक क्षमता होती है तथा यह एक जन्मजात लक्षण है जबकि विशेष मानसिक क्षमता विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न होती है और यह व्यक्ति द्वारा अर्जित की जाती है।
● 13. बुद्धि के विभिन्न प्रकार क्या हैं? (What are the different types of Intelligence according to Garret?)
Ans. बुद्धि के प्रकार (Kinds of Intelligence) :- गैरेट (Garret) के अनुसार बुद्धि मुख्यत: तीन प्रकार की होती है- (i) मूर्त्त बुद्धि (Concrete Intelligence) (ii) अमूर्त्त बुद्धि (Abstract Intelligence) (iii) सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence)
14. अंत: दृष्टि अधिगम द्वारा आप क्या समझते हैं? (What do you mean by insightful learning ?)
Ans. अंतः दृष्टि अधिगम (Insightful learning) :- मनुष्य किसी स्थिति या समस्या को उसकी सम्पूर्ण पृष्ठभूमि में देखता है। इस स्थिति या समस्या समाधान के लिए उसे क्या करना चाहिए? यह उसके मस्तिष्क में एकाएक चमक उठता है, यही सूझ या अंतर्दृष्टि अधिगम (insightful learning) है।
15. जीवन में अधिगम के दो महत्त्व का उल्लेख करें। (Mention two importance of learning in life.)
Ans. अधिगम का महत्त्व (Importance of learning) :-
(क) सीखने के बदौलत मनुष्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ता है।
(ख) सीखने से मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन होता है, उन्नत व्यक्तित्व का विकास होता है तथा ज्ञानार्जन में सुविधा होती है।
(ग) कक्षा में ध्यानपूर्वक सीखने वाला छात्र जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी सफल होता है।
16. अधिगम और परिपक्वता में क्या अंतर है? (What is the main difference between Learning and Maturation?)
Ans. अधिगम और परिपक्वता में अंतर (Differences between learning and maturation) :-
(क)अधिगम, अनुभव और प्रशिक्षण द्वारा व्यक्ति में होने वाला वह परिवर्तन है जिसके लिए वंशानुक्रम उत्तरदायी नहीं होता है,जबकि परिपक्वता एक विकासात्मक प्रक्रिया जिसमें व्यक्ति जिन गुणों को ग्रहण करता है, उसकी नींव गर्भ में ही पड़ जाती है।
(ख) अधिगम, प्रयत्न प्रशिक्षण और अनुभव से प्राप्त होता है, जबकि परिपक्वता एक नैसर्गिक प्रक्रिया है जिसमें किसी वाह्य उद्दीपन की आवश्यकता नहीं होती है।
17. बुद्धि-लब्धि क्या है? (What is Intelligence Quotient ? )
Ans. बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient) :- सबसे पहले बुद्धि-परीक्षण बिने साइमन ने 1905 ई० में बनाया, जिसे मानसिक आयु में मापकर बनाया गया। तत्पश्चात् 1916 ई० में टरमन ने स्टन्फोर्ड विश्वविद्यालय में इसमें महत्वपूर्ण सुधार किया। इसी के फलस्वरूप बुद्धि-लब्धि संप्रत्यय का जन्म हुआ और इसका प्रयोग बुद्धि परीक्षण में मानसिक आयु की जगह होने लगा। बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient) मानसिक आयु एवं वास्तविक आयु का एक अनुपात है, जिसे 100 से गुणा करके निकाला जाता है। इसी कारण इसे बुद्धि लब्धि भी कहा जाता है।
18. मानसिक योग्यता क्या है? (What is called Mental Ability?) Ans. प्रत्येक मनुष्य में कुछ जन्मजात या विशिष्ट गुण होते हैं। इन्हीं जन्मजात व्यक्तिगत तत्व या विशिष्ट गुणों को मानसिक क्षमता (Mental Ability) कहा है। जन्मजात क्षमताओं के अलावा भी एक प्रकार की क्षमताएँ देखी जाती हैं, जो आंशिक रूप से अर्जित किए जाते हैं। साधारणत: मानसिक क्षमता को बुद्धि कहते हैं। संक्षेप में, "मनुष्य की सक्रियता और प्रेरणादायक मानसिक सत्ता ही उसकी मानसिक क्षमता कहलाती है।"
19. स्पीयरमैन के टेट्राड समीकरण में का अर्थ क्या है? (What is meant by ‘r' in Tetrad equation of Spearman?)[H.S.2017]
Ans. टेट्राड समीकरण को व्यक्त करने का सूत्र है-:
rap x rbq – raq x rbp = 0
20. स्पीयरमैन का त्रि-कारक समीकरण क्या है? (Write the Spearman's Tetrad Equation.)[H.S.2015]
Ans. स्पीयरमैन ने सन् 1911 ई० में अपने पूर्व बुद्धि के द्वि कारक सिद्धांत में संशोधित करते हुए एक और कारक 'समूह कारक' (Group factor) को जोड़कर बुद्धि के त्रिकारक सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत में तीन कारक थे- सामान्य कारक, विशिष्ट कारक और समूह कारक।
21. परिपक्वता से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by Maturation ?)
Ans. परिपक्वता (Maturation) :- परिपक्वता या प्रौढ़ता व्यक्ति की स्वाभाविक अभिवृद्धि है जो बिना किसी विशिष्ट परिस्थितियों; जैसे- शिक्षा या अभ्यास आदि के अनवरत रूप से चलती रहती है। उदाहरण के लिए एक
निश्चित उम्र के बाद पैरों से चलना, बोलना तथा अन्य ऐसे कार्य करना सीखते हैं।
22. परिपक्वता की एक विशेषता लिखिए। (Write one characteristic of maturation.) [H.S.2018]
Ans. परिपक्वता की विशेषता:
1. परिपक्वता एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
2. परिपक्वता सीखने की गति को प्रभावित करती है।
3. परिपक्वता के अभाव में अधिगम की सफलता की प्राप्ति संदिग्ध है।
4. क्रियाओं को सीखने के लिए निश्चित परिपक्वता के स्तर आवश्यक हैं।
23. रुचि के किसी एक विशेषता को लिखो। (Mention any one characteristics of Interest.) [H.S. 2016]
Ans. (i) बच्चों को शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य से अवगत करते हुए पाठ्यक्रम में रूचि बताए रचना।
24. थर्स्टन के प्रयोग में 'V' से क्या ज्ञात होता है ? (What is known by V in Thurston's experiment?)
Ans. थर्स्टन के प्रयोग में 'V' का अर्थ भाषायी अवधारणा से है। इस प्रकार की योग्यता तार्किक अध्ययन, भाषा, ज्ञान आदि में सहायक होती है।
25. ऐच्छिक अवधान क्या है? (What is Voluntary Attention ?)
Ans. ऐच्छिक अवधान (Voluntary Attention) :- यह मनुष्य के अर्जित अभिरुचि या रुचि आधारित होता है। यह दो प्रकार का होता है - (क) विचारित अवधान (Explicit Attention) और (ख) अविचारित अवधान (Implicit Attention)।
26. विचारित अवधान क्या है? (What is Explicit Attention ?)
Ans. विचारित अवधान (Explicit Attention) :- जब हम अच्छी तरह विचार कर किसी विचार या वस्तु पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो वह विचारित ध्यान कहलाता है। इस प्रकार के अवधान के पीछे एक उद्देश्य, इच्छा और प्रेरणा होती है।
27. थर्स्टन के प्रयोग में 'R' से क्या ज्ञात होता है? (What is known by 'R' in Thurston's Experiment?)
Ans. थर्स्टन के प्रयोग में 'R' का अर्थ तार्किक क्षमता तथा रटने की क्षमता से है। इस प्रकार की योग्यता से छात्रों में तर्क करने की क्षमता या किसी विषय को रटने की क्षमता का पता चलता है।
28. थर्स्टन के प्रयोग में 'w' से क्या ज्ञात होता है? (What is known by 'w' in Thurston's experiàment?)
Ans. थर्स्टन के प्रयोग में 'W' का अर्थ शब्द प्रवाह से है। इससे शिक्षार्थियों में भाषा का विकास होता है।
29. थर्स्टन के बहु-कारक सिद्धान्त में 'S' से क्या ज्ञात होता है? (What is meant by 'S' in Thurston's multi-factor thoery ? )
Ans. थर्स्टन के प्रयोग में 'S' का अर्थ दूरी से है जिससे छात्रों को स्थान की दूरी तथा अंतर का ज्ञान होता है।
जबकि द्वितीय कारक के रूप में 'S' से वस्तु-परीक्षण का बोध होता है।
30. थर्स्टन के प्रयोग में 'P' से क्या ज्ञात होता है? (What is known by 'P' in Thurston's experiment? )
Ans. थर्स्टन के प्रयोग में P का अर्थ प्रत्यय गति से है, जिससे हमें किसी वस्तु को देखकर उसे समझने में शीघ्रता होती है।
31. ध्यान भंग से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by Breaking of Attention ?)
Ans. जब व्यक्ति किसी विशेष वस्तु, विचार या क्रिया को देखने या जानने के लिए अपना ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करता है तो वाह्य या आंतरिक वातावरण में कोई न कोई घटना हो जाती है, जिससे हमारा ध्यान उस ओर चला जाता है। पहले से दिए जा रहे हमारे ध्यान की प्रक्रिया में रुकावट या व्यवधान होता है। इस प्रक्रिया को व्यवधान या ध्यान भंग कहते हैं।
32. बाध्य ध्यान से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by Enforced Attention ?)
Ans. बाध्य ध्यान (Enforced Attention) :- इस प्रकार के ध्यान में बाध्यता प्रमुख होती है, जिसमें बाहरी उद्दीपन व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है; जैसे अचानक किसी तीव्र ध्वनि से उस ओर हमारा ध्यान चला जाता है।
33. मानसिक क्षमता और सीखने में क्या सम्बन्ध है? (What is the relation between mental ability and learning ?)
Ans. प्रत्येक मनुष्य में कुछ जन्मजात विशिष्ट गुण होते हैं, जिसे मानसिक क्षमता कहते हैं। सीखना जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है, जिससे किसी व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है।
34. शिक्षा में प्रेरणा की एक विशेषता लिखिए। (Write one importance of motivation in education.)
Ans. शिक्षा में प्रेरणा की विशेषता :- (i) स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना का विकास कर ज्ञानार्जन के लिए प्रेरित करना। (ii) बच्चों को पुस्तकों पर ध्यान केन्द्रित करने में सहायता करता है।
35. मानसिक क्षमता कितने प्रकार के होते हैं? (How many types of mental ability?)
Ans. मानसिक क्षमता दो प्रकार के होते हैं:
(i) साधारण मानसिक क्षमता (General Mental ability) और (ii) विशेष मानसिक क्षमता (Special Mental ability)
36. बुद्धि परीक्षण क्या है? (What is Intelligence Test ?)[H.S.2018]
Ans. शिक्षा शास्त्र के अध्ययन में जिन विधियों का प्रयोग कर बुद्धि की मात्रा को मापा जाता है, उसे बुद्धि परीक्षण (Intelligence Test) कहते हैं।
37. थर्स्टन के सिद्धान्त में W द्वारा किस क्षमता को दर्शाया जाता है? (The letter W stands for which ability according to Thurston's theory ?)
Ans. थर्स्टन के सिद्धान्त में W द्वारा व्यक्ति के भाषा व्यवहार की क्षमता को दर्शाया गया है।
38. बुद्धि की एक विशेषता लिखें। (Write any one characteritics of Intelligence.)[H.S. 2015, 2018]
Ans. बुद्धि की विशेषताएँ (Characteristics of Intelligence) :
(i) यह व्यक्ति की जन्मजात शक्ति है।
(ii) यह वंशानुक्रम और वातावरण दोनों से प्रभावित होता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long
Answer Type
Questions)
1. अधिगम (Learning)
8x2=16
Most important
Vvvi**1). बुद्धि की परिभाषा लिखिए। सामान्य मानसिक क्षमता तथा विशिष्ट मानसिक क्षमता के बीच अन्तर स्पष्ट (Define intelligence. Differentiate between general mental ability and special mental ability.)(2+6) [H.S. 2019]
Ans. बुद्धि (Intelligence) :- बुद्धि वह मानसिक शक्ति है जो वस्तुओं एवं तथ्यों को समझने, उनमें आपसी सम्बन्ध खोजने तथा तर्कपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होती है। यह भावना और अंतः प्रज्ञा (intuition) से अलग है। बुद्धि ही मनुष्य के नवीन परिस्थिति को ठीक से समझने और उसके साथ अनुकूलित होने में सहायता करती है।
बुद्धि के प्रकार (Kinds of Intelligence) :- गैरेट (Garret) के अनुसार बुद्धि मुख्यत: तीन प्रकार की होती है-
1. मूर्त बुद्धि (Concrete Intelligence) :- इस बुद्धि को गामक या यांत्रिक बुद्धि भी कहते हैं, जिसका सम्बन्ध यंत्रों या मशीनों से होता है। जिस व्यक्ति में यह बुद्धि होती है वह यंत्रों और मशीनों के कार्य में अधिक रुचि लेता है। इसी बुद्धि के व्यक्ति अच्छे कारीगर, मेकेनिक, इंजीनियर, औद्योगिक कार्यकर्ता आदि होते हैं।
2. अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence ) :- इस बुद्धि का सम्बन्ध पुस्तकीय ज्ञान से होता है। अतः जिस व्यक्ति में यह बुद्धि अधिक होता है, वह ज्ञानार्जन में अधिक रुचि लेता है। इस बुद्धि के व्यक्ति अच्छे साहित्यकार, वकील, डॉक्टर, दार्शनिक, चित्रकार आदि होते हैं।
3. सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence) :- इस बुद्धि का सम्बन्ध व्यक्तिगत और सामाजिक कार्यों से होता हैं। इस बुद्धि से व्यक्ति मिलनसार, सामाजिक कार्यों में रुचि लेनेवाला और मानवीय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। अतः इस बुद्धि के व्यक्ति अच्छे मंत्री, व्यवसायी, कूटनीतिज्ञ और सामाजिक कार्यकर्त्ता होते हैं।
साधारण मानसिक योग्यता और विशेष मानसिक योग्यता में अन्तर - (Difference between General Mental Ability and Specific Mental Ability) :
1. साधारण मानसिक क्षमता साधारण धर्मी होता है, जबकि विशेष मानसिक क्षमता एक विशेष गुण या लक्षणों वाला होता है।
2. साधारण मानसिक योग्यता कई गुणों का संयोग तथा एक ही होती है जो सभी प्रकार के कार्यों के लिए आवश्यक है, जबकि विशेष मानसिक क्षमता अलग-अलग कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न होती है अर्थात् यह संख्या में एक नहीं अनेक होती है।
3. साधारण मानसिक योग्यता स्वतंत्र रूप में समान गति से कार्य करती रहती है। जबकि विशेष मानसिक योग्यता समान गति से कार्य नहीं कर सकती हैं। क्योंकि यह स्वतंत्र न होकर साधारण मानसिक योग्यता के सहयोगी के रूप में कार्य करती है।
4. साधारण मानसिक क्षमता एक जन्मगत क्षमता है। जबकि विशेष मानसिक क्षमता कुछ हद तक जन्मगत है तो कुछ अर्जित भी होती हैं।
5. साधारण मानसिक क्षमता द्वारा ही व्यक्ति किसी कार्य का संचालन करता है। जबकि कार्यों के संचालन में विशेष मानसिक क्षमता की भूमिका सीमित होती है।
6. कार्यों के प्रकृति में भिन्नता के अनुसार साधारण मानसिक क्षमता का परिमाण भिन्न होता है। जबकि विशेष कार्यों की भिन्नता से मानसिक क्षमता की प्रकृति ही बदल जाती है।
7. साधारण मानसिक क्षमता एक निश्चित समय तक विकासशील है, जबकि विशेष मानसिक क्षमता अधिगम योग्य है जिसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती है।
8. साधारण मानसिक योग्यता सभी व्यक्तियों में पाई जाती है, जबकि विशेष मानसिक योग्यता सभी व्यक्तियों में नहीं पाई जाती है।
9. किसी कार्यकारी कुशलता प्राप्त व्यक्ति द्वारा साधारण मानसिक क्षमता का विकास नहीं किया जाता क्योंकि यह वंशानुक्रम द्वारा व्यक्ति को स्वतः प्राप्त हो जाता है। जबकि विशेष मानसिक क्षमता का साधारण मानसिक क्षमता के सहयोग से किसी कार्यकारी कुशलता प्राप्त व्यक्ति विशेष द्वारा विकास सम्भव है।
Vvi*** 2). शिक्षा में अवधान के महत्त्व का संक्षिप्त वर्णन करें। या, ध्यान से क्या समझते हो ? शिक्षा में अवधान की भूमिका का वर्णन करें। (Briefly explain the importance of Attention in education. Or, What is meant by Attention? Evaluate the role of attention in the field of education.) [H.S.2017]
Ans. ध्यान (Attention) :- किसी वस्तु या विचार आदि पर चेतना केन्द्रित करने की मानसिक प्रक्रिया को ध्यान या अवधान कहते हैं।
शिक्षा में अवधान का महत्त्व (Importance of Attention in Education) :--अधिगम या सीखने में अवधान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बच्चों का ध्यान कक्षा की ओर आकर्षित करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने निम्नांकित बातों की ओर शिक्षकों का ध्यान आकृष्ट किया है:-
1. विषय की सार्थकता (Significance of subject) :- किसी पाठ को आरम्भ करने से पहले बच्चों को विषय-वस्तु की सार्थकता एवं उपयोगिता से अवगत कराना चाहिए। इससे विषय की ओर उसका ध्यान आकर्षित होगा जिससे वह लाभान्वित हो सकेगा।
2. वातावरण ( Environment) :- किसी पाठ की ओर बच्चों का ध्यान केंद्रित करने से पहले कक्षा का आंतरिक और बाह्य वातावरण शांत होना चाहिए। विद्यालय में भी घर जैसा अपनापन और जीवनोपयोगी वस्तुओं की उपस्थिति से बच्चों में जिज्ञासा उत्पन्न होगी और वह सदैव विद्यालय आने को उत्सुक रहेगा।
3. सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार (Sympathetic behaviour) :- बच्चों का अपने विषय की ओर ध्यान केंद्रित हो इसके लिए शिक्षकों को चाहिए कि वह उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें। शारीरिक दण्ड या अत्यधिक डाँटने से बच्चे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
4. विषय परिवर्तन (Change of subjects) :- लगातार एक ही विषय को पढ़ने से बच्चे में नीरसता का बोध होता है।अतः विभिन्न विषयों को बदल-बदल कर पढ़ाने में रुचि बनी रहती है।
5. अध्यापन विधि (Teaching method) :- बच्चों का अपने पाठ की ओर ध्यान आकर्षित कराने के लिए उपयुक्त अध्यापन विधि अति आवश्यक है। परम्परागत पद्धति के बजाय आधुनिक मनोवैज्ञानिक विधियों के प्रयोग से बच्चे विषय के प्रति अधिक आकर्षित होंगे और उनका ध्यान भी केंद्रित होगा।
6. योग्य अध्यापक (Able teacher) :- अवधान के लिए शिक्षकों का योग्य होना अति आवश्यक है। शिक्षकों का आकर्षक व्यक्तित्व, मानसिक योग्यता, न्यायप्रियता, सामाजिकता आदि बच्चों को उनकी ओर आकर्षित करता है, जिससे बच्चे अपने विषय के प्रति ध्यान केंद्रित कर पाते हैं।
Vvi**3). रूचि को परिभाषित करें। बच्चों की शिक्षा में रूचि की भूमिका का वर्णन करें। (Define Interest. Describe the role of Interest in the education of a child.) [H.S.2015]
Ans. रुचि (Interest) :- किसी अन्य कार्य की तुलना में एक कार्य को पसन्द करना हो रुचि कहलाती है।
बच्चों की शिक्षा में रुचि की भूमिका (Role of interest in child education) :- बच्चों की शिक्षा के लिए अभिरुचि एक महत्त्वपूर्ण शर्त है क्योंकि इसका गहरा सम्बन्ध भावना, अवधान, मनोवृत्ति, अधिगम तथा आवश्यकता से रहता है जो कि एक साथ मिलकर उपलब्धि के लिए उपयोगी है। बच्चों की जिस विषय में रुचि नहीं होती वे उसमें मानसिक तनाव का अनुभव करते हैं और उसे सीख नहीं पाते।
अतः बच्चों की इच्छा के अनुकूल शिक्षा देना और शिक्षण की ओर उनकी रुचि को जगाना तथा विकसित करना शिक्षा की सफलता के लिए आवश्यक है। इसके लिए मनोवैज्ञानिकों ने निम्नलिखित उपाय बताए है :
(i) शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों को पूर्व परिचित विषय के संदर्भ में जोड़कर नए विषय को बताएं। इससे बच्चों की रुचि बढ़ेगी और वे आसानी से विषय को समझ सकेंगे।
(ii) विद्यालय के वातावरण की स्वच्छ तथा आकर्षित बनाने से बच्चों का विद्यालय के प्रति लगाव बढ़ जाएगा।
(iii) चित्र, मॉडल आदि शिक्षण सहायक उपकरणों के प्रयोग से बच्चों की रुचि पाठ के प्रति बनी रहेगी।
(iv) बच्चों के मानसिक उम्र तथा अन्य रुचियों का ख्याल रखते हुए शिक्षण विधि का प्रयोग करना चाहिए।
(v) बच्चों को शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य से अवगत कराकर उसकी रुचि को बनाए रखने का प्रयास करते रहना चाहिए।
(vi) बालकों के बौद्धिक स्तर तथा शैक्षिक स्तर में एकरूपता होनी चाहिए क्योंकि अधिक कठिन या अधिक सरल विषयों में छात्रों की रुचि नहीं रहती है।
(vii) बच्चों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की अभिरुचियाँ होती हैं। अतः पाठ तथा विषय के चयन में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
Vvvi**4.योग्यता को परिभाषित कीजिए। थर्स्टन के बहु-कारक सिद्धांत का चित्र सहित विवरण दें। (Define. Ability. Explain with diagram the theory of Multiple factor to Thurstone.)
