Class 12 Hindi Kavita notes

 Class 12 Hindi notes

कबीर की साखी एवं कबीर के पद


खण्ड ख (पद्य)(1x4=4)


★1. जिहीं सिरि रचि-रचि बाँधत पागा- यहाँ 'पागा' से संकेतित अर्थ को बताइए। [H.S.2020]
उत्तर : पागा का संकेतित अर्थ, पगड़ी है।

★2. 'क्या बहरा हुआ खुदाय' - कवि ऐसा क्यों कहता है ?[H.S.2020]
उत्तर: कवि बाह्याचार व पाखण्ड के विरोधी थे।

★3. दून्यू बूड़े धारा 'मैं चढ़ि पाथर की नाव - 'दून्यू' शब्द किन्हें इंगित करता है? [H.S.2019]
उत्तर : गुरु-शिष्य।

4. ग्यान प्रकाशा गुरु मिला,- ज्ञान का प्रकाश कब होता है? -
उत्तर - कबीर का कथन है कि जब गुरु मिलता है, तब ही हमारे जीवन में ज्ञान का प्रकाश होता है।

5. सों जिनि बीसरिं जाइ।- जब गोविन्द क्रिपा करी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- जब गोविन्द क्रिपा करी का अर्थ है जब ईश्वर ने कृपा की। वह सभी चीजों का कर्त्ता धर्ता है एवं सर्वशक्तिमान है। वह करुणावान एवं दया का सागर है। उसकी कृपा से ही गुरु की प्राप्ति होती है। 

6. दोनौं बूड़े धार मैं चढ़ि पाथर की नाव।
- पाथर की नाव से क्या आशय है? 
उत्तर- नाव वस्तुत: लकड़ी की होती है, तभी वह पानी में तैरती है। पत्थर पानी में डूब जाता है। पाथर की नाव से अर्थ है व्यर्थ वस्तु का सहारा लेना अथवा असंभव कार्य करने का प्रयत्न करना। 

7. अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत ।
- अंधहि अंधा ठेलिया का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-अंधहि अंधा ठेलिया का अर्थ है कि ज्ञानी गुरु तो आगे चलकर मार्गदर्शन करता है, किन्तु जब वह स्वयं अंधा होगा, तो वह शिष्य को पीछे से धकेलकर आगे बढ़ाएगा। परिणामत: दोनों ही कुएँ में गिरकर विनष्ट हो जाएँगे।

*8. 'तिरगुन' से कवि क्या कहना चाहते हैं?[H.S.2015]
उत्तर : 'तिरगुन' से कवि तीन गुण सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के बारे में कहना चाहते हैं।

 *9. कबीरदास के अनुसार साधु की संगति से क्या होता है ?[H.S.2015]
उत्तर : कबीरदास के अनुसार साधु की संगति से मनुष्य का हृदय निष्काम होता है।

*10. अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत
किस प्रसंग में 'दोनों' की चर्चा है ?
उत्तर -अज्ञानी गुरु का शिष्य अज्ञानी ही होगा। यदि गुरु और शिष्य दोनों ही एक दूसरे को ठेलते हुए मार्ग पर चलेंगे तो दोनों ही पतन के कुएँ में गिरकर नष्ट हो जायेंगे।

★11. 'जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
- जल और कुंभ से क्या अभिप्राय है?
 उत्तर - यहाँ जल से अभिप्राय संसार से है और कुंभ से अभिप्राय शरीर से है।

★12. "जल में कुंभ, कुंभ में जल है" - कुंभ किसे कहा गया है ?[H.S.2016]
उत्तर- कुंभ अर्थात् घड़ा। शरीर को भी इंगित किया गया है।

★13. 'निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय' -इस पंक्ति का अभिप्राय बताईए। [H.S.2017]
 उत्तर :निन्दक को अपने सामने ही आँगन में कुटी बनावकर रखना चाहिए, क्योंकि वह पानी और साबुन के बिना ही हमारे स्वभाव को निर्मल कर देता है।

★14. सच्चे मित्र का धर्म क्या है ?
उत्तर- सच्चे मित्र का धर्म है कि वह मित्र के दुःखों को देखकर दुःखी हो।

★15.'बूँद समांनी समंद में, सो कत हेरी जाइ।' - ‘बूँद' और 'समंद' से क्या अभिप्राय है? [H.S.2018]
उत्तर: बूँद आत्मा और समंद परमात्मा है। 

*16. 'माया महा ठगिनी हम जानी'- माया को ठगिनी क्यों कहा गया है?
उत्तर - माया अपने हाथों में त्रिगुण फंदा (सत, रज, तम) लेकर अपनी मीठी वाणी से सबको अपने फंदे में ले लेती है तथा वह विभिन्न रूप धारण करके हमारे जीवन में आती है। इसलिए कबीर ने माया को ठगिनी कहा है। 

* 17. हाड़ जरै जैसे लकड़ी झूरी। केस जरै जैसे त्रिनकै कुरी।
पंक्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कबीर ने शरीर की नश्वरता का वर्णन करते हुए कहा है कि जिस शरीर पर हम - इतना गर्व करते हैं। मरने के बाद हड्डियाँ ऐसे जलती हैं जैसे सूखी लकड़ी तथा केश सूखे घास की तरह जलते हैं।


कबीर की साखी एवं कबीर के पद

खण्ड क -5 x 2 = 10

2. प्रत्येक खण्ड के प्रश्नों का उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखा जाए। किसी खण्ड के दोनों प्रश्नों के उत्तर लिखना अनिवार्य है।

★ (क) 'गुरु', 'प्रेम' और 'जगत्' के संदर्भ में वर्णित कबीर के भावों को स्पष्ट कीजिए।[H.S. 2019]

उत्तर : कबीर दास जी पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उन्होंने संसार के सत्य के अन्वेषण के लिए अपने ही जीवन को प्रयोगशाला के रूप में ग्रहण किया। उन्होंने अपने दोहे के माध्यम से अन्तर्जग के सत्य का उद्घाटन किया है। कबीरदास ने अपने जीवन और काव्य दोनों में सद्गुरु को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। उनका कथन है कि सद्गुरु तभी प्राप्त होते हैं जब ईश्वर की कृपा होती है और इनको कैसे भुलाया जा सकता है। उन्होंने लिखा है

 ग्यान प्रकास्या गुरु मिल्या, सों जिनि बीसरिं जाई।
जब गोविन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आई ।। 

कबीर का मानना था कि यदि सच्चे गुरु को प्राप्त करना है तो निस्वार्थ भाव से गुरु के प्रति समर्पित होना चाहिए। कोई भी साधना तभी सफल होती है जब वास्तविक ज्ञानी गुरु मिले और सच्चा निष्ठावान शिष्य मिले। समाज में अधिकांशतः गुरु इस दाँव में लगे रहते हैं कि उनके यहाँ शिष्यों की मण्डली एकत्र हो जाये और शिष्य इस दाँव में रहते हैं कि किसी सुप्रसिद्ध गुरु का शिष्य कहलाकर वह महत्त्व प्राप्त कर ले। परन्तु सच्चे गुरु और शिष्य के अभाव में साधना और भक्ति प्राप्त नहीं हो पाती है शिष्य के मार्गदर्शन के लिए गुरु का ज्ञानी होना आवश्यक है। कबीरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है -

जाका गुरु अंधला चेला खरा निरंध।
 अंधे अंधा ठेलिया, दूनू कूप पड़ंत ।

कबीरदास ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रेम को सबसे सरल मार्ग बतलाया है उनका कहना है कि जब मनुष्य के हृदय में अभिमान होता है तो भगवान उनसे दूर रहते हैं और जब मनुष्य के हृदय में भगवान निवास करते हैं तो मनुष्य के मन का अभिमान दूर हो जाता है। प्रेम का रास्ता अत्यन्त सँकरा है उसमें अभिमान और प्रेम एक साथ नहीं रह सकता। मनुष्य के मन में जब अहंकार होगा तो भगवान नहीं रहेंगे और जब भगवान रहेंगे तो मनुष्य का अहंकार दूर हो जायेगा। कबीर ने अपने दोहे में प्रेम के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है 
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नांहि।
प्रेम गली अति साँकरी, जामे दो न समाँहि ।।

कबीर के अनुसार इस सृष्टि में ब्रह्म सर्वज्ञ व्याप्त हैं यह सृष्टि उसी ब्रह्म से है इसे कबीर ने बड़े ही रोचक शब्दों में उदाहरण देकर बताया है यदि समुद्र के जल में घड़ा को डूबा दिया जाये तो घड़े में जल भर जायेगा और तब घड़े में भी जल होगा और घड़े के बाहर भी जल होगा परन्तु यदि घड़े को फोड़ दिया जाये तो घड़े का जल और समुद्र का जल एक हो जायेगा। ठीक उसी प्रकार इस सृष्टि रूपी घड़े के भीतर और बाहर परमात्मा विद्यमान है ज्योंही शरीर रूपी घड़ा नष्ट होता वैसे ही जीवात्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं। कबीर के शब्दों में -
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
 फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तन कथौ गियानी ।।

कबीर दास ने कहा है कि संसार का नियम है संसार में जो आता है और दृश्यमान जगत नाशवान है और इस नश्वरता से हमें कोई बचा नहीं सकता है। कबीर ने लिखा है

हम देखत जग जात है, जग देखत हम जाहिं। 
ऐसा कोई ना मिलै, पकड़ि छुड़ावै बांहि ।।

★ (ख) 'कबीर एक महान समाज सुधारक थे' - पठित अंशों के आधार पर उपरोक्त कथन की समीक्षा कीजिए। 
उत्तर - संत कबीर उस समय अवतरित हुए जब मध्यकाल अंधकार से घिरा हुआ था। कुरीतियाँ व आडम्बर के अंधेरे को कबीर ने अपनी वाणी से दूर करने का प्रयत्न किया, जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उस समय की भूली-भटकी जनता के लिए वे एक सशक्त अवलम्ब बनकर सामने आए। निर्गुण संतो की परम्परा में गुरु को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है। परन्तु कबीर ने अयोग्य एवं अज्ञानी गुरुओं से सावधान रहने की बात कही है। अज्ञानी गुरु समाज को विमुख करने वाला तथा अज्ञानता के अंधकार में ढकेलने वाला है।

यथा-
 जाका गुरु भी अंधला चेला खरा निरंध 
अघरि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़त।।

कबीर की साधना वैयक्तिक रूप से आरम्भ हुई, जो उन्हीं तक सीमित नहीं रही। कबीर मात्र समाज सुधारक न होकर व्यक्ति के चरित्र एवं स्वभाव में उसकी आलोचना द्वारा उसके दोषों को दिखाकर परिवर्तन लाने के पक्षपाती थे -
निन्दक नियरे राखिए, आँगनि कुटी बँधाइ।
 बिनु साबुन पानी बिना, निरमल करै सुभाइ ।।

कबीर का साधना मार्ग ज्ञान का न होकर भक्ति का है, जिसमें प्रेम-तत्त्व प्रधान है। क्रांति चेत्ता कबीर अंहकार को त्यागकर प्रेम की सँकरी गली से होकर साधक को चलने की बात करते हैं..

