Class-12 History Notes

 Class-12 History Notes




Lesson-1


अतीत का स्मरण 

(Remembering the past)


Group -C


1. इतिहास लेखन की दिशा में स्मृतियों का 5 क्या है? इतिहास का एक पेशे के रूप में क्या महत्त्व है? (What is the importance of memoirs in history writings. What is the importance of history as a professional discipline.) [Sample - 2014]

Ans. इतिहास लेखन में स्मृति कथा का महत्त्व (Importance of Memoirs in history writing) - इतिहास लेखन एवं इतिहास जानने के प्रमुख साधनों में स्मृति कथा (Memoirs) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अतीत से जुड़ी किसी व्यक्ति, परिवार या महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण किसी न किसी मनुष्य के पास रहता ही है। हो सकता है कि वह उस घटना का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष साक्षी हो। अधिक दिन पुरानी होने के बावजूद उस व्यक्ति विशेष की स्मृति में उस घटना की यादें संचित हो जाती हैं। वे समय-समय पर उस घटना को यदा-कदा बयान भी कर सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति किसी ऐतिहासिक घटना के साथ जुड़ा हुआ हो और वह कालान्तर में उस घटना का जीवन्त उदाहरण लोगों को दे जिससे कि सभी लोगों को इसके बारे में जानकारी प्राप्त हो। लोगों की स्मृति से निकले हुए ये स्रोत ही इतिहास लेखन की दिशा में मजबूत कड़ी का काम करते हैं। उदाहरणस्वरूप पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु (Jyoti Basu) की पुस्तक 'जतदूर मने पड़े' (Jat Dur Mane Pare) ऐ, जो कि एक स्मृति कथा (Memoirs) है, से समकालीन अंग्रेजी शासन एवं स्वाधीन भारत राजनैतिक घटनाओं के ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी मिलती है। एक अन्य ग्रंथ 'छेड़े आशा ग्राम (Chhere Asha Gram) जिनकी रचना दक्षिणा रंजन बसु ने की, से पश्चिम बंगाल बंगला देश के आजादी के समय के शरणार्थियों की दशा का पर्याप्त वर्णन मिलता है।

स्मृति-कथा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये कल्पनामूलक उपन्यास नहीं होते हैं। इनकी विषयवस्तु तथा कथावस्तु सत्यता पर आधारित होती है। यह किसी व्यक्ति के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष घटने वाली घटनाओं का वर्णन है। ऐसा माना जाता है कि अतीत की घटना का उल्लेख करते वक्त लेखक केवल उन्हीं पहलुओं को प्रकाशित करने का कार्य करता है जिसका वह प्रत्यक्ष गवाह हो। इसी कारण स्मृति-कथा का ऐतिहासिक आधार अत्यन्त शक्तिशाली है। स्मृति-कथा के माध्यम से लेखक के समस्त जीवन की गाथा को नहीं बल्कि किसी विशेष घटना पर आलोकपात किया जाता है। उदाहरणस्वरूप देश के विभाजन के समय शरणार्थी के आश्रय को लेकर गठित समिति के कमिश्नर श्री हिरण्यमय बंद्योपाध्याय ने 'शरणार्थी' (Refugee) नामक पुस्तक लिखी जो कि उनके द्वारा किये गए कार्य तथा शरणार्थियों के दशा को दर्शाता है। यह ग्रंथ एक स्मृति-कथा है। स्मृति कथा में कथाकार या लेखक स्वयं के साथ बीते हुए पटनाओं का वर्णन करता है जो अपने आप में अनूठा है और उसमें ऐतिहासिक सत्यता रहती है. कहीं भी नाटक को स्थान नहीं मिलता है।

(ii) इतिहास का एक पेशे रूप में महत्व (Importance of History as a professional discipline) पूर्व मध्यकाल से लेकर वर्तमान समय तक इतिहास एक पेशे अर्थात् व्यवसाय के रूप में उभर कर सामने आया है। यह तथ्य अक्षरशः सत्य है कि पहले के सम्राट अपने राज्यारोहण से लेकर विजयों तक को उपलब्धियों को लिपिबद्ध करने के लिए कुछ विद्वानों और इतिहासकारों को अपने दरबार में नियुक्त करते थे। उदाहरणस्वरूप जियाउद्दीन बरनी (Ziauddin Barani) फिरोजशाह तुगलक (Firojshah Tughlaq) तथा अन्य सुल्तानों के दरबार में, अबुल फजल (Abul Fazal) मुगल सम्राट अकबर (Akbar) के दरबार में इसी कार्य के लिए नियुक्त थे। वैसे औपनिवेशिक शासनकाल में इस दिशा में परितर्वन आया तथा कुछ स्वच्छन्द इतिहासकारों का आविर्भाव हुआ परन्तु उनकी स्वच्छन्दता का कारण उनके अन्दर राष्ट्रीयता की भावना का विकास था। जिसके परिणामस्वरूप वे साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक पाश्चात्य इतिहासकारों की लेखनी का विकल्प अपनी लेखनी के द्वारा प्रस्तुत कर रहे थे। परन्तु यहाँ यह स्वीकार करना होगा कि भारत में ब्रिटिश विरोधी मनोभाव के द्वारा है इतिहास का वास्तविक स्वरूप उभरकर सामने आ पाया है। आजादी के उपरान्त भी आज इतिहास एक पेशे के रूप में है और यह ज्ञान में बढ़ोत्तरी के साथ ही साथ हजारों लोगों के रोजी-रोटी का माध्यम भी है जो इनसे जुड़े हुए हैं।

2. अतीत को संजोने के रूप में संग्रहालयों का क्या महत्त्व हैं? (What are the importance of museums as institutions of organising the past?)

Or, संग्रहालय से क्या तात्पर्य है? अतीत को संग्रहीत करने में संग्रहालय की भूमिका का वर्णन करो। (What is museum? Discuss the role of museum in organising the part.) 3+5 [H.S. 2016] 

Ans. संग्रहालय :- प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अतीत की चीजों को संग्रहित करने के उद्देश्य से संग्रहालयों की स्थापना की गई इन संग्रहालयों में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के वे सभी वस्तुएँ संग्रहीत की जाती हैं जिनका अपना ऐतिहासिक महत्त्व होता है। इन वस्तुओं में खुदाई से प्राप्त प्राचीनकाल के पत्थर, काँस्य एवं लोहे के हस्तचालित हथियार, योद्धाओं के द्वारा युद्ध में व्यवहार किए गए हथियार एवं कवच, विभिन्न प्रकार के मानवों एवं जानवरों की हड्डियाँ प्राचीनकाल में महिलाओं तथा पुरुषों के द्वारा व्यवहार में लाए गए आभूषणों, ममी, मुगल चित्रकला, जीवाश्म इत्यादि प्रमुख हैं। संग्रहालयों के विभिन्न विभाग होते हैं; जैसे - कला, पुरातत्व, जैविक, वनस्पतिशास्त्र, भूगार्भिक, आर्थिक, सामरिक, मुद्रण इत्यादि। आज विश्व के विभिन्न देशों में 55000 संग्रहालयों की उपस्थिति दर्ज की गई है।

अतीत को संग्रहित करने में संग्रहालयों की भूमिका- अतीत के चीजों को संग्रहित करने में संग्रहालयों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इनके माध्यम से ही पुरातात्विक वस्तुएँ सुरक्षित रहती हैं तथा वे इतिहास के निर्माण में सहायक होती है। इन संग्रहालयों में संग्रहित वस्तुओं के माध्यम से हमें इतिहास लेखन में मदद मिलती है। संग्रहालयों के विभिन्न भाग होते हैं, जैसे विज्ञान संग्रहालय, ऐतिहासिक संग्रहालय, यातायात संग्रहालय, कला संग्रहालय, मुद्रण संग्रहालय, राष्ट्रीय संग्रहालय, जैविक संग्रहालय एवं पुरातात्विक संग्रहालय इन विभागों में इनकी आवश्यकता की वस्तुओं को संग्रहीत करके रखा जाता है ताकि वे व्यवस्थित रह सके तथा उनके अध्ययन में आसानी हो। प्रत्येक देश में विश्व युद्ध के पश्चात् संग्रहालयों का दौर आरम्भ हुआ परन्तु 20वीं शताब्दी के अन्त तक प्रत्येक राष्ट्रीय स्तर पर संग्रहालयों के उत्थान में जुट गए तथा उन्होंने वहाँ अपने देश तथा अन्य देशों के अतीत से जुड़ी हुई सभी पुरातात्विक वस्तुओं को संग्रहित करना आरम्भ कर दिया, ताकि इन पुरातात्विक साक्ष्यों की मदद से वे अपने देश के अतीत को जान सकें तथा इतिहास लेखन को मजबूती प्रदान कर सकें। कुछ लोगों को व्यक्तिगत रूचि वस्तुओं को संग्रहित करने को होती है। वे अपने बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक की अपने पूर्वजों तथा अपने से जुड़ी अतीत की वस्तुओं को संग्रहित करते हैं। कभी-कभी इतिहास लेखन व अध्ययन की दिशा में ये व्यक्तिगत संग्रहालय भी बहुत अधिक मददगार साबित होते हैं।

भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय की स्थापना बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के द्वारा कलकत्ता में 1814 ई० में किया गया। इसके संस्थापक डॉ० नाथनियल वालिच (Dr. Nathanial Wallich) थे जो कि वनस्पति शास्त्री थे तथा डेनिश (Danish) थे। यह एक स्वतंत्र संस्था है जो कि भारत सरकार की एक सांस्कृतिक मंत्रालय के द्वारा संचालित होती है। इस संस्था के वर्तमान डाइरेक्टर डॉ० बी० वेणु गोपाल (Dr. B. Venu Gopal) है। 

***Vvi.3. आधुनिक इतिहास लेखन के तरीके क्या-क्या हैं? दो कला संग्रहालयों के नाम बताएँ। (What are the methods of modern history writing? Name two art museums.)

Ans. आधुनिक इतिहास लेखन कला के तरीके (Methods of modern History writing) : आधुनिक इतिहास लेखन के चार महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं काल (period), व्यक्ति (person), स्थान (place) और घटना (event) ।
 (i) काल :- काल-निर्धारण इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारा इतिहास मात्र पाँच हजार वर्ष पुराना है। तीन हजार ईसा पूर्व का और दो हजार ईसा के बाद का पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि लाखों वर्ष पहले इस पृथ्वी पर मानव अवतरित हुआ था लेकिन उसका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास ज्ञानी मानव का है जिसे 'होमो सेपियन्स' कहते हैं । इतिहास आदि मानव का है जब वह सभ्यता के प्रथम चरण में आखेट जीवन व्यतीत कर रहा था। इतिहासकारों ने मानव सभ्यता का इतिहास हिम युग (Ice Age), पूर्व-पाषाण युग (Paleolithic), नव-पाषाण युग (Neolithic Age), कांस्य युग (Bronze Age) और लौह युग (Iron Age) में बाँटकर गढ़ा है। सभ्यता के प्रारम्भ से ही मानव की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ रही हैं, जिनकी पूर्ति के लिए वह सतत् प्रयत्नशील रहा है। आदि मानव कच्चा मांस खाता था, नंगे रहता था और पेड़ के नीचे या गुफाओं में रातें बिताता था। हजारों वर्ष वह इसी प्राकृतिक अवस्था में रहा। जब उसने आग का आविष्कार किया तो उसे रोशनी मिल गई। उसका ज्ञान अब विज्ञान बन गया। वह मांस को भूनकर खाने लगा। सर्दी से बचने के लिए हिंसक जानवरों को भगाने के लिए, जंगलों को साफ करने के लिए वह अग्नि का प्रयोग करने लगा। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण आविष्कार नुकीले पत्थरों की जगह कांस्य औजारों का था। टीन (Tin) और ताँबा (Copper) को मिलाकर कांस्य (Bronze) का निर्माण किया जाने लगा और उससे जीवनोपयोगी उपकरण निर्मित होने लगे। मानव सभ्यता के विकास में चाक (मिट्टी के बर्तन बनाने में उपयोगी साधन), लौह और अश्व का उपयोग क्रांतिकारी साबित हुआ। अतः मानव जीवन की आवश्यकताओं के आयाम भी बढ़ गये और उनकी पूर्ति के साधनों में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हो गई। फलतः नदी-घाटियों में जहाँ मानव जीवन की आवश्यकताएँ पूरी होने की संभावनाएँ थीं, वहीं प्राचीन विश्व सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ। हमारा विचार है कि इतिहास मानव सभ्यता के जन्म और विकास का इतिहास नहीं अपितु मानव आवश्यकताओं के जन्म और विकास का इतिहास होना चाहिए। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव ने कितना संघर्ष किया है ? आवश्यकताएँ कब-कब आविष्कार की जननी बनी हैं? मानव का ज्ञान कब विज्ञान बना है? आदि तथ्यों का निरूपण इतिहास की विषय सामग्री होनी चाहिए। भौतिक संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन के बीच तालमेल है। इतिहास इसका ही अध्ययन करता है। अतः इसे कालानुक्रम व तिथिपरक होना चाहिए।

उदाहरणस्वरूप हम एक उपकरण का वर्णन कर सकते हैं -
(ii)व्यक्ति :- व्यक्ति इतिहास का महत्वपूर्ण पात्र है किन्तु सभी व्यक्ति ऐतिहासिक पात्र नहीं बन सकते। आदिकाल से अबतक इस संसार में करोड़ों व्यक्ति आए और कीट-पतंग की तरह काल के गले लग गए। इतिहास उन्हें याद नहीं करता। उनमें से कुछ को जिन्होंने सभ्यता-संस्कृति के विकास में योगदान दिया, अपने बुद्धि-बल से साम्राज्य का निर्माण किया, अपने ज्ञान के आलोक से विश्व को दिव्य-संदेश दिया और अपने त्यागमय जीवन का परिचय दिया उन्हें ही इतिहास याद करता है। हमारा विचार है कि निरक्षर जन समुदाय व मेहनतकश का भी इतिहास होना चाहिए जो समाज का सर्वथा उपेक्षित किन्तु अति शक्तिशाली अंग रहे हैं। सभ्यता संस्कृति के विकास में उसका भी योगदान रहा है। पिरामिड के निर्माता मिस्र के फराओं नहीं वहाँ के कुशल और अकुशल मेहनतकश थे। न जाने कितने मजदूरों को भूखे-प्यासे, दिन-रात उन विशाल पाषाण-खंडों को तरासना पड़ा होगा।अतः इतिहास उन असहाय, दलित, पीड़ित और शोषित मजदूरों का होना चाहिए
 जिनकी मेहनत पर महल, पुल बने हैं, सड़कें बनी हैं, नहरें निकाली गई हैं और भीमकाय कारखाने खड़े हैं|दुःख है इतिहासकारों ने बराबर मेहनतकशों की उपेक्षा की है। इतिहास के जनक हेरोडोटस ने राजाओं और सम्राटों का इतिहास लिखा लेकिन भौतिक संस्कृति के निर्माताओं का कोई जिक्र नहीं किया। इतिहास व्यक्ति विशेष का भी होता है। उसे इतिहास के नायक की संज्ञा दी जा सकती है। जूलियस सीजर (Julius Caesar), सिकन्दर (Alexander), शार्लमेन (Charlemagne), नेपोलियन (Napolean), हिटलर (Hitler), मुसोलिनी (Mussolini) आदि इसी कोटि में आते हैं। वे सभी के सभी साम्राज्य निर्माता थे। 