[H.S.2016]
Ans. थर्स्टन का समूह कारक बुद्धि सिद्धान्त (Thurston's Group factors intelligence theory):- थर्स्टन के समूह कारक सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि न तो सामान्य कारकों का प्रदर्शन है न ही विशिष्ट कारकों का, बल्कि इसमें कुछ ऐसी निश्चित मानसिक क्रियाएँ होती हैं जो सामान्य रूप से मूल कारकों में सम्मिलित होती हैं। ये मानसिक क्रियाएँ समूह का निर्माण करती हैं जो मनोवैज्ञानिक एवं क्रियात्मक एकता प्रदान करते हैं। थर्स्टन ने अपने सिद्धान्त को कारक विश्लेषण (Factor analysis) के आधार पर प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार बुद्धि की संरचना कुछ मौलिक कारकों के समूह से होती है। दो या अधिक मूल कारक मिलकर एक समूह का निर्माण कर लेते हैं। जो व्यक्ति के किसी क्षेत्र में उसकी बुद्धि का प्रदर्शन करते हैं। इन मौलिक कारकों में उन्होंने आंकिक योग्यता, प्रत्यक्षीकरण की योग्यता, शाब्दिक योग्यता, दैहिक योग्यता, शब्द प्रवाह, तर्क शक्ति और स्मृति शक्ति को मुख्य माना है।
थर्स्टन ने अनेक प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि बुद्धि निम्नलिखित सात प्राथमिक मानसिक योग्यताओं (Primary mental abilities) का समूह है-
(1) सांख्यिक योग्यता (Number abilities or 'N')
(2)-शाब्दिक योग्यता (Verbal Ability or 'V')
(3) स्थान संबंधी योग्यता (Spatial Ability or 'S')
(4) शब्द प्रवाह योग्यता (Word Fluency Ability or 'W') (5) तार्किक योग्यता (Reasoning Ability or 'R') V..
(6) स्मृति संबंधी योग्यता (Memory Ability or 'M')
(7) (प्रत्यक्ष संबंधी योग्यता (Perceptual Ability or 'P')
इस प्रकार (Intelligence=N+V+S+W+R+M+P) थर्स्टन के सिद्धान्त का आधार सांख्यकीय है।
थर्स्टन ने यह स्पष्ट किया है कि बुद्धि कई प्रकार की योग्यताओं का मिश्रण है जो विभिन्न समूहों में पाई जाती है। उनके अनुसार मानसिक योग्यताएँ क्रियात्मक रूप से स्वतंत्र हैं फिर भी जब ये समूह में कार्य करती हैं तो उनमें परस्पर सम्बन्ध या समानता पाई जाती है। कुछ विशिष्ट योग्यताएँ एक ही समूह की होती हैं और उनमें आपस में सह-सम्बन्ध पाया जाता है। जैसे - भौतिक, रसायन, गणित तथा जीव-विज्ञान, विज्ञान विषयों के समूह में ही आते हैं। इसी प्रकार संगीत कला को प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त हारमोनियम, तबला, गिटार, सितार आदि में भी परस्पर सह-सम्बन्ध है।
5. सामान्य मानसिक योग्यता से क्या तात्पर्य है? स्पीयरमैन के द्वि-खण्ड सिद्धान्त का वर्णन कीजिए। (What is general mental ability? Discuss Spearman's two-factor theory.) [H.S.2015]
अथवा, स्पीयरमैन के बुद्धि सिद्धान्तों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly explain the Intelligence
Theories of Spearman.)
Ans. सामान्य मानसिक योग्यता (General mental ability) :- सामान्य मानसिक क्षमता एक शब्द है जिसका वर्णन उस स्तर का वर्णन करने के लिए किया जाता है जिस पर कोई व्यक्ति सीखता है, निर्देशों को समझता है और समस्याओं का समाधान करता है। सामान्य मानसिक क्षमता के टेस्ट में ऐसे तराजू शामिल होते हैं जो मौलिक, यांत्रिक, संख्यात्मक, सामाजिक और स्थानिक क्षमता जैसे विशिष्ट संरचनाओं को मापते हैं। यह विधार्थी में सोचने, समझने, सीखने तथा विचार अभिव्यक्ति की क्षमता को प्रदर्शित करता है।
द्वि-कारक सिद्धान्त (Bi-factor Theory ) :- ब्रिटेन के मनोवैज्ञानिक स्पीयरमैन ने अपने प्रयोगात्मक अध्ययनों तथा अनुभवों के आधार पर इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार बुद्धि दो शक्तियों के रूप में है, अर्थात् बुद्धि की संरचना में दो कारक सामान्य बुद्धि (General or G-factor) तथा विशिष्ट बुद्धि (Special or S-factor) है। सामान्य कारक से उनका तात्पर्य है कि सभी व्यक्तियों में कार्य करने की एक सामान्य योग्यता होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति कुछ सीमा तक प्रत्येक कार्य कर सकता है। सामान्य कारक व्यक्ति की सम्पूर्ण मानसिक एवं बौद्धिक क्रियाओं में पाया जाता है परन्तु इसकी मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। बुद्धि का यह सामान्य कारक जन्मजात है जो व्यक्ति की सफलता, की ओर इंगित करता है।
व्यक्ति की विशेष क्रियाएँ बुद्धि के एक विशेष कारक द्वारा होती है, जिसे विशिष्ट कारक कहते हैं। किसी विशेष क्रिया में बुद्धि का एक कारक कार्य करता है, दूसरी क्रिया में दूसरा विशिष्ट कारक कार्य करता है। अतः विभिन्न प्रकार की विशिष्ट क्रियाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की विशिष्ट कारकों की आवश्यकता होती है। ये विशिष्ट कारक भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न होती हैं इसलिए वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है। व्यक्ति के विशिष्ट कारक अधिकतर अर्जित होते हैं।
बुद्धि के इस द्वि कारक सिद्धान्त के अनुसार सभी प्रकार की मानसिक क्रियाओं में बुद्धि के सामान्य कारक कार्य करते हैं जबकि विशिष्ट मानसिक क्रियाओं में विशिष्ट कारकों को स्वतंत्र रूप से काम में लिया जाता है। व्यक्ति के एक क्रिया में एक या अनेक विशिष्ट कारकों की आवश्यकता होती है। लेकिन प्रत्येक मानसिक क्रिया में उस क्रिया से सम्बन्धित विशिष्ट कारक के साथ-साथ सामान्य कारक भी आवश्यक होते हैं; जैसे सामान्य विज्ञान या सामाजिक शास्त्र जैसे विषयों को जानने और समझने के लिए सामान्य कारक महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं। वहीं यांत्रिक, हस्तकला या संगीत जैसे विषयों को जानने-समझने के लिए विशिष्ट कारकों की प्रमुख आवश्यकता होती है। इससे स्पष्ट है कि किसी विशेष विषय या कला को सीखने के लिए दोनों कारकों का होना अत्यन्त आवश्यक है।
त्रिकारक बुद्धि सिद्धान्त (Three factor theory of intelligence) :- स्पीयरमैन ने सन् 1911 ई० में अपने पूर्व बुद्धि के द्विकारक सिद्धान्त में संशोधन करते हुए एक और कारक समूह (Group factor) को जोड़कर बुद्धि के त्रिकारक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त में तीन कारक थे सामान्य कारक, विशिष्ट कारक और समूह कारक।
स्पीयरमैन के विचार में सामान्य तथा विशिष्ट कारकों के अतिरिक्त समूह कारक भी मानसिक क्रियाओं में साथ रहता है। कुछ विशेष योग्यताएँ; जैसे, यांत्रिक योग्यता, आंकिक योग्यता, शाब्दिक योग्यता, संगीत योग्यता, स्मृति योग्यता, तार्किक योग्यता तथा बौद्धिक योग्यता आदि के संचालन में समूह कारक भी विशेष भूमिका निभाते हैं। समूह कारक स्वयं अपने आप में कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता बल्कि विभिन्न विशिष्ट कारकों तथा सामान्य कारकों के मिश्रण से यह अपना समूह बनाता है। अतः इसे समूह कारक कहा जाता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसमें किसी प्रकार की नवीनता नहीं। थॉर्नडाइक ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है- समूह कारक कोई नवीन कारक नहीं अपितु यह सामान्य एवं विशिष्ट कारकों का मिश्रण मात्र है।
Vvi***6.परिपक्वता से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा में परिपक्वता के योगदान का वर्णन कीजिए। या, परिपक्वता क्या है? शिक्षा के क्षेत्र में परिपक्वता की भूमिका का वर्णन करें (What do you mean by Maturation? Briefly explain the role of maturation in learning.) Or, What is maturation? Discuss the role of maturation in the field of education.)
Ans. परिपक्वता (Maturation ) :- परिपक्वता या प्रौढ़ता व्यक्ति की स्वाभाविक अभिवृद्धि है जो बिना किसी विशिष्ट परिस्थितियों, जैसे शिक्षा या अभ्यास आदि के अनवरत रूप से चलती रहती है। उदाहरण के लिए एक निश्चित उम्र के बाद पैरों से चलना, बोलना तथा अन्य ऐसे कार्य करना सीखते हैं। विभिन्न बच्चों का वातावरण या परिस्थिति बाहे पृथक हो लेकिन उनमें अभिवृद्धि अवश्य होती है। बच्चे अपने अनुभव के आधार पर अपनी परिस्थिति के अनुसार सीखते है। कोलेसनिक के अनुसार "परिपक्वता और सीखना पृथक प्रक्रियाएं नहीं है वरन् एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध और एक-दूसरे पर निर्भर हैं।"
सीखने या अधिगम में परिपक्वता की भूमिका (Role of Maturation in Learning) :- सीखने और परिपक्वता को लेकर मनोवैज्ञानिक मुख्यतः दो बिंदुओं पर विचार करते हैं -
(क) जो परिपक्वता एक निश्चित आयु में प्राप्त होती है उसे शिक्षण द्वारा सुदृढ़ किया जा सकता है या नहीं ? और
(ख) परिपक्वता कैसे शिक्षण पर प्रभाव स्थापित करती है।
लोवेल (Lovell), मैक्गीक (McGeoch), हिलगार्ड (Hilgard) आदि ने माना है कि परिपक्वता द्वारा जो परिवर्तन होते हैं वे व्यक्ति के शिक्षण को विस्तारित करते हैं; जैसे डेढ़ वर्ष का शिशु बिना किसी दूसरे की सहायता के - चल सकता है। लेकिन अभ्यास द्वारा एक वर्ष के बच्चे को भी चलाया जा सकता है। लेकिन यह पद्धति अपनाना उचित है या नहीं इस पर मनोवैज्ञानिक दो भागों में बँटे हैं। क्योंकि समय से पूर्व प्रशिक्षण द्वारा बच्चों से उसी प्रकार की दक्षता का प्रयोग कराने से उसके ऊपर एक मानसिक दबाव का सृजन किया जाता है। इससे उसके व्यक्तित्व के स्वाभाविक विकास में व्यवधान उत्पन्न होता है। लेकिन इसके विपरीत कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार स्वाभाविक शिक्षण को प्रतीक्षा करने में अपने जीवन में अनेक कुछ सीखने से वंचित हो जाता है और उसकी क्षमता का पूर्ण दोहन नहीं है पाता है।
लेकिन शिक्षण में परिपक्वता के महत्त्व को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एकमत हैं कि शिक्षा के लिए परिपक्वता एक आवश्यक तत्त्व है। शिक्षा से पूर्व यह आवश्यक रूप से जान लेना चाहिए कि शिक्षार्थी में शिक्षण के लिए उपयुक्त परिपक्वता है कि नहीं? प्राचीन भारतीय शिक्षा में इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता था। आज भी प्रायः सभी देशों में शिक्षा ग्रहण करने की एक आयु है, प्रत्येक विषय तथा पाठ्यक्रम के लिए एक आयु निश्चित की गई है। इसका उद्देश्य यह है कि निश्चित उम्र में बच्चे एक निश्चित परिपक्वता को प्राप्त कर लेते हैं। उम्र के साथ बच्चे की परिपक्वता चतुर्दिक होती है जो उसमें जिज्ञासा की सृष्टि करता है। शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य है व्यक्ति के जिज्ञासा की पूर्ति कर शैक्षणिक विकास में सहायता करना।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि शिक्षण में परिपक्वता का काफी महत्व है। शिक्षा ग्रहण से पहले शिक्षार्थी के परिपक्वता स्तर को जान लेना आवश्यक है, क्योंकि परिपक्वता से पहले जोर देकर सीखने को बाध्य करने से लाभ की अपेक्षा हानि होने की संभावना अधिक है।
Lesson-2
2. अधिगम
(सीखने की विधियाँ
(Mechanism of
Learning))
Vvvi.**1-क्रिया प्रसूत अनुकूलन(सक्रिय अनुबंधन )की विशेषताओं को लिखिए। शिक्षा के क्षेत्र में क्रिया-प्रसूत अनुकूलन की भूमिका पर विचार कीजिए। (Write characteristics of operant conditioning. Examine the role of operant conditioning in the field of education.)