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि। 
प्रेम गली अति साँकरी, यो में दो न समाँहि ।।

कबीर ने साधना और सफलता के मार्ग में नारी रूपी माया को बाधक बताया है, जो माया का जाल फैलाकर लोगों को कर्तव्य मार्ग से भ्रमित करती है -
यथा -
माया महा ठगिनि हम जानी

ईश्वर को आधार बनाकर कबीर समाज में व्यक्त कलह, द्वेष, संघर्ष आदि को दूर करने के लिए अग्रसर हुए।
उनका कहना था कि ईश्वर को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है मन की पवित्रता वाह्य साधन व्यर्थ हैं। उन्होंने पूरी शक्ति एवं निर्भीकता के साथ समस्त बाह्याचारों का विरोध किया। कबीर ने मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, हज, नमाज, रोजा आदि वाह्याचारों का खुले शब्दों में विरोध किया। मुसलमानों की अजान पर व्यंग्य करते हुए कबीर ने कहा-

काकर पाथर जोड़ के मसजिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दै क्या बहरा हुआ खुदाय ।। 

कबीर को समाज सुधारक का अनुभव था। वे अज्ञान के कारणों की तह तक गये और उन्होंने डाल-पात को धोकर नहीं, बल्कि जड़ को सींचकर समाज के नव-निर्माण का सच्चा प्रयत्न किया। कबीर सचमुच एक उच्च कोटि के समाज सुधारक थे।

(ग) पठित पाठ के आधार पर कबीरदास की काव्यगत विशेषता का वर्णन कीजिए। [H.S. 2015, 2018 ] 
★ अथवा, पठित पदों के आधार पर कबीर के विचारों को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर- कबीरदास एक भक्त और समाज सुधारक थे। उनके दोहों में उदात्त भक्ति और समाज सुधार की चेतना स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है। कबीरदास के पठित सम्पूर्ण दोहों के आधार पर देखा जाए तो कबीर अपने जीवन में गुरु की प्राप्ति के लिए कहते हैं कि उनके जीवन में गुरू की महत्ता सबसे बड़ी है और यह सद्गुरु तभी प्राप्त होता है जब ईश्वर की कृपा होती है और इसको मैं कैसे बिसार सकता हूँ -

ग्यान प्रकाशा गुरु मिला, सों जिनि बिसरि जाइ।
जब गोबिन्द क्रिया करी, तब गुर मिलिया आई ।।

 कबीर का कथन है कि गुरु-शिष्य दोनों नहीं मिलेंगे यदि मनुष्य भ्रम में पड़कर डूब मरते हैं अर्थात् पत्थर रूपी भगवान के चक्कर में अपने को खपा देते हैं परन्तु पाते कुछ भी नहीं हैं

ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव 
दोनों बूढ़े धार में चढ़ि पाथर की नाव ।।

कबीर का कहना है कि लोग पत्थर के चक्कर में पड़कर अपनी जीवन लीला को ही समाप्त कर लेते हैं। उनका मानना था कि यदि गुरु को प्राप्त करना है तो एक सच्चे गुरु की तलाश करनी चाहिए जो संसार रूपी भवसागर से मनुष्य को मुक्त कराये। कहीं ऐसा न हो कि वह आपने साथ लेकर शिष्य को भी कुएँ में डूबा दे। उदाहरण

जाका गुरु भी अंधला, चेरा खरा निरंध 
अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत ।।

इसलिए गुरु की प्राप्ति हेतु ध्यान रखना चाहिए कि सदगुरु की तलाश हो। कबीर का अपना मानना भी था कि अच्छे लोगों का साथ कभी भी निष्फल नहीं जाता है। वह हमेशा कल्याण रूपी होता है। यदि मनुष्य में कुछ कमियाँ भी रहती हैं तो वे भी दूर हो जाती हैं और उसमें कुछ न कुछ चमक सी आ जाती है

कबीरा संगति साधु की कदे न निरफल होइ। 
चंदन होसी पावना, नीम न कहसी कोई ।।

कबीर का कथन है कि जब कोई व्यक्ति किसी की निन्दा करता है, तो वह अच्छा काम है, निन्दा जिसकी होती है, उसे बुरा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि यह एक प्रकार का अच्छा कार्य है जिससे मनुष्य को उसकी गलतियों का पता चलता है और जब गलती का पता चल जाता है तो व्यक्ति उसका सुधार करना चाहता है, जो कि जीवन में अति आवश्यक है। इसी ओर संकेत करते हुए कबीर एक उदाहरण देते हैं -

निन्दक नियरे राखिए, आँगनि कुटी बँधाइ। 
बिनु साबुन पानी बिना, निरमल करै सुभाइ ।।

कबीर अपने अन्दर के ग्यान की प्राप्ति के लिए बताते हैं कि उसे अपने अहं को मारना पड़ेगा। बिना इस अहं को नष्ट किए जीवन में कुछ भी नहीं होने वाला है। अहंकार ज्ञानमार्ग में बाधक है। कबीर का अपना अनुभव है कि हरि को पाने के लिए मैंने भी अपने अहं का त्याग किया -

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।
 प्रेम गली अति साँकरी, या में दो न समाँहि ।।

कबीर ने अपने जीवन में किसी से भी न डरने की कसम ले ली है। वे डंके की चोट पर कहते हैं कि ईश्वर की प्राप्ति हेतु उन्हें ऊँचे चढ़कर बाग देने की क्या आवश्यकता है। वह तो हर व्यक्ति के हृदय में समाहित है। बस प्रेम की भाषा जो जाने और उसे सच्चे हृदय से पुकारे, तो ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। किसी कंकड़-पत्थर की दीवाल पर चढ़कर चिल्लाने से कुछ नहीं होगा

कांकर पाथर जोड़ि के मसजिद लई बनाय ।
 ता चढ़ि मुल्ला बाँग दै क्या बहरा हुआ खुदाय ।।

कबीर अपने काव्य में संसार के मोह को छोड़ना चाहते हैं पर उनके लिए तो कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता है जो इस संसार के भवसागर से उनको छुड़ा ले और इस जीवन-मरण के आवागमन से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाए। 

"हम देखत जग जात हैं, जग देखत हम जाहिं ।
 ऐसा कोई ना मिलै, पकड़ि छुड़ावै बांहि ।।

इस प्रकार कबीर ने अपने साखियों और दोहों के माध्यम से संसार को सच्चे ज्ञान का मार्ग दिखा लाया है। संसार को सच्चे गुरु की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है, इस ओर इशारा किया है और यदि कोई किसी की बुराई भी करता है तो वह किसी न किसी प्रकार व्यक्ति के भले काम की बात भी करता है।
इस प्रकार कबीर की साखियों और दोहों में, वैसी भी विशेषताएँ मिल जायेंगी, जो जीवन जीने के लिए अति आवश्यक हैं।




खण्ड ख (पद्य)(1x4=4)

तुलसीदास के पद

★1. 'कुपथ निवारि सुपंथ चलावा'- कौन 'सुपंथ' चलाता है ?
[H.S.2020]
 उत्तर: मित्र सुपंथ चलाता है। अर्थात् मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोकर अच्छे मार्ग पर चलावे।

★2. अन्तहुँ तोहि तर्जंगे पामर!- 'पामर' का अर्थ क्या है ?
उत्तर: पापी।

 3. जिन्ह के असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।।
- पंक्ति का अर्थ स्पष्ट करें।
 उत्तर - जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे। 

4. आगे कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।।
- कपटी मित्र क्या करता है?
उत्तर- कपटी मित्र तो सामने पड़ने पर चिकनी चुपड़ी बातें करता है और पीठ पीछे मित्र की घोर निंदा करता है।

5. सेवक सठ नृप कृपन कुनारी कपटी मित्र सूल सम चारी ।। 
- तुलसीदास के अनुसार जीवन के चार प्रकार के शूल क्या हैं?
उत्तर- तुलसीदास जी के अनुसार मूर्ख सेवक, कृपण राजा, कुनारी और कपटी मित्र जीवन के चार शूल है।

6. पोंछि पसेउ बयारि करौ, अरु पायाँ पखारिहौं भूभुरि डाढ़े।।
भूभूरि क्या है?
उत्तर – प्रचंड गर्मी के दिनों में धूल के कण बहुत ही गर्म हो जाते हैं, इतने गर्म कि उसमें अनाज के दाने डाल दिये जाएँ तो वे पक जाते हैं, जल जाते हैं, उसे ही भूभूरि कहते हैं। 

7. दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरू ही ते ।।
- हमारी यह देह दुर्लभ कैसे है? अब हमें इस दुर्लभ देह से क्या करना होगा ? 
उत्तर- हमारी यह देह दुर्लभ है क्योंकि जब तक है, है, अन्यथा फिर यह मिलने वाली नहीं है, अप्राप्य है। अब हमें इस दुर्लभ देह से मन, वाणी और कर्म से ईश्वर का स्मरण करना होगा और उनका भजन करना होगा।

8.सहसबाहु दसबदन आदि नृप, बचे न काल बली ते। 
• तुलसी के अनुसार सबसे बली कौन है? सहसबाहु और दसबदन कौन थे ?
उत्तर -तुलसी के अनुसार सबसे बली है काल (मृत्यु), इससे कोई भी नहीं बच सकता। सहसबाहु जिसकी हजार भुजाएँ थीं और दसबदन अर्थात् रावण जिसके दस सिर थे, ये दोनों अपने समय के अप्रतिम वीर और पराक्रमी थे। इनके जैसे वीर 'न भूतो न भविष्यति' ये भी काल के गाल में समा गए।

9. हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते।।
 - हम धन और धाम सँवारते हैं, किसलिए?
 उत्तर -हम धन और धाम सँवारते हैं अपनी मान प्रतिष्ठा की वृद्धि और संतति सुख के लिए, हम अहंकार से ग्रसित होकर धन संग्रह करते हैं। यह हमारा है पर अंत में सब छूट जाता है।

 ★10.जानकी पर अपने नाथ के प्रेम का क्या असर होता है ?[H.S.2015]
उत्तर -तन पुलकित हो गया और आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। 

★11. जानकी नाह को नेहु लख्यौ, पुलक्यो तनु बारि बिलोचन बाढ़े
- प्रस्तुत अंश तुलसी की किस रचना से है तथा किस भाषा में रचित है? 
उत्तर -प्रस्तुत अंश तुलसी की 'कवितावली' काव्य-ग्रंथ से है तथा यह ब्रज भाषा में रचित है।

*12. 'मन पछितैहैं अवसर बीते' संक्षेप में अर्थ स्पष्ट कीजिए। [H.S.2018]
उत्तर: दुर्लभ मानव जन्म पाकर मनुष्य को मन, वचन, कर्म से ईश्वर की आराधना करनी चाहिए नहीं तो समयvनिकल जाने पर पछताने से कोई फायदा नहीं। 

13. सच्चा मित्र का धर्म क्या है?
उत्तर -सच्चा मित्र का धर्म है अपने मित्र के गुण को प्रकट करना और उसके दुर्गुणों को दूर करना। 

14. पामर किसे कहा गया है?
उत्तर- पामर इस जीव या मनुष्य के मन को कहा गया है, जो मोह के बंधन में बंधा हुआ है। 

15. "पाँछि पसेड बयारि करी" का अर्थ बताइए।(H.S.2016]
उत्तर-पसीने को पोंछकर राम सीता को हवा करते हैं। 

★16. 'सहसबाहु दसबंदन आदि नृप, बचे न काल बली ते' से क्या अभिप्राय है?(H.S.2017]
उत्तर: अभिप्राय यह है कि इतने बलवान लोग (सहस्रबाह, रावण) भी काल के गाल में जाने से नहीं बचे, तो सामान्य जन कैसे बच सकता है? इस संसार से लोग खाली हाथ ही जाते हैं। इस संसार को कोई भी वस्तु उनके साथ नहीं जाती है।


खण्ड क -5 x 2 = 10

Long question answer
★(1) 'राम-सुग्रीव मैत्री' पठित पद के आधार पर तुलसीदास के मित्रता सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।[H.S.2018]
 अथवा, किष्किंधा काण्ड में तुलसीदास जी ने किस प्रकार के मित्रों से सावधान रहने के लिए कहा है।[H.S.2020]

उत्तर - तुलसीदास एक महान भक्त कवि थे। अपने समय की अपेक्षाओं को उन्होंने बड़ी बारीकी और गहराई से समझा था। वे सही अर्थों में लोकनायक थे, जिन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समन्वय करने की चेष्टा की। उनके 'रामचरितमानस' का एक-एक काण्ड समय की कसौटी पर आज भी प्रासंगिक है।

'रामचरितमानस' के 'किष्किन्धाकाण्ड' का 'राम-सुग्रीव मैत्री' प्रसंग आज टूटते सामाजिक एवं पारिवारिक रिश्तों को जोड़ने का सहज एवं सरल साधन है। आज का सामाजिक ताना-बाना जहाँ स्वार्थ एवं मतलब पर आधारित है, वहीं मित्रता जैसे पवित्र सम्बन्धों में भी घुन लग गया है। ऐसे मित्रों की संख्या कम नहीं है जो मीठी-मीठी, चिकनी-चुपड़ी बाते करके मित्रता का दंभ भरते हैं परन्तु पीठ-पीछे अपने ही मित्र का जड़ खोदते हैं।

यथा  -
आगे कह मुदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई ।।

 तुलसीदास ने इस प्रसंग में विश्वासघाती मित्रों की तुलना साँप से की है जिनका घात करना स्वभाव बन चुका है। आज साँप के समान विषधर मित्रों की कमी नहीं, जो अवसर मिलते ही अपने परम मित्र को डँस कर मौत के मुँह में ढकेल देते हैं। ऐसे साँप के समान मित्रों से तुलसी सावधान ही नहीं करते बल्कि उन्हें त्याग देने की भी सलाह देते हैं|

जा कर चित अहि गति सम भाई । 
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ।।


तुलसीदास मित्र एवं कुमित्र को पहचानने की बात कहते हैं। आज के इस आधुनिक एवं विषाक्त वातावरण में जहाँ रिश्ते सिमटते जा रहे हैं एवं अविश्वास का वातावरण सर्वत्र व्याप्त है। वहाँ ऐसे मित्र आज भी हैं जो कुपथ निवारि सुपंथ चलावा गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ।। परन्तु ऐसे मित्रों की संख्या आधुनिक थपेड़ों के प्रभाव से नगण्य होती जा रही है। अतः ‘राम-सुग्रीव मैत्री’ प्रसंग समय की कसौटी पर आज भी उतना ही खरा एवं प्रासंगिक है जितना तात्कालीन समय में था। 

★ (2) पठित पदों के आधार पर तुलसीदास की भक्ति-भावना स्पष्ट कीजिए।

उत्तर - गोस्वामी तुलसीदास उत्कृष्ट कोटि के भक्त थे। अत: उनकी भक्ति-भावना उत्कृष्ट कोटि की है। तुलसी ने भक्ति के व्यवहारिक पक्ष पर दृष्टि रखी है, भक्ति के सैद्धान्तिक पक्ष में नहीं। इसलिए दार्शनिक मतवादों के पचड़े में न पड़कर एक नई भक्ति पद्धति की बात करते हैं। तुलसी के समय में ही राम साहित्य में मधुर रस का समावेश हो चुका था। कृष्ण भक्ति काव्य की प्रेम लीलाओं के समान राम साहित्य छबीली राम की रसिकतापूर्ण लीलाओं से भर गया। इसमें राम और जानकी के प्रणय, विलास, हास, वन और जल विहारों तथा कामकेलियों का निशंक भाव से चित्रण किया जाने लगा। तुलसीदास राम भक्ति में रसिकता का समावेश तो करते हैं परन्तु दृढ़ता के साथ मर्यादावाद का पालन करते हुए दिखते हैं। कवितावली की निम्नलिखित पंक्तियाँ दृष्टव्य है 'तुलसी' रघुवीर प्रिया स्रम जानि कै :

बैठि विलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकी नाह को नेहू लख्यौ, पुलको तनु, बारि विलोचन बाढ़े ।।

      भक्ति की आवश्यक शर्त है अपने आराध्य के प्रति अहैतुक प्रेम । इसलिए कवि वचन और हृदय से श्रीहरि की चरणों की वन्दना करने पर जोर देता है, नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा -

 मन पछितैहैं अवसर बीते ।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरू ही ते ।।

       तुलसी की भक्ति-भावना सदा निष्काम है। उसमें स्वार्थ सिद्धि की गंध भी नहीं है। कामनाओं तथा विषयभोगों को त्याग कर ही आराध्य का सानिध्य प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए कवि तुलसी कहते हैं. -

अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते

बुझे न काम-अगिनि तुलसी कहुँ, विषय-भोग बहु घी ते ।। 

          इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि तुलसी के इन पदों में भक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है।

Most important 
Vvvi***2)तुलसीदास के पद (किष्किंधा कांड - रामचरितमानस) पाठ के आधार मित्रता के महत्व पर प्रकाश डालें|

उ०:- कवि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के किष्किंधा काण्ड' में एक स्थान पर राम सुग्रीव संवाद' के माध्यम से मित्रता के महत्व को प्रतिपादित किया है। सच्चे मत्र की सत्यता विपत्ति में प्रमाणित होती है। कवि रहीम ने भी कहा है-विपत्ति कसौटी जे कसे, सोई सांचे मीत। " जो विपत्ति में आपकी सहायता करें, वही सच्चा मित्र होता है।
कवि तुलसीदास जी ने बतलाया है, सच्चा मित्र वही होता है, जो आपके ऊपर आये संकट, विपति को देखकर दुःखी होता है। यही कारण है कि जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते हैं, उन्हें देखने से ही पाप लगता है।
 सच्चे मित्र की यह विशेषता होती है कि वे पर्वत के समान दुःख को भी अपने मित्र के धूल के समान दुःख के समक्ष बहुत ही छोटा मानते है अर्थात् मित्र के धूल के समान दुःख पर्वत के समान बड़ा मानते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सच्चा मित्र अपने मित्र के दुःख को समझते है। कवि तुलसीदास ने लिखा है-
  निज दुःख गिरिसम रज करि जाना। 
मित्र के दुख रज मेरु समाना ॥
कवि तुलसीदास जी ने बतलाया है कि जो लोग मूर्ख होते है, उससे मित्रता नहीं करनी चाहिए। एक समझदार इंसान ही सच्चा मित्र हो सकता है। इसका यह अर्थ है कि एक सच्चे मित्र का यह धर्म या कर्तव्य होता है कि वह अपने मित्र को गलत कार्य करने से रोके,   गलत मार्ग पर चलने से रोककर सत्पथ पर ले जाए। उसे सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करें। साथ ही उसके गुणों को निखार कर सबके समक्ष प्रकट करें, उसके बुरी आदतों पर विराम लगाये
तात्पर्य यह है कि सच्चा मित्र अपने मित्र की पीठ पीछे निन्दा नहीं करता है, बल्कि उसकी त्पर्य यह बुराईयों को दूर करता है और अच्छाईयों को निखारता है। उदाहरण स्वरूप निम्न पंवित
"कुपथ निवारि सुपंध चलावा।

सच्चे मित्र की यह विशेषता है कि वह विपत्तिकाल में अपने मित्र के साथ रहता है। यदि किसी मनुष्य के पास अपार धन-दौलत है, लेकिन यदि वह जरूरत के समय उसके मित्र के काम न आए, तो धन • अपने सामर्थ्य के काय दलित व्यर्थ है। अत: अच्छे मित्र की यह पहचान है कि वह अनुसार दुःख मुसीबत की घड़ी में अपने मित्र की सहायता के लिए तत्पर रहे। किसी भी प्रकार का संकोच न करे। 
सच्चा मित्र वह होता है, जो पीठ पीछे बुराई न करे और मुँह देखा व्यवहार न करे। वह हमेशा एक सा अच्छा व्यवहार करे। यदि कोई, सामने पड़ने पर मीठी,मीठी बात करें, हमारे भलाई की बात करें, परन्तु पीठ पीछे बुराई करे, तो ऐसे का साथ छोड़ देना चाहिए।अत: जिसका मन साँप की चाल के तरह टेढ़ा, कुटिल हो, ऐसे को अपने जीवन से बाहर निकाल देने में ही भलाई है।
मित्रता के महत्व या सच्चे मित्र की विशेषता बतलाते हुए कवि तुलसीदास जी ने लिखा है-
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी । कपटी, मित्र सूल सम चारी ॥