कला संग्रहालय-
 (i) फिलाडेल्फिया का कला संग्रहालय
 (ii) ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का
एसमोलियन संग्रहालय 

4. संग्रहालय के विभिन्न वर्गों की विवेचना कीजिए (Discuss the different categories of museums.)[H.S.2019]

Ans. भूमिका :- प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् संग्रहालयों की स्थापना का दौर विभिन्न देशों में आरम्भ हुआ। उपनिवेशवाद के दौर में साम्राज्यवादी देशों ने अनेक संग्रहालयों की स्थापना की थी परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् प्रत्येक देश राष्ट्रीय स्तर पर संग्रहालयों के उत्थान में जुट गए तथा उन्होंने वहाँ अपने देश तथा अन्य देशों के अतीत से जुड़ी हुई सभी पुरातात्विक वस्तुओं को संग्रहित करना आरम्भ कर दिया, ताकि इन पुरातात्विक साक्ष्यों की मदद से वे अपने देश के अतीत को जान सकें तथा इतिहास लेखन को मजबूत प्रदान कर सकें। एक विश्वसनीय जानकारी के आधार पर विश्व के 202 देशों में 55000 संग्रहालयों की उपस्थिति दर्ज की गई है। वस्तुओं के वर्गीकरण के आधार पर संग्रहालयों को भी कई वर्गों में बाँटा गया है जो निम्नलिखित है

(1) विज्ञान संग्रहालय (Science museum) :- विज्ञान सम्बन्धित खोज की गई वस्तुओं को संजोने में विज्ञान संग्रहालय की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न देशों ने विज्ञान सम्मत चीजों को संग्रहित करने के उद्देश्य से विज्ञान संग्रहालय का निर्माण करवाया है। उदाहरणस्वरूप लंदन विज्ञान संग्रहालय में विज्ञान के खोजों तथा तकनीकी द्वारा निर्मित वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाई जाती है। मिनासोटा का विज्ञान संग्रहालय पश्चिमी यूरोप का बहुत प्रसिद्ध संग्रहालय है। इसमें डाइनासोर (Dianasaurs) के अस्थिपंजरों को संग्रहित कर रखा गया है। विज्ञान ग्रहालय में विलुप्त पशु-पक्षियों एवं मानवों से सम्बन्धित चीजों का संरक्षण किया जाता है। इसके अलावा विज्ञान संग्रहालय में ग्रह, नक्षत्र एवं तारों के काल्पनिक रूपों की प्रदर्शनी लगाई जाती है। विभिन्न प्रकार के वृक्षों एवं विज्ञान के आश्चर्यों से लोगों को विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ उपलब्ध कराई जाती हैं। आधुनिक विज्ञान के द्वारा आविष्कृत वस्तुएँ जैसे रोबोट (Robot) इत्यादि के बारे में हमें सम्पूर्ण जानकारी विज्ञान संग्रहालय से ही मिलती है।

(2) ऐतिहासिक संग्रहालय (Historical museum) : ऐतिहासिक संग्रहालयों में प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक के वस्तुओं को रखा जाता है, जो इतिहास जानने तथा लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्माण करता है। विज्ञान संग्रहालयों के समान ही प्रत्येक देश में अपना ऐतिहासिक संग्रहालय भी है। अमेरिका के शिकागो शहर में स्थापित ऐतिहासिक संग्रहालय विश्व का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण संग्रहालय है। इसमें लगभग 2 करोड़ ऐतिहासिक वस्तुओं को संजो कर रखा गया है। इन वस्तुओं में प्राचीन काल में आदिमानवों के द्वारा व्यवहार में लाए गए पत्थर के औजार, बर्तन, धातु के सामान एवं सिक्के, मुहरें तथा अन्य पुरातात्विक वस्तुओं को संग्रहित करके रखा जाता है। भारत के ऐतिहासिक संग्रहालय में प्राचीन सभ्यता के अवशेषों के साथ-साथ मध्यकालीन राजवंशों से सम्बन्धित वस्तुओं तथा वर्तमान समय के राष्ट्रीय आन्दोलनों से सम्बन्धित वस्तुओं को संजोकर रखा गया है। इन संग्रहालयों में प्राचीन काल के गुफा चित्रों एवं दीवाल चीजों को भी महत्त्व प्रदान किया गया है। प्राचीन राजमहलों, किलों तथा भवनों को ऐतिहासिक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है।

(3) यातायात संग्रहालय (Transport museum) :- यातायात संग्रहालय में यातायात सम्बन्धी वस्तुओं को संग्रहित किया जाता है। लंदन का यातायात संग्रहालय विश्व प्रसिद्ध संग्रहालय है। इससे यातायात सम्बन्धी चीजों की जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक किस प्रकार यातायात के साधनों में प्रगति हुई, उसकी झाँकी इन संग्रहालयों में प्रदर्शित की जाती है। जल यातायात साधन से लेकर स्थल व बाबु एवं भूमिगत यातायात के साधनों को पोस्टर के माध्यम से यहाँ संग्रहित किया गया है। इसी प्रकार के यातायात संग्रहालय ब्रिटेन के अन्य शहरों जैसे बीरमिंघम शहर (Birmingham city) अमेरिका के न्यूयार्क, आयरलैण्ड देश में बनाए गए हैं। इन संग्रहालयों में पुराने गाड़ियों, बसों इत्यादि को संग्रहित किया गया है।

(4) कला संग्रहालय (Art museum) :- कला संग्रहालय में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के कला के विकास के तथ्यों को झाँकी के रूप में संजोया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका का फिलाडेल्फिया कला संग्रहालय विश्व का सबसे बड़ा कला संग्रहालय है। इसमें कला के विभिन्न प्रारूपों को रखा गया है। पुनर्जागरण काल के महान चित्रकार माइकल एंजेलो कृत मोनालिसा और रॉफेल कृत 'द लास्ट सॅपर' (The last supper) supper) भी कला संग्रहालय में ही रखा गया है। भारत में भी प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के चित्रों को संग्रहालयों में रखा गया है। इतना ही नहीं गुफाओं की दीवालों पर बने चित्रों को बचाने के लिए गुफाओं को संग्रहालयों के रूप में संरक्षित कर दिया गया है।

(5) मुद्रण संग्रहालय (Print museum) :- मुद्रण संग्रहालयों में विभिन्न काल के मुद्रण सम्बन्धी दस्तावेजों को रखा गया है। इन संग्रहालयों से हमें यह जानकारी प्राप्त होती है कि वुड ब्लॉक प्रिंटिंग (Wood Block Printing) से आरम्भ होते हुए किस प्रकार मुद्रण कला आधुनिक दौर में पहुंची है, मुद्रण संग्रहालयों में विभिन्न समय की सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक पुस्तकों को भी संजोने का प्रयास किया गया है।

(6) राष्ट्रीय संग्रहालय (National museus) :- प्रत्येक देश के इतिहास को विभिन्न झाँकियों, चित्रों, संभाषण (lecture), तथा शिक्षा के माध्यम से बताने के लिए राष्ट्रीय संग्रहालयों की स्थापना की गई है। इसमें प्राचीन काल के लिखित धार्मिक, साहित्यिक एवं ऐतिहासिक उपादानों को संग्रहित किया गया है। इसमें मध्यकाल एवं आधुनिक काल के साहित्यकारों के लेखों एवं सरकारी दस्तावेजों को संजो कर रखा गया है। इसके साथ ही साथ पुरातात्विक साक्ष्यों को भी संजोकर रखा गया है।

कुछ लोगों की व्यक्तिगत रुचि वस्तुओं को संग्रहित करने की होती है। वे अपने बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक की, अपने पूर्वजों तथा अपने से जुड़ी अतीत की वस्तुओं को संग्रहित करते हैं। इस प्रकार के संग्रहालयों को व्यक्तिगत संग्रहालय के नाम से जानते हैं। कभी-कभी इतिहास लेखन की दिशा में व्यक्तिगत संग्रहालय भी बहुत अधिक मददगार साबित होते हैं। अंततः हम कह सकते हैं कि संग्रहालय इतिहास के एक विश्वसनीय स्रोत के रूप में अपनी महत्ता को हमेशा साबित करते हैं।

Vvi **5.पौराणिक कथा और किंवदन्ती से क्या समझते हैं? मनुष्य के अतीत के अध्ययन में उनसे कैसे सहायता मिलती है? (What do you understand by myths and legends? How do they shape human understanding of the past?)
[H.S. 2015, 2018]
 Ans. प्राचीन काल के इतिहास को जानने में मिथक गाथाओं एवं राजसी कहानियों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है -

(i) मिथक या पौराणिक गाथा (Myths):- मिथक गाथाओं के अन्तर्गत रामायण महाभारत, ब्राह्मण ग्रंथ एवं पुराण आते हैं। इन ग्रंथों को अर्ध ऐतिहासिक धर्म ग्रंथ की श्रेणी में रखा जा सकता है। वैसे तो ब्राह्मण ग्रंथ धर्म प्रधान है परन्तु फिर भी इनसे तत्कालिन समय के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। रामायण में एक आदर्श राजा के रूप में राम के जीवन की कहानी को दर्शाया गया है। यद्यपि राजनीतिक दृष्टिकोण से यह ग्रंथ अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है परन्तु सांस्कृतिक दृष्टिकोण से इसके महत्व को कम आँका नहीं जा सकता है। इसकी कथावस्तु की ऐतिहासिकता और समय निश्चित नहीं है, परन्तु अनुमान किया जाता है कि वाल्मीकि कृत रामायण का अंतिम संकलन गुप्त काल में हुआ। महाभारत की रचना वेद व्यास ने की तथा इसमें 950 ई० पु० हुए महाभारत युद्ध का विस्तृत वर्णन है। माना जाता है कि इसका संकलन भी गुप्तकाल में ही हुआ था। राजनीतिक दृष्टिकोण से इसका महत्त्व बहुत अधिक है - इसमें मगध, विदेह आदि राज्यों का उल्लेख, यूनानी साईथियन जैसी विदेशी जातियों का उल्लेख, राज्य एवं उससे सम्बन्धित आदर्श, मंत्री परिषद इत्यादि का विस्तृत वर्णन है। इसके अलावा विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन के पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। पुराणों की संख्या 18 है। ब्रज पुराण, पद्म पुराण, शिव पुराण, विष्णु पराण, भगवत पुराण, नारदीय पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, लिंग पुराण, बराह पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण, वामन पुराण, कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, गरुड पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण। इन पुराणों में प्राचीन राजवंशों जैसे शिशुनाग वंश, नन्द वंश, मौर्य वंश, शुंग कण्व वंश, आंध्र सातवाहन वंश और गुप्त वंश का पर्याप्त वर्णन मिलता है।


(ii) राजसी कहानियाँ या पौराणिक आख्यान (Legends) :- इसके अन्तर्गत वेद ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्म साहित्य, आरण्यक,उपनिषद, वेदांत एवं स्मृति आते हैं। पौराणिक आख्यान के रूप में वेदों का प्रथम स्थान है। इस ग्रंथ के द्वारा हमें आर्यों के जीवन के प्रारम्भिक चरण की सम्पूर्ण जानकारी मिलती है। वेद चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्वर्वेद वेद के पश्चात् ब्राह्मण ग्रंथ आते हैं। इसकी रचना उत्तर वैदिक काल में की गई। इनका सम्बन्ध वेद से ही है। ब्राह्मण ग्रंथ का एक भाग आरण्यक भी है। इनको आरण्यक इसलिए कहते हैं क्योंकि ये ग्रंथ अरण्य (वनों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्ग दर्शन के लिए लिखे गए थे। ऐतरेय, तैतरीय और मैत्रायणी प्रमुख आरण्यक ग्रंथ हैं। आरण्यकों के पश्चात् उपनिषद का स्थान आता है। उपनिषदों में प्राचीन भारत का दार्शनिक ज्ञान सुरक्षित है। इन ग्रंथों में जीव, आत्मा, परमात्मा, ब्राह्मण, कर्म तथा ब्रह्माण्ड एवं मानवों के सृष्टि से सम्बन्धित प्रश्नों की दार्शनिक एवं रहस्यात्मक ढंग से विवेचना की गयी है। उपनिषदों की संख्या 108 है|वेदांत उपनिषदों के पश्चात् आते हैं। ये वेद के अन्तिम भाग माने जाते हैं। इन ग्रंथों से हमें भारत की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की उचित जानकारी मिलती है।

Vvi.**6.व्यवसायिक इतिहास किसे कहते हैं? अव्यावसायिक इतिहास तथा व्यावसायिक इतिहास में क्या अन्तर है? (What is professional history? What is the difference between non-professional history and professional history?)[H.S.2020]

Ans. व्यावसायिक इतिहास :- व्यावसायिक इतिहास व्यावसायिक संस्थानों की उत्पत्ति और विकास का अकादमिक अध्ययन है। यह आर्थिक इतिहास का एक उप-क्षेत्र है। व्यवसायिक इतिहासकार वाणिज्यिक संस्थाओं और उनकी प्रशासनिक संरचनाओं के विकास पर शोध करते हैं, जैसे कि सरकारों और वैश्विक बाजारों के साथ उनकी जटिल बातचीत के साथ निगमों का इतिहास भारतीय परिदृश्य की यदि चर्चा करें तो यह स्पष्ट होता है कि पूर्व मध्यकाल से लेकर वर्त्तमान समय तक इतिहास एक पेशे अर्थात् व्यवसाय के रूप में उभर कर सामने आया है।

यह तथ्य अक्षरशः सत्य है कि पहले के सम्राट अपने राज्यारोहण से लेकर विजयों तक की उपलब्धियों को लिपिबद्ध करने के लिए कुछ विद्वानों और इतिहासकारों को अपने दरबार में नियुक्त करते थे। उदाहरणस्वरूप जियाऊद्दीन बरनी फिरोजशाह तुगलक तथा अन्य सुल्तानों के दरबार में, अबुल फजल मुगल सम्राट अकबर के दरबार में इसी कार्य के लिए नियुक्त थे। ब्रिटिश काल से लेकर स्वतंत्र भारत में भी इतिहास एक पेशे के रूप में विद्यमान है और यह ज्ञान में बढ़ोत्तरी के साथ ही साथ हजारों लोगों के रोजी रोटी का माध्यम भी हैं, जो इनसे जुड़े हुए हैं।

अव्यावसायिक और व्यावसायिक इतिहास में अन्तर :-

(i) अव्यावसायिक इतिहास स्वच्छन्द होते हैं, उनकी लेखन कला किसी की प्रशस्ति नही अपितु सत्यताः पर आधारित होती है, जबकि व्यावसायिक इतिहासकार की स्वच्छन्दता बाधित रहती है। वे अपने कृपा दाता के प्रशंसा करने के लिए बाध्य होते हैं।