[H.S.2019]
Ans. क्रिया प्रसूत अनुकूलन :- जिस अनुबंधन के लिए किसी निश्चित उद्दीपक की आवश्यकता नहीं होती है बल्कि किसी भी उद्दीपक के साथ प्रतिक्रिया घटित होती है लेकिन जिसमें व्यक्ति की सक्रियता आवश्यक हो, उसे क्रिया प्रसूत अनुकूलन कहते हैं। इस क्रिया में शक्तिशाली उद्दीपकों की महती आवश्यकता है।
क्रिया प्रसूत अनुकूलन की विशेषता :- क्रिया प्रसूत अनुकूलता सक्रिय अनुबंधन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) क्रिया प्रसूत अनुकूलन के लिए जीवों की पूर्व उपस्थिति आवश्यक है जो उसे इस प्रकार के अनुबंधन के लिए उपयोगी बनाता है।
(2) इस अनुबंधन में जीवों द्वारा किया गया आचरण, जिससे उसके इच्छा की पूर्ति होती है; स्वतः स्फूर्त होता है।
(3) जीवों की सक्रियता इस अनुबंधन की अन्यतम विशेषता होती है। यही कारण है कि इसे सक्रिय अनुबंधन भी कहते हैं।
(4) क्रिया प्रसूत अनुकूलन के लिए मुख्य या प्रभावी उद्दीपकों की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि स्किनर ने अपने प्रयोग में व्यवहार परिवर्तन के लिए प्रभावी उद्दीपकों को ही प्रयोग में लिया था। प्रभावी या मुख्य उद्दीपक दो प्रकार के होते हैं-
(क) धनात्मक प्रभावी उद्दीपक, जो व्यक्ति के व्यवहार को और प्रभावी बना देते हैं; जैसे-भोजन के इच्छुक व्यक्ति के व्यवहार में धनात्मक प्रभावी उद्दीपक ही होता है।
(ख) ऋणात्मक प्रभावी उद्दीपक, पहले से व्यक्ति के भीतर उपस्थित होते हैं, जैसे अस्वस्थता, शिकायत, प्रशंसा आदि।
(5) कभी-कभी सक्रिय अनुबंधन का लोप हो जाता है। परिणामस्वरूप सही दिशा में क्रिया करने के बाद भी शक्तिशाली उद्दीपकों की सृष्टि नहीं हो पाती है, जिसे अनुबंधन का लोप भी कहते हैं।
(6) सक्रिय अनुबंधन के लोप होने के कुछ दिनों के बाद यदि एक-दो बार फिर से उस प्राणों को प्रभावी उहीपक दिए जाएँ, तो पुनः सक्रिय अनुबंधन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(7) क्रिया प्रसूत अनुबंधन के व्यवहार के स्थायित्व की निर्भरता उसके उद्दीपकों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अनुबंधन की भूमिका (Role of Operant Conditioning in field of Educa
tion) :- वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अनुबंधन का काफी उपयोग हो रहा है। इनमें प्रमुख है-
(i) परिकल्पित शिक्षण विधि (Planned education system) :- परिकल्पित शिक्षण विधि से तात्पर्य है। विषय-वस्तु को छोटे-छोटे कई भागों में बाँटकर उसका अध्ययन करना। यहाँ उस विषय को जिसे छात्र सीखते हैं, के छोटे-छोटे अंश को 'फ्रेम' कहते हैं। छात्र प्रत्येक 'फ्रेम' या 'अंश को क्रम से सीखते हैं। यहाँ प्रत्येक भाग में प्रश्न होते हैं जिसका उत्तर दिए बिना छात्र दूसरे अंश में नहीं जा सकते हैं। इस प्रकार छात्र पूरे विषय का हो ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। आज विभिन्न शिक्षण क्षेत्रों में यह विधि व्यवहत हो रही है।
(ii) व्यवहार परिवर्तन (Change in behaviour) :- शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार में विकासात्मक परिवर्तन करना होता है। जैसे-गलत आदतों को दूर करना, भूल लिखने या उच्चारण में सुधार आदि।
सक्रिय अनुबंधन की मुख्य सिद्धांत विन्यासीकरण (shaping) है अर्थात् एक शक्तिशाली या प्रभावी उद्दीपक का इस प्रकार प्रयोग करना कि बच्चों में अवांछित गुण या व्यवहार धीरे-धीरे समाप्त हो जाए। इस सब के अलावा भी सक्रिय अनुबंधन का निम्न दो रूपों में प्रयोग किया जा सकता है-
(क) सक्रिय उद्दीपकों के सहयोग से शिक्षण के प्रति उत्पन्न भय तथा अरुचि को दूर किया जा सकता है।
(ख) छात्र अपने आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए शक्तिशाली उद्दीपकों के माध्यम से तत्काल आचरण या व्यवहार में बदलाव या दृढ़ता ला सकते हैं।
Vvi**2)-शिक्षा के क्षेत्र में पारम्परिक अनुकूलन के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए अनुबंधन से आप क्या समझते? (Discuss the importance of classical conditioning in educational field. What do you mean by deconditioning?) [H.S.2018]
Ans. शिक्षा में प्राचीन अनुबंधन क्रिया की उपयोगिता (Educational Implications of Classical Con ditioning) :- सभी जीवधारियों (चाहे निम्न श्रेणी के जीव हों या मनुष्य) के शिक्षण में पावलव की अनुबंधन सिद्धांत की उपयोगिता प्रमाणित हो चुकी है। शिक्षण में इस क्रिया की सामान्य उपयोगिता निम्नलिखित है-
(i) बच्चों के भाषा शिक्षण में (In linguistic education of a child) :- बच्चों के भाषा शिक्षण में यह क्रिया काफी महत्त्वपूर्ण है। बच्चे को भाषा का ज्ञान कराते समय किसी एक वस्तु या व्यक्ति को दिखाकर किसी एक शब्द का बार-बार उच्चारण करने से बच्चा उस शब्द से अनुबंधित हो जाता है और वह शब्द अर्थ के साथ उसके शब्द भण्डार में जुड़ जाता है। जैसे किसी स्वी विशेष को दिखाकर माँ शब्द का उच्चारण करने पर वह स्त्री ही उस बच्चे के लिए माँ हो जाती है।
(ii) बच्चों के शिक्षण में (Education of a child) :- छोटे बच्चों के आरम्भिक शिक्षण विशेषकर उसके वर्णमाला ज्ञान, अक्षर ज्ञान, शब्द रचना ज्ञान, नाम सीखने आदि में अनुबंधन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
(iii) बच्चों में आदतों का निर्माण (To build habits in a child) :- बच्चे कई नई आदतों को सीखते रहते हैं, इसके लिए प्राचीन अनुबंधन क्रिया विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि बच्चे में किसी नई आदतों का निर्माण करने के लिए अनुबंधन की कला का प्रयोग किया जाता है। लेकिन वयस्क व्यक्ति में किसी आदतों के निर्माण में अनुबंधन की क्रिया प्रभावी नहीं है।
(iv) बुरी आदतों का त्याग (Escape of bad habits) :- अनुबंधन अगर अच्छी आदतों के निर्माण की शर्त है तो बच्चों में पनपने वाली बुरी आदतों के त्याग में भी सहायक सिद्ध होती है। जैसे:-लिखावट में मात्रा सम्बन्धी भद्दे तथा अश्लील शब्दों का प्रयोग, भाव-भंगिमाओं में त्रुटि आदि दोषों को अनुबंधन के प्रयोग द्वारा दूर करने में सहायता मिलती है।
(v) भावावेगों का विकास (To develop emotions) :- मनुष्य में कई प्रकार के आवेगों का विकास होता है। जिसके लिए अलग-अलग भाव उद्दीपक का कार्य करते हैं। वास्तव में मनुष्यों में उत्पन्न ये भावावेग अनुबंधन के ही परिणाम हैं।
(vi) बच्चों में इच्छा या अनिच्छा की सृष्टि (To create the interest or un-interest in a child) :- क्रमिक शिक्षा के क्रम में विभिन्न विषयों के प्रति छात्रों में होने वाली रुचि या अरुचि वास्तव में अनुबंधन की ही प्रक्रिया है। कभी-कभी शिक्षक-शिक्षिका के प्रति बच्चों में रुचि या अरुचि का भाव जाग्रत होने पर उसी के अनुसार उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषयों के प्रति भी भाव जाग्रत हो जाते हैं। इस विषय में अध्यापकों को सतर्क रहना होगा और अनुबंधन क्रिया द्वारा विषय के प्रति रुचि को भी बनाए रखना होगा।
(vii) शिक्षकों का व्यवहार और अनुबंधन (Behaviour of a teacher and the conditioning) :- बच्चों में अध्यापकों के आचार-विचार, वेश-भूषा, आदत तथा आचरण के कारण उनसे श्रद्धा, प्रेम, भय, घृणा जैसे भावों का अनुबंध हो जाता है। कक्षा के भीतर या बाहर शिक्षक का आधार-व्यवहार, आदतें आदि छात्रों के प्रति ऐसी होनी चाहिए कि अनुबंधन के द्वारा छात्रों में अच्छी आदतों का संचार हो सके।
अनुबंधन (Conditioning) :- व्यक्ति में किसी निरपेक्ष या वैकल्पिक उद्दीपक के सहयोग से नए व्यवहार के सृजन को ही अनुबंधन कहते हैं। मनोवैज्ञानिक ड्रेवर (Drever) के अनुसार स्वभाविक उद्दीपक को छोड़कर अन्य किसी उद्दीपक, वस्तु या परिस्थिति द्वारा स्वाभाविक क्रिया घटित होने की स्थिति को ही अनुबंधन (conditioning) कहते हैं।
Most important
Vvvi***3). थॉर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित सीखने के मुख्य नियमों को लिखें। सीखने के किन्हीं दो मुख्य नियमों का शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्व का वर्णन करें। (Mention the major laws of learning as enunciated by Thorndike. Discuss the importance of any two major laws of learning in the field of education.)
[H.S.2016]
Ans. थॉर्नडाइक के सीखने के नियम (Thorndike's Learning Principles) :- ई. एल. थॉर्नडाइक, अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक, ने सीखने के कुछ नियमों की खोज की जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है-
(क) मुख्य नियम (Primary Laws) :- सीखने के मुख्य तीन नियम हैं जो इस प्रकार हैं-
1. तत्परता का नियम (Law of Readiness) :- इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं वह उसे शीघ्र ही सौख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या उसकी सीखने की इच्छा नहीं होती है तो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।
2. अभ्यास का नियम (The Law of Exercise) :- इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है, उसे शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगता है। जैसे :- गणित के प्रश्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग का नियम (Law of Use and Dismiss) भी कहते हैं।
3. प्रभाव का नियम (Law of Effect) :- इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने से व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख तथा संतोष मिलता है, उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है, उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख का सिद्धांत या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।
(ख) गौण नियम (Secondary Laws ) :- थॉर्नडाइक ने सोखने के पाँच गौण नियम बताएँ है, जो निम्नलिखित हैं-
1. बहु अनुक्रिया नियम (The Law of Multiple Response) :- इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाएँ कर हल ढूंढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियाएँ तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्या सुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है। थॉर्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम (Law of Attitude) :- इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।
3. आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity ) :- इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियाएँ प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंतर्दृष्टि का उपयोग कर आंशिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूंढ लेता है।
4. समानता का नियम (Law of Assimilation) :- इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति के पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाए जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सोखने में मदद करते हैं।
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम (Law of conditioned response or Law of Association) :- इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-भोजन सामग्री को देख कर कुते के मुँह से लार टपकने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तन को ही देखकर लार टपकने लगती है।
सीखने के मुख्य नियमों का शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्व:-
1. पाठ्य सामग्री विशेषकर कठिन विषयों को शिक्षक बार-बार दुहराते हैं।
2. अनुपयोगी होने से छात्र विषय को भूल न जाएँ इसलिए शिक्षक को विशेष प्रयत्नशील रहना चाहिए।
3. नवीन विषय को पढ़ाने में 'जानने से अनजाने' की ओर जाने की विधि को इसलिए प्रयोग में लाया जाता है कि पूर्वज्ञान के प्रति रुचि और जिज्ञासा बनी रहे।
Vi.**4) अंतर्दृष्टि या सूझ से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by Insight Learning?अंतर्दृष्टि शिक्षण से सम्बन्धित कोहलर के प्रयोग का वर्णन करें। (Explain the Kohlar's experiment related to the Insight Learning.)अंतर्दृष्टि या सूझ शिक्षण का शिक्षा में महत्त्व लिखें। (Write the education implications of insight learning in education)
Ans-अंतर्दृष्टि या सूझ शिक्षण (Insight Learning) :- वर्दीमर (Wertheimer), कुपका (Koffka), कोहलर (Kohler) आदि गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने समग्रतावादी शिक्षण कौशल सिद्धांत की व्याख्या की है। कोहलर अपने चिम्पांजी पर किए गए प्रयोग के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राणी सदैव प्रयास और भूल से नहीं सीखता है। समग्र परिस्थिति के साथ समस्या की उपस्थिति के बाद प्राणी समस्या का समाधान करता है और यह प्रतिक्रिया अचानक से होती है। यह अंतर्दृष्टि या सूझ कहलाती है। संक्षेप में, जब किसी समस्या का निराकरण करते समय अचानक ही कोई हल दिमाग में आता है, तब प्रत्यक्षीकरण में तीव्र गति से होने वाला परिवर्तन सूझ कहलाती है। गुड के अनुसार :- "अंतर्दृष्टि या सूझ वास्तविक स्थिति का आकस्मिक, निश्चित और तात्कालिक ज्ञान है।" कोहलर के अनुसार :- "एक से अधिक तकनीकी अर्थ में सूझ किसी समस्या के समाधान को एकाएक पकड़ लेता है जिससे प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा जो परिस्थिति के अनुसार चलती है और समस्या का समाधान प्रत्यक्ष ज्ञान के संदर्भ में लाती है।"
कोहलर का अंतर्दृष्टि या सूझ से सम्बन्धित प्रयोग (Kohlar's experiment of Insight Learning) :- कोहलर ने अपने प्रयोग को दो चरण में किए :-
प्रथम चरण :- कोहलर ने अपने प्रयोग के लिए एक बड़े चिम्पांजी को कटघरे में बंद कर दिया। कटघरे के ऊपर से केले को इस प्रकार रखा गया कि साधारण अवस्था में वह चिम्पांजी की पहुँच से बाहर था। खाने की इच्छा से चिम्पांजी ने केले की ओर कई बार छलांग लगाया लेकिन हर बार असफल रहा। फिर कोहलर ने बक्से को केले के नीचे रखा और फिर उस चिम्पांजी ने उसपर खड़े होकर केले को प्राप्त कर लिया। पुनः दूसरे दिन यही प्रयोग दुहराया गया तो चिम्पांजी केले के लिए छलांग लगाने लगा। तभी उसकी नजर अंदर पड़े लकड़ी के बक्से पर पड़ी और उसने एक बक्से को खींचकर वहाँ रखा जहाँ केले झूल रहे थे। बक्से पर खड़े होकर उसने केले को प्राप्त कर लिया और फिर बक्से को वहीं रख दिया जहाँ से खींचकर लाया था। अपने प्रयोग के समय कोहलर ने अन्य कई चिम्पांजियों को भी कटघरे के बाहर रखा जो इस प्रचेष्टा को देख रहे थे।
फिर एक दिन कोहलर ने अपेक्षाकृत मंदबुद्धि के एक चिम्पांजी को कटघरे में रखकर केले को यथास्थान लटका दिया। उसने साथी चिम्पांजियों को कई बार केले को प्राप्त करते हुए देखा था लेकिन वह कुछ भी सीख नहीं पाया था। वह बक्से को खींचकर लाने की बजाए केवल छलांग लगाकर केले प्राप्ति का प्रयास कर रहा था। इस प्रयोग से कोहलर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि, सीखने के लिए परिस्थिति की समग्रता के साथ सम्पर्क स्थापित करना आवश्यक है। क्योंकि प्रथम क्षेत्र में चिम्पांजी को जब तक नहीं बताया गया कि केला कैसे प्राप्त किया जा सकता है? वह केले और बक्से में सम्पर्क स्थापित नहीं कर सका था। दूसरे क्षेत्र में मंद बुद्धि चिम्पांजी बक्से को देखने और छलांग लगाने के अलावा कुछ भी नहीं समझ पाया। अर्थात् वह सामग्रिक परिस्थिति के अध्ययन में असफल रहा और केले को प्राप्त न कर सका।
दूसरा चरण :- दूसरे चरण में कोहलर ने सुल्तान नाम के एक बुद्धिमान चिम्पांजी को एक बड़े कटघरे में लकड़ी के दो बक्से को रखकर बंद कर दिया। इस बार केले अधिक ऊँचाई पर लटकाए गए थे। सुल्तान कई असफल प्रयास के बाद केला प्राप्त नहीं कर पा रहा था फिर उसने बक्सों को एक के ऊपर एक को रखकर आसानी से केले प्राप्त कर लिया। यहाँ सुल्तान एक बक्से का दूसरे बक्से से सम्बन्ध स्थापित करने में सफल रहा।
फिर कोहलर ने कटघरे में बक्सों के साथ एक छड़ी भी रख दिया और केले इस प्रकार लटकाए कि वह दोनों बक्से के प्रयोग के बाद भी उसे प्राप्त न हो सके। लेकिन काफी देर तक दोनों बक्से को जोड़कर छलांग लगाने के बाद अचानक चिम्पांजी ने डण्डे का प्रयोग कर केला प्राप्त कर लिया। अब कोहलर ने दो छड़ी रख दी और केले और ऊँचाई पर लटका दिया। कुछ असफल प्रयोग के बाद चिम्पांजी डण्डों से खेलने लगा और अचानक दोनों डण्डों का सिरा आपस में फँसने से लम्बा हो गया तथा वह केले प्राप्त करने में सफल हो गया।
निष्कर्ष (Conclusion) :- इस प्रकार कोहलर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि चिम्पांजी ने सीखने के लिए प्रयास और त्रुटि विधि का प्रयोग नहीं किया। बल्कि अंतः दृष्टि या सूझ द्वारा सीखने के क्रम में उसने परिस्थिति का अपने समग्र रूप में प्रत्यक्षीकरण किया, उपलब्ध सामग्री तथा समस्या के सभी पहलुओं का पूर्ण तथा गम्भीरतापूर्वक विश्लेषण करने के बाद उनमें सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया तथा अंत में समस्या और उससे सम्बन्धित पहलुओं को समझने के बाद उसका हल तुरंत उसके मस्तिष्क में आया और वह सीखने में सफल रहा।