अर्थात मूर्ख सेवक, कंजूस राजा और कु नारी (खराब स्त्री) से एक इन्सान को खतरा रहता है, ठीक इसी प्रकार एक कपटी मित्र भी खतरे के समान है। ये चारों ही काँटे के समान होते है। इन सबसे हमें दूर रहना चाहिए। कपटी मित्र हमें कभी भी छल सकता है। अत: यह प्रयास होना चाहिए कि मित्र के साथ हमेशा विश्वासपूर्ण रिश्त का निवर्हण करते हुए सदैव उसके हित का ख्याल रखे।
इसप्रकार कवि तुलसीदास ने मित्र की विशेषताओं का उल्लेख किया है।


संध्या-सुन्दरी




(1) 'संध्या-सुन्दरी' कविता के भाव सौन्दर्य पर प्रकाश डालिए
[H.S. 2020] 

उत्तर - निराला जी की 'संध्या-सुन्दरी' कविता छायावादी युग की श्रेष्ठ रचना है। यह कविता प्रकृति काव्य का श्रेष्ठ उदाहरण भी है। प्रकृति का सुन्दर चित्रण करने के साथ-साथ निराला जी ने इसमें रहस्यानुभूति भी प्रकट की हैं। इस कविता की भावपक्षीय एवं कलापक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं:-

     भावपक्ष - सौन्दर्य का व्यापक चित्रण - संध्या-सुन्दरी कविता निराला के सौन्दर्य चित्रण की प्रतिभा की परिचायक है। इस कविता में सन्ध्या का वर्णन सुन्दरी के रूप में किया गया है, जो परी के समान धीमी गति से आसमान से धरती पर उतर रही है -

दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
 वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे ।

   प्रकृति का मानवीकरण - निराला ने संध्या को सुन्दरी मानकर उस पर मानवीय क्रियाओं का आरोप किया है। संध्या सुन्दरी अपनी सखी के कंधे पर अपनी बाँह डाले हुए धीरे-धीरे आकाश मार्ग से चली आ रही है। इस चित्र को कवि ने इस प्रकार चित्रित किया है-

अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली 
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह 
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।

रहस्यात्मक झलक -रहस्यवाद छायावादी कवियों की एक प्रमुख विशेषता है। 'संध्या-सुन्दरी' नामक कविता में हमें स्वस्थ प्राकृतिक रूप में, साथ-साथ रहस्यमयी शक्ति की भी अनुपम झलक मिलती है -
 सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा,
 चुप, चुप, चुप
है गूँज रहा सब कहीं


(2) संध्या-सुन्दरी पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। 
★ अथवा,
 संध्या-सुन्दरी कविता का मूलभाव अपने शब्दों में लिखिए।[H.S.2016].

उत्तर - 'संध्या-सुन्दरी' निराला की एक प्रसिद्ध कविता है जिसकी रचना सन् 1921 ई० में हुई थी। इस कविता का प्रकाशन 'अपरा' नामक काव्य संग्रह में हुआ था। इस कविता में सन्ध्या बेला का रूपकात्मक चित्रण है। यह कविता अर्ध निशा में लखनऊ के एक होटल में लिखी गई है। 

दिन अपनी समाप्ति की ओर है। सन्ध्या- रूपी सुन्दरी किसी परी की भाँति धीरे-धीरे आकाश से उतर रही है। सन्ध्या की उस बेला में असीम गंभीरता व्याप्त है। दूर-दूर तक हास-विलास का कोई चिह्न नहीं है, सिर्फ एक तारा हँसता है। वह तारा संध्या रूपी सुन्दरी के घुँघराले काले बालों में गुंथा हुआ उसका शृंगार करता प्रतीत हो रहा है।

संध्या के उस समय में आलस्य और कोमलता का अद्भुत संगम हो रहा है। सन्ध्या रूपी सुन्दरी नीरवता रूपी सखी के कंधों पर बाँहें डाले एक छाया के समान आकाश मार्ग से चली आ रही है। न तो उसके हाथों में कोई वीणा है, न उसके नूपुरों से रुनझुन का स्वर ही उत्पन्न हो रहा है। सम्पूर्ण वातावरण में निस्तब्धता ही गुंजायमान है। 

आकाश में, संसार में, शान्त सरोवर में स्थित कमलिनी दल में, नदी के विस्तार में, पर्वत के शिखरों पर, समुद्र की लहरों में, धरती, जल, नभ, वायु और अग्नि में सर्वत्र असीम शान्ति व्याप्त हो रही है और सन्नाटे का स्वर गूँज रहा है।

सन्ध्या सुन्दरी आकाश से धरती पर मदिरा को नदी सी बहाती हुई आती है। दिन-भर के थके हुए प्राणियों को वह प्रेमपूर्वक आलस्य रूपी मंदिरा का पान कराती है। वह उन्हें अपनी गोद में सुलाती है और उन्हें मधुर स्वप्न दिखाती है। आधी रात के पूर्ण शांति काल में संध्या सुन्दरी विलीन हो जाती है। ऐसे समय में कवि के हृदय में प्रेम-भाव जागृत होता है, उसके कंठ से स्वतः ही विहाग राग फूट पड़ता है।

*(3) पठित पाठ के आधार पर निराला की काव्यगत विशेषताएँ बताइए। 
अथवा, 
'सन्ध्या-सुन्दरी' नामक कविता के कथ्य एवं शिल्प पर प्रकाश डालिए।

 उत्तर - 'संध्या-सुन्दरी' निराला की प्रकृतिपरक कविता है, जो उनके काव्य संकलन 'अपरा या परिमल' में संकलित है। इस कविता की काव्यगत विशेषताएँ निम्न शीर्षकों में की जा सकती हैं :
 (1) संध्या का मानवीकरण - कवि ने संध्या का चित्रण एक सुन्दरी के रूप में किया है जो आसमान से पृथ्वी पर धीरे-धीरे उतरती आ रही है। संध्या एक अनुपम सुन्दरी है जिसके दोनों अधर मधुर हैं। वह एक अप्सरा है जिसने अपना बालों में एक तारा टाँक रखा है। धीरे-धीरे उतरती हुई संध्या का वर्णन कवि निम्न पंक्तियों में करता है-

दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही
 वह संध्या सुन्दरी परी सी
धीरे-धीरे-धीरे।

(2) सौन्दर्य-चित्रण - निराला एक छायावादी कवि थे। उन्होंने मानव, प्रकृति एवं भाव तीनों के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति अपनी कविताओं में की है। संध्या सुन्दरी अत्यन्त सुकुमार है, जो अपनी सहेली नीरवता के कंधे पर हाथ रखकर धीरे-धीरे पृथ्वी पर आ रही है-

अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली 
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर- पथ से चली।

(3) रहस्य भावना - छायावादी कवि प्रकृति में उसी परमात्मा की छवि देखते हैं। उस अज्ञात सत्ता की अनुभूति सर्वत्र करने के कारण उनकी कविता में रहस्यवादी भावनाओं का संचार हो गया है। इस कविता में भी वही रहस्यभावना सर्वत्र झलकती है। चारों ओर नीरवता और शान्ति का वह शब्द गूंज रहा है-

सिर्फ एक अव्यक्त शब्द सा
 "चुप, चुप, चुप"
 है गूंज रहा सब कहीं. -
व्योम-मण्डल में जगतीदल में -
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल-कमलिनी-दल में
 सौन्दर्य - गर्विता सरिता के अति विस्तृत वक्ष स्थल में|

(4) काव्य सान्दर्य इस कविता में कवि के प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। छायावादी कवि प्रकृति पर नारी का आरोप करते हुए, उसे एक सुन्दरी के रूप में प्रस्तुत करते हुए, उसे मानवीय चेष्टाएँ करते हुए, दिखाते हैं। प्रकृति का मानवीकरण करने के साथ-साथ अलंकारों की इन्द्रधनुषी छटा का प्रयोग इस कविता में किया गया है। उदाहरण के लिए निम्न पंक्ति में एक साथ रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, मानवीकरण अलंकार हैं :

मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या सुन्दरी परी -सी धीरे- धीरे-धीरे ।

भाषा की कोमलता, संगीतात्मकता, मुक्त छन्द विधान, गेयता, शृंगार रस की व्यंजना इस कविता की अन्य विशेषताएँ हैं। लाक्षणिक पदावली का प्रयोग भी इस कविता में किया गया है। यथा:

हँसता है तो केवल तारा एक गुंथा हुआ उन घुँघराले बालों में।

सांध्यकालीन आकाश में चमकते एकमात्र तारे को संध्या के बालों में गुंथा हुआ दिखाया गया है। निश्चय ही यह निराला की एक प्रभावपूर्ण, मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कविता है। 


4) पठित पाठ के आधार पर निराला के प्रकृति चित्रण की विशेषताएँ बताइए।

उत्तर – 'सन्ध्या सुन्दरी' कविता में निराला ने प्रकृति का अलंकृत रूप अंकित किया है। सन्ध्या का मानवीकरण चित्र को जीवन्तता प्रदान करता है। सूर्यास्त के बाद से अर्द्धरात्रि तक के नीरव वातावरण को अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से अभिव्यक्त करने में निराला ने अपूर्व कौशल का परिचय दिया है। प्रत्येक पंक्ति में वातावरण की सजीवता दृष्टिगोचर होती है। सायंकाल मेघमय आसमान से उतरने वाली सन्ध्या सुन्दरी कवि को परी सी जान पड़ती है और वह उसके स्वर्गीय सौन्दर्य को निहारने में निमग्न हो जाता है। प्रस्तुत कविता में सुन्दर प्राकृतिक बिम्बों की योजना स्मरणीय है।