(ii) अव्यावसायिक इतिहासकारों की स्वतंत्र विचारधारा के कारण उनके अंदर राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक पाश्चात्य इतिहासकारों की लेखनी का विकल्प अपनी राष्ट्रवादी लेखनी के द्वारा प्रस्तुत किया। जबकि व्यावसायिक इतिहासकार राष्ट्र भक्त नहीं अपितु राजभक्त थे। वे राज्य विशेष के उत्थान के विषय में ही सोचते तथा लिखते थे। विशेषकर साम्राज्यवादी लेखक जेम्स मिल इत्यादि ने केवल ब्रिटिश राज की सर्वोच्चता एवं अन्य संस्कृति की नीचा दिखाने में ही अपनी समय गँवा दिया था।

(iii) अव्यावसायिक इतिहास, इतिहास के शैक्षणिक पहलू का अध्ययन करता है। भारत में ब्रिटिश विरोधी मनोभाव का वास्तविक स्वरूप अव्यावसायिक इतिहास लेखन के माध्यम से ही उभर कर सामने आया, जबकि व्यवसायिक इतिहास व्यवसायिक संस्थानों की उत्पत्ति एवं उनके विकास का अध्ययन करता है। व्यावसायिक इतिहासकार की लेखनी में राष्ट्र व राष्ट्रवाद की भावना नदारद रहती है, वे वाणिज्यिक संस्थानों और उनकी प्रशासनिक संरचनाओं के विकास पर शोध करते हैं।









पाठ -2


Most sure 
1)Vvvi.***उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर हॉब्सन-लेनिन सिद्धांत पर चर्चा करें।

Ans:-उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का हॉब्सन-लेनिन सिद्धांत-

आधुनिक दुनिया के साम्राज्यवादी देशों की औपनिवेशिक विस्तार की रणनीतियों को नव-उपनिवेशवाद और नव-साम्राज्यवाद के रूप में जाना जाता है। जे.ए. हॉब्सन ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में आर्थिक मुद्दों को सबसे महत्वपूर्ण बताया और वी.आई.लेनिन ने साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की आर्थिक व्याख्या दी।

उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की हॉब्सन की व्याख्या:-
ब्रिटिश अर्थशास्त्री जे.ए. हॉब्सन ने अपनी पुस्तक इंपीरियलिज्म में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की आर्थिक व्याख्या की है। उनकी व्याख्या के मुख्य बिंदु हैं 一

[1] आर्थिक लाभ: हॉब्सन के अनुसार, आर्थिक लाभ नए उपनिवेशवादियों का मुख्य उद्देश्य था, न कि साम्राज्यवाद के पीछे एक महान, या उच्च लक्ष्य। पूंजीवादी समाज में समाज में संपत्ति के वितरण में भारी असमानता के कारण पूंजीपतियों के हाथों में पूंजी का जो पहाड़ खड़ा हो जाता है, वे पूंजी को नए क्षेत्रों में निवेश कर लाभ कमाने की योजना बनाते हैं।
[2] पूंजीवादी दबाव: हॉब्सन का मानना ​​था कि पूंजीपतियों ने अपनी सरकारों को नए क्षेत्रों में पूंजी निवेश करने के लिए उपनिवेशों पर कब्जा करने के लिए मजबूर किया। अर्थात् हॉब्सन के अनुसार साम्राज्यवाद या उपनिवेशीकरण का प्रमुख कारण पूँजी में वृद्धि का दबाव है।
[3] आर्थिक शोषण: हॉबसन ने दिखाया कि अधिक लाभ और संपत्ति हासिल करने के लिए, औपनिवेशिक राज्य लगातार उपनिवेशों से कच्चा माल खरीदता था और उनके निर्मित माल को औपनिवेशिक बाजारों में बेचता था। इस प्रकार औपनिवेशिक राज्य द्वारा उपनिवेशों का शोषण किया गया और परिणामस्वरूप औपनिवेशिक राज्य की आर्थिक स्थिति और अधिक बढ़ गई।
[4] उपनिवेशवाद को समाप्त करने के तरीके: हॉब्सन के अनुसार, इस व्यवस्था को ठीक करने के लिए पूंजीपतियों की अतिरिक्त पूंजी को गरीबों में बांट दिया जाना चाहिए और विभिन्न विकास उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उनके अनुसार यदि लोगों के जीवन स्तर में वृद्धि होती है तो वे कारखानों में बने अतिरिक्त माल को खरीदकर अतिरिक्त वस्तुओं का उपयोग कर सकेंगे। नतीजतन, अधिशेष माल की बिक्री के लिए उपनिवेश स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की लेनिन की व्याख्या:
रूस के प्रसिद्ध साम्यवादी नेता वी.आई. लेनिन ने अपनी साम्राज्यवाद: द हाईएस्ट स्टेज ऑफ़ कैपिटलिज़्म (1916 ई.) में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के प्रसार की आर्थिक व्याख्या की। इस बारे में उनकी थीसिस है:一 
[1] पूंजी और उसके निवेश का उदय: यूरोपीय देशों में औद्योगिक प्रगति के कारण पूंजीपतियों के हाथों में बड़ी मात्रा में पूंजी जमा हो गई। अब वे अधिक लाभ कमाने के लिए उस पूंजी को फिर से निवेश करने के लिए उत्सुक हैं और इसके लिए वे कॉलोनियों का चयन करते हैं। वे कॉलोनी से एकत्रित कच्चे माल को अपने देश ले जाने के बजाय कॉलोनी में पूंजी निवेश करना चाहते हैं। इसलिए पूंजीवादी राज्य में पूंजीपति वर्ग के हित उपनिवेशों पर कब्जा कर लेते हैं और पूंजीपति वहां माल का उत्पादन और बिक्री कर मुनाफा कमाने की कोशिश करते हैं।
[2] बाजार पर कब्जा और कच्चे माल की जमाखोरी: पूंजीवादी राज्यों में औद्योगिक मालिक अतिरिक्त मुनाफा कमाने की उम्मीद में अपने देश की जरूरत से ज्यादा माल का उत्पादन करते हैं। इन उत्पादों के उत्पादन के लिए सस्ता कच्चा माल प्राप्त करने और उन उत्पादों को बेचने के लिए औपनिवेशीकरण की भी आवश्यकता थी। लेनिन के अनुसार इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पूँजीवादी राज्यों ने उपनिवेशों पर कब्जा करने का प्रयास किया।
[3] प्रतिस्पर्धा और साम्राज्यवाद: लेनिन ने कहा, साम्राज्यवाद पूंजीवाद के गर्भ में पैदा हुआ था। उपनिवेशवाद को लेकर विभिन्न पूंजीवादी और साम्राज्यवादी राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। यह प्रतिद्वंद्विता युद्ध की ओर ले जाती है। अर्थात्, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था युद्ध का स्रोत है - जो उपनिवेशीकरण में उत्पन्न होती है।
[4] एक वफादार संभ्रांत श्रमिक वर्ग की स्थापना: पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की एक पहचान मालिक वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग का शोषण है। लेकिन लेनिन के अनुसार, पूंजीवादी राज्यों ने एशिया और अफ्रीका के अविकसित देशों को उपनिवेश बनाया और वहां के नए श्रमिक वर्ग का शोषण किया, लेकिन अपने ही देशों में श्रमिकों को अपने अधीन कर लिया। क्योंकि पूंजीवादी राज्यों का लक्ष्य अपने ही देश के इस वफ़ादार संभ्रांत मज़दूर वर्ग को मज़दूर क्रांति से रोकना था।

मूल्यांकन: उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर हॉब्सन और लेनिन के सिद्धांत पूरी तरह से दोषों से मुक्त नहीं हैं। व्यवहार में यह सिद्धांत कई मामलों में गलत पाया जाता है। लेकिन इस सिद्धांत के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इसलिए, डेविड थॉमसन के समर्थन में, यह
कहा जा सकता है कि विदेशों में सुरक्षित निवेश क्षेत्रों को खोजने की इच्छा ने यूरोपीय देशों को उपनिवेश बनाने के लिए विशेष रूप से उत्सुक बना दिया।




2)Vvi***प्रश्न: औपनिवेशिक राज्य में जातीय भेदभाव कैसे होता था? औपनिवेशिक राज्य में जातीय भेदभाव के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव क्या थे?
Or,

Vvi **Discuss the question of race and its impact in colonial societies.
प्रजाति का प्रश्न तथा औपनिवेशिक समाज पर इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।

उत्तर :- 
परिचय:-यूरोप की औपनिवेशिक शक्तियों ने अठारहवीं शताब्दी से एशिया और अफ्रीका के विभिन्न पिछड़े देशों में उपनिवेश स्थापित किए। औपनिवेशिक शासक श्वेत जाति के थे और शासित उपनिवेशों के निवासी क्रियांग जाति के थे। इसलिए, शासक गोरों और शासित गोरों के बीच स्वाभाविक रूप से एक व्यापक नस्लीय अंतर पैदा हो गया।

औपनिवेशिक राज्यों पर जातीय भेदभाव का प्रभाव:-
[1] जातीय श्रेष्ठता: सत्तारूढ़ गोरे खुद को औपनिवेशिक श्वेत प्रजा से श्रेष्ठ मानते थे। अंग्रेजी कवि रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी कविता 'व्हाइट मैन्स बर्डन' में कहा है कि पिछड़े वर्ग को सुधारने की जिम्मेदारी गोरे लोगों की है। 

[2] तिरस्कार: शासक गोरे उपनिवेशित गोरों को तिरस्कार और घृणा की दृष्टि से देखते थे। कुछ औपनिवेशिक कस्बों ने गोरों और अश्वेतों के रहने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों को भी चिन्हित किया। भारतीय उपनिवेशों में, गोरों के कुछ क्लबों और रेस्तरांओं के प्रवेश द्वार पर 'कुत्तों और भारतीयों को अनुमति नहीं है' लिखा हुआ होता था। रुडयार्ड किपलिंग ने भारतीयों को 'आधा शैतान और आधा बच्चा' कहा था।
[3] भेदभाव: उपनिवेशों के गोरे शासकों ने उपनिवेशों में रहने वाले यूरोपीय गोरों और मूल भारतीयों के बीच कई तरह के विभाजन किए। भारत के मामले में यह देखा जा सकता है कि रेलवे, सरकारी कार्यालयों और अदालतों में अश्वेतों को गोरों के समान दर्जा नहीं मिला। इसके अलावा, विभिन्न मुद्दों जैसे सामाजिक, धार्मिक आदि के आधार पर कॉलोनी के लोगों के बीच विभिन्न मतभेद पैदा किए गए थे।

[4] गुलामी: गोरों ने अफ्रीकी महाद्वीप पर विभिन्न उपनिवेशों से अफ्रीकी लोगों को गुलाम बनाया और उन्हें पश्चिमी देशों में निर्यात किया। गुलामी को गैरकानूनी घोषित किए जाने के बाद भी, कई भारतीयों को गोरों को गुलाम बनाने के लिए मजबूर किया गया था।

[5] गिरमिटिया मजदूर: यूरोपियन गोरे मालिकों ने कई गरीब गिरमिटिया मजदूरों को भारत, चीन आदि उपनिवेशों से अफ्रीका सहित यूरोप के विभिन्न देशों में विभिन्न श्रमसाध्य कार्यों में लगाने के लिए भेजा। विदेशों में उन्हें अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। कई लोगों ने अपने रिश्तेदारों को खो दिया और हमेशा के लिए विदेश में रहने लगे और वहीं मरने को मजबूर हो गए।

[6] जातीय संघर्ष: गोरों के शोषण और उत्पीड़न को देखते हुए, विभिन्न उपनिवेशों में बहुसंख्यक क्रायंगों ने सत्ताधारी श्वेत अल्पसंख्यक के खिलाफ विद्रोह के रास्ते पर चल पड़े। इस संघर्ष में गोरों ने क्रियांगों के विद्रोह को बेरहमी से प्रताड़ित कर दबा दिया। गोरे स्वामियों द्वारा इस तरह की नस्लीय घृणा और उत्पीड़न जमैका के उपनिवेश में बहुत तीव्र हो गया।

[7] शोषण: श्वेत औपनिवेशिक शक्तियों ने उपनिवेश के वित्तीय संसाधनों का शोषण करके कुरियनों के आर्थिक शोषण के विभिन्न रूपों को अंजाम दिया। उन्होंने उपनिवेशों से विभिन्न प्रकार के कच्चे माल को बहुत सस्ते में एकत्र करके और उन्हें अपने ही देशों में निर्यात करके और अपने निर्मित माल को उपनिवेशों के बाजारों में निर्यात करके उद्योगों का विकास किया। औपनिवेशिक निवासियों के कुटीर उद्योग नष्ट हो गए। परिणामस्वरूप, उपनिवेशों में बेरोजगारी और आर्थिक संकट बढ़ गया।

निष्कर्ष: औपनिवेशिक क्रियांग पर सत्तारूढ़ गोरों के भेदभावपूर्ण शोषण और उत्पीड़न के परिणामस्वरूप, उत्पीड़ित क्रियांग ने शासक गोरों के खिलाफ मुक्ति संघर्ष शुरू किया। 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह संघर्ष तेज हो गया। परिणामस्वरूप, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोपीय गोरों के शासन और शोषण से छुटकारा पाने के बाद, क्रियांग उपनिवेश एक-एक करके स्वतंत्रता प्राप्त करने लगे।

पाठ -3

 औपचारिक और अनौपचारिक

 साम्राज्य उपनिवेशक प्रभुत्व

 की प्रकृति 

(The Nature of the

 Colonial Dominance

 : Formal and Informal

 Empires)


VVvvi****प्रश्न: प्लासी की लड़ाई और बक्सर की लड़ाई के बीच तुलना पर चर्चा करें?
उत्तर :

परिचय :-भारत में ब्रिटिश शासन का प्रथम चरण 1757 ई. में प्लासी का युद्ध तथा 1764 ई. में बक्सर का युद्ध था। दोनों युद्ध इतिहास में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि, इस बात पर काफी बहस होती है कि इन दोनों युद्धों में से कौन अधिक महत्वपूर्ण है। इस विषय पर तुलनात्मक चर्चा के माध्यम से विस्तार से चर्चा की गई है। सबसे पहले हम प्लासी के युद्ध के महत्वपूर्ण पहलुओं पर नजर डालेंगे। और फिर हम बक्सर की लड़ाई के महत्व के बारे में देखेंगे।

प्लासी का युद्ध :

