Class-9 History Project

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मॉन्टेस्क्यू

मॉन्टेस्क्यू फ्रांस के एक महत्वपूर्ण फ्रांसीसी,दार्शनिक, राजनीतिज्ञ,लेखक ,विचारक, न्यायविद तथा उपन्यासकार थे।
चार्ल्स डी मोंटेस्क्यू का जन्म बोर्दो (फ्रांस) शहर में 18 जनवरी, 1689 को एक फ्रांसीसी कुलीन परिवार में हुआ था।। उन्हें प्रबुद्धता के महान दार्शनिकों में से एक माना जाता है। उन्होंने एक धार्मिक वक्तृत्व विद्यालय में अध्ययन किया। बुनियादी शिक्षा पूरी करने के बाद, वह बॉरदॉ विश्वविद्यालय और फिर पेरिस में अध्ययन करने गए। इन संस्थानों में उनका कई फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों के साथ संपर्क था, खासकर उन लोगों ने जो निरंकुश राजशाही की आलोचना करते थे।
1714 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, वह बोर्डो शहर लौट आए, जो शहर की संसद के सलाहकार बन गए। इस स्तर पर, वह अपने चाचा, बैरन ऑफ़ मोंटेसक्यू के संरक्षण में रहते थे। अपने चाचा की मृत्यु के साथ, मोंटेस्क्यू ने बैरन, भाग्य और बोर्डो संसद के अध्यक्ष के पद की उपाधि ग्रहण की।
1715 में मोंटेसक्यू ने जीन लारटिज़ से शादी की। वह बोर्डो एकेडमी ऑफ साइंसेज के सदस्य बन गए और इस स्तर पर, विज्ञान में कई अध्ययन विकसित किए। हालांकि, इस जीवन में कुछ वर्षों के बाद, वह थक गया, अपना शीर्षक बेच दिया और यूरोप की यात्रा करने का फैसला किया। अपनी यात्रा के दौरान, उन्होंने समाज, रीति-रिवाजों और सामाजिक और राजनीतिक संबंधों के कामकाज का निरीक्षण करना शुरू किया। 1720 और 1740 के दशक के बीच, उन्होंने राजनीति पर अपने महान कार्यों का विकास किया, मुख्य रूप से निरंकुश सरकार की आलोचना की और सरकार के एक नए मॉडल का प्रस्ताव किया।
1729 में, इंग्लैंड में यात्रा करते समय, उन्हें रॉयल सोसाइटी का सदस्य चुना गया।
मोंटेस्क्यू की मृत्यु 10 फरवरी, 1755 को पेरिस शहर में हुई थी।
उन्होने शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त दिया। वे फ्रांस में ज्ञानोदय के प्रभावी और प्रख्यात प्रतिनिधि माने जाते हैं।मॉन्टेस्क्यू की इतिहास, दर्शन, कानून और राजनीति में गहरी रुचि थी जिसके बदौलत वे एक व्यवसायी, न्यायविद, राजनीतिज्ञ, उपन्यासकार और राजनीतिक विचारक के रूप में विख्यात हैं। उन्हें प्राचीन राजनीति इतिहास का अच्छा ज्ञान था जिसका उपयोग करते हुए उन्होंने 1734 में रोमन लोगों के उत्थान और पतन पर लेख लिखे। राजनैतिक प्रगति के अध्ययन के लिए उन्होंने संपूर्ण यूरोप की यात्रा की। उन्होने इंग्लैण्ड में दो वर्ष बिताए और जॉन लॉक और ब्रिटिश संविधान से काफी प्रभावित रहे। उन्होंने यहां रह कर चार निबंध लिखे। उनका 'द स्पिरिट ऑफ लॉज़' (The Spirit of the Laws / कानून की आत्मा) नामक निबंध 1748 में छपा और संपूर्ण यूरोप में काफी चर्चित हुआ रहा। उसकी व्याख्या करते उन्होंने व्यवहार्य और स्वतंत्र राजतंत्र में सत्ता विभाजन का सिद्धांत दिया जिसके लिए वे आज तक प्रसिद्ध हैं।


वोल्टेयर


वोल्टेयर 21 नवम्बर 1694  – 30 मई 1778) फ्रांस का बौद्धिक जागरण (Enlightenment) के युग का महान लेखक, नाटककार एवं दार्शनिक था। उसका वास्तविक नाम "फ़्रांस्वा-मैरी एरुएट" (François-Marie Arouet) था। वह अपनी प्रत्युत्पन्नमति (wit), दार्शनिक भावना तथा नागरिक स्वतंत्रता (धर्म की स्वतंत्रता एवं मुक्त व्यापार) के समर्थन के लिये भी विख्यात है|