(1) मानवीकरण के रूप में प्रकृति का चित्रण प्रकृति में चेतन सत्ता का आरोपण ही मानवीकरण है। सभी छायावादी कवियों ने भी एक ही स्वर में प्रकृति को चेतन के रूप में स्वीकार किया है। निराला के काव्य में इस विधा के अगणित उदाहरण देखे जा सकते हैं संध्या सुन्दरी कविता से एक उदाहरण दिवसावसान का समय,
मेघमय आमसान से उतर रही है वह सन्ध्या
सुन्दरी परी-सी धीरे-धीरे ।

(2) दार्शनिक रूप से प्रकृति चित्रण प्रकृति के माध्यम से दर्शन की अभिव्यक्ति छायावादी कवियों की एक प्रमुख विशेषता मानी जाती है। निराला जी ने जीव और ब्रह्म के रूप में प्रकृति के क्रीड़ा विलास का बड़ा ही मनोरम चित्र उपस्थित किया है। एक उदाहरण -

सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन।

(3) जिज्ञासु भाव के रूप में प्रकृति चित्रण - छायावादी कवि एक ओर तो प्रकृति के माध्यम से अपनी रहस्यात्मक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है तथा दूसरी ओर वह अपनी जिज्ञासा भी प्रकट करता है। एक उदाहरण संध्या
सुन्दरी से -

कवि का बढ़ जाता अनुराग
विरहाकुल कमनीय कंठ से
आप निकल पड़ता तब एक विहाग।

(4) प्रकृति का कोमलता रूप में चित्र निराला के काव्य में प्रकृति के सभी कोमल रूप का दर्शन प्राप्त होता है। पठित पाठय से एक उदाहाण -

तिमिराञ्चल में चञ्चलता का नहीं कहीं
 आभास मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर
किन्तु जरा गंभीर नहीं हैं उनमें हास-विलास

 (5) गम्भीर या शान्त रूप में प्रकृति का चित्रण निराला के संध्या सुन्दरी कविता में प्रकृति को एक शान्त और अति गम्भीर रूप में भी चित्रित करने में सफलता प्राप्त हुयी है -

अलसता की सी लता 
किन्तु कोमलता की वह कली
सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाँह

सिर्फ एक अव्यक्त सा "चुप, चुप, चुप"
है गूंज रहा सब कहीं।

इस प्रकार निराला के सन्ध्या सुन्दरी कविता में प्रकृति चित्रण के भिन्न-भिन्न रूप प्राप्त होते हैं और निराला को प्रकृति चित्रण में प्रर्याप्त सफलता इस कविता में प्राप्त हुई है।

(5) निराला की संध्या सुन्दरी कविता का मूल प्रतिपाद्य क्या है ?

उत्तर - ‘सन्ध्या सुन्दरी' कविता की रचना सन् 1921 में हुई थी। प्रकृति वर्णन सम्बन्धी श्रेष्ठ कविताओं में इसकी गणना की जाती है। इस मुक्त छन्द कविता में निराला ने प्रकृति का मानवीकरण करके सन्ध्या की व्यापकता का वर्णन अत्यन्त विशदता और व्यापकता के साथ किया है। सन्ध्या की तुलना एक यौवन-सम्पन्न सुन्दर युवती से की है, जो चुपके-चुपके चली आ रही है। सन्ध्या के समय चारों ओर वातावरण शान्त हो जाता है और पक्षियों का कलरव बन्द हो जाता है। फिर संन्ध्या धीरे-धीरे धरती पर उतर कर चेतन-अचेतन जीवों को अपने अंक में विश्राम देती है। धीरे धीरे अंधकार अपना दामन फैलाता रहता है और सन्ध्या के समय सब ओर वातावरण स्तब्ध सा हो जाता है। सादृश्योपमा के रूप में कविता कवि की अनोखी सूझ-बूझ का प्रमाण है। पन्त ने भी ‘रूपसी तुम कौन ?' कविता में व्योम से रही रूपसी सन्ध्या का चित्रण किया है और निराला ने भी। पन्त की सन्ध्या परी न होकर रूपसी है। मानवीकृत सन्ध्या सुन्दरी के उतरने में कवि ने जो अलसता, मन्थरता, गंभीरता और नीरवता का चित्र खींचा है, वह आकर्षक है। पन्त की दृष्टि उसके रूप-सौन्दर्य पर ही केन्द्रित रही है। निराला की इस कविता में चित्र एवं वातावरण को सूक्ष्म कलात्मक अभिव्यक्ति है। शब्दों में चित्रकला को साकार कर देने की यह क्षमता सचमुच अद्भुत है। इस कविता में प्रकृति के पीछे एक रहस्यात्मक शक्ति झाँकती हुई दिखाई देती है। धीरे-धीरे, मधुर-मधुर, चुप-चुप सदृश शब्दों की आवृत्ति एक गंभीर मौन प्रभाव की सफल व्यंजना करती है। इस कविता के सम्बन्ध में डॉ० रवीन्द्र भ्रमर का कथन है - 'सम्पूर्ण कविता पढ़ने पर कविता की कोई भी स्पष्ट या अस्पष्ट मूर्ति सामने नहीं आती - हाँ कुंचित कच और गोरे कपोल वाली एक सुन्दरी अवश्य साकार हो उठती है। निराला का यह चित्र बौद्धिक विलास जान पड़ता है, भावोत्कर्ष उससे सहायता नहीं मिलती।' डॉ० रवीन्द्र भ्रमर की इस आलोचना से असहमति व्यक्त करते हुए कहा जा सकता है कि छायावादी पृष्ठभूमि में कवि ने सन्ध्या का मानवीकरण कर उसे एक सुन्दर नारी के रूप में चित्रित किया है जिसके सौन्दर्य वर्णन के प्रति कवि ने रीतिकालीन दृष्टिकोण न अपनाकर नवीन और स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया है।


संक्षिप्त प्रश्न 

1-'आप निकल पड़ता तब एक विहाग' किस कविता से उद्धत है?
[H.S.2020]
 उत्तर : संध्या-सुन्दरी कविता से।
★ 2-. सन्ध्या-सुंदरी कविता कवि के किस संग्रह से ली गई है ?[H.S. 2019]

उत्तर: परिमल।
3-." दिवसावसान का समय मेघमय आसमान से उतर रही है।"
- संध्या सुन्दरी कविता में दिवस की किस बेला का चित्रण है?
 उत्तर - संध्या सुन्दरी कविता में दिवस की संध्याकालीन बेला का चित्रण है।

4-गुंथा हुआ उन घुंघराले काले-काले बालों से, हृदय-राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। - 
हृदय राज की रानी किसे कहा गया है ? संध्या को हृदय राज की रानी क्यों कहा गया है? हृदय राज की रानी का अभिषेक कौन करता है ?

 उत्तर- संध्या सुन्दरी को हृदय राज की रानी कहा गया है।
           संध्या सुन्दरी सब जीवों के हृदय पर राज करती है, इसलिए उसे कवि ने हृदय राज की रानी कहा है। 
            हृदय राज की रानी का अभिषेक बालों में गुँथा एक तारा करता है। 

5. हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक ?' - यहाँ 'वह' से संकेतित अर्थ को बताइए।[H.S.2018)

उत्तर : यहाँ 'वह' से संकेतित अर्थ है हँसता हुआ तारा। 

6. नूपूरों में भी रुनझुन रुनझुन नहीं, सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा "चुप चुप चुप"
- सन्ध्या सुन्दरी के पैरों में बँधी नुपूरों की लड़ियों से आवाज क्यों नहीं आते? सख्या सुन्दरी की का अहसास किस ध्वनि से होती है ? 
उत्तर - सन्ध्या सुन्दरी आसमान से इतना धीरे-धीरे उतरती है कि उसके पद चरणों में हलचल नहीं होती, इसलिए नुपूरों की ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती।
सन्ध्या सुन्दरी की उपस्थिति का अहसास सिर्फ चुप-चुप ध्वनि से होती है। 

7. सन्ध्या सुन्दरी अपने साथ क्या बहाती लाती है?"

उत्तर - सन्ध्या सुन्दरी अपने साथ मदिरा की सरिता बहाकर लाती है। 

8. सन्ध्या सुन्दरी थके हुए लोगों को क्या पिलाती है?

उत्तर- सन्ध्या सुन्दरी थके हुए लोगों को मदिरा का प्याला पिलाती है।

9. सन्ध्या सुन्दरी के हाथों से मदिरा पिलाने का आशय क्या है? 
उत्तर- दिन भर का थका माँदा व्यक्ति सन्ध्या होते ही अलसाने लगता है। सन्ध्या सुन्दरी उन्हें नींद की मंदिरा पिलाती है अर्थात् सन्ध्या होते ही लोग नींद के आगोश में समा जाते हैं। 

10. सन्ध्या सुन्दरी थके जीवों को क्या करती है?
उत्तर - सन्ध्या सुन्दरी थके जीवों को अंक में सुला लेती है। 

11. सन्ध्या सुन्दरी थके जीवों को क्या दिखाती है ?
उत्तर - सन्ध्या सुन्दरीं श्रमित व्यक्ति, जीवों को मीठे सपने दिखाती है। रात में उन्हें सपनों की भूल-भुलैया में पहुँचा देती है।

*20. कवि ने संध्यासुन्दरी को क्या कहा है?[H.S. 2015]

उत्तर : कवि ने संध्यासुन्दरी को अलसता की लता और कोमलता की कली कहा है। 
* 21. मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर -प्रस्तुत पंक्ति के प्रसंग को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- 'संध्या-सुन्दरी' कविता में निराला ने संध्या को सुंदरी रमणी के रूप में चित्रित किया है। संध्या रूपी परी जो मेघमय आकाश से पृथ्वी की ओर धीमी गति से उतर रही है, उसके अरुण अधर मोहक और मधुर हैं। 

22. तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास ।
- इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर - प्रस्तुत पंक्ति में महाप्राण निराला ने संध्या को एक सुंदरी रमणी के रूप में चित्रित किया है। संध्या सुंदरी के अंधकारमय अंचल में चंचलता का कहीं आभास नहीं है अर्थात् संध्या सुंदरी का अंधकार से भरा हुआ अंचल बिल्कुल
शांत है।

*23. कवि का अनुराग क्यों बढ़ जाता है?[H.S.2016]

उत्तर - आधी रात की निश्चलता में सन्ध्या-सुन्दरी के लीन होने से कवि का अनुराग बढ़ता है।








अवकाशवाली सभ्यता


1. कि चाहे लाख बदल जाये, मगर भारत भारत रहेगा - कवि ऐसा क्यों कहता है ? [H.S.2020]

उत्तर : भारत अपनी विशेषता सदा बनाए रखेगा, कभी भारत की सभ्यता और संस्कृति नष्ट नहीं होगी। इसलिए रामधारी सिंह 'दिनकर' ऐसा कहते हैं।

2)कि सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है - अर्थ स्पष्ट कीजिए।[H.S.2019]
उत्तर : दुनिया यह स्वीकार करेगी कि अपने सुख-साधनों के लिए विज्ञान पर पूर्णतया आश्रित हो जाना उचित नहीं।

3. अनागत से मुझे यह ढाबर आती है कि चाहे लाख बदल जाये, मगर भारत भारत रहेगा। -पद्यांश में आये 'अनागत' शब्द से क्या तात्पर्य है ?