23 जून 1757 को भागीरथी नदी के तट पर बंगाल के अंतिम नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ लॉर्ड क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों द्वारा लड़ी गई लड़ाई को भारतीय इतिहास में प्लासी की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। इस युद्ध की पराजय के फलस्वरूप लगभग 200 वर्षों तक बंगाल की स्वतंत्रता का सूर्य अस्त हुआ। इस युद्ध के परिणाम दूरगामी थे और इस युद्ध के परिणाम इस प्रकार हैं।
खंडित युद्ध → प्लासी का युद्ध हताहतों की संख्या और परिमाण की दृष्टि से एक खंडित युद्ध था। इस लड़ाई में नवाब की ओर से 500 और अंग्रेजों की ओर से केवल 22 सैनिक मारे गए। इतिहासकार नेल्सन कहते हैं कि "प्लासी, हालांकि एक निर्णायक लड़ाई नहीं है, इसे कभी भी एक बड़ी लड़ाई नहीं माना जा सकता"।
स्वतंत्र नवाबी शासन का अंत → प्लासी की लड़ाई हारने के बाद, भारत के अधिकांश क्षेत्र पर विदेशियों ने कब्जा कर लिया और अंग्रेजों ने वहां वास्तविक सत्ता हासिल कर ली। अंग्रेजों ने मीरजाफर को अपनी कठपुतली के रूप में गद्दी पर बिठाया, वे स्वयं गद्दी के पीछे की वास्तविक शक्ति बन गए।
कंपनी के साम्राज्य का विस्तार → प्लासी के युद्ध को जीतकर अंग्रेजी कंपनी भारत में अपनी संप्रभुता स्थापित करने में सफल हुई। इस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारत के अन्य भागों में ब्रिटिश शासन का विस्तार करने के लिए बंगाल के संसाधनों का उपयोग किया।
प्लासी की लूट → प्लासी की लड़ाई के बाद बंगाल के नए नवाब को अंग्रेजी कंपनियों और कर्मचारियों को भारी पुरस्कार देने के लिए मजबूर होना पड़ा। युद्ध के बाद कंपनी ने धोखे से बंगाल से बहुत सा धन एकत्र किया और उसे वापस अपने देश भेज दिया। इसके परिणामस्वरूप बंगाल की आर्थिक संरचना का पतन हुआ जिसे प्लासी की लूट के रूप में जाना जाता है।
एक नए युग की शुरुआत → प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने इस देश में समाज और सभ्यता में अपने अस्तित्व,पश्चिमी शिक्षा और विचार की पैठ को बनाए रखने की कोशिश की। पुनर्जागरण ने मध्य युग का अंत कर दिया और आधुनिक युग की शुरुआत हुई।

बक्सर की लड़ाई :
बक्सर की लड़ाई 8/22 अक्टूबर, 1764 को मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अयोध्या के नवाब सुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर कासिम की संयुक्त सेना और अंग्रेजों के साथ बक्सर के रेगिस्तान में लड़ी गई थी। बक्सर का युद्ध भारत के इतिहास की निर्णायक लड़ाइयों में से एक था।
(1) ब्रिटिश वर्चस्व →अंग्रेजों ने प्लासी की लड़ाई जीतकर, बक्सर की लड़ाई जीतकर बंगाल और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की संभावना को साकार किया।
( 2) भारतीय शासकों की अक्षमता → प्लासी के युद्ध में केवल बंगाल का नवाब ही पराजित हुआ था। लेकिन बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब, अयोध्या के नवाब और मुगल बादशाह एक साथ हार गए। यह हार बंगाल और भारत के शासकों की अक्षमता को सिद्ध करती है।
( 3) नवाब की शक्ति में कमी → बक्सर युद्ध के बाद अयोध्या की कंपनी ने बंगाल के नवाब की शक्ति को भी कम कर दिया। अयोध्या का नवाब कंपनी के नियंत्रण में आ गया। बंगाल के नवाब कंपनी नवाब के संस्थापक बने।
(4 ) कंपनी का नागरिक लाभ → बक्सर की लड़ाई जीतने के बाद अंग्रेजों को 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले बंगाल, बिहार, उड़ीसा का नागरिक लाभ प्राप्त हुआ। 1765 में, कंपनी को व्यापार और व्यापार राजस्व एकत्र करने की जिम्मेदारी दी गई थी।
(5) औद्योगिक व्यापार पर कंपनी की उपलब्धियाँ → बक्सर युद्ध के बाद, बंगाली कुटीर उद्योग और बंगाली व्यापार और शासन नष्ट हो गया। अंग्रेजों ने अपनी उपलब्धियों को विशेष रूप से व्यापार और उद्योग पर स्थापित किया।

मूल्यांकन :- अंतत: प्लासी का युद्ध, निस्संदेह एक निर्णायक युद्ध होने के बावजूद, किसी भी तरह से गृहयुद्ध नहीं माना जा सकता। लेकिन बक्सर की लड़ाई अंतिम लड़ाई थी। लेकिन भारतीय इतिहास में दोनों युद्धों का समान महत्व है। इतिहासकार बिपिन चंद्र के अनुसार "प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों द्वारा रखी गई नींव का पत्थर बक्सर की लड़ाई से मजबूत हुआ।"



Vvvi**1. भारत में अनौद्योगीकरण के क्या-क्या कारण थे? भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव की चर्चा कीजिए। (What were the causes of deindustrialisation in India? Discuss its impact on Indian economy.)[H.S. 2020]

Ans. अनौद्योगीकरण :- भारतीय राष्ट्रीय इतिहासकारों ने भारत में ब्रिटिश शासनकाल के प्रारम्भिक में हुए औद्योगिक पतन को अनौद्योगीकरण (De-industrialisation) का नाम दिया है। इस काल में चरण भारतीय उद्योगों की विनाश लीला देखकर इस स्थिति का सही अंदाजा लगाया जा सकता है। 
(i) औद्योगिक क्रांति ने इंग्लैण्ड में एक शक्तिशाली और संगठित पूँजीपति वर्ग को जन्म दिया, जो चाहते थे कि भारत का द्वार सभी व्यापारियों के लिए खुले। 1813 ई० में कम्पनी ने अपने व्यापार का अधिकार खो दिया और अधिक से अधिक ब्रिटिश व्यापारी भारत पहुँचने लगे। पूरा भारतीय बाजार ब्रिटेन की बनी वस्तुओं से पट गया और भारतीय उधोग, सस्ती ब्रिटिश वस्तुओं के समक्ष अपने अस्तित्व खोने लगे। इसके परिणाम उद्योगों के लिए अहितकर थे। 
(ii) सस्ती ब्रिटिश वस्तुओं का मुकाबला न कर पाने की स्थिति में भारतीय औद्योगिक वस्तुओं से उनका बाजार छिन गया और इसका प्रभाव उनके उत्पादन पर पड़ा।
(iii) ब्रिटिश बाजार में भारतीय वस्तुओं पर बहुत अधिक कर लगाया जाता था, उसके कारण उन्होंने विदेशी बाजार भी खो दिया। 1824 ई० में भारतीय सूती वस्त्र को 62.5% कर देना पड़ता था। केवल भारतीय मखमल वस्त्र पर 33.5% कर था। भारतीय चीनी को इसके मूल्य से तीन गुणा कर इंग्लैण्ड में देना पड़ता था। स्वभावतः भारतीय उद्योगों का पतन शुरू हो गया।
(iv) ब्रिटिश औपनिवेश नीति ने भारत को ब्रिटिश वस्तुओं का खुला बाजार और कच्चे मालों को पाने का केन्द्र बना दिया।
 (v) अंग्रेजी शासन के चलते भारत के देशी रजवाड़े समाप्त हो गए जो भारतीय वस्तुओं के सबसे बड़े खरीददार एवं संरक्षक थे। इसका असर भारतीय हस्तशिल्प पर पड़ा और वे पतन के कगार पर पहुँच गए। 

अनौद्योगीकरण का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:

(i) अनौद्योगीकरण का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि और उद्योगों के स्थानीय समन्वय पर निर्भर थी। ग्रामीण उद्योगों के पतन से इस समन्वय को नुकसान पहुँचा।
 (ii) शिल्प उद्योगों के पतन के कारण अधिकाधिक कारीगर अपना पुश्तैनी कारोबार छोड़ने लगे। कारीगर शहरों में मजदूरी करने लगे।
 (iii) अनौद्योगीकरण ने भारत की निर्यातक से आयातक की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। भारत अब केवल ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल को जुगाड़ करने का केन्द्र बन गया। 
(iv) भारतीय बुनकरों पर अत्याचार कर उन्हें केवल अंग्रेजों के लिए उत्पादन करने को बाध्य किया जाने लगा। इससे वस्त होकर हजारों बुनकरों ने या तो अपने घर छोड़ दिए या अपने अँगूठे काट लिए ताकि इन अत्याचारों से बचा जा सके। इस प्रकार ब्रिटिश आर्थिक व औपनिवेशिक नीतियों से भारत में अनौद्योगीकरण की स्थिति उत्पन्न हुई।

*2. बंगाल के समाज एवं अर्थनीति पर स्थायी बंदोवस्त का प्रभाव क्या पड़ा? (What were the effects of the Permanent Settlement on the society and economy of Bengal?)[Sample-2014]

 Ans. स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था की शुरुआत 22 मार्च, 1793 ई० को लॉर्ड कार्नवालिस ने की थी। इस व्यवस्था का प्रभाव बंगाल के समाज एवं अर्थनीति पर निम्न रूपों में पड़ा :
 (i) स्थायी बंदोबस्त प्रथा के परिणामस्वरूप जमीन का मालिकाना अधिकार कृषकों के हाथों से जाता रह वे केवल बंधुआ मजदूर बनकर रह गए।
 (ii) ब्रिटिश सरकार तथा कृषकों के बीच जमींदार वर्ग के रूप में एक बिचौलिए वर्ग का उदय हुआ जो कि शक्तिशाली वर्ग के रूप में उभरकर सामने आया। 
(iii) इतिहासकार चार्ल्स ग्रांट का विचार था कि भूमि पर मालिकाना अधिकार ब्रिटिश सरकार का हो गया तथा जमींदारों की स्थिति इसके कर संग्रहकर्त्ता के रूप में थी तथा निश्चित समय में निर्धारित रकम को न चुका पाने की स्थिति में ब्रिटिश सरकार उसे उसके पद से हटा भी सकती थी।
(iv) जमींदारों के साथ-साथ समाज में महाजनों एवं साहुकारों का भी उदय हुआ, जिनसे कर्ज लेकर किसान कर की राशि चुकाते और बाद में इनके ऋणी हो जाते थे।
(v) स्थायी बंदोबस्त से कम्पनी को यह लाभ मिला कि वह बार-बार के भू-राजस्व की दर निर्धारित करने की समस्या से बच गई। अब उसे निर्धारित राशि तय समय पर राजकोष में जमा मिलती थी। 
(vi) प्रत्येक जमींदार से भू राजस्व 3 करोड़ 75 लाख रुपये वार्षिक निश्चित किया गया जबकि किसानों से जमींदार लगभग 13 करोड़ रुपये वसूल करते थे कृषकों के परिश्रम से जमींदार की समृद्धि बढ़ी, परिणामस्वरूप उप जमींदारी प्रणाली का जन्म हुआ जिसने स्वाभाविक रूप से किसानों के अतिरिक्त शोषण को जन्म दिया।
 (vii) स्थायी बंदोबस्त से एक और जहाँ अंग्रेजी कम्पनी तथा जमींदारों को अत्यधिक लाभ मिला, वहीं किसानों की आर्थिक दशा अत्यन्त सोचनीय हो गए।

अनौद्योगीकरण का स्वदेशी वस्त्र उद्योग पर प्रभाव - अनौद्यौगीकरण का सबसे बुरा प्रभाव भारतीय स्वदेशी वस्त्र उद्योग पर पड़ा। प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद के दिनों में कम्पनी ने बंगाल के सारे प्रतियोगियों को अग्रिम राशि लेकर उत्पादन करने के लिए बाध्य करने लगी। इस अग्रिम राशि को अंग्रेजों व्यापारियों को बेचने को बाध्य किये जाने लगे। इधर अंग्रेजों ने किसानों को बाध्य किया कि वे कच्चे सूत, रेशम एवं ऊन को केवल अंग्रेज व्यापारियों को ही बेचें, जिन्हें बाद में ब्रिटेन के उद्योगों के विकास के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया जाता था। इस स्थिति में भारतीय स्वदेशी वस्त्र उद्योगों को कच्चे माल की काफी कमी हो गई। इतना ही नहीं एक ओर जहाँ अंग्रेजों ने अपने कारखानों से तैयार वस्त्रों को भारत में कर मुक्त कर दिया था, तो दूसरी ओर भारतीय वस्त्रों पर अधिक कर लगा दिया। इस स्थिति में भारतीय वस्त्रों की कीमत बढ़ती चली गई और वे ब्रिटिश कारखानों से तैयार वस्त्रों का मुकाबला नहीं कर सके और धीरे-धीरे उनका पतन हो गया।

* 3. कैण्टन व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ क्या थी? इसका पतन क्यों हुआ? (What were the chief features of the Canton Trade? Why did it decline?[H.S. 2015, 2017, 2019] 

 Ans. कैण्टन व्यापार (The canton trade) :- चीन में विदेशियों के आगमन के पश्चात मंचू सरकार को यह आशंका हो गई थी कि अगर इन व्यापारियों को व्यापार करने की अनुमति नहीं दी जायेगी तो वे सम्पूर्ण चीन में फैल कर अशांति फैलाने का प्रयत्न करेंगे। इसलिए मंचू सम्राट कांगसी ने एक राजकीय विज्ञप्ति जारी की जिसके अनुसार विदेशी व्यापारी चीन के सभी तटवर्ती बन्दरगाहों से शांतिपूर्वक उचित व्यापार कर सकते थे। व्यापार की अनुमति मिलते ही विदेशी व्यापारियों के खुशी का ठिकाना न रहा। वे सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें इतनी आसानी से व्यापार के अधिकार मिल जाएँगे। इससे उनका उत्साह और हौसला दोनों बढ़ा। फलतः अर्थ लोलुपता के चलते इन लोगों ने नाजायज व्यापार भी करना प्रारंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप मंचू वंश के दूसरे सम्राट चिएन लुग ने 1757 ई० में एक अन्य विज्ञप्ति निकाली, जिसके अनुसार वैदेशिक व्यापार को चीन में सीमित कर दिया गया और व्यापारियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाए गए। इस विज्ञप्ति के अनुसार विदेशी व्यापारियों को दक्षिणी चीन के केवल एक बन्दरगाह कैन्टन से व्यापार करने की अनुमति मिली। इसके अतिरिक्त चीन में 'को-हंग' नामक एक व्यापारिक दल का गठन किया गया। इस दल के परामर्श तथा देख-रेख में ही विदेशी व्यापारी चीन में व्यापार कर सकते थे। इस प्रकार यूरोप के विभिन्न देशों के व्यापारियों का जमावड़ा चीन के कैण्टन बंदरगाह पर होने लगा और कैण्टन एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आया।

कैण्टन व्यापार के पतन के कारण :- (i) चीन के लोग विदेशियों के साथ किसी भी ढंग का सम्बन्ध कायम करना नहीं चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि विदेशी सम्पर्क के कारण उनकी श्रेष्ठ सभ्यता अशुद्ध हो जाएगी। अतः वे विदेशी सामानों को खरीदने और स्वनिर्मित सामान को विदेशियों को बेचने में रूचि नहीं लेते थे।