वोल्टेयर ने साहित्य की लगभग हर विधा में लेखन किया। उसने नाटक, कविता, उपन्यास, निबन्ध, ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक लेखन और बीस हजार से अधिक पत्र और पत्रक (pamphlet) लिखे।

यद्यपि उसके समय में फ्रांस में अभिव्यक्ति पर तरह-तरह की बंदिशे थीं फिर भी वह सामाजिक सुधारों के पक्ष में खुलकर बोलता था। अपनी रचनाओं के माध्यम से वह रोमन कैथोलिक चर्च के कठमुल्लापन एवं अन्य फ्रांसीसी संस्थाओं की खुलकर खिल्ली उड़ाता था।


बौद्धिक जागरण युग के अन्य हस्तियों (मांटेस्क्यू, जॉन लॉक, थॉमस हॉब्स, रूसो आदि) के साथ-साथ वोल्टेयर के कृतियों एवं विचारों का अमेरिकी क्रान्ति तथा फ्रांसीसी क्रान्ति के प्रमुख विचारकों पर गहरा असर पड़ा था।


रुसो के सामाजिक राजनीतिक चिंतन के प्रमुख बिंदु - 1. मानव स्वतंत्रता पर बल 2. समाज की कृतिमता पर प्रहार 3. मानवीय आसमानता की निन्दा 4. राज्य की उत्पतति तथा सामान्य इच्छा की निन्दा, आदि थे।

18 वीं शताब्दी के प्रबुद्धता के दौरान फ़्रैंकोइस-मैरी एरुएट का जन्म हुआ वोल्टायर फ्रांसीसी दार्शनिक और लेखक थे। वोल्टेयर संगठित धर्म और पारंपरिक संस्थानों की आलोचना के लिए और स्वतंत्र भाषण और अन्य नागरिक स्वतंत्रताओं के उनके मुखर समर्थन के लिए जाना जाता था। उनके समकालीन लोगों में जॉन लॉक, जोनाथन स्विफ्ट, अलेक्जेंडर पोप और जीन-जैक्स रोज्यू शामिल थे।


वोल्टेर का जन्म 1694 में फ्रांस के पेरिस में एक मध्यम वर्ग के परिवार के लिए हुआ था। उन्होंने एक शास्त्रीय शिक्षा को युवा के रूप में प्राप्त किया, लेकिन युवा वयस्कता के द्वारा अपने परिवार से दूर हो गया, इसके बजाय उनके गॉडफादर, अब्बे डे चाटेअनुफ के प्रभाव को पसंद किया, जिन्होंने मुफ्त सोच और कामुक जीवन जीता। यद्यपि वोल्टेयर को एक वकील बनने की उम्मीद थी, उन्होंने नाटकों, कविताओं, दार्शनिक ग्रंथों और ऐतिहासिक कार्यों को लिखने के बजाय उनके प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया। उनकी तेज बुद्धि और मधुमक्खी epigrams जल्द ही उसे फ्रेंच हलकों में प्रशंसा मिली। उनकी बोल्ड टिप्पणियां, हालांकि, अक्सर उन्हें अपने आराम और सुरक्षा खर्च होता था वोल्टेयर बाइबल, कैथोलिक चर्च, फ्रांसीसी सरकार और कई व्यक्तिगत दुश्मनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। उनकी आक्रामक टिप्पणी ने उन्हें दो बार बेस्टिल जेल में पहुंचा दिया और अपने जीवन भर में उन्हें कई बार निर्वासन में भेज दिया।


1726-1729 से इंग्लैंड में अपने निर्वासन के दौरान, वोल्टेयर इंग्लैंड के संवैधानिक राजशाही के तहत बुद्धिजीवियों द्वारा आनंदित भाषण की तुलनात्मक स्वतंत्रता की सराहना करने आया। फ्रांस लौटने पर, उन्होंने लेट्रेर्स फिलोसफीक्स सुर लेस एंग्लैज प्रकाशित किया, जिसने अंग्रेजी प्रणाली की प्रशंसा की और उसे आगे बंदी बना दिया। वह प्रशिया, स्विट्जरलैंड से लेकर अपने कई लंबे कैरियर के दौरान फ्रांस के कई क्षेत्रों में चले गए। हर जगह वह चला गया, उन्होंने दिन के प्रमुख बुद्धिजीवियों के दौरे का स्वागत किया और नए साहित्य प्रकाशित करना जारी रखा। आज, उनका सबसे प्रसिद्ध लघु काम 1759 नौसिखिए कैंडिडा है , जो आशावाद के दर्शन की आलोचना करने के लिए विडंबना और व्यंग्य पर बहुत निर्भर है, जो उनके समकालीन गॉटफ्रिड लाइबनिज़ द्वारा प्रचारित है।