अंतर्दृष्टि या सूझ शिक्षण का शिक्षा में महत्त्व (Education implications of insight learning in education) :- 1. छात्र अंशों को नहीं बल्कि समग्र परिस्थिति को पहले समझता है। अतः किसी समस्या का प्रस्तुतीकरण आंशिक रूप की बजाय उसके समग्र रूप में करना चाहिए। 2. यह विधि शिक्षार्थियों को कल्पना, तर्क तथा विचार- शक्ति के लिए उचित अवसर प्रदान करता है। 3. इस विधि में बच्चे स्वयं के प्रयास से ज्ञान अर्जित करने के प्रति उत्सुक होते हैं तथा किसी विशेष परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान को सामान्यीकरण द्वारा मस्तिष्क में व्यवस्थित कर उन्हें सीखते हैं। 4. यह विधि कठिन विषयों जैसे-गणित, विज्ञान आदि के अध्ययन में विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ है। 5. उच्चस्तरीय शिक्षा में शीघ्र कार्यों में यह विधि अधिक उपयोगी तथा आवश्यक सिद्ध होती है। 6. शिक्षक को छात्रों के सम्मुख किसी समस्या को उसके पूर्ण रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। 7. शिक्षकों को इस विधि के लिए तत्परता के नियम को ध्यान में रखते हुए शिक्षण परिस्थिति को ग्रहण करने के लिए तैयार रहना चाहिए। 8. इस विधि के लिए छात्रों को तब तक प्रोत्साहित करते रहना चाहिए जब तक सूझ द्वारा समस्या का समाधान न हो जाए। 9. यह सिद्धांत अनुभवों के संगठन एवं पूर्णता पर बल देता है, इसलिए शिक्षकों को छात्रों के अनुभवों को संगठित करने में सहायता करनी चाहिए। 10. रटे-रटाए ज्ञान की अपेक्षा यह सिद्धांत समस्या के स्वयं द्वारा समाधान पर जोर देता है। इस प्रकार यह सिद्धांत शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन को जन्म देता है।
3. शैक्षिक सांख्यिकी
(Statistics in
Education)
5. विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग
(University Education
Commission)
Vvi.***1) स्वतंत्र भारत का प्रथम शिक्षा कमीशन क्या था ? इस कमीशन द्वारा प्रस्तावित उच्च शिक्षा के उद्देश्यों का संक्षिप्त वर्णन करें। (What is the first education commission in independent India? Discuss in short the aims of higher education as recommended by this commission.) [H.S.2016]
Ans. स्वतंत्र भारत का पहला शिक्षा कमीशन विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधाकृष्णन कमीशन था।
उच्च शिक्षा के लक्ष्य तथा उद्देश्य (Aims and Objectives of Higher Education) :- विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अपने प्रतिवेदन में उच्च शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है- "एक स्वाधीन प्रजातांत्रिक देश की • उन्नति को ध्यान में रखकर इस देश की शिक्षा व्यवस्था को पुनर्गठित करना होगा। अर्थात् सामान्य शिक्षा, विज्ञान शिक्षा, पेशागत शिक्षा सहित विभिन्न शिक्षा के क्षेत्रों के स्तर को ऊंचा उठाने के साथ ही उसे उपयोगी बनाना होगा। विश्वविद्यालय के छात्र ही इस देश को आनेवाले दिनों में नेतृत्व देंगे तथा उसे संचालित करेंगे। देश की राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षमता का वही संचालन करेंगे अतः विश्वविद्यालय शिक्षा द्वारा उन्हें एक योग्य नागरिक बनाना होगा। छात्रों में श्रद्धाभाव जागृत करना, स्वयं के प्रति विश्वास पैदा करना, देश के कल्याण के मार्ग को चुनना, सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव, देशवासियों के प्रति भ्रातृत्व तथा न्यायिक मूल्यबोध की स्थापना ही उच्च शिक्षा का उद्देश्य होगा। छात्र, प्रकृति-शिक्षा द्वारा भारत के संवाहक बनकर देश को प्रगति के पथ पर अग्रसारित करेंगे जिससे देश समृद्धिशाली बनेगा।" उच्च शिक्षा आयोग द्वारा उच्च शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्यों को वर्णित करते हुए जो विचार प्रस्तुत किए गए उनमें निम्नांकित प्रमुख थे-
(1) भारत ने एक गणतांत्रिक, सार्वभौमिक, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्वयं को स्थापित किया है। अत: देश के प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक, सामाजिक न्याय, व्यक्तिगत विचार तथा धार्मिक स्वतंत्रता एवं सभी क्षेत्रों में समान अधिकार तथा सुविधा, आत्मसम्मान की प्रतिष्ठा, एकता, भातृत्त्वबोध (Fraternity) एवं नागरिकों की सुरक्षा के सभी दायित्वों का नियमानुकूल पालन के लिए आदर्श शिक्षा द्वारा शिक्षित करना होगा।
(2) विश्वविद्यालय शिक्षा द्वारा छात्र राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से दक्षता प्राप्त कर देश को योग्य नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम बन सकेंगे।
(3) विश्वविद्यालय शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाना होगा। अर्थात् विश्वविद्यालय शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्र अपने-अपने क्षेत्र में योग्य प्रतिनिधित्व कर सकेंगे। भारतीय संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र, जैसे साहित्य, संस्कृति, विज्ञान,कला आदि को वे संरक्षित और विकसित कर सकेंगे।
(4) आयोग द्वारा, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सभी मनुष्य को समान अधिकार और सुविधा प्रदान करने की बात कही गई अर्थात् एक प्रजातांत्रिक देश में जाति, धर्म, वर्ण तथा नस्ल के भेद-भाव के बिना सभी क्षेत्र में व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त होगा। उच्च शिक्षा समाज के प्रभावशाली तथा विद्वान लोगों का एकाधिकार न बन जाए इसके लिए विशेष ध्यान रखा गया अर्थात् शिक्षा क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक हस्तक्षेप को दूर रखने का प्रयास किया गया। सभी को शिक्षा ग्रहण करने के लिए समान अधिकार की बात कही गई।
(5) भारत की सभ्यता काफी प्राचीन है। कई शताब्दियों से प्रतिकूलता, त्याग और संघर्ष द्वारा हम अपनी सभ्यता को सुरक्षित रख सके हैं। अतः हमारी सभ्यता और संस्कृति हमारा गौरव है। हमें इसे बचाए रखना है और आने वाली पीढ़ियाँ इसे शिक्षा द्वारा ही सुरक्षित रख सकती हैं। उच्च शिक्षा द्वारा ही छात्र अपने संस्कृति के संरक्षक तथा वाहक बन सकते हैं।
(6) उच्च शिक्षा द्वारा छात्र देश तथा समाज की विभिन्न समस्याओं का ज्ञान प्राप्त कर उसके समाधान के प्रति सचेष्ट हो सकते हैं। देश का विकास उसके आर्थिक उन्नति पर निर्भर करता है। अतः शोध कार्यों द्वारा छात्र देश की सम्पदा के सही उपयोग के प्रति आग्रही होंगे। देश के साधारण शिक्षा, यांत्रिक शिक्षा, पेशागत शिक्षा आदि प्रत्येक क्षेत्र में उच्च शिक्षा को उन्नत तथा शोध कार्यों के लिए अनुकूल सुविधा प्रदान करना होगा।
(7) उच्च शिक्षा के उद्देश्य के सम्बन्ध में आयोग ने उल्लेख किया है कि छात्रों में वैश्विक सामंजस्य की एक भावना उत्पन्न होगी जो समग्र रूप में विश्व के साथ एकता तथा सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होगी। अतः भारत के उच्च शिक्षा के प्रति छात्रों के मन में ज्ञानोन्मेष का संचार करना होगा ताकि विभिन्न ज्ञान के बीच एक सामंजस्य स्थापित हो सके।
आयोग के अनुसार - "Education is both a training of minds, training of souls, it should give both knowledge and wisdom."
(8) भारत के गणतांत्रिक स्वरूप को सुदृढ़ करना शिक्षा का मूल उद्देश्य है। विश्वविद्यालयों में शिक्षा के माध्यम से छात्रों में गणतांत्रिक विचारों का सृजन करना होगा तभी देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायिक क्षेत्र में प्राकृतिक समानता की स्थापना हो सकेगी।
Vvi.***2)ग्रामीण विश्वविद्यालय से सम्बन्धित विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सिफारिशों की चर्चा करें। (Discuss the recommendations of University Education Commission regarding 'Rural University')[H.S. 2018] या, विश्वविद्यालय शिक्षा कमीशन ने ग्रामीण विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किए हैं, उनकी संक्षिप्त विवेचना करें। (Explain briefly the views of University Education Commission related to the Rural University.)
या ग्रामीण विश्वविद्यालय से आप क्या समझते हैं? विश्वविद्यालय आयोग द्वारा ग्रामीण विश्वविद्यालय के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम का वर्णन करें। (What do you understand by the Rural University ? Explain the curriculum prescribed by the University Education Commission for the Rural University.)
Ans. ग्रामीण विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (Rural University and the University Education Commission) :- विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की सिफारिशों में ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना करना काफी महत्वपूर्ण सुझाव था। आयोग का मानना था कि भारत के हजारों-हजार गाँवों को उन्नत किए बिना देश की आर्थिक समृद्धि सम्भव नहीं है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, अतः कृषि का विकास करने के लिए कृषि पर आधारित पेशागत शिक्षा का विकास आवश्यक है। आयोग का विचार था कि जैसे हजारों ग्रामीण बेरोजगार युवकों को शिक्षित करना सम्भव है, उसी प्रकार उनके आर्थिक सामाजिक उन्नति द्वारा भारत के गाँवों का भी विकास सम्भव है। एक स्वाधीन देश के लिए सबसे आवश्यक है देश को संसाधनों की पूर्णता की ओर अग्रसारित किया जाए। आयोग ने अपना विचार प्रकट करते हुए स्पष्ट कहा है- "साधारणतया उच्च शिक्षा के लिए जो विश्वविद्यालय देश में मौजूद हैं उनसे केवल शहरों में निवास करने वाले छात्रों के हितों की रक्षा हो सकती है। समाज के एक विशेष तबके के व्यक्ति को ही इस शिक्षा का लाभ मिल सकता है, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर गाँवों में वास करने वाले असंख्य लोग इससे वंचित ही रह जाते हैं।" इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए आयोग ने ग्रामीण विश्वविद्यालयों (Rural Universities) की स्थापना का सुझाव दिया था।
ग्रामीण शिक्षा से सम्बंधित निम्न चार स्तरों की सिफारिश की गयी थी-
(i) प्राथमिक शिक्षा (Primary Education) :- प्राथमिक स्तर पर 7 से 8 वर्षों के बुनियादी शिक्षा (Basic Elementary education) का प्रावधान किया गया।
(ii) माध्यमिक शिक्षा (Secondary or Post Basic education) :- द्वितीय स्तर पर 3-4 वर्षों के उच्च- बुनियादी शिक्षा या माध्यमिक शिक्षा का प्रावधान किया गया। प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय आवासीय होंगे तथा जिसे केंद्र में रख कर एक आदर्श गाँव की स्थापना होगी। प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय के लिए निर्धारित 30 से 60 एकड़ भूमि में आवासीय विद्यालय, खेल का मैदान, कृषि योग्य भूमि, विभिन्न शिल्प के लिए जगह, पशुओं को चराने के लिए चारागाह, छात्रावास, शिक्षकों के लिए आवास आदि का प्रावधान होगा। प्रत्येक विद्यालय में छात्रों की अधिकतम संख्या 150 होगी तथा बच्चों को पाठ्यक्रम में 50% तात्विक तथा 50% व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाएगी।
(iii) कॉलेज शिक्षा (College Education) :- ग्रामीण छात्रों के लिए कॉलेज शिक्षा, शहरी विश्वविद्यालयों के डिग्री कोर्स के ही अनुरूप 3 वर्षों का होगा। कई ग्रामीण माध्यमिक विद्यालयों को केंद्रित कर एक ग्रामीण कॉलेज स्थापित होंगे जिसमें छात्रों की अधिकतम संख्या 300 होगी।
(iv) विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा (University Education) :- माध्यमिक शिक्षा के बाद क्रम से ग्रामीण कॉलेज (Rural College) और ग्रामीण विश्वविद्यालयों (Rural Universities) की स्थापना होगी। विश्वविद्यालयों के अधीन कई आवासीय स्नातक ग्रामीण कॉलेज होंगे। ग्रामीण विश्वविद्यालयों में भी स्नातकोत्तर (Post-graduation) पाठ्यक्रम 2 वर्षों का होगा।
ग्रामीण विश्वविद्यालयों की स्थापना से सम्बन्धित किसी सुनिर्दिष्ट योजना की बात विश्वविद्यालय आयोग द्वारा नहीं की गई है। लेकिन इस सम्बन्ध में जो बातें कही गई है, उसके आधार पर प्राथमिक शिक्षा बुनियादी शिक्षा के साथ संयुक्त होगी। माध्यमिक तथा उच्च बुनियादी स्तर पर आवासीय विद्यालयों की बात कही गई है, जिसे केंद्रित कर एक आदर्श गाँव स्थापित हो जाएगा। विद्यालयी शिक्षा के साथ ही समाजोत्थान एवं ग्रामीण परिकल्पना के साथ छात्र सक्रिय भागीदारी करते हुए ग्रामीण भाव-धारा से युक्त होकर स्वयं को आदर्श नागरिक बनाने के प्रति सचेष्ट होंगे। इस प्रकार के कई ग्रामीण विद्यालयों की स्थापना की जाएगी। क्षेत्रीय आवश्यकता के अनुरूप कॉलेज और विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में विविधता भी देखने को मिलेगी। आयोग ने ग्रामीण विश्वविद्यालय के दायित्व तथा कार्यसूची की जो रूपरेखा प्रस्तुत किया है, वे इस प्रकार है-
(i) विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को ठीक से देखने-समझने के बाद ही ग्रामीण विद्यालय या कॉलेजों का अनुमोदन किया जाए।
(ii) ग्रामीण शिक्षण संस्थान आवासीय होंगे जहाँ छात्रों की संख्या पहले से निश्चित होगी। आयोग ने अपने रिपोर्ट में ग्रामीण कॉलेजों में छात्रों की संख्या 300 निर्धारित किया है।
(iii) ग्रामीण विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में विभिन्न शैक्षणिक विषय, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ ही संलिप्त होंगे।
(iv) ग्रामीण अर्थव्यवस्था, संस्कृति तथा समाज व्यवस्था एवं ग्रामीण शिल्पों पर आधारित विषय जिसके आधार पर पाठ्यक्रमों का निर्माण होगा उसपर गवेषण (अनुसंधान) करना होगा ताकि वे विभिन्न शिल्पों के उत्पादन वृद्धि में सहायक सिद्ध होकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक बन सकें।
(v) ग्रामीण जीवन से युक्त विभिन्न शिक्षानुरागी लोगों से ग्रामोत्थान में सहायक विषय तथा तथ्यों का संग्रह कर विश्वविद्यालय को उन पर आधारित कार्यशैली को क्रियान्वित करना होगा।
महात्मा गाँधी के बुनियादी शिक्षा योजना के महत्व को स्वीकारते हुए विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने ग्रामीण विश्वविद्यालयों की परिकल्पना की थी। आयोग का विचार था कि बुनियादी शिक्षा व्यवस्था के क्रियान्वित होने पर निचले स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा प्रसार में तीव्रता आएगी। लोग शिक्षा सम्बन्धी परिकल्पनाओं की सार्थकता को समझ सकेंगे और बुनियादी शिक्षा तथा दक्षिणपंथी शिक्षा परिकल्पनाओं का फल प्राप्त होने लगेगा।
6. माध्यमिक शिक्षा आयोग
(Secondary Education
Commission, 1952-53)
Most important
Vvi**.-1-शिक्षा के सात समूह प्रणाली द्वारा मुदालियर कमीशन ने माध्यमिक शिक्षा के जो पाठ्यक्रम निर्धारित किए हैं, उनका संक्षिप्त वर्णन करें। या, मुदालियर कमीशन ने पाठ्यक्रम में जिन सात समूह प्रणालियों की सिफारिशें की हैं उनका संक्षिप्त वर्णन करें। (Describe briefly the curriculum of secondary education through the seven stream of learning as prescribed by the Mudaliar Commission.) [H.S.2018]
Ans. शिक्षा के सात समूह (Seven stream of education) :- आयोग ने अपनी सिफारिशों में उच्च तथा उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के लिए निर्धारित ऐच्छिक विषयों के चयन के लिए उसे सात समूह प्रणालियों में विभक्त किया. है। छात्रों के लिए इन विभागों में से अपनी रुचि के अनुसार किन्हीं तीन विषयों के चयन का आयोग ने सुझाव दिया है। ये सात समूह प्रणाली या विभाग इस प्रकार हैं-
1. कला विभाग (Humanities Stream ) :- इस विभाग के पाठ्यक्रम में प्राचीन भारतीय भाषा या तृतीय भाषा के रूप में अन्य एक भाषा जिसका चयन छात्र अपनी रुचि से कर सकें, इतिहास, भूगोल, अर्धशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र, संगीत, गृह विज्ञान (केवल लड़कियों के लिए) को शामिल किया गया।
2. विज्ञान विभाग (Science stream ) :- इस विभाग में भौतिक या पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान, जैव विज्ञान,भूगोल, गणित और शारीरिक शिक्षा को रखा गया।
3. कारीगरी विभाग (Technical stream) :- इस विभाग के अन्तर्गत व्यावहारिक गणित और ज्यामिति, व्यावहारिक विज्ञान तथा यांत्रिक विज्ञान से सम्बन्धित विषयों को रखा गया।
4. वाणिज्य विभाग (Commerce stream ) :- इसके अन्तर्गत वाणिज्यिक व्यावहारिक ज्ञान, सामान्य लेखाशास्त्र, व्यावसायिक भूगोल, नागरिकशास्त्र, संक्षिप्ताक्षर (Shorthand) टाईपिंग को रखा गया।
5. कृषि विभाग (Agriculture stream ) :- सामान्य कृषि शिक्षा, बागबानी, कृषि रसायन आदि को इस विभाग के विषयों में सम्मिलित किया गया।
6. चित्रांकन तथा हस्तकला विभाग (Fine Arts stream):- विभिन्न कलाओं का इतिहास, चित्रांकन तथा मानचित्र, संगीत तथा अभिनय, मॉडलिंग, नृत्य शिक्षा आदि को इस विभाग में शामिल किया गया।
7. गृहस्थ शिक्षा विभाग (Domestic stream) :- गृह अर्धनीति, खाद्य तथा पोषण, शिशु तथा प्रसूति कल्याण, शिशु पालन, गृह परिचालन तथा नर्सिंग आदि को इस विभाग में रखा गया। यह भी व्यवस्था की गई कि इन विभागों में से छात्र एक अतिरिक्त ऐच्छिक विषय (चौधे विषय के रूप में) का भी चयन कर सकते हैं, जो उनके सम्पूर्ण मूल्यांकन में युक्त नहीं होगा।
Vvi.**2-मुदालियर आयोग द्वारा प्रस्तावित परीक्षा और मूल्यांकन व्यवस्था का संक्षिप्त वर्णन करें। (Discuss the examination and evaluation system as recommended by Mudaliar commission.)