(ii) 1757 ई० में मंचू सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर विदेशी व्यापारियों को कैण्टन प्रान्त में ही केवल व्यापार करने की अनुमति दी थी, उन्हें कैण्टन में बसने की सुविधा नहीं थी। व्यापार की सारी शर्तें चीनियों के द्वारा निश्चित को जाती थी, इससे विदेशी व्यापारियों को नुकशान होता था। अतः वे कैण्टन व्यापार के प्रति उदासीन हो गए।

(iii) चीन की सरकार की नीति से विदेशी व्यापारी क्षुब्ध थे। चीनियों ने व्यापार चुंगी, आयात कर, आयात-निर्यात इत्यादि को अनिश्चित कर रखा था। करों का निश्चित न रहना तथा उनकी मात्रा की अधिकता विदेशी व्यापारियों के लिए सिरदर्द बन गया था। अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए ही वे मनमाने ढंग से करों की दरों में विदेशी व्यापारियों के शोषण के उद्देश्य से लगातार वृद्धि करने लगे थे।

(iv) विदेशी व्यापारियों की सामाजिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी उन्हें कैण्टन प्रान्त के बाहर सीमित क्षेत्र में ही रहना पड़ता था। उनके साथ अछूतों-सा व्यवहार किया जाता था। चीनी उन्हें बर्बर तथा शोषक समझते थे। अतः विदेशियों ने कैण्टन प्रान्त से अलग हटकर अन्य प्रान्त की ओर रूख किया।

(v) कैण्टन प्रान्त विदेशियों के व्यापार का केन्द्र बन गया था। वहाँ पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज, अमेरिकी इत्यादि व्यापारियों ने एक ही प्रान्त में व्यापार करना शुरू किया। जिससे उन्हें अधिक लाभ नहीं मिल पाता था। अतः वे कैण्टन के अतिरिक्त अन्य प्रान्तों में भी व्यापार करने को अग्रसर हुए।
 (vi) यूरोपियों ने चीनी मंचू सरकार की अयोग्यता का लाभ उठाकर अन्य बंदरगाहों जैसे- अमाय, निगपो,

फूचों और शंघाई में भी मादक पदार्थ अफीम का विशेष तौर पर अवैध व्यापार करना आरम्भ कर दिया। 

4. Briefly discuss the land revenue system of the English East India Company in India. (भारत में अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा चलाए गए भू-राजस्व व्यवस्था का वर्णन कीजिए।)[H.S. 2016]

Ans. स्थायी बन्दोबस्त (Permanent settlement) :- 1784 ई० में पिट्स इण्डिया ऐक्ट (Pitts India Act) में कम्पनी को बंगाल में स्थायी भूमि प्रबन्ध करने की सलाह दी गई। 1786 ई० में लॉर्ड कॉर्नवालिस (Lord Cornawallis) बंगाल का गवर्नर जनरल बनकर आया और इसी ने स्थायी बन्दोबस्त (Permanent settle ment) लागू किया लगान व्यवस्था में सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जमींदारों को कर संग्रहकर्ता माना जाए या भूमि का स्वामी इस विषय पर जॉन शोर (John Shore) तथा जेम्स ग्राण्ट (James Grant) के विचार एक दूसरे के विरोधी थे। जॉन शोर जमींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार करता था और उसके अनुसार वे ही लगान देने के वास्तविक अधिकारी थे। ग्रांट का विचार था कि समस्त भूमि सरकार की है तथा जमींदार इसके कर संग्रहकर्ता से अधिक कुछ नहीं हैं। सरकार इन्हें अपनी इच्छा से हटा सकती थी। कॉर्नवालिस शोर के विचारों से सहमत था लेकिन शोर का यह भी विचार था कि चूँकि भू-सम्पत्ति का सर्वेक्षण तथा उनकी सीमाओं का निर्धारण नहीं हुआ था। इसलिए यह व्यवस्था 10 वर्ष तक की होनी चाहिए, किन्तु कॉर्नवालिस दीर्घकालीन व्यवस्था के पक्ष में था। कार्नवॉलिस ने वार्षिक लगान के स्थान पर 1790 ई० में 10 वर्षीय लगान व्यवस्था लागू की और घोषणा की गई कि कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स से स्वीकृति प्राप्त हो जाने पर इसी व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान कर दिया जाएगा। डाइरेक्टरों की स्वीकृति मिलने के बाद 22 मार्च, 1793 ई० को 10 वर्षीय प्रबन्ध स्थायी कर दिया गया। भू-राजस्व की यही व्यवस्था इस्तमरारी बन्दोबस्त या स्थायी बन्दोबस्त (Permanent settlement) के नाम से जानी जाती है।

इस व्यवस्था में भू-राजस्व सदैव के लिए निर्धारित कर दिया गया जो जमींदारों को प्रतिवर्ष जमा करना पड़ता था। इस व्यवस्था में लगान का 10/11 भाग सरकार का तथा 1/11 भाग जमींदारों का निश्चित किया गया। जमींदारों को इससे सर्वाधिक लाभ हुआ क्योंकि भूमि पर उनका वास्तविक अधिकार स्वीकृत कर लिया गया एवं भू-स्वामित्व परम्परागत हो गया। कॉर्नवालिस ने एक अध्यादेश द्वारा यह भी घोषित कर दिया कि एक जमींदार की मृत्यु के पश्चात् उसकी भूमि उसके उत्तराधिकारियों में चल सम्पत्ति की भाँति विभाज्य होगी। स्थायी बन्दोबस्त बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश के वाराणसी एवं गाजीपुर क्षेत्र तथा उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्रों में लागू किया गया। स्थायी बन्दोबस्त में ब्रिटिश भारत का 19% क्षेत्र आता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari Settlement) :- किसानों के साथ व्यक्तिगत रूप से किए गए लगान समझौते को रैयतवाड़ी कहा गया। यह व्यवस्था मद्रास, बम्बई, पूर्वी बंगाल, असम और कुर्ग में लागू की गई। इस व्यवस्था के अन्तर्गत ब्रिटिश भारत की 51% भूमि आई। इस प्रकार भारत के सबसे अधिक भू-भाग पर यह व्यवस्था लागू की गई। कर्नल रोड (Colonel Reed) और मुनरो नामक दो पदाधिकारियों को 1792 ई० में मद्रास क्षेत्र के नए जीते गए इलाकों में प्रशासन सम्भालने के लिए भेजा गया। उन्होंने जमींदारों से लगान वसूलने के बजाय गाँव के किसानों से लगान वसूला। 1792 ई० में रैयतवाड़ी व्यवस्था बारामहल जिले में पहली बार कर्नल रीड द्वारा लागू की गई। मुनरो (Munroe) इसका कट्टर समर्थक था। भू-राजस्व सम्बन्धी आरम्भिक प्रयोगों के बाद 1820 ई० में यह व्यवस्था मद्रास में लागू कर दी गई और इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए मुनरो को मद्रास का गवर्नर नियुक्त किया गया। 1825 ई० में यह व्यवस्था बम्बई में लागू की गई तथा 1858 ई० तक यह सम्पूर्ण दक्कन और अन्य क्षेत्रों में लागू हो गयी। इस व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थी:

(1) सरकार एवं किसानों के बीच कोई बिचौलिया वर्ग नहीं था।
 (2) भूमि का स्वामित्व किसानों को दिया गया जिससे वे भूमि का विक्रय कर सकते थे एवं गिरवी रख सकते थे।
(3) लगान की अदायगी न होने पर भूमि जब्त की जा सकती थी। 
(4) लगान अदायगी की प्रत्येक 30 वर्ष बाद पुनर्समीक्षा की जाएगी। 
(5) इस व्यवस्था में किसानों को उपज का 1/2 भाग राजस्व के रूप में देना था।

महालवाड़ी व्यवस्था (Mahalwari Settlement) :- महाल शब्द से तात्पर्य है जागीर अथवा गाँव । इस पद्धति में राजस्व व्यवस्था प्रत्येक महाल के साथ स्थापित की गई, कृषक के साथ नहीं। ग्राम अथवा महाल पर आधारित भूमि-व्यवस्था के साथ रैयतवाड़ी बन्दोबस्त की कुछ नीतियों को मिलाकर यह व्यवस्था लागू की गई। इस पद्धति के जन्मदाता हाल्ट मैकेन्जी हुए। 1819 ई० के अपने प्रतिवेदन में उन्होंने महालवाड़ी भूमि व्यवस्था का सूत्रपात किया। 1822 ई० में इस व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाया गया। 1833 ई० में मार्टिन बर्ड तथा जेम्स टाम्सन के बन्दोबस्त में यह अपने सबसे अच्छे रूप में सामने आई। 1837 ई० कृषि का खर्च निकालकर 2/3 हिस्सा कर वसूल करना तय किया गया। 1855 ई० में यह उपज का 1/2 कर दिया गया। इस व्यवस्था में पहली बार लगान तय करने के लिए मानचित्रों तथा पंजियों का प्रयोग किया गया। यह भूमि योजना मार्टिन बर्ड के निर्देशन में तैयार की गई थी। इन्हें उत्तर भारत की भूमिकर व्यवस्था का प्रवर्तक माना जाता है। इस व्यवस्था में सरकार ने कृषकों से सीधा सम्पर्क नहीं किया बल्कि गाँव या जागीरों के मुखिया या लम्बरदार को कर वसूली का आधार बनाया किन्तु, सरकार ने कृषक को भूमि बेचने अथवा उसकी जमानत पर ऋण लेने के अधिकार प्रदान कर दिए थे।
इस व्यवस्था के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रान्त और पंजाब प्रान्त आते थे जो ब्रिटिश भारत के कुल भूभाग का 30% था।

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Q-15




(पाठ-4 )

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Q-17 )



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(Q-18 राजा राममोहन राय )



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(Q-19) 




11.**समाज तथा धर्म सुधार आन्दोलन में स्वामी विवेकानन्द और राम कृष्ण मिशन की भूमिका स्पष्ट कीजिए ? (Discuss the role of Swami Vivekanand and Ram Krishna Mission in social and religious movement.)
Ans. स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण मिशन (Swami Vivekanand and Ramkrishna Mission)
- स्वामी विवेकानन्द भारत के एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने समस्त विश्व में हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की तथा भारत को नवजागरण का संदेश दिया। इनका जन्म 1863 ई० को बंगाल में हुआ था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। वे रामकृष्ण परमहंस के सबसे अधिक प्रतिभा सम्पन्न शिष्य थे। उन्होंने कलकत्ता विश्व प्रखर विद्यालय से बी०ए० तक शिक्षा प्राप्त की। पाश्चात्य दर्शन का भी इन्हें गहन अध्ययन था। उनकी स्मरण शक्ति अत्यन्त प्रखर थी। उन्होंने युवावस्था में ही संन्यास ग्रहण कर वेद वेदान्त का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद कई वर्षों तक पूरे देश का भ्रमण किया। स्वामीजी ने सन् 1893 ई० में शिकागों के विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेकर हिन्दू धर्म एवं दर्शन की श्रेष्ठता सिद्ध की। उनके विचारों तथा वेदान्त दर्शन की व्याख्या तथा उनके व्याख्यानों से प्रभावित होकर श्रोताओं ये उन्हें देवी सम्पन्न वक्ता कहा। स्वामीजी ने अमेरिका में तीन वर्षों तक रहकर विभिन्न सभाओं में भाषण दिया। उन्होंने इंग्लैण्ड एवं अन्य यूरोपीय देशों का भी भ्रमण किया तथा हिन्दू धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता पर अनेक व्याख्यान दिए।

स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म एवं सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध करके हिन्दुओं के आत्मगौरव को ऊँचा उठाया। उनका कहना था कि भारत सदैव से जगद्गुरु रहा है और भविष्य में भी रहेगा। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने 'हिन्दुस्तान की कहानी' में लिखा है कि विवेकानन्द को अमेरिका में 'तूफानी हिन्दू ' कहा गया। उनका कहना था कि "यदि संसार में कोई पाप है तो वह है दुर्बलता दुर्बलता को दूर करो। दुर्बलता पाप है, दुर्बलता मृत्यु है। अब हमारे देश को जिन वस्तुओं की जरूरत है वे हैं लोहे के पुट्ठे, फौलाद की नाड़ियाँ और ऐसी प्रबल मनः शक्ति जो पूर्ण हो और जिसको रोका न जा सके। न्यूयॉर्क हेराल्ड समाचार पत्र ने लिखा कि 'निःसन्देह विवेकानन्द धर्म सभा के सबसे महान व्यक्ति हैं। उनको सुनने के बाद लगा कि हम कितने मूर्ख हैं, जो इस संन्यासी के देश में धर्म की शिक्षा देने के लिए मिशनरी भेजते हैं।"

शिकागो से लौटने के तीन वर्षों के पश्चात् उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं के अनुसार समाज की सेवा के लिए सन् 1897 ई० में कलकत्ता के निकट बेलूर में रामकृष्ण मिशन (Ramkrishna Mission) की स्थापना की। रामकृष्ण मिशन एक अत्यन्त शक्तिशाली सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन का जनक बन गया। इस संस्था के आदर्श और उद्देश्य सम्पूर्णत: प्राचीन भारतीय संस्कृति से प्रभावित थे। स्वामीजी के अनुसार भारतीय लोग अपने प्राचीन आदर्शों को भूलकर कभी अपना व अपने राष्ट्र का कल्याण नहीं कर सकते। सन् 1900 ई० में स्वामीजी ने पेरिस के द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन में भी भाग लिया। स्वामी विवेकानन्द ने सन् 1902 ई० में शरीर त्याग दिया।

स्वामीजी ने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें कर्मयोग, प्राच्य और पाश्चात्य, वर्तमान भारत आदि अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। स्वामीजी वैदिक धर्म एवं मूर्ति पूजा के समर्थक थे। जिस समय राष्ट्र उदासीनता, निष्क्रियता और निराशा से दबा हुआ था उस समय स्वामी विवेकानन्द ने शक्ति एवं निर्भरता का संदेश दिया। उन्होंने कहा 'शक्ति के बिना न हम अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को कायम रख सकते हैं और न ही अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।' उन्होंने भारतीयों को उत्प्रेरित करते हुए कहा 'वीर और निर्भीक बनो, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करो कि मैं भारतीय हूँ तथा प्रत्येक भारतीय हमारा भाई है।"

* 12. मुस्लिम समाज और धर्म के क्षेत्र में सर सैयद अहमद खान ने किस प्रकार की भूमिका का निर्वाह किया ? (What role did Sir Syed Ahmed Khan play in the society and religion of Muslims?) Or, अलीगढ़ आन्दोलन के बारे में संक्षेप में लिखो। (Give a brief account of the Aligarh Movement.)[H.S. 2017]