उत्तर- पद्यांश में आये 'अनागत' शब्द का अर्थ है "आनेवाला" अर्थात् भविष्य

4. जो ज्योति दुनिया में बुझी जा रही है, वह भारत के दाहिने करतल पर जलेगी।
-"जो ज्योति दुनिया में बुझी जा रही है" से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- "जो ज्योति दुनिया में बुझी जा रही है" से तात्पर्य यह है कि युद्धों के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व से प्यार, विश्वास, सहानुभूति की ज्योति खत्म हो रही है।

★5. 'मनुष्य और किसी से नहीं, अपने आविष्कार से हारेगा' - कवि ऐसा क्यों कहता है? [H.S. 2018]
उत्तर : विज्ञान का सही प्रयोग ईश्वर का वरदान है। गलत विनाश का विध्वंस का। इसलिए मनुष्य अपने आविष्कार से हारेगा।

6. यंत्रो से थकी हुई धरती उस रोशनी में चलेगी।
- धरती क्यों थकी हुई है? यंत्रों से थकी धरती को रोशनी कहाँ से मिलेगी ? उत्तर - यांत्रिक सभ्यता के विकास के कारण यह धरती थकी हुई है। यंत्रों से, यंत्रों के कोलाहल से थकी धरती को भारत से रोशनी मिलेगी।

7. साबरमती, पाण्डिचेरी, तिरुवण्णमतई और दक्षिणेश्वर
- साबरमती, पॉण्डिचेरी, तिरूमल्लड़ और दक्षिणेश्वर क्या हैं?
उत्तर- साबरमती, पॉण्डिचेरी, तिरुमल्लइ और दक्षिणेश्वर भारत के शान्ति तीर्थ और चेतना केन्द्र है।

8. साबरमती में क्या है?
उत्तर - साबरमती में गाँधी जी द्वारा स्थापित आश्रम है।

9. पॉण्डिचेरी किससे सम्बन्धित स्थान है ?
उत्तर - पॉण्डिचेरी, महर्षि अरविन्द से संबंधित स्थान है।

10. दक्षिणेश्वर कहाँ स्थित है?
उत्तर - दक्षिणेश्वर पश्चिम बंगाल के कोलकाता में स्थित है।

11. दक्षिणेश्वर किससे सम्बन्धित स्थान है?
उत्तर - दक्षिणेश्वर रामकृष्ण परमहंस से सम्बन्धित स्थान है।

12. जब दुनिया झुलसने लगेगी दुनिया क्यों झुलसने लगेगी?
उत्तर - दुनिया आपसी संघर्ष एवं युद्ध की विभीषिका से झुलसने लगेगी।

13. जब अवकाश बढ़ता है आदमी की आत्मा ऊँघने लगती है। उचित है कि ज्यादा समय, उसे करघे पर जगाये रहो।
- करघा किसका प्रतीक है? गाँधीजी क्यों कहते थे कि "अवकाश बुरा है" ?
उत्तर - करघा सृजन एवं कर्म का प्रतीक है। गाँधीजी इसलिए कहते थे कि अवकाश बुरा है क्योंकि व्यक्ति अगर कुछ नहीं करता है तो उसके दिमाग में उल्टी चीजें ही उगती हैं।

14. अवकाशवाली सभ्यता, अब आने ही वाली है।
- अवकाशवाली सभ्यता क्यों आने वाली है ?
उत्तर - तकनीकि उन्नति एवं स्वचालित यंत्रों के प्रयोग के कारण बेकारी की समस्या उत्पन्न हो रही है, आदमी के पास काम की कमी हो गई है। इसलिए अवकाशवाली सभ्यता आने वाली है।

15. अभाव उसे और किसी चीज का नहीं केवल काम का होगा।
- प्रस्तुत पंक्तियाँ “अभाव उसे किसी चीज का नहीं केवल काम का होगा" में कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर - अभाव उसे और किसी चीज का नहीं, केवल काम का होगा से कवि का तात्पर्य यह है कि मशीनों ने व्यक्तियों के रोजगार छीन लिये हैं फलतः मनुष्य बेकार हो गया है उसके पास करने के लिए कोई काम नहीं है।

16.दुनिया घुमकर इस निश्चय पर पहुँचेगी कि सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है। -'सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है' से कवि का क्या तात्पर्य है ?

उत्तर - “सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है" से कवि का तात्पर्य यह है कि विज्ञान के आविष्कारों ने मनुष्य को स्वयं पर एकदम आश्रित बना दिया है जिससे मनुष्य कर्म क्षेत्र से वंचित हो गया है और उसका विकास रुक गया है।

★ 17. कवि मनुष्य को किससे हारने की बात कहते हैं ?
उत्तर : आविष्कारों से हारने की बात कहते हैं।

★18. शीतलता की धारा यहीं से जायेगी। -पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर - प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' कहते हैं कि जब दुनिया आपसी संघर्ष एवं युद्ध की विभीषिका से झुलसने लगेगी तब समस्त विश्व में अमन, शांति एवं अहिंसा की धारा भारत से ही प्रवाहित होगी।

19. और यह देह सिर्फ आधी साँस लेती है - -इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - कवि व्यर्थ जीवन बीत जाने के कारण दुःखी है। उसे ऐसा लगता है कि अब तक उसके जीवन में केवल असफलताओं तथा असमर्थताओं का कूड़ा-कचरा ही जमा हुआ है। यह देह भी पूरी देह नहीं रह गयी है क्योंकि यह आधी साँस पर ही किसी तरह जीवित है।

*20. वे फिर पीपल की छाया में लौट आयेंगी। • रेखांकित शब्द से क्या संकेतित है ?

उत्तर ★ रेखांकित शब्द 'वे' से परमाणु हथियारों की ताप से झुलसने वाली पीढ़ी संकेतित है।

21. वह भारत के दाहिने करतल पर जलेगी। 'वह' सर्वनाम का प्रयोग किस संदर्भ में है ?

उत्तर - 'वह' सर्वनाम का प्रयोग मानवता की ज्योति के संदर्भ में हुआ है। कवि दिनकर कहते हैं कि दुनिया में यंत्रो के प्रयोग के कारण मानवता की ज्योति जब बुझने लगेगी तब उस ज्योति को प्रकाश भारत के दाहिनी तरफ से मिलेगा।

*22. मनुष्य किससे हारेगा ? [H.S. 2016]
उत्तर - मनुष्य अपने आविष्कार से हारेगा।

*23. अवकाश वाली सभ्यता में मनुष्य को किस चीज का अभाव होगा ?
[H.S.2017]

उत्तर : अवकाश वाली सभ्यता में मनुष्य को काम का अभाव होगा


हो गई है पीर पर्वत-सी


*1. सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं - यहाँ 'मकसद' से संकेतित अर्थ क्या है?[H.S.2019]

उत्तर : लक्ष्य।

**2. 'हो गई है पीर पर्वत सी' कविता की किस विधा की रचना है?[H.S.2018]

उत्तर - • यह हिन्दी काव्य के गजल विधा की रचना है। 

3. हो गई है पीर पर्वत-सी, पिघलनी चाहिए।
- प्रस्तुत पंक्तियों में प्रयुक्त 'पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए' का क्या अर्थ है ? 
उत्तर - प्रस्तुत पंक्तियों में प्रयुक्त 'पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए' का अर्थ यह है कि अब पीड़ा को पर्वत के समान पिघलना चाहिए अर्थात् अब असहनीय पीड़ा को सहना नहीं चाहिए, विद्रोह करना चाहिए।

**4. आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगीं,
• प्रस्तुत पद्यांश में प्रयुक्त 'दीवार' शब्द किस चीज का प्रतीक है? 
उत्तर- प्रस्तुत पद्यांश में प्रयुक्त 'दीवार' शब्द अमीरों और गरीबों के बीच के अन्तर को प्रकट करता है।

5. हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। 
'हर लाश चलनी चाहिए' से क्या तात्पर्य है?
उत्तर- 'हर लाश चलनी चाहिए' से तात्पर्य यह है कि इस विद्रोह में प्रत्येक व्यक्ति की भागीदारी आवश्यक है यहाँ तक कि लाश की भी। अर्थात् यह जनक्रांति इतनी व्यापक स्तर पर होनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति इसमें भागीदारी करे।

6. 'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही' के द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर • कवि परिवर्तन का श्रेय स्वयं नहीं लेना चाहता। वह चाहता है कि यह काम हर किसी को करना चाहिए।

*7. दुष्यंत कुमार ने 'दीवार' शब्द के माध्यम से क्या संकेतित किया है?[H.S.2015]
उत्तर : समाज में व्याप्त विषमता को संकेतित किया गया है।

8.हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए।
- प्रस्तुत पंक्ति का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - प्रस्तुत पंक्ति में गज़लकार दुष्यंत कुमार कहते हैं कि शासन व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था ने अब विशालकाय पर्वत का रूप धारण कर लिया है जिससे आदमी की पीड़ा बढ़ती ही जा रही है। इसलिए क्रांति रूपी गंगा की आवश्यकता है जो देश एवं आम आदमी की दुरावस्था को पिघला सके। 

9. "इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए" से क्या अभिप्राय है ? 
उत्तर - दुष्यंत कुमार भारतवर्ष में व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा रखते हैं। 

**10. 'हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।' - यहाँ 'आग' से संकेतित अर्थ को बताइए। [H.S.2017] 
उत्तर - यहाँ पर कवि व्यवस्था के प्रति आक्रोश के आग की बात करता है।