[H.S.2016]
Ans. परीक्षा व्यवस्था और मूल्यांकन में सुधार से सम्बन्धित मुदालियर कमीशन की सिफारिशें (Recommendations of Mudaliear Commission related to the remedy in education system and evaluation) :-परीक्षा व्यवस्था शिक्षा का एक अपरिहार्य उपादान है। लेकिन प्रचलित भारतीय शिक्षा प्रणाली में अनेक दोषों की ओर इशारा करते हुए मुदालियर कमीशन ने परीक्षा व्यवस्था में व्यापक तथा महत्त्वपूर्ण सुधारों की सिफारिश की है। वे हैं -
(1) आयोग ने बाह्य परीक्षा (External Examination) के महत्त्व को कम करते हुए छात्रों के आंतरिक मूल्यांकन पर जोर दिया है। केवल उच्च माध्यमिक (10वीं कक्षा में छात्रों के एक वाह्य परीक्षा का सुझाव आयोग ने दिया है।
(2) आयोग के अनुसार दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों से छात्रों का सम्पूर्ण मूल्यांकन नहीं हो पाता है, अत: आयोग ने अपनी सिफारिशों में दीर्घ उत्तरीय तथा रचनाधर्मी प्रश्नों के स्थान पर संक्षिप्त तथा वस्तुनिष्ठ प्रश्नों में समायोजन का प्रस्ताव दिया है।
(3) आयोग ने प्रचलित प्रश्न-पत्रों के प्रारूप में भी परिवर्तन का सुझाव दिया है।
(4) आयोग ने परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक अंकों की प्राप्ति को बढ़ाने की भी सिफारिश की है, जिससे छात्र शिक्षा के प्रति अधिक जागरूक और लगनशील बन सकें।
(5) छात्रों के वार्षिक मूल्यांकन तथा समग्र विकास को ध्यान में रखते हुए आयोग ने प्रत्येक विद्यालय में प्रत्येक छात्रों के लिए अलग-अलग रिकॉर्ड रखने का भी सुझाव दिया है, ताकि छात्रों का समग्र मूल्यांकन किया जा सके।
(6) आयोग ने परीक्षा में छात्रों को अंक के बजाए श्रेणी या ग्रेड जैसे क, ख, ग आदि या A, B, C आदि दिए जाने का सुझाव दिया है।
(7) माध्यमिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण छात्रों को अगले वर्ष परीक्षा देने से उसे एक वर्ष का नुकसान होता था। अतः आयोग ने अपनी सिफारिश में ऐसे छात्रों के लिए कम्पार्टमेण्टल परीक्षा की व्यवस्था का सुझाव दिया है।
(8) आयोग ने याद किए गए विद्या को जीवन में उपयोगी न मानते हुए विद्यालय रिकॉर्ड में छात्रों के दैनानुदिन के क्रियाकलापों का उल्लेख कर, उसे आधार बनाकर परीक्षा परिणाम दिए जाने का सुझाव दिया है।
(9) शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए आयोग ने परीक्षा व्यवस्था में परिवर्तन का सुझाव दिया है। आयोग ने दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों पर आधारित रटंत विद्या के स्थान पर वस्तुनिष्ठ तथा संक्षिप्त प्रश्नों को महत्त्व दिए जाने की सिफारिश की है जिससे छात्र सम्पूर्ण विषय-वस्तु को पढ़ने के प्रति आग्रही हो सके।
Most important
Vvvi.**3)मुदलियार शिक्षा आयोग के अनुसार माध्यमिक शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्य क्या हैं?
Ans:-माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims or Objectives of Secondary Education): आयोग ने कहा कि "माध्यमिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य लोकतांत्रिक नागरिकता का विकास करना, नेतृत्व की शिक्षा प्रदान करना, व्यावसायिक शिक्षा में वृद्धि करना, व्यक्तित्व का विकास करना तथा देशप्रेम की भावना को जागृत करना होना चाहिए" माध्यमिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं:-
(i) माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार हो कि विद्यार्थियों का सर्वागीण विकास हो सके और इसके लिए पाठ्यक्रम में आवश्यक सुधार करने चाहिए। शिक्षा का संगठन इस प्रकार हो कि छात्रों का सांस्कृतिक, सामाजिक,मानसिक एवं कलात्मक विकास हो सके। पाठ्यक्रमों में संगीत, साहित्य व कलात्मक रुचि का समावेश कर शिक्षा को रुचिकर बनाया जा सकता है।
(ii) माध्यमिक कक्षाओं में विद्यार्थियों को अपने राष्ट्र की सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक गतिविधियों का सम्यक् ज्ञान कराते हुए उनमें छात्रों में नेतृत्व सम्बन्धी गुणों को विकसित किया जाय। आज के छात्र कल के नागरिक और नेता है। अतः देश के कुशल प्रशासन एवं सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्रों में नेतृत्व ग्रहण करने के लिए उचित शिक्षा आवश्यक है।
(iii) माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य आदर्श नागरिक का निर्माण होना चाहिए। अतः हमारी शिक्षा का ध्येय छात्रों में देश की सांस्कृतिक परम्परा का ज्ञान, विचार स्वतंत्रता, भाषण व लेखन में स्पष्टता, अनुशासन, सहयोग, सामूहिकता, सहिष्णुता तथा देशानुराग आदि गुणों का विकास हो ।
(iv) माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं में विश्व बन्धुत्व की भावना को विकसित करने की ओर विशेष ध्यान दिया जाय वैज्ञानिक प्रगति के कारण आज पूरा विश्व एक राष्ट्र हो चुका है। विश्व की कोई एक सामान्य घटना दूसरे देश को प्रभावित करती है। आपसी प्रेम द्वारा ही सभी राष्ट्र सुखी रह सकते हैं। अतः हमें अपना दृष्टिकोण व्यापक बनाना चाहिए।
(v) माध्यमिक विद्यालयों में छात्रों को औद्योगिक शिक्षा देकर उनकी व्यावसायिक योग्यता को बढ़ाया जाय। भारत की उत्पादन क्षमता में कमी हैं। आर्थिक दृष्टि से लोग गिरे हुए हैं। अतः व्यावसायिक योग्यता में वृद्धि लाकर आर्थिक प्रगति सम्भव है। अतः विद्यालयों में छात्र-छात्राओं को औद्योगिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि छात्र पढ़ाई समाप्त कर कोई कार्य कर सके ।
7. भारतीय शिक्षा आयोग या
कोठारी आयोग (The
Indian Education
Commission
or the Kothari
Commission; 1964-66.)
Vvvi**-1)कोठारी कमीशन द्वारा संस्तुत माध्यमिक शिक्षा के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की चर्चा कीजिए। (Discuss the objectives and aims of secondary education as a recommended by Kothari Commission.)
(HS-2019)
Ans-उद्देश्य (Objective) : माध्यमिक शिक्षा छात्रों को जीविकोपार्जन के लिए तैयार करती है तथा उन्हें उच्च शिक्ष की प्राप्ति के प्रवेश द्वार तक पहुंचाती है। कोठारी आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के निम्न राष्ट्रीय लक्ष्य बतलाए-
(1) शिक्षा को उत्पादन के साथ जोड़कर आर्थिक विकास को बढ़ाना
(2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता में वृद्धि लाना ।
(3) आधुनिकीकरण की गति को तीव्र करना |
(4) आध्यात्मिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास में वृद्धि लाना ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य छात्रों का सर्वांगीण विकास करके राष्ट्रीय विकास और एकीकरण को सुनिश्चित करना है।
आयोग के अनुसार वर्तमान माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य अस्पष्ट है तथा यह शिक्षा छात्रों का विकास करके उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए तैयार करने में असफल रही है। अतः आवश्यकता है कि माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट ढंग से निर्धारित किया जाये ।
माध्यमिक शिक्षा के अन्तर्गत सामान्य शिक्षा प्रदान की जाती है। यह सामान्य शिक्षा का अंतिम सोपान है।
इस शिक्षा को व्यक्तियों के जीवन की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं से जोड़ने की आवश्यकता है। इससे शिक्षा सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए एवं शक्तिशाली साधन के रूप में विकसित हो सकेगी।
Most important
Vvi**2)माध्यमिक शिक्षा में सुधार से सम्बन्धित कोठारी आयोग की प्रमुख सिफारिश की चर्चा कीजिए।
Ans. माध्यमिक शिक्षा में सुधार से सम्बन्धित कोठारी आयोग की प्रमुख सिफारिश :- माध्यमिक शिक्षा में सुधार से सम्बन्धित कोठारी आयोग की प्रमुख सिफारिश निम्नलिखित हैं-
(1) आयोग ने माध्यमिक स्तर की शिक्षा को निम्न माध्यमिक और उच्च माध्यमिक, दो स्तरों में विभक्त किया है। 2 वर्षों निम्न माध्यमिक स्तर की शिक्षा के बाद वाह्य परीक्षा द्वारा छात्र उच्च माध्यमिक स्तर में प्रवेश करेंगे। माध्यमिक शिक्षा का यह स्तर भी दो वर्षों का होगा।
(2) प्राथमिक शिक्षा के बाद छात्रों को पेशागत शिक्षा दिए जाने को आवश्यक मानते हुए आयोग ने सभी छात्रों को माध्यमिक स्तर पर इस प्रकार के शिक्षा का सुझाव दिया है। जो छात्र माध्यमिक स्तर पर सामान्य शिक्षा नहीं लेना चाहते, उनके लिए आयोग ने । वर्ष से 3 वर्षों के पेशागत शिक्षा की व्यवस्था किए जाने का सुझाव दिया है।
(3) आयोग ने देश के सभी में शिक्षा के समान प्रचार-प्रसार के लिए विशेषकर, अनुसूचित जाति-जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के लिए वित्तीय तथा अन्य सहयोग की बात भी करता है।
(4) माध्यमिक स्तर के बाद छात्रों को केवल बौद्धिक क्षमता पर विचार न करते हुए विभिन्न सम्भावनाओं पर विचार करने की सिफारिश आयोग ने अपनी रिपोर्ट में की है।
(5) आयोग महिलाओं में शिक्षा के विकास के लिए विशेष प्रावधान द्वारा विकास की बात करता है।
(6) आयोग प्री-यूनिवर्सिटी पाठ्यक्रम को समाप्त कर उसके स्थान पर उच्च माध्यमिक विद्यालयों की सिफारिश करता है।
(7) आयोग शिक्षकों के आर्थिक, सामाजिक और पेशागत मर्यादा वृद्धि की बात भी करता है।
(8) आयोग ने सरकार से सिफारिश किया है कि उच्च माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को मुक्त किया जाए और इसमें होनेवाले वित्तीय प्रबंध का भार सरकार को स्वयं पर लेना चाहिए।
(9) एक क्षेत्र के 10 माध्यमिक विद्यालयों को लेकर एक विद्यालय समूह के निर्माण द्वारा उनमें आपसी सहयोग बढ़ाने की बात भी आयोग ने किया है।
(10) आयोग ने विद्यालयों के संचालन के लिए दो प्रकार से निरीक्षण व्यवस्था का सुझाव दिया है। एक पर्यवेक्षक विद्यालय में शिक्षा के स्तर से सम्बन्धित विषयों पर सुझाव तथा आदेश देंगे तो दूसरे विद्यालय प्रशासन तथा संरचना सम्बन्धी विषयों की निगरानी रखेंगे।
(11) माध्यमिक स्तर के शिक्षा की उन्नति तथा प्रसार के लिए आयोग ने जिला स्तर की शैक्षणिक संरचना का निर्माण करने तथा अगले दस वर्षों में इसे कार्यकारी बनाने का सुझाव दिया है।
(12) आयोग ने निम्न माध्यमिक स्तर पर कुल छात्रों का 20% और उच्च माध्यमिक स्तर पर 50% छात्रों को विभिन्न पेशागत शिक्षा दिए जाने की सिफारिश की है।
(13) आयोग ने स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए लड़कियों के लिए पृथक विद्यालय के निर्माण के साथ ही छात्रावास की स्थापना और छात्राओं को विभिन्न प्रकार की आर्थिक सुविधाएँ देने की सिफारिश भी की है।
(14) मेधावी छात्र-छात्राओं के लिए विशेष प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था कर आयोग ने देश में विज्ञान तथा तकनीकि शिक्षा के विकास को और प्रभावी बनाने की दिशा में जोर देने को कहा है।
8. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986
तथा संशोधित शिक्षा नीति,
1992 (National
Education Policy, 1986
and Revised in 1992)
Vvi.**1)आरम्भिक बाल्यावस्था एवं प्राथमिक शिक्षा के पुनर्गठन से सम्बन्धित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ई० के सुझावों का संक्षिप्त वर्णन करें। (Briefly explain the Views of National Education Policy, 1986 A.D. related to the early childhood and consolidation of education.)
Ans. आरम्भिक बाल्यावस्था एवं प्राथमिक शिक्षा के पुनर्गठन से सम्बन्धित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986 ई०) के विचार (Views of National Education Policy, 1986 related to the early childhood and consolida- tion of education) :- आरम्भिक बाल्यावस्था या उत्तर शैशवावस्था में प्राथमिक शिक्षा के पुनर्गठन के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है, जो कि निम्नलिखित है-
1. आरम्भिक बाल्यावस्था में बाल कल्याण एवं शिक्षा (Early childhood care and education) :- राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा बालकों के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य से स्वास्थ्य, शारीरिक दृढ़ता, सामाजिक-मानसिक नैतिक आदि विभिन्न गुणों के विकास के साथ ही बाल्यावस्था में उनके कल्याण तथा विकास (Integrated growth) पर जोर दिया गया है। बच्चों के व्यक्तिगत विकास, उनकी व्यक्तिगत रुचि आदि को ध्यान में रखकर उनके शिक्षा के लिए पारम्परिक पद्धति के बदले खेल- कूद की विधि को प्रयोग में लाने का सुझाव दिया गया है।
प्राथमिक शिक्षा का पुनर्गठन (Consolidation of primary education) :- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा के लिए बच्चों के सर्वागीण विकास, बाल-केंद्रित शिक्षा, विद्यालयी सुयोग सुविधा तथा नियमों में लचीलापन आदि का उल्लेख किया गया है। संक्षेप में, इस दिशा में प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थीं-
1. सबके लिए शिक्षा (Education for all) :- इस सम्बंध में प्रमुख सिफारिशें हैं-
(क) सार्वजनिक शिक्षा और संविधान (Education for all and the constitution) :- भारतीय संविधान के अनुसार 1960 ई० तक भारत के सभी बच्चे जो 14 वर्ष से कम आयु के हैं, के लिए प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभिन्न कारणों से आज भी इस लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सका है।
(ख) सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा की आवश्यकता (Necessity of the education for all) :- सबके लिए अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा राष्ट्र की सबसे बड़ी आवश्यकता है। केवल मात्र व्यक्ति के स्वयं के विकास के लिए ही नहीं,बल्कि विश्व में राष्ट्रीय सम्मान को बनाए रखने के लिए भी अनिवार्य तथा सार्वजनिक प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने की आवश्यकता है।
2. बालकेंद्रित शिक्षा (Child centric education) :- इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे -
(क) बच्चे को आकर्षित करना (To attract the child) :- बच्चे विद्यालय तक आएँ और विद्यालयी परिवेश में शिक्षा के प्रति उनकी रूचि को जागृत करने के लिए शिक्षा से सम्बंधित सभी लोगों तथा संस्थानों को बच्चों की रुचि को ध्यान में रखते हुए विद्यालय में उनके साथ आत्मीयता तथा सम्मान का भाव प्रदर्शित करना होगा। बच्चों के शारीरिक तथा मानसिक विकास को ध्यान में रखकर ज्ञानमूलक शिक्षा तथा उनकी दक्षता के लिए समुचित व्यवस्था करनी होगी।
(ख) अवनति तथा शारीरिक दण्ड की समाप्ति (End of drop-out and the corporal punishment) :- शिक्षा के प्रति रुचि के लिए आवश्यक है कि परीक्षा में असफलता के कारण बहुत बच्चे बीच में ही अपनी शिक्षा छोड़ देते हैं, इससे शिक्षा की अवनति होती है; इसे रोकने की आवश्यकता है। विद्यालय के प्रति भय या अन्यमनस्कता को दूर करने के लिए शिक्षा नीति ने बच्चों को दिये जाने वाले शारीरिक दण्ड पर रोक लगाने को कहा है।
3. व्यवस्था (Provisions made by school) :- इस सम्बन्ध में प्रमुख हैं-
(क) ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड (Operation Blackboard) :- इस कार्यक्रम के तहत यह निर्धारित किया जाए कि प्रत्येक विद्यालय में कम से कम दो शिक्षक होंगे, जिनमें एक महिला और एक पुरुष होंगे। बाद में इस व्यवस्था में सुधार कर ऐसी व्यवस्था किया जाए कि प्रत्येक कक्षा के लिए एक शिक्षक की व्यवस्था सभी विद्यालयों में हो सके। इसके अलावा विद्यालय में ब्लैकबोर्ड, विभिन्न प्रकार के मानचित्र, चॉर्ट, आवश्यक पुस्तकें, राज्य और जिलों का मानचित्र, विज्ञान शिक्षा के लिए आवश्यक सामग्री तथा उपकरण, विभिन्न प्रकार के खेलों के समान, चॉक, डस्टर, घण्टी आदि का प्रबंध होना चाहिए। देश में प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए पूरे देश में ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड को कार्यकारी बनाने की बात कही गई है।
4. शैक्षणिक नियमों में छूट (Free from Schooling Laws ) :- इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कई महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं-
1. विभिन्न कारणों से शिक्षा पूरी किए बिना ही बीच में विद्यालय छोड़ने वाले बच्चों, ऐसे क्षेत्र जहाँ विद्यालय न होने के कारण शिक्षा प्राप्ति में अक्षम बच्चों, विभिन्न कार्यों में श्रम देने वाले बच्चों, जो विभिन्न सामाजिक और व्यक्तिगत कारणों से दिवा विद्यालयों में समय नहीं दे सकते हैं, उनके लिए व्यापक स्तर पर विधिमान्य नियमों से हटकर क्रमिक तथा धारावाहिक शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
2. इन शिक्षा केंद्रों में आधुनिक तकनीकी उपकरणों का प्रयोग किया जाए। बिना किसी मूल्य के शिक्षार्थियों को इन उपकरणों का वितरण किया जाए। इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था में भाग लेने वाले बच्चों के लिए आकर्षणीय परिवेश, विभिन्न मनोरंजक खेलों की व्यवस्था, विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन, शिक्षार्थियों को विभिन्न स्थानों की सैर आदि को शामिल किए जाने का भी सुझाव दिया गया है।
Most important