Ans. मुस्लिम समाज एवं धर्म सुधार में सर सैयद अहमद खान की भूमिका 19वीं शताब्दी में जब भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रचार हो रहा था, भारत का मुस्लिम सम्प्रदाय अंग्रेजी शासन और सभ्यता-संस्कृति से अलग रूढ़िग्रस्तता के दलदल में फँसा हुआ था। इसी समय कुछ मुस्लिम नेताओं ने अनुभव किया कि जबतक मुसलमान नये सभ्यता के क्षेत्र में प्रवेश कर रूढ़िवादी भावना का त्याग नहीं करेंगे, तबतक उनकी उन्नति सम्भव नहीं है। ऐसे विचारकों में सर सैयद अहमद खान का नाम प्रमुख है। उन्होंने मुस्लिम वर्ग में नवचेतना लाने तथा मुसलमानों के उत्थान के लिए अलीगढ़ को केन्द्र बनाकर एक आन्दोलन चलाया, जो अलीगढ़ आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। उनका मुख्य उद्देश्य था (i) मुसलमानों को अंग्रेजों के सम्पर्क में लाना, (ii) मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों तथा अन्धविश्वासों को दूर करना तथा (iii) मुसलमानों में पाश्चात्य सभ्यता का प्रसार करना।

सर सैयद अहमद खान का जन्म 1816 ई० में दिल्ली के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। उच्च शिक्षा प्राप्त कर इन्होंने अपना जीवन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नौकरी से आरम्भ किया। आरम्भ से ही उनमें अंग्रेजों के प्रति निष्ठा तथा अंग्रेजी सभ्यता और शिक्षा के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था। कम्पनी सरकार ने उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर इन्हें अदालत में मुन्सिफ से जज बना दिया। उनकी धारणा थी कि मुसलमानों के प्रति 1857 ई० के विद्रोह में मुगल बादशाह बहादुर शाह 'जफर' के नेतृत्व के कारण अंग्रेजों के मन में जो मुस्लिमों के प्रति अविश्वास पैदा हुआ है, उसे दूर करके ही भारत में मुसलमानों की उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। अतः उन्होंने भारत के वफादार मुसलमान (Loyal Mohammadans of India) नामक पत्र निकालकर अंग्रेजों और मुसलमानों को एक दूसरे के नजदीक लाने का प्रयास किया।

सर सैयद अहमद खान एक समाज सुधारक थे और मुस्लिम समाज को आधुनिकता की ओर उन्मुख करना उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य था। वे आरम्भ से ही पाश्चात्य शिक्षा, राजनैतिक तथा वैज्ञानिक विचारों को ग्रहण कर मुस्लिम समाज के कल्याण के पक्षपाती थे। वे मुस्लिम समाज में व्याप्त पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह, दास प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों के प्रबल विरोधी थे तथा स्त्री शिक्षा और पाश्चात्य शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने 1875 ई० में मुस्लिम समाज में शिक्षा का प्रसार करने के उद्देश्य से अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज (Mohammadan Anglo-Oriental college) की स्थापना की जो आगे चलकर 1920 ई० में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (Aligarh Muslim University) में परिणत हो गया।

मुस्लिम समाज का समर्थन पाने के लिए सैयद अहमद ने उर्दू भाषा को प्राथमिकता दी पर बाद में अंग्रेजी भाषा कौ शिक्षा पर बल देने लगे। उन्होंने मुसलमानों से अंग्रेजी समाज से सम्पर्क स्थापित कर पर्दा प्रथा और बहु-विवाह जैसी कुरीतियों का त्याग करने को कहा। इससे एक ओर मुसलमान नवयुवकों में नवीनता का उत्साह पैदा हुआ तो दूसरी ओर कट्टरपंथी मुसलमानों ने धर्म का शत्रु घोषित कर इन्हें समाज से बहिष्कृत करने का नारा दिया। इन्होंने तहजीब-उल-अखलाक (Tahjib-ul-Akhalaq) नामक पत्रिका निकालकर अपने विचारों को प्रस्तुत किया और कुरान (Quran) की नई टीका लिखकर सिद्ध किया कि मुस्लिम समाज में व्याप्त कुप्रथाएँ कुरान के विरुद्ध हैं।

सर सैयद अहमद खान हिन्दू मुस्लिम एकता के समर्थक थे। लेकिन बाद में ओरिएण्टल कॉलेज (Oriental College) के प्रिंसिपल बेक के प्रभाव के कारण उनके विचारों में परिवर्तन हुआ और वे मुस्लिम हितों को ही प्रधानता देने लगे। अतः अलीगढ़ आन्दोलन के कार्यकर्त्ताओं में भी साम्प्रदायिकता की भावना बढ़ी। यद्यपि कुछ मुस्लिम नेताओं ने साम्प्रदायिकता को घातक बताकर राष्ट्रीय एकता का प्रयत्न किया पर अधिकतर नेता साम्प्रदायिक कट्टरता की भावना से मुक्त नहीं हो पाए। अलीगढ़ आन्दोलन के प्रभाव से सन् 1906 ई० में मुस्लिम लीग जैसी राजनीतिक संस्था की स्थापना हुई जिसने बाद में जिन्ना के प्रभाव में साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन का मुद्दा उठाया और सफल रही।

सर सैयद अहमद खान प्रथम मुस्लिम समाज सुधारक थे जिन्होंने मुसलमानों में आधुनिकता के प्रति आकर्षण जागृत किया और उनकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। हिन्दू समाज के लिए जो कार्य राजा राममोहन रॉय ने किया, वही कार्य मुस्लिम समाज के लिए सर सैयद अहमद खान ने किया इसलिए बहुत से लोग इन्हें मुस्लिम समाज का राजा राममोहन रॉय मानते हैं।

*13. भारत में औद्योगीकरण के सामाजिक प्रभाव का वर्णन कीजिए। भारत में औद्योगिक मजदूरों के उत्थान और विकास के बारे में क्या जानते हैं? (Discuss the social impact of industrialisation in India. What do you know about the emergence and growth of industry based labourers in India?) 
Ans. (i) औद्योगिक क्रांति का सामाजिक प्रभाव :- औद्योगिक क्रांति का आरम्भ इंग्लैण्ड में सर्वप्रथम हुआ था परन्तु इसका प्रभाव विश्व के हर देश पर पड़ा। यदि हम इसके सामाजिक प्रभाव की चर्चा करते हैं तो पाते हैं कि इसके प्रभाव से सामाजिक क्षेत्र में काफी बदलाव देखने को मिले। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप जमींदारों, महाजनों एवं साहुकारों ने अपने पूँजी का निवेश कल-कारखानों में करना आरम्भ कर दिया और वे जमींदार से मिल-मालिक बन गए। इस प्रकार समाज में पूँजीपति वर्ग का जन्म हुआ। दूसरी ओर जमींदारों की कृषि के प्रति उदासीनता का प्रभाव कृषक समाज पर भी पड़ा। कृषि के क्षेत्र में होने वाले अनवरत हानि से बचने के लिए उन्होंने कृषि कार्य छोड़ दिया और कल-कारखानों में मजदूरी करने लगे, जिससे समाज में सर्वहारा वर्ग का उदय हुआ।
चूँकि इस बदलाव का कृषकों से मजदूर के रूप में बदले सर्वहारा वर्ग के लोगों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि जहाँ पहले उन्हें जमींदारों एवं महाजनों का अत्याचार सहना पड़ता था, वहीं अब मिल मालिकों एवं पूँजीपतियों का अत्याचार सहना पड़ रहा था।

(ii) एक औद्योगिक वर्ग की उत्पत्ति एवं विकास (The emergence and growth of an industrial force) :- 1850 ई० के बाद के काल में भारत में आधुनिक मजदूर वर्ग का उदय हुआ। प्राचीन भारतीय उद्योगों के नाश, कृषि के वाणिज्यीकरण एवं आधुनिक उद्योगों के विकास के फलस्वरूप कल-कारखानों में मजदूरों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। मजदूर वर्ग की इस वृद्धि ने उनकी शिक्षा, मजदूरी, स्वास्थ्य एवं कार्य करने की अवधि तथा आवास आदि सम्बन्धी अनेक समस्याओं को जन्म दिया। इस समय इन्सान मजदूरी का गुलाम बनकर मशीनों के साथ बंध गया। शिशुओं को स्तनपान कराती औरतें और 5-6 साल के बच्चे भी मशीनों को अपना खून पिलाने लगे। कम से कम जिम्मेदारी और लागत से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की चाहत में उद्योगपतियों ने कारखानों में सावधानी बरतने की दिशा में कोई ध्यान नहीं दिया जिसके कारण अक्सर दुर्घटनाएँ हुई और मजदूरों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया। कारखानों के अन्दर रोशनी, हवा, सफाई का कोई इन्तजाम न था। कुछ कानूनों का निर्माणः किया गया। जैसे- द मास्टर्स ऐण्ड सर्वेण्ट्स ऐक्ट (The Masters and Servants Act), द वर्कमैन ब्रीच ऑफ कॉण्ट्रैक्ट ऐक्ट (The Workmen Breach of Contract Act), द एम्प्लॉयर्स ऐण्ड वर्कर्स डिस्प्यूट्स ऐक्ट (The Employers and Workers Disputes Act) इत्यादि परन्तु इन सारे ऐक्टों से मजूदरों को कोई विशेष लाभ नहीं मिला। इन सबका उद्देश्य था कि मजदूर कारखाने छोड़कर न जाएँ और उद्योगपतियों को निरन्तर मजदूर उपलब्ध होते रहें।

जब भारतीय समाज-सुधारकों ने मजदूरों की सोचनीय दशा को लेकर आवाज उठाई तब कहीं जाकर मजदूरों की हिफाजत के लिए एकाध कानून बनाया गया। इनमें पहला कानून था 1881 ई० का इण्डियन फैक्ट्रीज ऐक्ट (Indian Factories Act)। पर इसके बारे में भी एक दिलचस्प तथ्य यह है कि यह कानून सिर्फ उन्हीं कारखानों पर लागू होता था जिनका स्वामित्व भारतीयों के हाथ में था। अंग्रेज मालिकों के उद्योग इस कानून की परिधि में नहीं आते थे। बाद में 1891 ई०, 1911 ई०, 1922 ई०, 1934 ई० एवं 1946 ई० में श्रमिकों की दशा सुधारने के संदर्भ में अधिनियम पास किए गए। उक्त वर्षों में पास अधिनियमों के पश्चात् जो स्थिति सामने आई, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार के द्वारा मजदूरों की दशा को नियमित करने का प्रयास किया गया। मजदूरों के मुआवजे की व्यवस्था एवं छुट्टियाँ, वेतन व ऋण को नियंत्रित करने का प्रयास तथा श्रमिकों की आयु व कार्य करने के घण्टे निर्धारित करने के महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गए। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान तथा द्वितीय विश्वयुद्ध तक के काल में भारतीय उद्योगों का विकास हुआ। यही वह काल था जब हिन्दुस्तान में मजदूरों का संगठित ट्रेड यूनियन आन्दोलन शुरू हुआ। तभी 1929 ई० में ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (All India Trade Union Congress) की स्थापना हुई।

Vvi.14.**बीसवीं शताब्दी में चीन में मई चतुर्थ आन्दोलन के उत्थान तथा महत्त्व की व्याख्या कीजिए। इस समय के चीन के दो महत्त्वपूर्ण समाचार पत्रों का नाम लिखिए। (Explain the rise and importance of the May Fourth movement in 20th century China. Name two important News paper of China at that time.)[(H.S. 2016]
Or,
** चीन में मई चतुर्थ आंदोलन के कारण का वर्णन कीजिए। इस आंदोलन के प्रभाव का वर्णन कीजिए। (Analyse the causes of leading to the May Fourth Movement in China. Discuss the impact of this movement.)

Ans. मई चतुर्थ आन्दोलन का उत्थान व कारण :- 1917 ई० की रूस की बोल्शेविक क्रांति एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना थी जिसका प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ा। इसने समस्त संसार में नये विचार उत्पन्न किए। चीन पर इस क्रांति का प्रभाव विशेष रूप से पड़ा। 1919 ई० के पेरिस के शांति सम्मेलन में पाश्चात्य राष्ट्रों ने चीन के साथ जो सलूक किया उससे सम्पूर्ण देश में घोर निराशा फैल गई थी और चीन के लोग समझने लगे कि चीन का कल्याण बोल्शेविक विचारधारा अपनाने में ही है। परिणामस्वरूप साम्राज्यवाद के खिलाफ बीजिंग में 4 मई 1919 ई० को छात्रों ने एक आन्दोलन की शुरुआत की। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य कमजोर चीनी सरकार के वार्साय की संधि के प्रति उदासीन नीतियों का विरोध करना था। आन्दोलनकारियों का मुख्य उद्देश्य साम्राज्यवादी देशों का जापानी साम्राज्यवाद की नीतियों के समर्थन का विरोध करना था। वार्साय की संधि के दौरान मित्र राष्ट्रों ने शांतुंग (शानडांग) प्रदेश को जो कि पहले जर्मनी के नियंत्रण में था, उसे जर्मनी के समर्पण करने के पश्चात् चीन को न देकर जापान को सौंप दिया और चीनी सरकार ने किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। छात्रों के इस असंतोष ने राष्ट्रीय रूप धारण कर लिया और लोगों के मन में राष्ट्रीयता की भावना को जगाने का प्रयास किया। चीनी प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने इस आन्दोलन को अपना समर्थन दिया। विस्तृत अर्थों में मई चतुर्थ आन्दोलन को न्यू कल्चर मूवमेंट (New Culture Movement) के नाम से भी जाना जाता है। यह आन्दोलन 1915 ई० से 1921 ई० के बीच होना माना जाता है।

बीजिंग के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुछ प्राध्यापकों और छात्रों ने 1919 ई० में मार्क्सवाद और साम्यवाद के अध्ययन के लिए एक संस्था की स्थापना की। इन्हीं व्यक्तियों में विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का एक कर्मचारी था, जिसका नाम माओ-त्से-तुंग (Mao-Tse Tung) था। 1919 ई० में इन लोगों ने चीनी साम्यवादी (कुंगचान तांग) दल स्थापित किया। उसी समय पेरिस में पढ़ने वाले छात्रों ने चू-तेह के नेतृत्व में इसी प्रकार के दल संगठित किए। 4 मई 1920 ई० को इस आन्दोलन के एक वर्ष पूरे होने पर एक समाजवादी युवक दल की स्थापना की गई। अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी संगठन कॉमिन्टर्न के एक कार्यकर्त्ता ग्रेगोरी बोहतिन्स्की ने इसके प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता की और इस संगठन को साम्यवादी दल के साथ मिला लिया। अगले ही वर्ष पेकिंग, कैण्टन, शंघाई, और हूनान प्रांतों में कम्युनिस्ट पार्टी की शाखाएँ कायम हो गई और जुलाई, 1921 ई० में इन सब शाखाओं का प्रथम सम्मेलन संघाई में हुआ। विदेशी आधिपत्य से चीन को मुक्ति दिलाना सम्मेलन का लक्ष्य घोषित किया गया।