कबीर की साखी 

एवं कबीर के पद


(ii) ससंदर्भ आलोचनात्मक

 व्याख्या कीजिए।


***(1) जाका गुरु भी अंधला चेला खरा निरंध । 
अंधहि अंध ठेलिया, दोनों कूप पडत([H.S. 2020]

संदर्भ - प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या - कवि कहता है कि जिसका गुरु अंधा है, अर्थात् अज्ञानी है, उसका चेला (शिष्य) तो अधिक अंधा अर्थात् महा अज्ञानी होगा। एक अंधे को जब दूसरा अंधा धकेलकर आगे ले चलता है, तब दोनों कुएँ में जा गिरते हैं अर्थात् भव-कूप में पड़कर नष्ट हो जाते हैं।

V i.(2)नाँ 'गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव | 
दोनों बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ।।

संदर्भ- प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।
 
व्याख्या:- कबीरदास जी कहते हैं कि कोई भी साधना तभी सफल होती है, जब वास्तविक ज्ञानी गुरु मिले और सच्चा निष्ठावान शिष्य मिले। वह कहते हैं कि यदि सच्चा गुरु नहीं मिलता है और न तो सच्चा निष्ठावान शिष्य हो मिलता है, तो दोनों लालचवश केवल अपने-अपने दाँव अर्थात् स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं। गुरु इस दाँव में लगा रहता है कि वह अपने प्रदर्शन के द्वारा शिष्यों की मण्डली एकत्र करे और शिष्य इस दाँव में रहता है कि किसी गुरु का शिष्य कहलाकर वह महत्त्व प्राप्त करे।
                      किन्तु सच्चे गुरु-शिष्य के अभाव में साधना की दृष्टि से दोनों भवसागर में वैसे ही डूबकर नष्ट हो जाते हैं, जैसे पत्थर की नाव पर चढ़ने वाले नदी की धारा में डूब जाते हैं।

Vvvi.****(3)जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि ।
 प्रेम गली अति साँकरी, या में दो न समहि ।।***

संदर्भ -प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या - इस दोहे में कबीरदास जी का कहना है कि जब मनुष्य के हृदय में 'अभिमान' होता है, तो भगवान उससे दूर रहते हैं और जब उसके हृदय में भगवान निवास करने लगते हैं, तो उससे अभिमान दूर चला जाता है। प्रेम का रास्ता अत्यन्त सँकरा है, उसमें दो लोग एक साथ नहीं समा सकते। अभिप्राय यह है कि मनुष्य के हृदय में भगवान तथा अहंकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते, कोई एक ही रह सकता है। मनुष्य या तो ईश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो या अहंकार हो मन में पाल रखे, किन्तु जब अहंकार होगा तो भगवान नहीं रहेंगे और जब भगवान रहेंगे तो मनुष्य को अहंकार से दूर रहना होगा।

Vvi.(4)हम देखत जग जात हैं, जग देखत हम जाहिं । 
ऐसा कोई ना मिलै, पकड़ि छुड़ावै बांहिं ।***

संदर्भ - प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या -हम देख रहे हैं कि संसार (दृश्य मान जगत) जा रहा है (नष्ट हो रहा है) और संसार देखता है कि हम नष्ट हो रहे हैं। ऐसा कोई नहीं मिल रहा है कि जो हमारी बाँह पकड़कर हमें दडा ले। मृत्यु के चंगुल से बचा ले। कबीर दास 'जी कहते हैं कि मैंने संसार में सर्वत्र घूमकर देख लिया। संसार के सभी प्राणी माया मोह ग्रस्त दिखाई दिए, अतः उन सभी जीवों का संसार में आवागमन बना हुआ है। जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म का क्रम बना हुआ है। भ्रमण करते करते मैं थक गया लेकन ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जो मुझे माया से अलग करके भव सागर से पार ले जाने का मार्ग बता सके।

Vvi.★ (5) झूठे तन कौं क्या गरबावै। मरै तो पल भरि रहन न पावै। [H.S.2016]

संदर्भ - प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर के पद शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या - हे मनुष्य ! तू झूठे अर्थात् नाशवान् शरीर पर घमण्ड क्यों करता है? अगर तू मर जायेगा तो यह शरीर पलभर भी नहीं रहने पायेगा या तो मरने पर इस शरीर को जला दिया जायेगा या गाड़ दिया जायेगा।


6)हेरत- हेरत हे सखि, रहा कबीर हराइ । 
बूँद समाँनी समुद मैं, सो कत हेरी जाइ।।

संदर्भ - प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या - हे जीवात्मरूपी सखियो ! परमात्मा को खोजते खोजते मैं स्वयं ही खो गया, अर्थात् परमात्मा का ध्यान करते-करते मेरा पृथक् अस्तित्व ही समाप्त हो गया और वह परमात्मा में लीन हो गया। उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हुए कबीर कहते हैं कि जो बूँद समुद्र में समा जाती है, उसे किस प्रकार खोजा जा सकता है। भाव यह है कि जिस प्रकार समुद्र में मिलकर बूँद अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है, उसी प्रकार जीवात्मा जब परमात्मा में लीन हो जाती है तो उसकी पृथक् सत्ता समाप्त हो जाती है।

***(7)जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना, यह तत कथौ गियानी।। 

संदर्भ - प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या -यदि समुद्र के जल में घड़ा को डुबो दिया जाए तो उसमें जल भर जाएगा। तब यह स्थिति बनेगी कि घड़ा में भी जल होगा और घड़ा के बाहर भी, किन्तु यदि उस घड़ा को तोड़ दिया जाए तो घड़ा का जल और समुद्र का जल एक हो जाएगा। ठीक उसी प्रकार इस सृष्टि रूपी घर के भीतर और बाहर भी सूक्ष्म जल रूपी परमात्मा तत्व विद्यमान है। जैसे ही शरीर रूपी घर फूट जाता है। वैसे ही जीवात्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं।


**8)कबीर संगति साधु की, कदे न निरफल होइ,
चंदन होसी बाँधना, नीम न कहसी काई ।।

संदर्भ - प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या: कबीर कहते है कि साधुओं की संगति कभी भी बेकार नहीं जाती, उसका फल निश्चय ही मिलता है। उदाहरण देते हुए कबीर कहते हैं कि साधुओं की संगति से तुम नीम जैसे कड़वे से सुगंधित चंदन बन जा और फिर कोई तुम्हें नीम अर्थात् कड़वा या बुरा न कह सकेगा। क्योंकि चंदन के वृक्ष को कोई भी नीम के बराबर कड़वा नहीं बता सकता।

***9)निन्दक नियरे राखिए, आँगनि कुटी बंचाइ
 बिनु साबुन पानी बिना, निरमल करे सुभाइ ।। 6 ।।

संदर्भ - प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में संकलित कबीर की साखी शीर्षक पाठ से अवतरित है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।

व्याख्या: प्रस्तुत साखी में कबीर कहते हैं कि जो व्यक्ति तुम्हारी निंदा करते हैं उसे अपने से दूर मत रखिए,उसे सम्मानपूर्वक पास रखना चाहिए । निंदा करनेवाला व्यक्ति हमारे दोषों को उजागर (प्रकट) करके हमें सुधरने का अवसर देकर हमारे तन और मन दोनों को शुद्ध कर देता है।

तुलसीदास के पद



Imp**(1) "जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ! तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी।” 
[H.S. 2019]

उत्तर : सन्दर्भ- प्रस्तुत अंश तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरितमानस' के 'किष्किन्धाकाण्ड' से उद्धृत है जो हमारी पाठ्य-पुस्तक हिन्दी काव्य संचयन में भी संकलित है। इसके रचनाकार गोस्वामी तुलसीदासजी हैं।

प्रसंग- प्रस्तुत अंश में तुलसीदासजी ने मित्र और कुमित्र में भेद बताते हुए अच्छे मित्र के लक्षण बताये हैं। 

व्याख्या - तुलसीदास जी कहते हैं कि जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। जिन लोगों को ऐसी बुद्धि सहजता से प्राप्त नहीं है कि वे अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरू (बड़े भारी पर्वत) के समान समझे, ऐसे मूर्ख लोग हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं अर्थात् ऐसे लोगों की मित्रता कभी सच्ची नहीं होती बल्कि दिखावा मात्र होती है।

(2) जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ पिय, छाहँ घरीक है ठाढ़े। 
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी पाठ-संचयन' में संकलित 'तुलसीदास के पद' नामक शीर्षक से उद्धृत किया गया है। इसके रचयिता 'गोस्वामी तुलसीदासजी' हैं।

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति में सीता के प्रति राम का प्रेम देखते ही बनता है। वन यात्रा में इनके पाँवों में पनही नहीं थी, इसलिए दुपहरी में इनके पाँव जल रहे थे।

Vi** (2) मन पछितैहै अबसर बीते [H.S. 2015]

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक 'हिन्दी पाठ-संचयन' में संकलित 'तुलसीदास के पद' नामक शीर्षक से उद्धृत किया गया है। इसके रचयिता 'गोस्वामी तुलसीदासजी' हैं।

व्याख्या - प्रस्तुत पद में गोस्वामी तुलसीदास जी अपने मन को सम्बोधित करते हुए उसे भगवत भजन में लगने की प्रेरणा देते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हे मेरे मन! समय निकल जाने पर तू पश्चाताप करेगा। मानव शरीर की प्राप्ति अत्यधिक कठिन है। अतः भगवत भजन का यही उचित समय है।


संध्या-सुन्दरी


***(1)मदिरा की वह नदी बहाती आती; थके हुए जीवों को वह सस्नेह प्याला एक पिलाती [H.S.2017]

सन्दर्भ - प्रस्तुत काव्य अवतरण सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित कविता संध्या-सुन्दरी' नामक पाठ से लिया गया है। यह कविता मूलतः कवि के काव्य संकलन 'अपरा' में संकलित है जिसे हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी पाठ संचयन में भी संगृहीत किया गया है।

व्याख्या - आसमान से उतरने वाली संध्या सुन्दरी संसार के सभी लोगों को अपने अंक में सुलाकर शान्ति प्रदान करती है। इन पंक्तियों में यही वृत्तान्त वर्णित किया गया है। संध्या सुन्दरी अपने मादक प्रभाव से सभी प्राणियों को नींद के आगोश में पहुँचा देती है। ऐसा लगता है जैसे संध्या सुन्दरी ने मदिरा की एक नदी ही प्रवाहित कर दी है तथा वह बड़े प्रेम से प्रत्येक प्राणी को मस्ती से भरा एक प्याला पिलाती है।

**(2) गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, हृदय-राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक ।