Vvvi.2)**'ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड' और 'नवोदय विद्यालय' के गठन से राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की सिफारिशों का वर्णन करें। (Discuss the recommendations of NPE 1986 for the formation of 'Operation Black Board' and 'Navodaya Vidyalaya')
[H.S.2017]
Ans. (क) शिक्षा में अर्थपूर्ण सहभागिता (Economic Co-Assistance in education) :-1976 ई० में भारतीय संविधान के 42वें संशोधन द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में रखा गया है। इसका एक दूरगामी परिणाम सामने आया । पुनः 1986 ई० के राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा को 'अर्थपूर्ण सहभागिता' के लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों का उत्तरदायित्व बताया गया, साथ ही यह भी निर्धारित किया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में दोनों सरकारों की क्या भूमिका होगी। इस प्रकार की सहभागिता स्थापित करने के पीछे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कुछ प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे-
(क) राष्ट्रीय शिक्षा नीति को वास्तविक रूप प्रदान करना,
(ख) राष्ट्रीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं को ठोस आधार प्रदान करने के लिए,
(ग) नागरिकों के बीच राष्ट्रीय भावना की रक्षा करना, (घ) मानव सम्पदा का विकास कर देश के विकास में अर्थपूर्ण सहभागिता के लिए अवसर प्रदान करना,
(ङ) केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सह दायित्व का पालन । राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार पारस्परिक सहयोगिता के आधार पर यदि अग्रसर नहीं होंगे तो शिक्षा क्षेत्र में मनोनुकूल उद्देश्यों की प्राप्ति में सफलता नहीं मिला सकती है, और शैक्षिक क्षेत्र में व्यवधान उत्पन्न होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मानना है कि केंद्र-राज्य के आपसी सामंजस्य द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अर्थपूर्ण सहभागिता के प्रयासों के द्वारा विकास की ओर अग्रसर होगा और शिक्षा के प्रसार तथा गुणवत्ता में वृद्धि होगी।
(ख) ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड (Operation Blackboard) :- यह एक कटु सच था कि देश के अनेक प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के बैठने के लिए कमरे नहीं हैं, बच्चों की शिक्षा के लिए शिक्षण सहायक उपकरणों का अभाव है, आवश्यकतानुरूप शिक्षकों की भी कमी है। ग्रामीण इलाकों में काफी दूरी पर प्राथमिक विद्यालय के स्थित होने से बच्चों को विद्यालय तक पहुँचने में असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। प्रायः विद्यालयों में शौचालय तथा पीने के पानी की व्यवस्था भी नहीं है। इन असुविधाओं के कारण कई शिक्षार्थी विद्यालय नहीं आ पाते हैं, तथा इसे ध्यान में रखकर ही ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड के राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने अपने कार्यसूची में शामिल किया था। ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ई० की सिफारिशों में एक अति महत्वपूर्ण प्रयास था। प्राथमिक विद्यालयों की दीनदशा दूर करने एवं शिक्षा के प्रसार को सुगमतापूर्वक सम्पन्न करने के उद्देश्य से यह एक प्रतिकात्मक सिफारिश था। यहाँ ब्लैकबोर्ड एक प्रतीक रूप में प्रयोग किया गया है, इसके अंतर्गत वे सभी शैक्षणिक उपकरण आते हैं जिनकी सहायता से प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा देने में सुविधा होती है। इस व्यवस्था के तहत जिन न्यूनतम सुविधाओं को प्रत्येक विद्यालयों में मुहैया कराने को कहा गया है, वे निम्नलिखित हैं-
(क) प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में कम से कम दो बड़े-बड़े कमरे होंगे और उन्हें हर प्रकार से काम में लाया जाएगा।
(ख) निम्न प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के लिए खेल-कूद की पद्धति को व्यवहार में लाया जाए।
(ग) प्रत्येक विद्यालय में निश्चित रूप से चॉक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड, मानचित्र, विभिन्न शैक्षणिक चॉर्ट आदि शिक्षण-सहायक उपकरणों को निश्चित रूप से उपलब्ध कराया जाए।
(घ) आरम्भ में प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में कम-से-कम दो शिक्षकों की व्यवस्था होनी चाहिए, जिनमें एक पुरुष और दूसरा महिला होना आवश्यक है। धीरे-धीरे यह व्यवस्था करनी होगी कि प्रत्येक कक्षा के लिए एक शिक्षक हों।
(ङ) प्रत्येक विद्यालय में पीने के पानी और शौचालयों का प्रबंध होना चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड का उद्देश्य विद्यालयों में केवल चॉक और ब्लैकबोर्ड उपलब्ध कराना मात्र नहीं है, बल्कि यह एक बहुआयामी उद्देश्य से लिया गया कदम है जिसका उद्देश्य देश के प्राथमिक विद्यालयों में शैक्षणिक परिवेश उत्पन्न कर शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि करना है।
(ग) नवोदय विद्यालय (Navodaya School or Navodaya Vidyalaya) :- राष्ट्रीय शिक्षा नीति की एक प्रमुख विशेषता है- नवोदय विद्यालय या मॉडल स्कूलों की स्थापना करना। सामाजिक न्याय और व्यक्ति साम्य के आधार पर उच्चस्तरीय शिक्षा प्रदान करना ही इन विद्यालयों का प्रमुख उद्देश्य था। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों को प्रतिभा के आधार पर चिन्हित कर उनकी क्षमता के पूर्ण विकास में राष्ट्रीय सहयोग करना। इन विद्यालयों का दूसरा मुख्य उद्देश्य था, समृद्ध पाठ्यक्रम का निर्धारण कर फलदायी शिक्षण की व्यवस्था करना। मेधावी बच्चों की प्रतिभा को विकसित करने के लिए सभी आवश्यक सुविधाओं को प्रदान करना ही इन विद्यालयों का मुख्य उद्देश्य था । राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने भारत के प्रत्येक जिले में कम से कम एक नवोदय विद्यालयों के स्थापना करने की बात कही हैं, तथा ऐसे प्रत्येक विद्यालयों में 300 से अधिक छात्र नहीं होंगे। संक्षेप में, नवोदय विद्यालयों की महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(क) ऐसे विद्यालय आवासीय, अवैतनिक तथा सह-शिक्षा की व्यवस्था वाले होंगे।
(ख) ग्रामीण क्षेत्र के छात्र-छात्राओं के लिए इन विद्यालयों में 75% स्थान सुरक्षित होंगे, इसी प्रकार अनुसूचित जाति के लिए 15% और अनुसूचित जन जाति के छात्र-छात्राओं के लिए 7.5% स्थान सुरक्षित किए गए हैं।
(ग) NCERT द्वारा तैयार प्रश्नों से जिला स्तर पर परीक्षा लेकर इन विद्यालयों में भर्ती की जाएगी।
(घ) प्रत्येक शिक्षार्थी को इन विद्यालयों में शिक्षा के समय हिंदी, अंग्रेजी और एक आंचलिक भाषा सहित कुल तीन भाषाओं को सीखना होगा।
(ङ) नौवीं कक्षा से इन विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम हिंदी या अंग्रेजी में से किसी एक को स्वीकृत करना होगा।
(च) ऐसे विद्यालयों में छात्रों के पूरे वर्ष के गतिविधियों के आधार पर मूल्यांकन किया जाएगा।
(छ) ऐसे विद्यालयों में कला, वाणिज्य, विज्ञान तथा विभिन्न पेशागत शिक्षाओं की व्यवस्था होगी।
(ज) सभी नवोदय विद्यालय केंद्रीय शिक्षा बोर्ड (CBSE) द्वारा संचालित होंगे, तथा इनके पाठ्यक्रम की रचना तथा निर्धारण का दायित्व NCERT को सौंपा गया है।
(झ) इन विद्यालयों में कक्षा 6 से बारहवीं कक्षा तक की शिक्षा की व्यवस्था होगी।
10. प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण (Universalization of Primary Education)
Vvi.1-सर्व शिक्षा मिशन से आप क्या समझते हैं? सर्व शिक्षा मिशन को सफल बनाने हेतु पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा उठाए गए दो आदर्श कदमों का उल्लेख कीजिए। (What do you mean by 'Sarva Siksha Mission? Mention two exemplary steps taken by West Bengal Government to make success the 'Sarva Siksha Mission.)
[H.S.2018]
Ans. सर्व शिक्षा अभियान (Serva Shiksha Abhiyan) :- सबके लिए शिक्षा (Education for all) के महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 6 से 14 वर्ष के बीच की आयु के सभी बच्चों को विद्यालयों से जोड़कर उसे निर्दिष्ट पाठ्यक्रम के अंतर्गत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के देश-व्यापी अभियान को ही सर्व शिक्षा अभियान (Sarva Shiksha Abhiyan) के नाम से जाना जाता है।
सर्व शिक्षा मिशन को सफल बनाने हेतु पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा उठाए कदम :- सर्व शिक्षा अभियान की सफलता के लिए पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं-
1. केंद्रीय सरकार के ही अनुरूप राज्य में सर्व शिक्षा अभियान की वास्तविक सफलता के उद्देश्य से 6 से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को विद्यालय लाने के लिए विभिन्न ग्राम कमिटियाँ, ब्लॉक या वार्ड कमिटी, राज्य स्तरीय सर्व शिक्षा समन्वय कमिटी का गठन किया गया है।
2. सर्वशिक्षा अभियान की सफलता के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने 'स्कूल चलो' कार्यक्रम का आरम्भ किया है, जिसके परिणाम संतोषजनक रहे हैं।
3. महिलाओं के मानसिक विकास के द्वारा व्यक्ति-स्वतंत्र्य की भावना के प्रस्फुटन के लिए उन्हें कई प्रकार की सुविधाएँ प्रदान किए गए हैं।
Vvi.**2-सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किन्हीं चार उपायों का वर्णन करें। (Discuss any four important steps to achieve the aims of Universal Primary Education.) ० अथवा, सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक कुछ विधियों का वर्णन करें।
(Discuss some measures taken to achieve the objectives of Universal Primary Education.)
[H.S.2015, 2017]
Ans. कोठारी कमीशन के अनुसार प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Primary education as stated by Kothari Commission) : 1964-66 ई० में कोठारी कमीशन ने हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये हैं:
(1) बच्चों का शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, सामाजिक तथा वाचन शक्ति का विकास करना, (2) देश की प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति का विकास करना, (3) श्रम के प्रति सम्मान का भाव जागृत कर आदर्श नागरिक तैयार करना, (4) बच्चों में नैतिक तथा आध्यात्मिक शक्ति का विकास करना, आदि।
सार्वभौमिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए किए गए प्रयास (Measures adopted to fulfill the objectives of Universality) :- आज शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए हमारे देश की केन्द्र और राज्य सरकारों का यह कर्तव्य है कि ये वास्तविक मूल्यबोध की शिक्षा के लिए तथा शिक्षा की सार्वभौमिकता के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर विभिन्न कमीशनों के रिपोर्टों के आलोक में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के कार्यक्रम को क्रियान्वित करें। शिक्षा के इस सार्वभौमिकता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमारे देश में सरकारी स्तर पर (केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा) जो प्रयास किए गए हैं, वे निम्नलिखित हैं :-
(1) विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में लगातार शिक्षा के मद में आवंटित धन में वृद्धि की गयी है।
(2) ऐसे ग्रामीण अंचल जहाँ प्राथमिक विद्यालय नहीं हैं, नए विद्यालयों की स्थापना की गयी है।
(3) 1977 ई० में सार्वभौमिक शिक्षा के विकास के लिए एक कार्यकारी दल (Working Group) को स्थापना की गई है।
(4) इस कार्यकारी दल ने 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को शिक्षा देने के लिए Master Plan का निर्धारण किया था।
(5) 1990 ई० में केन्द्रीय सरकार द्वारा निरक्षरता दूर करने के लिए एक कार्यक्रम का निर्धारण किया गया, जिसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली है।
(6) प्राथमिक विद्यालयों की दुर्दशा को दूर करने के लिए केन्द्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्रालय द्वारा ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड का आरम्भ किया गया है।
(7) सार्वभौमिक शिक्षा प्रसार के अंग के रूप में कई कार्यक्रम चालू किए गए हैं, जैसे - Integrated Child Development Service (ICDS), बाल विकास योजना, परिवार कल्याण योजना आदि।
(8) Programme of Action-1992 में प्राथमिक शिक्षा के विकास को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
(9) केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना किया गया है।
(10) प्राथमिक स्तर की शिक्षा के विकास को ध्यान में रखकर सर्वशिक्षा अभियान कार्यक्रम लागू किया गया है।
Vvvi.3)'सर्व शिक्षा अभियान' के चार प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन करें। (Discuss any four main objectives of Sarva Shiksha Abhiyan.) [H.S.2016]
Ans. सर्व शिक्षा अभियान (Sarva Shiksha Bhiyan) :- सबके लिए शिक्षा (Education for all) के महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए 6 वर्ष से 14 वर्ष के बीच के सभी बच्चों को विद्यालयों से जोड़कर उसे निर्दिष्ट पाठ्यक्रम के अंतर्गत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के देश-व्यापी अभियान को ही सर्व शिक्षा अभियान (Sarv Shiksha Abhiyan) के नाम से जाना जाता है।
सर्वशिक्षा अभियान के लक्ष्य एवं उद्देश्य (Aims and Objectives of Sarva Shiksha Abhiyan) :- यद्यपि 2010 ई० तक सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्यों को प्राप्त कर लेने की बात कही गई थी, लेकिन विभिन्न कारणों से इसे पूरा नहीं किया जा सका और इसके कार्यकाल में वृद्धि किया गया है। संक्षेप में सर्व शिक्षा अभियान के प्रमुख लक्ष्य तथा उद्देश्य निम्नलिखित थे -
1. 2003 ई० तक बीच में ही शिक्षा समाप्त कर चुके (Drop Out) सभी बच्चों को विभिन्न शिक्षा सुनिश्चित केंद्र (Education Guarantee Centre), वैकल्पिक विद्यालय (Alternative School), विद्यालय लौट चलें (Back to School) कार्यक्रमों में शामिल करना,
2. 2007 ई० तक सभी बच्चों के लिए 5 वर्ष के प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त कर लेना,
3.2010 ई० तक सभी बच्चों के लिए 8 वर्षों के उच्च प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त करना,
4. सर्वशिक्षा अभियान की सफलता के लिए विभिन्न समन्वय कार्यक्रमों का संचालन,
5. संरचना तथा सेवाओं का क्रमिक रूप में निष्पादन करना,
6. अधिकारों का विकेंद्रीकरण करते हुए ग्राम शिक्षा कमिटी (Village Education Committee) का गठन कर दायित्व प्रदान करना,
7. योजना की सफलता के लिए विभिन्न विद्यालयों, ग्राम, वार्ड शिक्षा कमिटी आदि में समन्वय स्थापित करने के लिए युग्म (Group) तैयार करना,
8. सेतु पाठ्यक्रम (Bridge Course) की स्थापना करना,
9. शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए सहयोगी शिक्षकों की नियुक्ति करना,
10. विद्यालय के कमरे बनाने, विभिन्न खेल सामग्री तथा शिक्षण सहायक उपकरणों को खरीदने के लिए, पीने के पानी सहित अन्य व्यवस्था करने के लिए आवश्यक आर्थिक अनुदान प्रदान करना।
सर्व शिक्षा अभियान की विशेषताएँ (Characteristics of Sarva Shiksha Abhiyan) :- सर्व शिक्षा अभियान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :-
1. 6 वर्ष से 14 वर्ष के बीच की आयु तक के सभी बच्चों को विद्यालय से जोड़े रखना,
2. पूरे देश में आठवीं कक्षा तक की शिक्षा के स्तर में वृद्धि करना,
3. शिक्षार्थियों के जीवन को उन्नत बनाने के उद्देश्य से मूल्यबोध तथा जीवनदर्शन की शिक्षा प्रदान करना,
4. सर्व शिक्षा अभियान की सफलता के लिए केंद्रीय सरकार से लेकर पंचायत स्तर तक शिक्षा का विकेंद्रीकरण करना, 5. अभियान के साथ जुड़े व्यक्ति तथा संस्थान शिक्षा के मूल उद्देश्य को अक्षुण्ण रखते हुए स्थानीय आवश्यकताओं
के अनुरूप कार्यक्रमों में परिवर्तन तथा संशोधन कर सके इसके लिए विभिन्न संस्थानों तथा सम्बद्ध व्यक्ति को स्वतंत्रता प्रदान करना।
6. स्थानीय लोगों को शिक्षा जैसी सामाजिक सेवा के कार्यों में सहभागिता के लिए उत्साहित करना,
7. सर्व शिक्षा अभियान की सफलता के लिए विभिन्न राज्य सरकारों, ब्लॉक या वार्ड, ग्राम पंचायत आदि के बीच आपसी सामंजस्य की स्थापना करना।
8. सेतु पाठ्यक्रम (Bridge Course) द्वारा एकदम निरक्षर व्यक्ति कम समय में निश्चित मानदण्ड की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जैसे इस पाठ्यक्रम द्वारा एक या दो वर्षों में ही शिक्षार्थी पाँचवीं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उपयुक्त बन सकता है। स्थानीय स्तर पर स्थापित एक पाठ्यक्रम के सभापति स्थानीय ग्राम पंचायत के सदस्य तथा सचिव स्थानीय के एक शिक्षक होते हैं।
Vvi***4)मनुष्य बनने के लिए सीखना के उद्देश्यों की पूर्ति में विद्यालय की भूमिका का संक्षेप में उल्लेख करो। (Discuss briefly the role of school for fulfilling the objectives of 'learning to be') [H.S.2018]