साम्यवादी विचारधारा ने चीन के उदारवादी राष्ट्रवादियों को भी प्रभावित किया। इस समय चीन में राष्ट्रवादी सरकार थी, जिसका नेता डॉ० सनयात सेन (Dr. Sunyat Sen) था। वह विदेशी सहायता प्राप्त कर चीन को संगठित करना चाहता था। लेकिन, पश्चिम के साम्राज्यवादी राज्यों ने उसे किसी प्रकार की मदद नहीं की। अतः वह सोवियत संघ की ओर आकृष्ट हुआ। सोवियत संघ की नयी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट सरकार ने चीन के प्रति अपार सहानुभूति प्रकट की और चीन को हर तरह की मदद का आश्वासन दिया। उसने चीन के वे सारे इलाके वापस कर देने का वचन दिया, जिन्हें जार की सरकार ने उससे छीना था। अगस्त, 1921 ई० में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक के लिए नियुक्त कोमिन्टर्न के प्रतिनिधि मेरिंग ने सनयात सेन से मुलाकात की। इस मुलाकात का सनयात सेन पर गहरा असर पड़ा और उसने मान लिया कि साम्यवादी विचारधारा शोषित जनता की सबसे बड़ी मददगार हो सकती है।

मई चतुर्थ आंदोलन का महत्व व प्रभाव :- मई चतुर्थ आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य चीन जैसे अर्द्ध औपनिवेशिक देश में क्रांति के माध्यम से सामन्तवाद तथा साम्राज्यवाद को समाप्त करना था। उनका मत था कि यह लक्ष्य बुर्जुआ लोकतन्त्रीय क्रांति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। सनयात सेन की कोमिन्तांग (Kuomintang) ओर माओ-त्से-तुंग की कुंगचानतांग ( साम्यवादी दल) ने एक साथ मिल कर इस आन्दोलन के कार्य को आगे बढ़ाया। बाद में साम्यवादी दल ने अपने संगठन को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। वे किसानों और मजदूरों के बीच काम करते रहे और उन्हें संगठित करते रहे। शंघाई के कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सम्मेलन में राष्ट्रीय स्तर पर मजदूरों का संघ बनाने का कार्यक्रम निश्चित किया गया। एक मजदूर संगठन कायम हुआ, जिसमें अधिकतर जाजी मजदूर estions [XII] थे। 1921 ई० के अंत में इस संघ ने वेतन बढ़ाने की माँग की और उसके न माने जाने पर हड़ताल की। हांगकांग * ब्रिटिश शासन ने इस संघ को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। इस पर उसकी सहानुभूति में और कई हड़ताल हुई, जिससे सारा कारोबार ठप्प पड़ गया। अंत में, विदेशी शासन को झुकना पड़ा और वेतन में 20 प्रतिशत की वृद्धि करनी पड़ी। उसी वर्ष मई-दिवस के अवसर पर शंघाई और कैप्टन में मजदूरों का बड़ा जबरदस्त प्रदर्शन हुआ। आगे भलकर साम्यवादियों ने किसानों का भी संगठन बनाया। मई आन्दोलन ने न केवल जमींदारों और विदेशी सरकार का सफाया किया बल्कि पुजारी पंडों की सत्ता, कुल के अधिकार और पूरे सामाजिक ढाँचों को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

'जागरण' एवं 'ज्ञान का प्रकाश' मई चतुर्थ आन्दोलन के समय के दो समाचार पत्र थे।

 VI**15.बंगाल में नवजागरण की प्रकृति की विवेचना कीजिए। इसकी सीमाएँ क्या थी? (Discuss the nature of the Bengal Renaissance. What were its limitations ? ) [H.S.2018]

Ans. बंगाल में नवजागरण की प्रकृति भारत में 19वीं शताब्दी का इतिहास प्रादेशिक संस्कृतियों के उत्थान का इतिहास है। इस समय आंचलिक समाज, धर्म, साहित्य, कला, स्थापत्य कला इत्यादि के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति देखने
को मिलती है। इस परिदृश्य को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम बंगाली पुनर्जागरण का अध्ययन करेंगे। बंगाल में पुनर्जागरण के अग्रदूत के रूप में राजा राम मोहन रॉय की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इनके अलावा कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर,स्वामी विवेकानन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, अरविन्द घोष, रामकृष्ण परमहंस, बंकिम चन्द्र चटर्जी इत्यादि महामानवों ने भी बंगाली समाज, धर्म एवं साहित्य तथा कला के विकास में अमूल्य योगदान दिया। बंगाल से आरम्भ हुए इस पुनर्जागरण का प्रभाव पूरे भारतवर्ष पर पड़ा। इस समय पुनर्जागरण के कर्णधारों ने भारत की प्राचीन गरिमा की ऐतिहासिकता को आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति के समक्ष रखते हुए उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया तथा उनमें भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को सिद्ध किया।

वैसे पुनर्जागरण की शुरुआत इटली से हुई परन्तु इसके प्रभाव में आकर भारतीय मनीषियों ने समाज में फैली हुई कुरीतियों जैसे सती प्रथा, भ्रूण हत्या, बहु विवाह, बाल विवाह, जाति प्रथा, अन्तर्जातीय घृणा, दहेज प्रथा तथा अश्पृश्यता का विरोध किया तथा ब्रिटिश सरकार को अपने प्रभाव में लाकर इन बुराइयों को दूर करने तथा समाप्त करने के उद्देश्य से कानूनी नियम बनाया। इस समय बंगाल के लोगों में एक विशेष प्रकार के बौद्धिकता का उदय हुआ जिन्होंने समाज में महिलाओं की दशा, विवाह, जाति प्रथा, अंध-विश्वास तथा धर्म में फैले हुए बुराइयों को जनता के समक्ष रखा। इस दिशा में प्रबुद्ध लोगों के द्वारा कई सुधार आन्दोलन भी चलाए गए जिनमें राजा राम मोहन रॉय, केशव चन्द्र सेन तथा देवेन्द्रनाथ टैगोर के नाम अग्रगण्य हैं। देरोजियो द्वारा चलाया गया युवा बंगाल (Young Bengal) आन्दोलन प्रमुख आन्दोलनों में से एक है। इन आन्दोलनों का अनुशरण करने वालों ने बंगाल के विभिन्न भागों का भ्रमण कर लोगों को बताया कि समाज एवं धर्म के क्षेत्र में फैली हुई बुराइयों के कारण हो बंगाली संस्कृति के प्रसार का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। उन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह तथा बहु विवाह को सामाजिक कलंक बताया। इसके साथ ही साथ इन्होंने धार्मिक आडम्बर को दूर करने के उद्देश्य से ईश्वरीय एकता की बात बताई तथा लोगों के अन्दर से साम्प्रदायिकता के बीज को नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने लोगों को धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण करने की सलाह दी।

1857 ई० के विद्रोह के पश्चात् साहित्य के विकास के क्षेत्र में पुनर्जागरण का प्रभाव देखने को मिला। वैसे साहित्यिक पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राम मोहन रॉय तथा ईश्वर चन्द्र विद्यासागर थे परन्तु इन दिशा में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने इस क्षेत्र को और अधिक विकसित किया। बाद के आने वाले लेखकों ने अपनी लेखनी में सामाजिक समस्या को उठाया। इन लेखकों में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय, देवेन्द्रनाथ टैगोर, रवीन्द्रनाथ टैगोर इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है। रवीद्रनाथ टैगोर ने 1901 ई० में 'नासतानीरह' (Nastanirah) नामक उपन्यास लिखा जिसमें एक ऐसे युवक का जिक्र है जो पुनर्जागरण के प्रभाव में आकर सामाजिक बुराइयों को दूर करने का वचन लेता है परन्तु अपने परिवार के विरोध के कारण ऐसा नहीं कर पाता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएँ एवं कहानियाँ उपनिषदों के मुख्य तथ्यों को अपने में समाहित किये हुए हैं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक गीतांजलि (Gitanjali) ने इस क्षेत्र में बंगाली साहित्य का नाम उज्ज्वल किया जिसके कारण रवीन्द्रनाथ टैगोर को विश्व प्रसिद्ध नोबल पुरस्कार भी मिला। इस प्रकार हम देखते हैं कि बंगाली पुनर्जागरण के प्रभाव में समाज, धर्म, साहित्य एवं कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई जिसने भारतवर्ष के इतिहास को समृद्ध किया।

बंगाली नवजागरण की सीमाबद्धता - इटली के नवजागरण की ही तरह बंगाल का नवजागरण कोई जन आन्दोलन नहीं था। इसकी प्रक्रिया और प्रथा भद्र लोग (उच्च वर्ग) तक ही सीमित था । भद्र लोग में भी नवजागरण का प्रभाव अधिकतर उसके हिन्दू हिस्से पर ही पड़ा था। इस दौरान कुछ मुसलमान हस्तियाँ भी उभरी। जैसे - सैयद अमीर अली, मुशर्रफ हुसैन, काजी नजरूल इस्लाम और रूकैया सखावत हुसैन। इनके लेखनी से मुस्लिम समाज में ही कम विशेष सुधार देखने को मिला। इस आधार पर बंगाल के नवजागरण को मुस्लिम नवजागरण भी कहा जा सकता है। मोटे तौर पर माना जाता है कि बंगाल के नवजागरण की शुरूआत राममोहन राय से हुई और रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ उसका समापन भी हो गया।

** 16.चीन में पाश्चात्य शिक्षित वर्ग के उदय की व्याख्या कीजिए। टाईपिंग विद्रोह पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। (Explain the emergence of western educated class in China. Write a short note on the Taiping Rebellion?)

Ans. चीन में (China) में पाश्चात्य शिक्षित वर्ग का उदय (Emergence of a western educated class) :- विदेशियों से सम्पर्क कायम होने के पूर्व चीन का समाज अपने पौराणिक नियमों तथा रीति-रिवाजों के अनुसार चलता था। यहाँ के लोग अपने पितरों की पूजा करते थे और उनके प्रति अपनी सम्मान-भावना का प्रदर्शन करते थे। साथ ही साथ, पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार के लोग एक ही जगह पर निवास करते थे। वे पुराने धर्म के नियमों का पालन करते थे। लेकिन बीसवीं सदी में जब चीन में व्यावसायिक क्रांति हुई और इसका सम्बन्ध पाश्चात्य देशों से कायम हुआ, तब चीन का समाज अपनी पुरानी लीक को छोड़ने के साथ-ही-साथ अपनी पद्धति को छोड़ चला। इसमें नित्य नए परिवर्तन आने लगे। रेलों और सड़कों का चीन में जाल सा बिछ गया और चीन का परिवार एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करने लगा। परिवार के लोग अध्ययन, आजीविका, नौकरी, व्यवसाय वगैरह के लिए न केवल चीन के प्रांतों का बल्कि विदेशों की भी यात्रा करने लगे।

चीन में जब शिक्षा का प्रचार हुआ तो यहाँ समाज आधुनिक होने लगा। चीन के लोग पश्चिमी शिक्षा का अध्ययन कर अपने मानसिक क्षितिज को ऊँचा करने लगे। स्त्री-शिक्षा के प्रचार तथा व्यवस्था ने स्त्रियों के समाज में एक क्रांति ला दी। अब पाठशालाओं तथा कॉलेजों में हजारों छात्राएँ शिक्षा ग्रहण करने लगीं। अपने वैवाहिक जीवन से परे हटकर यहाँ की स्त्रियाँ अब चिकित्सक, अध्यापिका, नर्स, पत्रकार वगैरह होने लगीं। चीन में जब छात्रों का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था, तब सैकड़ों लड़कियों ने भी इसमें भाग लिया था। पाश्चात्य शिक्षा के सम्पर्क में आने से चीनी समाज का रहन-सहन भी बदला। अब यहाँ के लोग चोटी रखना बंद कर दिए। वे अब पाश्चात्य देशों के समान केशों का विन्यास करने लगे। वस्त्रों के क्षेत्र में भी परिवर्तन आया और यूरोपीय पोशाकें चीन में लोकप्रिय हुई।

पाश्चात्य शिक्षा के सम्पर्क में आने से चीनी लोग पाश्चात्य देशों की शिक्षा प्रणाली और ज्ञान-विज्ञान से परिचित होने लगे। अनेक विद्यार्थी विदेशों में भी शिक्षा प्राप्त करने लगे। चीन वापस लौटकर उन्होंने चीन में शिक्षा की प्रगति पर ध्यान दिया। वे विदेशों से अपने देश में नवयुवकों का संगठन करने के लिए तीव्र अभिलाषा लेकर वापस आए थे। ईसाई मिशनरियों ने भी शिक्षा प्रचार के लिए अब तक अनेक कार्य किया और अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। इसके अलावा चीनी सरकार ने भी शिक्षा के प्रचार के लिए सहयोग दिया।

उन्नीसवीं सदी के अन्त में चीन में अनेक कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। तुंगबन कॉलेज, तिन्त्सिन विश्वविद्यालय, लियाओतुंग, पुनान चांग विश्वविद्यालय और पेकिंग विश्वविद्यालय इसी समय खुले। अब अनेक चीनी पुस्तकों का अनुवाद पाश्चात्य भाषाओं में होने लगा। 1911 ई० की राज्यक्रांति के बाद चीन में अनेक स्कूल और कॉलेज खोले जाने लगे। पुराने मंदिरों तथा मठों को स्कूलों में परिवर्तित किया गया। पुरानी परीक्षा प्रणाली समाप्त हो गई और राष्ट्रीय तौर पर स्कूलों की स्थापना की गई। 1931 ई० तक करीब 1,31,000 शिक्षण संस्थाएँ चीन में स्थापित हुईं। इस समय तक करीब 43 लाख छात्र शिक्षा ग्रहण करने लगे। अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, फ्रांस इत्यादि देशों में हजारों छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे। दर्शन, इतिहास और राजनीति शास्त्र इनके पठन-पाठन के विशेष विषय बने । शिक्षा में इस समय एक नयी मनोवृत्ति भी आयी। टेक्निकल तथा विज्ञान सम्बन्धी शिक्षा की तरफ उनका ध्यान गया।


पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार से चीन में छात्रों की एक नयी श्रेणी का विकास हुआ। यह श्रेणी देश-प्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत थी। इस भावना के चलते छात्रों ने राजनीतिक आन्दोलनों में भी भाग लिया। ताइपिंग विद्रोह (Taiping Revolt ) - ताइपिंग विद्रोह दक्षिणी चीन में नागरिकों के द्वारा मंचू किंग (King)