वोल्टेयर का सामान्य दर्शन एक था जो परंपरा या अंधविश्वास से ऊपर का कारण था। थॉमस जेफरसन और बेन फ्रैंकलिन की तरह वॉल्टेयर डेविड था; वह एक उच्च शक्ति में विश्वास करते थे, लेकिन पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं की आलोचना की थी। उन्होंने विज्ञान और कला में प्रगति को प्रोत्साहित किया, और सामाजिक सुधारों का प्रयास करने, निष्पक्ष परीक्षण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और धर्म की स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए अपने साहित्य और सांस्कृतिक दायरे का इस्तेमाल किया। अंततः, वोल्टेयर ने लोकतंत्र पर प्रबुद्ध राजतंत्र के लिए तर्क दिया, लेकिन उनके दार्शनिक योगदान ने 18 वीं शताब्दी के अंत में दोनों अमेरिकी और फ्रेंच क्रांति के नेताओं पर जोरदार प्रभाव डाला।

रूसो

जीन-जक्क़ुएस रूसो (1712 - 78) की गणना पश्चिम के युगप्रवर्तक विचारकों में है। किंतु अंतर्विरोध तथा विरोधाभासों से पूर्ण होने के कारण उसके दर्शन का स्वरूप विवादास्पद रहा है। अपने युग की उपज होते हुए भी उसने तत्कालीन मान्यताओं का विरोध किया, बद्धिवाद के युग में उसने बुद्धि की निंदा की (विश्वकोश के प्रणेताओं (Encyclopaedists) से उसका विरोध इस बात पर था) और सहज मानवीय भावनाओं को अत्यधिक महत्व दिया। सामाजिक प्रसंविदा (सोशल कंट्रैक्ट) की शब्दावली का अवलंबन करते हुए भी उसने इस सिद्धांत की अंतरात्मा में सर्वथा नवीन अर्थ का सन्निवेश किया। सामाजिक बंधन तथा राजनीतिक दासता की कटु आलोचना करते हुए भी उसने राज्य को नैतिकता के लिए अनिवार्य बताया। आर्थिक असमानता और व्यक्तिगत संपत्ति को अवांछनीय मानते हुए भी रूसो साम्यवादी नहीं था। घोर व्यक्तिवाद से प्रारंभ होकर उसे दर्शन की परिणति समष्टिवाद में होती है। स्वतंत्रता और जनतंत्र का पुजारी होते हुए भी वह राबेसपीयर जैसे निरंकुशतावादियों का आदर्श बन जाता है।

सामाजिक अनुबन्ध के विचारकों में रूसो का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । वह एक दार्शनिक, क्रान्तिकारी विचारों का प्रणेता, शिक्षाशास्त्री, आदर्शवादी, मानवतावादी, युग निर्माता तथा साहित्यकार था । उसने परम्परागत प्राचीन शासन के सम्पूर्ण ढांचे को तोड़कर नवीन लोकतन्त्रीय व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया ।


रूसो हमेशा यही कहता था कि-मनुष्य स्वतन्त्र पैदा होता है और सर्वत्र वह जंजीरों में जकड़ा हुआ है । उसके सामान्य इच्छा के सिद्धान्त तथा सावयवी समाज के सिद्धान्त को शी काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है । रूसो को राजदर्शन का पिता भी कहा गया है । वह मानव की नैतिकता का समर्थक था ।

 जीवन और कार्य:


जीन जैक्स रूसो का जन्म 1712 में जिनेवा नगर के आइजक नामक घड़ीसाज यहाँ हुआ था । जन्म के समय ही उसकी माता का देहावसान हो गया था । उसकी चाची ने यद्यपि उसका लालन-पालन किया था, तथापि वह उससे स्नेह नहीं करती थी ।