Ans. मनुष्यता के लिए शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ती में विद्यालय का योगदान (Role of school for the fulfillment of the objective of 'Learning to be') :- प्राकृतिक मनुष्य निर्माण के क्षेत्र में विद्यालयों के क्रियाकलापों को हम निम्न रूपों में देख सकते हैं-
(1) बच्चों के पूर्ण विकास में (Total development in children) :- प्रत्येक बच्चों में जन्म से ही निश्चित रूप से कुछ न कुछ सम्भावनाएँ अवश्य विद्यमान होती हैं, विद्यालय इन्हें विभिन्न पाठ्यक्रम तथा शिक्षा सहयोगी गतिविधियों के माध्यम से विकसित कर पूर्णता प्रदान करता है। अतः विद्यालयों बच्चों के पूर्ण विकास में सहयोगिता करता है।
(2) विकसित क्षमताओं का पूर्ण उपयोग (Total use of developed abilities) :- शिक्षार्थियों में संचित क्षमताओं, जिससे समाज तथा व्यक्ति दोनों का कल्याण हो सके तथा वह उन क्षमताओं का पूर्ण उपयोग कर सके, इसकी पहचान कर आवश्यक व्यवस्था विद्यालयों को करनी चाहिए।
(3) सामाजिक प्रतिष्ठा की प्राप्ति में सहायक (Helps in getting social respect) :- विभिन्न दलीय गतिविधियों में शामिल द्वारा विद्यालय बच्चों में विशेष कार्य के प्रति दक्षता को जन्म देता है, जो सामाजिक जीवन में उपयोगी होने के कारण व्यक्ति को सामाजिक मानव के रूप में प्रतिष्ठित कराने में सहायक होता है। (4) सामंजस्य स्थापना में सहयोगी (Helps to establishing adjustment) :- विभिन्न शिक्षण सहायक गतिविधियों के माध्यम से विद्यालय छात्रों में आपसी सामंजस्य की भावना का विकास कराता है। इस प्रकार की शिक्षा भावी जीवन में उसे परिवर्तित सामाजिक व्यवस्था के साथ सामंजस्य स्थापना में सहायता प्रदान करता है। (5) उत्पादनशील नागरिक निर्माण में सहायक (Helpful to build productivie citizens) :- विभिन्न हस्त- शिल्प जैसी शिक्षा के द्वारा विद्यालय शिक्षार्थियों को भविष्य के उत्पादनशील नागरिक के रूप में तैयार करता है। यह एक और व्यक्ति को रोजगार प्रप्ति में सहायता करता है तो दूसरी ओर समाज और राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास
में भी सहायता प्रदान करता है।
(6) गणतंत्र के विकास में सहायक (Help to develop the democracy) :- विभिन्न प्रकार के विषयों के माध्यम से विद्यालयी शिक्षा बच्चों में गणतांत्रिक चेतना के विकास में सहायता करता है और उसे गणतंत्र के प्रति आस्थावान होने में भी मदद करता है। इस प्रकार की गणतांत्रिक भावना का विकास प्राकृतिक मानव बनने के लिए आवश्यक शर्त है।
(7) मूल्यबोध की स्थापना में सहयोगी (Helps to establishing ethical value) :- व्यक्ति में अपेक्षित । मूल्यबोध की भावना का विकास कराना प्राकृतिक मानव की एक प्रमुख शर्त है। विभिन्न पाठ्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय शिक्षार्थियों में व्यक्ति और समाज के विकास के लिए आवश्यक मूल्यबोध की शिक्षा का ज्ञान कराता है।
(8) राष्ट्रीयता के विकास में सहायक (Helpful in development of nationality) :- विद्यालयी शिक्षा में विभिन्न विषयों के द्वारा राष्ट्र के साथ मतैक्य स्थापना, राष्ट्र के प्रति अनुभूतिशील होने तथा राष्ट्रीयताबोध की भावना का विकास होता है। एक आदर्श मानव निर्माण के लिए यह अति आवश्यक है कि उसमें अपने देश और समाज के प्रति अनुराग हो तथा राष्ट्रीयता की भावना विकसीत रूप में बलवती हो सके।
(9) अंतर्राष्ट्रीयता का विकास (Develops the internationalism) :- आज पूरी दुनिया हो हमारा घर है और दुनिया के किसी हिस्से में होने वाली विभिन्न घटनाओं से हम प्रभावित होते हैं। अतः इस दुनिया को रहने लायक बनाने, विध्वंश से बचाने, में हम सब की भूमिका अपेक्षित है। विभिन्न देशों के बीच आपसी सौहार्द जो सबके हित में है, विद्यालय अपने विभिन्न पाठ्यक्रमों द्वारा आरम्भ से ही बच्चों में उन गुणों का विकास कर सकता है। अतः एक अंतर्राष्ट्रीय मनुष्यता का निर्माण आदर्श मानव के लिए अति आवश्यक है।
Most important
Vvi**-5). कर्म सम्पादन के लिए शिक्षा के उपयोगिता का वर्णन करें। (State the necessities of "Learning to do".) ० अथवा कर्म सम्पादन के लिए शिक्षा के उद्देश्य की पूर्वी में विद्यालय के योगदान का संक्षिप्त वर्णन करें।
(Discuss briefly the role of school for fulfilling the objectives of 'Learning to do')
Ans. कर्म सम्पादन के लिए शिक्षा का महत्त्व या उपयोगिता (Importance or Utility of Learning to Do) :- आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में मानव को जीवन की सफलता तथा विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ एक प्रमुख शर्त बन गया है। कर्म संपादन से मानव समाज के प्रति सचेष्ट होता है जिसमें व्यक्ति का कल्याण भी अंतर्निहित है।
इस प्रकार के शिक्षण की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं- 1. मानव सम्पदा का सदुपयोग (Proper use of Human Resource), 2. एकता की भावना का विकास (To develop the sense of Unity),
3. आत्मविश्वास की भावना का विकास (Develops the Self-Confidence)
4. कार्यजगत के साथ घनिष्ठता (Respect for Work)। इस प्रकार के शिक्षा से शिक्षार्थी में कार्य करने की प्रेरणा तीव्रतर होती जाती है। कर्म के प्रति उसमें उत्साह की वृद्धि होती है, मनोयोग और उत्साह से कार्य करने के कारण परिणाम लाभकारी सिद्ध होते हैं अपने कार्य में लगातार सफलता के प्रति उसके मन से सारी हीनभावना का नाश होता है और वह उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखने लगता है।
कर्मजगत के साथ घनिष्टता (Relation with Work-culture) :- विज्ञान और तकनीकि के क्षेत्र में नित नये- नये आविष्कार हो रहे हैं, इन आविष्कारों का परिणाम हर क्षेत्र में देखने को मिला है। हमारे कर्म जीवन में भी विभिन्न प्रकार के परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे हैं। इन परिवर्तनों को ध्यान में रखकर ही विभिन्न कर्म-संस्थानों में शिक्षा की पद्धति में भी परिवर्तन होने लगे हैं। इस प्रकार देखा जाता है कि कर्म सम्पादन के क्षेत्र में शिक्षा द्वारा व्यक्ति अपने कर्ममय जीवन के साथ एक तारतम्यता या घनिष्ठता स्थापित कर लेता है।
शारीरिक विकास (Physical growth) :- विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने के लिए हमें अपने शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों को हिलाना डुलाना पड़ता है। इस प्रकार अंग संचालन से एक और कार्यदक्षता में वृद्धि होती है तो दूसरी ओर हमारे शरीर के विभिन्न मांसपेशियों के तनाव-मरोड़ क्रिया की निरंतरता से हमारा शारीरिक विकास भी होता रहता है। शारीरिक सबलता और स्वास्थ्य विकास में सहायता करना कर्म सम्पादन द्वारा शिक्षण की एक प्रमुख विशेषता है।
मानसिक विकास (Mental growth) :- इस प्रकार के शिक्षण में शिक्षार्थी का मानसिक विकास होता है। इसी मानसिक क्षमता के विकास से चिन्तनशक्ति, तार्किकता आदि का विकास होता है। इससे उसमें विश्लेषणात्मक, मूर्त तथा अमूर्त विचार आदि विकसित होने लगते हैं।
8. बौद्धिक विकास (Aesthetic growth) : यह विद्यार्थी के बौद्धिक विकास में सहायक सिद्ध होता है।
शिक्षार्थी पारम्परिक शिक्षण पद्धति द्वारा जिस तात्विक ज्ञान को अर्जित करता है उस पर आधारित कार्य निष्पादन से व्यक्ि
की बौद्धिकता में विकास होता है। इस प्रकार कर्म सम्पादन द्वारा शिक्षा उसके बौद्धिक ज्ञान में वृद्धि करती है।
9. अर्जित विकास (Acquired growth) :- इस प्रकार के शिक्षण के परिणामस्वरूप व्यक्ति के अर्जित ज्ञान में वृद्धि होता है। इस प्रकार के शिक्षण से उनके जीवन में स्वतः स्फुरण, आशावादी मानसिकता, जीवन में विविधता आदि का संचार होता है। समाज और व्यक्ति के मध्य पारस्परिक सामंजस्य स्थापित हो जाता है। नैतिकता के भाव जागृत होने से व्यक्ति समाज के सुख-दुःख आदि में सहयोगी बन जाता है।
10. सामाजिक विकास (Social development) :- इस प्रकार की शिक्षण पद्धति से शिक्षार्थी में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है। इस प्रकार व्यक्ति आदर्श नागरिक बनने की दिशा में अग्रसर हो उठता है। ऐसे शिक्षार्थियों के प्रयास से समाज विभिन्न प्रकार से लाभान्वित होता है और उन्नति करता है।
11. समस्या समाधान में सहायक (Helps in Problem-solving) :- संसार में मनुष्य को अपने जीवन के विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।कर्म सम्पादन की शिक्षा मनुष्य को जीवन की विभिन्न समस्याओं का विश्लेषण कर समाधान के पथ से अवगत कराती है। कई बार व्यक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करता है, जिसमें उसमें हीन भावना का अंत होकर एक नया उत्साह पैदा होता है।
12. सृजनात्मकता का विकास (Develops Creativity) :- इस प्रकार के शिक्षण में शिक्षार्थी में स्वाधीन चिंतन का विकास होता है जो उसमें सृजनशीलता का भाव जगाता है। स्वयं को प्रस्तुत करने की क्षमता के विकास से सामाजिकता का वास्तविक रूप परिलक्षित होता है।
13. व्यक्तिगत सफलता में उत्तरदायी (Responsible for personal success) :- इस प्रकार की शिक्षा से व्यक्ति में स्वयं की उपलब्धि प्राप्त करने का भाव पैदा होता है, जिससे उसमें अविश्वास, संदेह, द्वंद्व आदि अनेक नकारात्मक विचारों का नाश होता है। वास्तव में जो व्यक्ति स्वयं को नहीं पहचान पाता वह समाज के सत्य-असत्य से अभिज्ञ अज्ञानता के अंधकार में ही पड़ा रह जाता है। लेकिन इस प्रकार की शिक्षा व्यक्ति को स्वयं को पहचानने की क्षमता प्रदान करती है।
14. मानसिक दृढ़ता का विकास (Growth in Mental Strength) :- इस प्रकार की शिक्षा से शिक्षार्थी और अधिक कर्मठ बन जाता है। उसके मानसिक शक्ति के साथ ही मानसिक दृढ़ता में वृद्धि होती है। व्यक्ति के अहंकार का नाश होता है और दृढ़ प्राकृतिक परिस्थिति का स्फुरण होता है।
12. शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक
की भूमिका (Role of
Technology in
Education
Most most important
Vvvi**-1-शिक्षा में प्रौद्योगिकी (तकनीकी) की भूमिका का संक्षिप्त वर्णन करें। (Discuss briefly the role of technology in education.) [H.S. 2015, 2017, 2019]
Ans. शिक्षा में तकनीकी की भूमिका (Role of Technology in Education) :- किसी भी प्रकार की शिक्षा की पहली शर्त उसका उद्देश्योन्मुख होना होता है, इसी क्रम में तकनीकी शिक्षा भी उद्देश्यमुखी है। देश-काल और परिस्थिति की भिन्नता के कारण कभी-कभी तकनीकी शिक्षा के उद्देश्यों में कुछ परिवर्तन आ जाता है, लेकिन सामान्यतः जिन उद्देश्यों के पालन में तकनीकी शिक्षा महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है, वे निम्नलिखित हैं।
(1) इच्छानुसार विभागों का चयन (To select fields according to desire ) :- शिक्षार्थी को उसकी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार विषयों के निर्वाचन में सहायता कर बौद्धिक तथा व्यावहारिक ज्ञान के विकास द्वारा सक्रिय बनाना तकनीकी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। शिक्षा यदि शिक्षार्थियों की इच्छानुसार नहीं होगा तो उसमें रुचि की कमी होगी और आशानुरूप सफलता की प्राप्ति में व्यवधान आएगा। यही कारण है कि शिक्षार्थियों को उनकी रुचि तथा पसन्द के अनुसार विषयों के चयन में सहायता करना ही तकनीकी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।
(2) तकनीकी शिक्षा के विशेषज्ञों का निर्माण (To build Specialist in Technological education) :- तकनीकी शिक्षा द्वारा व्यक्ति विशेष प्रकार के ज्ञान का अर्जन कर उसमें नवीन दक्षता द्वारा समाज के कल्याण में योगदान करता है। इस प्रकार तकनीकी शिक्षा का एक उद्देश्य इस क्षेत्र में विशेषज्ञों को तैयार करना है, जो विभिन्न प्रयुक्ति तथा तकनीकी के प्रयोग द्वारा समाज को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने में मदद कर सकें।
(3) आत्मतोष की भावना का विकास (To develop the feelings of self-satisfaction) :- आत्म संतोष द्वारा ही आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। तकनीकी शिक्षा से व्यक्ति में आत्मतोष की भावना बलवती होती है, और आत्मविकास का
मार्ग सहज होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आत्मतोष के बिना शिक्षा के मूल उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
(4) उन्नत राष्ट्र का गठन (To build a developed country) :- तकनीकी शिक्षा द्वारा कार्य दक्षता से पूर्ण उन्नत श्रेणी के मानव का निर्माण होता है, जो किसी देश या राष्ट्र की सफलता में अपना सर्वोत्तम योगदान दे सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि उन्नत राष्ट्र के निर्माण के लिए तकनीकी शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है।
(5) सोई हुई प्रतिभा को जागृत करना (To raise one's sleeping talents) :- हर व्यक्ति में अपनी कुछ
विशेष प्रतिभा सुसुप्तावस्था में रहती है, जिसे जागृत किए बिना मनुष्य अपनी नैसर्गिकता का भोग करने में पूर्ण सफल नहीं
हो पाता है। तकनीकी शिक्षा द्वारा मनुष्य के भीतर सोए हुए उस प्रतिभा को जागृत करने में मदद मिलती है और व्यक्ति
के स्वयं के हित साधन के साथ ही समाज के हितों का भी संवर्द्धन होता है। (6) अनिश्चितता को दूर करने में सहायता (Helps to overcome from the uncertainty ) :- सामान्य रूप से शिक्षित व्यक्ति जीवन के उद्देश्यों के प्रति अनिश्चितता की स्थिति में रहता है और इस कारण वह होनता बोध की भावना से प्रेरित हो जाता है। लेकिन तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के बाद व्यक्ति के जीवन में अपेक्षाकृत अधिक अवसर आते हैं।
इन अवसरों का उपयोग कर वह जीवन में निश्चित उद्देश्यों की स्थापना करने में सफल होता है। अतः हम यह कह सक हैं कि जीवन में अनिश्चितता को दूर करने के लिए तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता होती है।
(7) सामाजिक मर्यादा में वृद्धि (Develop social respect) :- तकनीकी शिक्षा द्वारा प्रशिक्षित व्यक्ति सामाजिक शिक्षा, नीति-बोध, मूल्यबोध तथा कल्याणकारी जीवनदर्शन के कारण समाज में मर्यादा प्राप्त करता है। तकनीकी शिक्षा पारदर्श मानव तैयार कर सामाजिक मर्यादा वृद्धि में विशेष भूमिका का पालन करती है, अतः सामाजिक व्यवस्था को ठीक तरह से बनाए रखने के तकनीकी शिक्षा में प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता होती है।
(8) आत्मनिर्भरता (Self-dependency) :- तकनीको शिक्षा से व्यक्ति स्वातंत्र्य की भावना का विकास होता है, तथा व्यक्तिगत स्तर पर वह आत्मनिर्भर हो पाता है। वह अपने जीवन की ठोस बुनियाद पर रोजगारोन्मुख होकर परमुखपेक्षिता के अभिशाप से मुक्ति पाता है। इस प्रकार आत्मनिर्भरता और आत्मसक्रियता द्वारा तकनीकी शिक्षा सुन्दर
जीवनदर्शन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। (9) एकात्मकता के भाव का अंत (End of the feeling of loneliness) :- सामान्य प्रकार की शिक्षा के विषय-वस्तु प्राय: समान ही होते हैं और लगातार उन्हीं विषयों के अध्ययन से शिक्षा में एकात्मकता आने लगती है और शिक्षा के प्रति रुचि में ह्रास होने लगता है। लेकिन तकनीकी शिक्षा अपने व्यापक फलक के कारण शिक्षार्थी को एकात्मकता बोध की भावना से मुक्ति प्रदान करता है, स्वतः स्फूर्ति से उसमें ज्ञानार्जन के प्रति उत्साह आता है और शिक्षा उपयोगी साबित होने लगती है। इस प्रकार तकनीकी शिक्षा जीवन में एकात्मकता से मुक्ति का उपहार देता है।
(10) सामाजिक इच्छाओं की पूर्ति (Fulfill the social desires ) :- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज के अच्छे या बुरे स्थिति से वह अप्रभावी नहीं रह सकता है। अतः समाज के प्रत्येक व्यक्ति में सामाजिक रीति-रिवाज, आदर्श के उन भावों का विकास हो कि वे आपस में प्रेम तथा सौहार्द्रपूर्वक रह सकें। समाज की इच्छा होती है कि व्यक्ति मानवी सम्पदा का सर्वोत्तम प्रयोग कर दक्ष श्रमिक, तकनीकी ज्ञाता, चिकित्सक आदि बनकर समाज तथा व्यक्ति का हित कर सके। समाज के इन इच्छाओं की पूर्ति में तकनीकी शिक्षा की विशेष भूमिका है।
(11) सम्पदा के ह्रास पर रोक (To stop the loss of human wealth) : समाज के सभी मनुष्य यदि समान प्रतिभा सम्पन्न होकर एक ही प्रकार के कामों में दक्ष हो जाएं तो निश्चित ही मानव सम्पदा का ह्रास होने लगेगा। लेकिन तकनीकी शिक्षा मनुष्य को विभिन्न प्रकार के कार्यों से सम्बन्धित शिक्षा द्वारा दक्षता प्रदान कर उनके मन में आत्मतोष की भावना लाने के साथ ही मानव सम्पदा के हास पर भी रोक लगाती है।
Vvi.**2-. कम्प्यूटर आधारित शिक्षा के लाभों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly explain the advantages of the computer based education.)० अथवा, शिक्षा कम्प्यूटर्शकृत विकास के योगदान का वर्णन करें। (Assess the role of computer qualitative development of education.)