सन्दर्भ - प्रस्तुत काव्य अवतरण सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित कविता संध्या-सुन्दरी' नामक पाठ से लिया गया है। यह कविता मूलतः कवि के काव्य संकलन 'अपरा' में संकलित है जिसे हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी पाठ संचयन में संगृहीत किया गया है।

व्याख्या - कवि निराला ने संध्या का मानवीकरण करते हुए पृथ्वी पर उसके अवतरण का वर्णन एक सुन्दरी के रूप में किया है। संध्या-सुन्दरी आसमान से पृथ्वी पर उतर रही है, उस समय का दृश्य कैसा है, इसका चित्रण इन पंक्तियों में है - दूर आसमान में एक तारा दिखाई देता है जो ऐसा प्रतीत होता है मानो इस के घुंघराले काले बालों में गुँधा हुआ है और हँसता हुआ जान पड़ता है। वह तारा ऐसा लग रहा है मानो अपने हृदय की रानी का अभिषेक कर रहा हो।

(3)सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा "चुप चुप चुप"
है गूँज रहा सब कहीं,
और क्या है? कुछ नहीं।

सन्दर्भ - प्रस्तुत काव्य अवतरण'सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित कविता संध्या-सुन्दरी' नामक पाठ से लिया गया है। यह कविता मूलतः कवि के काव्य संकलन 'अपरा' में संकलित है जिसे हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी पाठ संचयन में संगृहीत किया गया है।

व्याख्या - इन पंक्तियों में निरालाजी ने आकाश से पृथ्वी पर उतर रही संध्या सुन्दरी का मार्मिक चित्रण किया है। संध्या के समय वातावरण कैसा है और संध्या का अँधेरा कैसे धीरे-धीरे सर्वत्र छाता जा रहा है, इसका मनोरम वर्णन इस पद्यांश में अंकित किया गया है। वह मौन भाव, यह नीरवता सर्वत्र छा गई है। आकाश में भी संध्या के समय यही नीरवता है, पृथ्वी तल पर यही शांति छाई हुई है। सरोवर में खिले हुए कमलों के समूह भी शांत हैं, वहाँ भी भ्रमरों की गुंजार नहीं हो रही। इसी प्रकार बहती हुई नदी के विशाल वक्ष पर शांति छा गई है और अचल अटल हिमालय पर्वत के शिखरों पर भी नीरवता व्याप्त हो गई है। यही नहीं जो सागर अभी कुछ देर पहले प्रलय कालीन बादलों के समान अपनी ऊँची-ऊँची लहरों के आघात से भयानक गर्जना कर रहा था, वह भी संध्या समय शांत हो गया है। इन नीरवता को देखकर ऐसा लगता है मानो पृथ्वी पर, जल में, आकाश में, वायु में, अग्नि में सर्वत्र मौन गुंजायमान हो रहा है। इस नीरव मौन के अतिरिक्त कहीं और कुछ भी नहीं है।

अवकाशवाली सभ्यता

Vvi★ 1. जब अवकाश बढ़ता है आदमी की आत्मा ऊँधने लगती है।[H.S. 2020]
उत्तर :सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘रामधारी सिंह दिनकर' द्वारा रचित 'अवकाशवाली सभ्यता' शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। 

प्रसंग : दिनकर जी कहते हैं कि मशीनीकरण के परिणामस्वरूप आदमी बेरोजगार हो गया है और उसके पास करने को सिर्फ आराम के अलावा और कुछ नहीं है। इसी के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन व्यवस्था पर व्यंग्य किया है।

व्याख्या : दिनकर जी कहते हैं कि महात्मा गाँधी कहते थे कि अवकाश बुरा है। आदमी को हमेशा किसी काम में लगे रहना चाहिए, क्योंकि जब अवकाश बढ़ता है तब आदमी की आत्मा उँधने लगती है अर्थात आदमी अकर्मण्य और आलसी बन जाता है, उसका विकास रूक जाता है। इसीलिए यह बहुत जरूरी है कि वह कोई न कोई काम करता रहे, उसे हमेशा जनाये रखना चाहिए।

☆2. "मनुष्य और किसी से नहीं अपने आविष्कार से हारेगा।"[H.S. 2019]

उत्तर : सन्दर्भ : उपरोक्त पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर की "अवकाश वाली सभ्यता" शीर्षक कविता से ली गयी है। इसमें दिनकर जी ने अत्यधिक भौतिकतावाद का विरोध किया है।

प्रसंग : मशीनीकरण और औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप लाखों व्यक्ति बेराजगार हो गये लेकिन अत्यधिक भौतिकतावाद के परिणामस्वरूप मनुष्य केवल अपनी सुख-सुविधाओं में ही उलझ कर रह गया है, इसी पर दिनकरजी आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं।

व्याख्या : दिनकर जी भौतिकतावाद के विरोधी थे। वे कहते हैं कि मनुष्य और किसी चीज से नहीं सिर्फ अपने आविष्कार से हारेगा अर्थात् अत्यधिक वैज्ञानिकता से मनुष्य थक कर फिर शांति की ओर लौटेगा।

*Imp★ 3. गाँधी कहते थे -अवकाश बुरा है, 

उत्तर :सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ 'रामधारी सिंह दिनकर' द्वारा रचित 'अवकाशवाली सभ्यता' शीर्षक कविता से उद्धृत हैं।

व्याख्या - दिनकरजी कहते हैं कि मशीनीकरण के परिणामस्वरूप आदमी बेरोजगार हो गया है और उसके पास करने को सिर्फ आराम के अलावा और कुछ नहीं है। इसी के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन व्यवस्था पर व्यंग्य किया है। दिनकरजी कहते हैं कि महात्मा गाँधी कहते थे कि अवकाश बुरा है। आदमी को हमेशा किसी काम में लगे रहना चाहिए, क्योंकि जब अवकाश बढ़ता है तब आदमी की आत्मा उँधने लगती है अर्थात् आदमी अकर्मण्य और आलसी बन जाता है, उसका विकास रूक जाता है। इसीलिए यह बहुत जरूरी है कि वह कोई न कोई काम करता रहे, उसे हमेशा जगाये रखना चाहिए। फिर दिनकरजी कहते हैं कि अब देश में अवकाशवाली सभ्यता आने वाली है अर्थात वह समय अब जल्द आयेगा जब आदमी के पास अवकाश ही अवकाश रहेगा। क्योंकि मशीनीकरण के परिणामस्वरूप आदमी बेरोजगार हो जायेगा।

**4. आदमी को चाहिए कि वह खुद भी कुछ काम करे। [H.S. 2015]

सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘रामधारी सिंह दिनकर' द्वारा रचित 'अवकाशवाली सभ्यता' शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में दिनकरजी लोगों को आलस्य त्याग कर कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

व्याख्या - दिनकर जी कहते हैं कि सिर्फ भौतिकता के साधन जुटाने से कुछ नहीं होगा। आदमी को स्वयं कर्मशील - बनना चाहिए। रामधारी सिंह दिनकर जी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी काम में लगे रहना चाहिए। उसे कोई न कोई काम अवश्य करना चाहिए। उसे पूरी तरह सुविधाजनक चीजों के प्रयोग पर ही नहीं निर्भर रहना चाहिए अपितु अपना काम स्वयं करना चाहिए। हाँ यह ठीक है कि जो व्यक्ति काम करते-करते थक जाये वह आराम करे, लेकिन जितना जरूरी आराम है उससे कहीं ज्यादा जरूरी काम है। अतः आदमी को केवल आराम ही नहीं करना चाहिए और न केवल काम ही करना चाहिए बल्कि दोनों में उचित संतुलन बनाये रखना चाहिए।

हो गई है पीर पर्वत-सी


Vi.**1. हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।[H.S.2016]

सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ समकालीन हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर दुष्यन्त कुमार द्वारा रचित " हो गई है पीर पर्वत-सी” शीर्षक कविता से उद्धृत की गई है। प्रस्तुत कविता उनके काव्य संग्रह "साये में धूप" काव्य संग्रह से ली गई हैं जो हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में भी संकलित है। जिसमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात होने वाले मोहभंग का चित्रण है।

प्रसंग : प्रस्तुत गजल में कवि ने सत्ता के सलूक, शोषित पराजित इन्सान की विवशता, संघर्ष और घुटन, राजनीतिक गठबंधनों के सायों में पलती साजिशें, परिवर्तन और क्रांति की जरूरत पर बल दिया है।

व्याख्या : कवि दुष्यन्त कुमार कहते हैं कि आज समग्र क्रांति - सम्पूर्ण क्रांति की आवश्यकता है। इस क्रांति में सबका-सारे देश और सारी जनता का सक्रिय सहयोग होना चाहिए। इसलिए हर सड़क, गली, नगर, गाँव में हाथ लहराते हुए इन्कलाब बोलते हुए जो लोग आज जीवित होकर भी लाश की तरह मुर्दा की तरह बेजान हो गये हैं उन्हें चलना चाहिए। मेरा उद्देश्य केवल हो-हल्ला करना या हंगामा खड़ा करना नहीं है। मेरा प्रयत्न देश की वर्तमान दशा को उसके रूप को बदल देने के लिए है।

VvvI.**★2. मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।[H.S. 2018]

सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्तियाँ समकालीन हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर दुष्यन्त कुमार द्वारा रचित "हो गई है पीर पर्वत-सी'' शीर्षक कविता से उद्धृत की गई है। प्रस्तुत कविता उनके काव्य संग्रह “साये में धूप’” काव्य संग्रह से ली गई हैं जो हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी पाठ-संचयन में भी संकलित है। जिसमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात होने वाले मोहभंग का चित्रण है।

प्रसंग : प्रस्तुत गजल में कवि ने सत्ता के सलूक, शोषित पराजित इन्सान की विवशता, संघर्ष और घुटन, राजनीतिक गठबंधनों के सायों में पलती साजिशें, परिवर्तन और क्रांति की जरूरत पर बल दिया है।

व्याख्या : कवि दुष्यन्त कुमार कहते हैं कि आज समग्र क्रांति-सम्पूर्ण क्रांति की आवश्यकता है। इस क्रांति में सबका-सारे देश और सारी जनता का सक्रिय सहयोग होना चाहिए। इसलिए क्रांतिकारी विचारों की यह आग मेरे हृदय में अथवा तुम्हारे हृदय में जहाँ कहीं दबी पड़ी हो उसे धधक उठना चाहिए। क्रांति के बिना परिवर्तन असंभव है।







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