पिता के भी रनेह से वंचित रूसो ने 14 वर्ष की अवस्था में संगतराश का काम किया । वहां उसने पाश्विक व्यवहार सहने के साथ-साथ चोरी करने और झूठ बोलने की कला भी सीखी थी । वहां से भागकर कुछ वर्ष रूसो ने फ्रांस में आवरागर्दी करते हुए बुरी संगत में बिताये ।


वह हमेशा वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति बन गया था, जिसे अपने नुदूत और भविष्य से कोई सरोकार न था । उसके कई महिलाओं से अनैतिक प्रेम सम्बन्ध रहे थे । मजदूरों की गन्दी बस्ती में रहकर उसने उमवारा, प्रताड़ित होने पर जीवन के हर पहलू को बारीकी से समझा ।यद्यपि उसने नियमित शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, तथापि उसमें जन्मजात प्रतिभा अवश्य थी । 1749 में उसने एक निबन्ध प्रतियोगिता में भाग लिया । उसके मौलिक और सनसनीखेज विचारों के कारण उसे प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार मिला था ।


उस निबन्ध में उसने यह लिखा था कि-विज्ञान तथा कला की तथाकथित प्रगति से ही सभ्यता का नाश और चरित्र का पतन हुआ है । यदि सरल, सुखी और सद्‌गुणी जीवन बिताना है, तो प्राकृतिक जीवन अपनाना चाहिए । इस निबन्ध में उसने यह भी लिखा कि हमें फिर से अज्ञान, निर्धनता और भोलापन दे दो; क्योंकि वे ही हमें सुखी बना सकते है ।

समाज में सम्मानित होने पर उसने भद्र समाज से अपने सम्बन्ध-विच्छेद कर लिये । वह एक दरिद्र अप्रशिक्षित धोबन के साथ रहने लगा था, जहां वह संगीत के साथ कठिनता से रोजी- रोटी कमा पाता था । इसी प्रकार उसने 1754 की डिजॉन विद्यापीठ की निबन्ध प्रतियोगिता में भाग लिया, जिसका विषय था: ‘असमानता की उत्पत्ति और उसकी आधारशिला’ ।


इस विषय पर अपने विचारों में उसने लिखा कि विषमता का मूल कारण निजी सम्पत्ति है, जो कि नितान्त अस्वाभाविक और अनौचित्यपूर्ण है । रूसो ने लिखा कि वह प्रथम व्यक्ति है, जिसने एक भू-भाग पर अधिकार जमाकर यह कहना प्रारम्भ किया कि ”यह मेरी भूमि है” और उसकी इस बात को उान्य मूर्खों ने स्वीकार कर लिया और वही व्यक्ति राज्य का संस्थापक बन गया ।1762 में उसने पेरिस छोड़ दिया और जिनेवा जाकर कैथोलिक प्रोटेस्टेंट बन गया और वहां की नागरिकता भी ग्रहण कर ली । कुछ समय बाद वह पेरिस के मौंटमेरिन्सी चला गया । वहां पर प्रकृति की गोद में रहते हुए अनेक रचनाएं लिखीं:


1. प्रोजेक्ट फार द एजुकेशन आफ एम॰डे॰ सेंट मेरी 1750 ई॰ ।


2. डिस्कोर्स अल द साइंसेज एण्ड आर्टस ।


3. द ओरिजन ऑफ इनकक्केलिटी एमंग मेन ।


4. द न्यू हेलायज-1761 ।


5. द सोसल कान्ट्रेक्ट- 1762 ई॰ ।


6. कन्केशन्स 1766 ई॰ ।


उसकी क्रान्तिकारी रचनाओं ने फ्रांस में एक क्रान्ति-सी ला दी थी । शासक और पादरीगण ने क्रुद्ध होकर उसकी गिरफतारी के उमदेश निकाले । पेरिस छोड्‌कर 16 वर्ष तक वह इधर-उधर खानाबदोश-सा भागता-फिरता रहा । प्राणरक्षा के लिए वह जर्मनी, इंग्लैण्ड भी भागता फिरा । यद्यपि उसे बर्क और हयूम जैसे साथियों का सहयोग मिला, तथापि वह किसी पर विश्वास नहीं करना चाहता था ।


रूसो ने अपने दार्शनिक विचारों में प्रकृति को सर्वोपरि माना है । प्राकृतिक जीवन को श्रेष्ठ मानते हुए उसने ”प्रकृति की ओर लौटो” का नारा दिया । उसने कहा: ‘सामाजिक संस्थाएं बुराइयों की जड़ हैं । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु अच्छी होती है । वह मनुष्य के हाथों में पड़कर बुरी हो जाती है ।’