Ans. कम्प्यूटर आधारित शिक्षा से लाभ (Advantages of the computer based education) कम्प्यूटर, विज्ञान तथा तकनीकी का सबसे अमूल्य उपहार साबित हुआ है, जिसने अपने ज्ञान के विशाल भण्डार से शिक्षक, छात्र सभी को एक साथ उपकृत किया है। आज शिक्षा, स्वास्थ्य, अनुसंधान, व्यापार वाणिज्य आदि किसी भी क्षेत्र में कम्प्यूटर के बिना सफलता की कामना भी नहीं की जा सकती है। संक्षेप में कम्प्यूटर आधारित शिक्षा के लाभों को हम निम्न रूपों में देख सकते हैं :-
(1) व्यक्ति स्वातंत्र्य पर आधारित शिक्षा (Education based on personal liberty) : व्यक्ति विशेष की पृथकता के अनुसार उसके सामान्य मानसिक क्षमता में भी अंतर देखा जा सकता है। यही कारण है कि सभी शिक्षार्थियों को एक साथ एक ही प्रकार की और समान पद्धति से दी जाने वाली शिक्षा अधिक प्रभावी नहीं हो पाती है। लेकिन कम्प्यूटर के माध्यम से व्यक्ति स्वातंत्र्य के आधार पर शिक्षण हो पाने के कारण शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का विकास होता है और शिक्षा लाभकारी बन पाती है।
(2) सीखने की सुविधा (Learning facilities) कम्प्यूटर आधारित शिक्षा में शिक्षार्थी सीखने का अवसर प्राप्त करता है। यहाँ शिक्षार्थी अपनी आवश्यकता के अनुरूप सौख सकता है, इसलिए त्रुटियाँ कम होती हैं और आत्मसात करने की मात्रा अधिक हो जाती है।
(3) आत्मचेष्टा से तृप्ति का भाव (Feeling of satisfaction by self-efforts) : कम्प्यूटर द्वारा शिक्षार्थी स्वयं के प्रयास से समस्या समाधान कर पाने में समर्थ होता है। इस समधान से शिक्षार्थी में आत्मप्रकाश का भाव जागृत होता है जिससे उसमें संतोष या तृप्ति का भाव आता है।
(4) समस्या समाधान में सहायक (Helpful in Problem Solving): कम्प्यूटर आधारित शिक्षा एक और शिक्षार्थियों को विभिन्न समस्या से परिचित कराकर समस्याओं को जन्म देता है तो दूसरी ओर समाधान के लिए व्यक्तिगत ज्ञान का संचार भी कराता है।
(5) प्रेरणा की जागृति (Rise of Motivation) : कम्प्यूटर शिक्षा व्यक्ति में अर्जित ज्ञान के वृद्धि में सहायता करता है। इससे शिक्षार्थियों के उत्साह में वृद्धि होती है, यही प्रेरणा उसे कार्य जीवन के प्रति आग्रही बनाता है।
(6) सक्रियता (Activeness) : शिक्षा के लिए सक्रियता एक आवश्यक शर्त है। कम्प्यूटर द्वारा शिक्षा में शिक्षार्थी को सदैव सक्रिय बने रहने की आवश्यकता होती है। कम्प्यूटर के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया के लिए सदैव सक्रिय रहना होता है, यह सक्रियता शिक्षा को सुनिश्चित करती है।
(7) विभिन्न इंद्रियों का संयोग (Cooperation of different sense organs) : ज्ञानार्जन के लिए हमारे विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों के समन्वय की आवश्यकता होती है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस प्रकार शिक्षण पद्धति कम्प्यूटर शिक्षा के लिए विशेष उपयोगी है। यहाँ एक ही साथ लिखित वस्तु, उसके चित्र रूप, शब्द संयोजन, विषय की गूढ़ता आदि शिक्षार्थी के विभिन्न इंद्रियों को उदीप्त कर देता है। फलतः सीखने की प्रक्रिया अधिक लाभकारी बन जाती है।
सेमिनार आदि की सुविधा (Facilities for Seminars etc.) : कोई सभा, सेमिनार, वक्तृता या आलोचना तब और अधिक प्रभावकारी हो जाती है जब उसे शिक्षार्थी के सामने बार-बार पुनरावृत्ति किया जा सके। कम्प्यूटर के द्वारा ऐसे सेमिनार आदि के तथ्यों को बार-बार शिक्षार्थियों के लिए उपलब्ध कराकर विषय के प्रति उसकी जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है।
(9) मूल्यांकन की सुविधा (Facility of Evaluation): कम्प्यूटर शिक्षक, शिक्षार्थी सहित सभी शिक्षण गतिविधियों का लेखा-जोखा संरक्षित रखता है। इन संरक्षित तथ्यों से आवश्यकतानुसार अपने काम के तथ्यों को लेकर शिक्षक सहज ही छात्रों का मूल्यांकन कर सकते हैं। दूसरी तरफ शिक्षार्थी स्वयं भी कम्प्यूटर द्वारा संरक्षित तथ्यों से अपनी प्रगति और अवनति का अध्ययन कर सकता है। इस प्रकार के क्रमिक मूल्यांकन से शिक्षा में समयानुसार अपेक्षित तथा त्वरित कार्यवाही भी की जा सकती है और इसके सुंदर परिणाम भी देखने को मिलेंगे।
कम्प्यूटर ने आज हमारे जीवन में एक नवीन ऊर्जा का संचार किया है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले प्रगतिशील देश में शिक्षक-शिक्षार्थियों का अनुपात इस स्थिति में पहुँच गया है कि कक्षा में शिक्षार्थियों की जिज्ञासा, रुचि, गतिविधियों आदि का उचित निरीक्षण शिक्षक के लिए असम्भव सा होता जा रहा है। ऐसे में विषय-वस्तु की प्रस्तुति से लेकर अन्य विभिन्न समस्याओं के समाधान का एकमात्र विकल्प कम्प्यूटर ही बनता जा रहा है। अतः इसके लाभों का शाब्दिक आँकलन आज कठिन हो गया है।
Vvi** 3-शिक्षकों की विभिन्न समस्याओं के समाधान में कम्प्यूटर की उपयोगिता का संक्षिप्त वर्णन करें। (Briefly explain the application of computers useful in solving the various problems of a teacher.) ० अथवा, "क्या शिक्षक और कम्प्यूटर एक दूसरे के पूरक हैं"-वर्णन करें। ("Is teacher and computer are supplimentary to each other?'– Discuss.)
Ans. शिक्षकों के विभिन्न समस्या समाधान में कम्प्यूटर की उपयोगिता (Application of computer regarding the various problems of teacher) : शिक्षार्थियों के साथ ही कम्प्यूटर शिक्षकों को भी विभिन्न रूपों में सहायता करता है। कक्षा शिक्षण में विषयों की प्रस्तुति, कक्षा के संचालन, शिक्षार्थियों की सफलता तथा असफलता का रिकॉर्ड रखने, छात्रों के विज्ञान की जानकारी के क्षेत्र में कम्प्यूटर विशेष लाभकारी साबित होता है। आज पूरे विश्व में कम्प्यूटर की सहायता से शिक्षा कार्यों का संचालन किया जा रहा है। शिक्षकों के प्रशिक्षण तथा उनकी पेशागत दक्षता के क्षेत्र में भी कम्प्यूटर की प्रासंगिकता साबित हो चुकी है। आज ज्ञान-विज्ञान में जो व्यापक जिज्ञासा एवं परिवर्तन देखा जा रहा है, ऐसे में कम्प्यूटर के बिना शिक्षक सुचारू रूप से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर सकता है। संक्षेप में शिक्षकों की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए कम्प्यूटर की उपयोगिता को हम निम्नलिखित रूपों में व्यक्त कर सकते हैं -
1. कम्प्यूटर के माध्यम से शिक्षक, शैक्षणिक विषयों को छात्रों के सामने और अधिक व्यापक तथा प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर सकने में समर्थ हो सकेंगे।
2. कम्प्यूटर के प्रयोग से शिक्षक को सदैव शिक्षार्थियों पर अपना ध्यान केंद्रित रखने की आवश्यकता नहीं होती है|इस प्रकार शिक्षक कम परिश्रम द्वारा अधिक कार्य कर सकने में समर्थ हो सकेंगे।
3. शिक्षक कम समय और परिश्रम में सभी छात्रों की सफलता-विफलता का ब्योरा रख सकते हैं और उसी के अनुरूप शैक्षिक योजना बना सकते हैं। इन रिकार्डों को स्वयं या शिक्षार्थियों के सामने बार-बार प्रस्तुत कर सकते हैं।
4. शिक्षक अपने प्रशिक्षण के दौरान भी कम्प्यूटर के प्रयोग से विभिन्न पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियों के अध्ययन द्वारा उपकृत हो सकते हैं।
5. विद्यालय में शिक्षार्थियों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, शैक्षणिक आदि विभिन्न स्थितियों को तैयार करने में शिक्षक का काफी समय और श्रम चला जाता है। कम्प्यूटर के प्रयोग से बड़ी सरलता से और कम समय में इन कामों को निपटाया जा सकता है और फिर शिक्षक अपने शेष समय और श्रम को शिक्षा के अति महत्वपूर्ण कामों में लगा सकेंगे।
6. शिक्षार्थियों की समस्या का समाधान करना शिक्षकों की बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन व्यवहार में कई कारणों से यह सम्भव नहीं हो पाता है। लेकिन कम्प्यूटर के प्रयोग से विभिन्न समस्याओं का विश्लेषण कर शिक्षक आसानी से शिक्षार्थियों की जिज्ञासा तथा कौतूहल का समाधान कर सकने में सक्षम होंगे।
7. आज कई देशों में शिक्षकों के लिए कम्प्यूटर के माध्यम से दुनिया की विभिन्न गतिविधियों, समाज की विभिन्न घटनाओं आदि की जानकारी रखना आवश्यक कर दिया गया है।
8. स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालयों में कम्प्यूटर के प्रयोग से विभिन्न सेमिनारों का आयोजन कर शिक्षक, शिक्षार्थियों को शिक्षा से सम्बन्धित कई विषयों के प्रति सचेतन तथा आग्रही बना सकते हैं।
9. शिक्षार्थियों की सक्रियता मूलतः शिक्षकों की सक्रियता पर निर्भर करती है। लेकिन कम्प्यूटर एक ऐसा माध्यम है जो शिक्षकों की सक्रियता में सर्वाधिक सहयोगी साबित होता है और इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति में शिक्षार्थियों की सक्रियता भी बनी रहती है।
10. तात्त्विक ज्ञान के साथ ही शिक्षार्थियों को व्यावहारिक कार्य जीवन की शिक्षा दिया जाना भी आवश्यक है और इसके लिए शिक्षकों को भी इस ज्ञान से अवगत होना होगा। इस दिशा में कम्प्यूटर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विकल्प साबित हुआ है।
11. शिक्षार्थियों को विभिन्न पेशागत शिक्षण देने के लिए भी शिक्षकों को उन विभिन्न पेशागत शिक्षण से परिचित होने की आवश्यकता है। कम्प्यूटर ही वह माध्यम है जो धीरे-धीरे शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को इस पेशागत शिक्षा को दक्षता प्रदान कर सकने में समर्थ है।
12. समय-समय पर शिक्षकों को विभिन्न प्रकार के राष्ट्रीय तथा सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी करना पड़ता है। विशेष रूप से संग्रहण तथा समीक्षा सम्बन्धी कार्यों के लिए कम्प्यूटर ज्ञान आवश्यक है।
अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षार्थियों के साथ ही कम्प्यूटर आज शिक्षकों की भी विभिन्न प्रकार से सहायता करता है। शिक्षक यदि कम्प्यूटर के उपयोग से परिचित होकर इसके उपयोग की दिशा में आग्रही हों, कम्प्यूटर के सुफल को शिक्षार्थियों तक पहुँचाने में सफल हो सकें तो शिक्षार्थी इससे उत्साहित होकर अपनी उन्नति में इसका प्रयोग कर सकेंगे, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के प्रयास से इसे और अधिक जनोपयोगी रूप में प्रयुक्त किया जाए तथा इसके लिए शिक्षकों को पहले आगे आना होगा। तभी विद्यालयों में कम्प्यूटर के प्रयोग तथा शिक्षा में इसकी उपयोगिता को सार्थक महत्व प्राप्त हो सकेगा।
Short question answer
Most important
Vvvi Q. मूक एवं बधिर बच्चों को पढ़ाने की विधियों की चर्चा कीजिए।
उत्तर: गूंगे और बधिर बच्चों में से जो आंशिक रूप से बहरे हैं, वे सामान्य बच्चों की तरह बोल और सुन सकते हैं यदि वे अपनी पढ़ाई में श्रवण यंत्रों का उपयोग करते हैं और उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाता है। लेकिन जो पूरी तरह से गूंगे और बहरे हैं उनके लिए निम्नलिखित शिक्षण पद्धति लागू की जाती है:-
(1) ओष्ट वाचन : बोलते हुए वक्ता के होठों की गति देखकर उसके शब्दों या भावों को समझना ओष्ट वाचन या वाक् पठन कहलाता है। गूंगे और बहरे बच्चे वक्ता के चेहरे, चाल-चलन आदि में होने वाले समग्र परिवर्तनों को देखकर वक्ता को समझने की कोशिश करते हैं। बाद में होठों को उसी तरह देखकर वे भाषा सीखते हैं। इस विधि का दूसरा नाम मौखिक विधि है। इसके प्रवर्तक जुआन पाब्लो बोनट(Juan pablo bonet) हैं।
(2) अंगुलियों की वर्तनी सिखाना : जो बच्चे पूर्ण रूप से बधिर होते हैं वे अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए अंगुलियों की सहायता लेते हैं। उन्हें इस संबंध में उचित प्रशिक्षण दिया जाता है। इन बच्चों को फिंगर पेंटिंग के जरिए आसानी से अक्षर, शब्द, वाक्य और स्पेलिंग लिखना सिखाया जा सकता है। पेरियार इस व्यवस्था के प्रवर्तक हैं। भारत में इस पद्धति को करपाला के नाम से जाना जाता है।
(3) स्पन्दन एवं स्पर्श विधिः इस विधि में मूक एवं बधिर बच्चे मुँह पर हाथ रखकर और गले को छूकर शब्दों का उच्चारण करना सीखते हैं जबकि एक अनुभवी शिक्षक बोलता है। कंपन और स्पर्श विधि का आविष्कार केटी एलकॉन और सयाफ्या एलकॉन ने किया था
((4) हियरिंग एड विधि : इस विधि का प्रयोग मुख्यतः आंशिक रूप से बधिर बालक एवं बालिकाओं को पढ़ाने के लिए किया जाता है। उच्च शक्ति वाले श्रवण यंत्रों की मदद से आंशिक रूप से बधिरों के बहरेपन को काफी हद तक समाप्त किया जा सकता है।
(5) दार्शनिक विधि : मूक-बधिर बालकों को दार्शनिक विधि द्वारा अपने विचार व्यक्त करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें अनेक चिन्हों का प्रयोग किया गया है। शिक्षक गूंगे और बहरे बच्चों को इन प्रतीकों का प्रयोग करना सिखाते हैं। वे शीशे के सामने खड़े होकर शिक्षक की तरह मुंह से शब्दों का उच्चारण करने की कोशिश करते हैं और धीरे-धीरे उसमें महारत हासिल कर लेते हैं।
उपरोक्त विधियों द्वारा मूक-बधिरों को पढ़ाने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित धैर्यवान शिक्षकों की आवश्यकता होती है।
Most important
Vvvi Q. नेत्रहीन बच्चों की शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या हैं?
Or,
दृष्टिबाधित बच्चों की शिक्षा पद्धति की चर्चा करें।
उत्तर:-सामान्य बच्चों की तरह दृष्टिबाधित बच्चों के शैक्षिक उद्देश्य भी आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित होते हैं।
उद्देश्य हैं-:
(1) आत्मविश्वास में वृद्धि: सामान्य बच्चों की तरह सामान्य गतिविधियों को करने में सक्षम नहीं होने के कारण वे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। शिक्षा का उद्देश्य हीन भावना को दूर करना और आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद करना है।
(2) विभिन्न इंद्रियों का प्रयोग :-शिक्षा में चूँकि वे आँखों का उपयोग नहीं कर सकते, इसलिए इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे अन्य इंद्रियों का अधिक उपयोग कर सकें। शिक्षा का उद्देश्य अन्य इंद्रियों को सीखने में अधिक सक्रिय बनाने के लिए उपयुक्त तकनीकों में महारत हासिल करना सीखना है|
(3) पर्यावरण के अनुकूलन में सहायता: दैनिक जीवन के लिए उन्हें सामान्य कार्य करने के लिए दूसरों पर निर्भर न रहने का प्रशिक्षण देना। शिक्षा तभी उपयोगी होनी चाहिए जब पर्यावरण को सभी के लिए उपयुक्त बनाया जाए।
(4) स्वावलम्बन की प्राप्ति : इस शिक्षा का एक उद्देश्य नेत्रहीन बच्चों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाना है। मानसिक रूप से भी मजबूत रहेंगे।
(5) ज्ञान प्राप्त करने में सहायता: यह शिक्षा उन्हें विभिन्न विषयों में ज्ञान और अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्रदान करती है। उद्देश्यों में से एक अन्य इंद्रियों के माध्यम से उनकी गुप्त क्षमताओं को विकसित करने में उनकी सहायता करना, भले ही वे आँखों से दिखाई न दें।
(6) उचित अभिवृत्ति का निर्माण : वे मानसिक रूप से पिछड़े न हों, इसके लिए उनमें उचित अभिवृत्ति का विकास करना चाहिए। इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह अभिवृत्ति बनाना है कि अन्य बालकों की भाँति उन्हें भी समाज में समान स्वीकृति, समान अधिकार एवं कर्तव्य प्राप्त हों, वे भी विशेष प्रशिक्षण द्वारा समाज में उचित योगदान देने में सक्षम हों।
(7) विशेष मानसिक योग्यताओं का प्रयोगः इस शिक्षा का विशेष उद्देश्य इन बच्चों को सहारा देना है ताकि वे अपनी मानसिक योग्यताओं और प्रवृत्तियों के अनुसार आगे बढ़ सकें और उन्हें व्यवहार में लाकर स्वावलम्बी बन सकें।
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