रूसो स्वतन्त्रता का पक्षधर था । वह किसी भी प्रकार के बन्धनों का विरोध करता था । वह नियम, सिद्धान्त व आदर्श को भी नहीं मानता था और कहता था: ”जो कुछ किया जा रहा है, उसके विपरीत करो ।”


मनुष्य स्वतन्त्र रूप से जन्म लेता है, पर प्रत्येक स्थान पर परतन्त्र है ।


उसके सभी सुख प्रकृति में ही निहित हैं । प्रकृति से दूरी ही उसके कष्ट का कारण है । सभ्यता, विकास, संस्कृति ने मनुष्य को बांध लिया है । वह राज्य व समाज को अत्याचार का घर मानता है । ”नगर मानव-जाति की कब्रें हैं ।” उसने अत्यधिक ज्ञान को अच्छा नहीं माना ।


रूसो ने सच्ची शिक्षा उसे माना है, जो बालक की अन्तर्निहित शक्तियों को अभिव्यक्ति दें । वह बाल केन्द्रित शिक्षा को महत्त्व देता था । प्लेटो की तरह उसने व्यक्ति से अधिक राज्य को महत्त्व नहीं दिया है । शिक्षा में जनतान्त्रिक भावना को जन्रा दिया है । उसने ”एमील” को एक आदर्श बालक तथा “सोफी” को आदर्श बालिका मानकर रुचि एव योग्यतानुसार अलग-अलग पाठ योजना तैयार की ।


रूसो ने पाठ्‌यक्रम में प्रकृति, मनुष्य तथा वस्तु से सम्बन्धित विषयों में प्राकृतिक विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज, साहित्य, भाषा, सिलाई- बुनाई, दस्तकारी, संगीत, खेल, चित्रकारी, नैतिक शिक्षा आदि को स्थान दिया । स्वयं करके सीखना, खोज तथा निरीक्षण, स्वाध्याय विधि, शिक्षण-विधि को प्रचलित किया । शिक्षा का केन्द्र बालक को मानकर विद्यालय को प्राकृतिक वातावरण में निर्मित करने को कहा ।


वह दण्डात्मक अनुशासन की जगह मुक्त्यात्मक अनुशासन का समर्थक था । निषेधात्मक शिक्षा में उसने पुस्तकीय शिक्षा, धार्मिक शिक्षा, निश्चित पाठयक्रम का सैद्धान्तिक तथा परम्परावादी शिक्षा का विरोध


किया । ‘सामाजिक समझौते के सिद्धान्त’ द्वारा उसने लोकतन्त्रीय समाज की स्थापना के महत्त्व को बताया, जिसकी सम्प्रभुता समाज में ही निहित है ।


रूसो ने सामान्य इच्छा को यथार्थ इच्छा व आदर्श इच्छा में व्यक्त किया है । वस्तुत: यह दोनों एक ही है । विशेष अर्थो में यथार्थ इच्छा मानव इच्छा का वह भाग है, जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ की प्रबलता होती


है । आदर्श इच्छा में मानव स्वयं के हित की अपेक्षा मानव हित को प्रधानता देता है ।


सामान्य इच्छा ही वस्तुत: राष्ट्रीय चरित्र में एकता रखती है, जो विवेक तथा लोककल्याण पर आधारित होती है । यद्यपि उसके सामान्य इच्छा के सिद्धान्त की आलोचना शी हुई है । उसने राज्य को तब तक वैध नहीं माना है, जब तक कि उस पर विधियों का शासन न हो । ऐसे प्रकृतिवादी, सामाजिक समझौते के प्रणेता विचारक 2 जुलाई, 1779 को 66 वर्ष की आयु पूर्ण कर प्रकृति की गोद में समा गये ।

हाब्स, लाक की तरह रूसो भी सामाजिक समझौते के सिद्धान्त के प्रतिपादक थे । रूसो तत्कालीन समय में ऐसे क्रान्तिकारी विचारक के रूप में सामने आते हैं, जिन्होंने उस समय की दूषित शासन पद्धति, आर्थिक विषमता, सामाजिक व्यवस्था के भीषण दुष्परिणामों का नग्न चित्रण करते हुए जनता में जागति लायी । नेपोलियन की क्रान्ति, रूसो के ही विचारों का परिणाम थी ।













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