राजवंश के खिलाफ किया गया। यह विद्रोह 1850 ई० में आरम्भ हुआ और 1864 ई० तक चला। इस विद्रोह में चीन के मध्यम वर्ग के लोगों ने भी भाग लिया था। इस आन्दोलन का नेतृत्व हाँग जूकॉन (Hong Xiyquan) ने किया था। इस आन्दोलन में हजारों की संख्या में लोग मारे गए परन्तु फिर भी जनता की विजय हुई। विद्रोही नेता हाँग (Hong) ने मंजू राजवंश के अधिपत्य के खिलाफ ताइपिंग स्वर्गीय राज्य नानजिंग (Taiping Heavenly Kingdom Nanjing) बनाई गई। इस राज्य की सेना ने दक्षिणी चीन के विशाल आन्दोलनकारियों ने इस आन्दोलन में कुछ सामाजिक एवं धार्मिक मुद्दे रखे थे जिसके अन्तर्गत सम्पत्ति का समान बँटवारा, महिलाओं के लिए समान अधिकार इत्यादि था। हाँग अपने आपको ईसा मसीह का छोटा भाई कहता था। अतः उसने कन्फ्यूसियसवाद, बौद्धधर्म, माओवाद तथा चीनी पारम्परिक धर्म को हटा कर ईसाई धर्म को अपनाने की बात कही। चीन की मंचू सरकार ने फ्रांसीसी और ब्रिटिश सेना बुलाकर ताइपिंग विद्रोह को बुरी तरह से दबा दिया। 20वीं शताब्दी में चीनी राष्ट्रवादी दल के नेता सनयात सेन ने इस विद्रोह की प्रशंसा की और कहा कि इस विद्रोह के भविष्य के राष्ट्रवादी विद्रोहों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। चीनी नेता माओ जेडोंग (Mao Zedong) ने इस विद्रोह की उपयोगिता एवं महत्त्व को बताते हुए कहा है कि यह भ्रष्ट सामंती राजतंत्र के खिलाफ जनता का आवाज था।


5. औपनिवेशिक राज्य भारत का प्रशासन (Governing the Colonial State India)


Vvi**1. भारत सरकार 1919( मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार)की विशेषताओं तथा त्रुटियों की चर्चा कीजिए। (Discuss the features and short comings of the Government of India Act of 1919)[H.S. 2020]
Or,
1919 ई० के भारत सरकार अधिनियम के तहत ब्रिटिश सरकार ने प्रशासन में किस प्रकार का बंदोबस्त किया ? (What kind of settlement did the British Govt. do in administration through India Act of 1919 A.D.?   [H.S.2015]

Ans. भारत सरकार अधिनियम 1919 (Government of India Act 1919) 
मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार (Montague - Chelmsford Reforms) : भारत में अंग्रेजी नीति के व्यापक असन्तोष, युद्ध संचालन में भारतीय सहयोग की अधिक आवश्यकता, होमरूल आन्दोलन (Home Rule Movement) से राष्ट्रीय चेतना को प्रोत्साहन आदि के कारण भारत के ब्रिटिश प्रशासन में भारतीयों को अधिक सक्रिय योगदान देने का अवसर प्रदान करने के लिए 20 अगस्त 1917 ई० को तत्कालीन भारत सचिव मांटेग्यू (Montague) ने ब्रिटिश सरकार के द्वारा लागू किए जाने वाले प्रस्तावित सुधारों की घोषणा की, जिसमें मुख्यत: चार बातों का उल्लेख था -

(i) ब्रिटिश शासन का लक्ष्य भारत में स्वशासन को विकसित करना था ।

(ii) भारतीयों को स्वशासन एक बार में ना देकर विभिन्न चरणों में दिया जाना था।
 (iii) विभिन्न चरणों का निर्धारण भारतीयों द्वारा स्वशासन की दिशा में की गई प्रगति पर निर्भर था।

(iv) प्रगति के विषय में निर्धारण ब्रिटिश संसद तथा भारत सरकार द्वारा किया जाना था।

यह प्रथम शासकीय घोषणा थी जिसके द्वारा भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अन्य डोमिनियन्स की तरह स्वतंत्र डोमिनियन्स की स्थिति प्रदान करना प्रस्तावित था। 1917 ई० के प्रस्ताव के बाद मांटेग्यू (Montague) भारत आए और चेम्सफोर्ड (Chelmsford) तथा अन्य नेताओं से शिमला में विचार किया। वहाँ विचार-विमर्श के पश्चात् जो तथ्य सामने आए उसे 1918 ई० में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड (Montague Chelmsford) के रिपोर्ट के नाम से प्रकाशित किया गया। इसी पर आधारित एक विधेयक प्रस्तुत किया गया जो 1919 ई० में पारित हुआ।

1918 ई० की मांटेग्यू घोषणा (Montague Declaration) को अधिनियम की प्रस्तावना का रूप दे दिया गया। अब तक भारत सचिव तथा उसके विभाग पर होने वाले खर्च भारत के राजस्व से वसूला जाता था, लेकिन अब यह खर्च ब्रिटिश संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि से किया जाने लगा। भारत परिषद के सदस्यों की संख्या कम से कम 8 व ज्यादा से ज्यादा 12 कर दी गई। भारत सचिव के कार्यभार को कम करने के लिए 'हाई कमिश्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। केन्द्रीय स्तर पर पहली बार द्विसदनात्मक विधानमण्डल की स्थापना की गई। जिसमें राज्य परिषद में 60 सदस्य (27 मनोनीत व 33 निर्वाचित) तथा विधान सभा में 145 सदस्य (41 मनोनीत व 104 निर्वाचित की व्यवस्था की गई।)

केवल वित्त सम्बन्धी मामलों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में केन्द्रीय विधान मण्डल के दोनों सदनों को बराबर शक्तियाँ प्राप्त थीं। केन्द्रीय विधान मण्डल के सदस्य सरकार से प्रश्न एवं पूरक प्रश्न पूछ सकते थे तथा उनकी आलोचना भी कर सकते थे। वित्त विधेयक पारित कराने के लिए राज्य परिषद् के मत की आवश्यकता नहीं थी। दोनों सदनों में गतिरोध की दशा में गवर्नर जनरल संयुक्त बैठक बुला सकता था जहाँ बहुमत से अन्तिम निर्णय किया जाता था। अध्यादेश और वीटो पर गवर्नर जनरल का अधिकार बना रहा।

भारत सरकार अधिनियम के दोष (1919 ई.):- इस अधिनियम का मुख्य दोष प्रान्तों में द्वैध शासन की स्थापना करना था। प्रान्तों में प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अपनाई गई जिसमें साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। मत देने का अधिकार सम्पत्ति सम्बन्धी योग्यता पर आधारित था। महिलाओं को भी मताधिकार दिया गया। साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन प्रणाली को सिक्खों पर भी लागू कर दिया गया।

इस अधिनियम का एक अन्य दोष प्रान्तीय सरकारों के अधिकार क्षेत्र का परिसीमन था। केन्द्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के बीच प्रशासन के विषयों को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय दो वर्गों में विभक्त किया गया। प्रान्तीय शासन के क्षेत्र में द्वैध शासन प्रणाली (Dual Government System) लागू की गई। इसके अनुसार प्रान्तीय विषयों को दो वर्गों में विभाजित किया गया आरक्षित विषय ( Reserved subject) और हस्तान्तरित विषय (Transferred subjects)। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि हस्तांतरित विषय थे, जिनके प्रशासन के उत्तरदायित्व भारतीय मंत्रियों के हाथों में दे दिया गया। राजस्व, न्याय, वित्त, पुलिस आदि विषय आरक्षित श्रेणी में रखे गए जिसका प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारिणी को करना था। इस द्वैध शासन (Dual Government) का जन्मदाता लायोनिल कटिस था। यह द्वैध शासन सुचारु रूप से कार्य न कर सका।

2. भारत सरकार अधिनियम 1909 ई० का एक विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए। (Give an account of the Government of India Act 1909 A.D.)

Or, 1909 ई० के भारत सरकार अधिनियम की पृष्ठभूमि की आलोचना कीजिए। भारत सरकार योजना 1919 ई० के क्या-क्या दोष थे ? (Analyse the background of the Government of India Act of 1909. What was the major faults of the Govt. of India Act of 1909.)

Ans. भारत सरकार अधिनियम 1909 की पृष्ठभूमि : 1909 ई० में भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act) पारित किया गया, जिसका लक्ष्य

1892 ई० के अधिनियम के दोषों को दूर करना तथा भारतीय राजनीति में बढ़ते हुए उग्रवाद तथा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद से उत्पन्न स्थिति का सामना करना था। इन सुधारों के मूल में सरकार की यह इच्छा थी कि कांग्रेस के नरम अथवा उदारवादी नेताओं को प्रसन्न कर दिया जाय और साम्प्रदायिकता की भावना को दृढ़ करके उग्रवाद तथा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की शक्तियों का दमन कर दिया जाय। इस अधिनियम द्वारा सर्वोच्च विधान परिषद (Legislative Assembly) की सदस्य संख्या 1892 ई० में निर्धारित 16 से बढ़ा कर 69 कर दिया गया। इसमें 37 शासकीय एवं 32 गैर सरकारी सदस्य थे। गैर सरकारी सदस्यों में 27 निर्वाचित तथा 5 वायसराय द्वारा मनोनीत होते थे। बंबई, मद्रास, बंगाल, उत्तर-प्रदेश की कौंसिलों के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 50 कर दी गई। छोटे प्रांतों के लिए यह संख्या 30 थी।

इस अधिनियम के द्वारा भारत में प्रतिनिधित्व के आधार पर विधान परिषदों में निर्वाचन प्रणाली लागू की गई। चुनाव के लिए 3 प्रकार के निर्वाचक मण्डलों का प्रावधान किया गया (i) साधारण निर्वाचक मण्डल, (ii) वर्ग विशेष, (iii) विशेष निर्वाचक मण्डल। इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन पद्धति को स्थापित करने का प्रयास किया। इस अधिनियम के द्वारा विधान परिषदों की शक्तियों में वृद्धि की गई। अब सदस्य वार्षिक बजट पर विचार कर सकते थे तथा प्रश्न पूछ सकते थे सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार भी मिल गया। 1909 ई० के अधिनियम को एक उल्लेखनीय उपलब्धि यह थी कि उसके द्वारा भारत सचिव की. परिषद तथा भारत के वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में सर्वप्रथम भारतीय सदस्यों को सम्मिलित किया गया। दो भारतीय के०सी० गुप्ता तथा सैयद हुसैन बिलग्रामी को इंग्लैण्ड स्थित भारत परिषद् में नियुक्त किया गया।

इस अधिनियम का लक्ष्य भारतवासियों को उत्तरदायी सरकार प्रदान करना नहीं बल्कि विधान परिषदों को परामर्शदात्री संस्थाओं के रूप में विकसित करना था। इस अधिनियम के आधार पर वोट देने का अधिकार उन्हें लोगों को दिया गया जिनकी वार्षिक आय 15000 रु० थी या 10000 रु० लगान के रूप में देते थे। उन्होंने बंगाल में यह व्यवस्था की कि वे ही वोट दे सकते थे, जिनके पास राजा व नवाब की उपाधियाँ हो।

भारत सरकार अधिनियम के दोष इस अधिनियम के मुख्य दोष प्रान्तों में द्वैध शासन की स्थापना करना था। प्रान्तों में प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अपनायी गई जिसमें साम्प्रदायिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। मत देने का अधिकार सम्पत्ति सम्बन्धी योग्यता पर आधारित था। महिलाओं को भी मताधिकार दिया गया साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन प्रणाली को सिक्खों पर भी लागू कर दिया गया।

इस अधिनियम का एक अन्य दोष प्रान्तीय सरकारों के अधिकार क्षेत्र का परिसीमन था। केन्द्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के बीच प्रशासन के विषयों को केन्द्रीय तथा प्रान्तीय दो वर्गों में विभक्त किया गया। प्रान्तीय शासन के क्षेत्र में द्वैध शासन प्रणाली (Dual Government System) लागू की गई। इसके अनुसार प्रान्तीय विषयों को दो वर्गों में विभाजित किया गया आरक्षित विषय (Reserved subject) और हस्तान्तरित विषय (Transferred subjects)। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि हस्तांतरित विषय थे, जिनके प्रशासन का उत्तरदायित्व भारतीय मंत्रियों के हाथों में दे दिया गया। राजस्व, न्याय, वित्त, पुलिस आदि विषय आरक्षित श्रेणी में रखे गए जिसका प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारिणी को करना था। इस द्वैध शासन (Dual Government) का जन्मदाता लायोनिल कटिस था। यह द्वैध शासन सुचारु रूप से कार्य न कर सका।

*Vvvi** 3.भारत सरकार अधिनियम 1935 ई० के पृष्ठभूमि तथा अनुच्छेद का वर्णन कीजिए। इस अधिनियम के महत्त्व क्या थे? (Discuss the background of the Government of India Act of 1935 and its clauses.

What was the importance of this Act?)

[H.S.2016]

Ans. भारत सरकार अधिनियम की पृष्ठभूमि (1935) :

भारत के लिए तैयार किए गए संवैधानिक प्रस्तावों में यह अन्तिम था। यह सबसे बड़ा और जटिल दस्तावेज था इसमें 14 भाग, 321 धाराएँ और 10 अनुसूचियाँ थीं। इसमें प्रस्तावना का अभाव था। अतः 1919 ई० के अधिनियम की प्रस्तावना को इसके साथ जोड़ दिया गया। 1919 ई० के अधिनियम में यह प्रावधान था कि राजनीतिक परिस्थिति का प्रत्येक 10 वर्ष के पश्चात् पुनरावलोकन किया जाय। 1927 ई० में ही यह प्रक्रिया आरम्भ कर दी गई और साइमन आयोग (Simon Commission) नियुक्त किया गया। सर्वदलीय कान्फ्रेंस ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की। साइमन आयोग रिपोर्ट, तीन गोलमेज कान्फ्रेंस तथा अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रस्तुत श्वेतपत्र, ये सभी 1935 ई० के भारत सरकार अधिनियम का आधार बन गए। इस अधिनियम के प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं

अखिल भारतीय संघ की व्यवस्था : यह संघ 11 ब्रिटिश प्रांतों, 6 चीफ कमिश्नर के क्षेत्रों एवं देशी रियासतों से मिलकर बनना था। समस्त ब्रिटिश प्रांतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था, परन्तु देशी रियासतों को उनकी इच्छा पर छोड़ दिया गया था। संघ का निर्माण तभी होता जबकि देश की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली देशी रियासतें संघ में शामिल हो जातीं। देशी रियासतों (Princely states) की निर्धारित संख्या ने संघ में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। अतः अधिनियम द्वारा प्रस्तावित भारतीय संघ योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी।

अधिनियम 1935 के अनुच्छेद :- 1935 ई० के भारत सरकार अधिनियम ने द्वैध शासन को केन्द्रीय स्तर पर लागू करने और आंशिक उत्तरदायी शासन की स्थापना करने का प्रावधान किया। विषयों के विभाजन के लिए तीन सूचियाँ बनाई गईं -

(i) संघीय सूची (Central list) - इसके अन्तर्गत 59 विषय थे । -

(ii) प्रांतीय सूची (Provincial list) इसके अन्तर्गत 54 विषय थे। (iii) समवर्ती सूची (Concurrent list) - इसमें 36 विषय थे।

संघीय सूची को दो भागों में विभक्त किया गया - आरक्षित एवं हस्तांतरित। प्रतिरक्षा, वैदेशिक मामले, धार्मिक मामले (मात्र ईसाई धर्म से) तथा कबायली क्षेत्र आरक्षित विषय थे। मुद्रा, डाक-तार, रेल, रेडियो, वायरलेस आदि हस्तांतरित विषय थे।

संघीय विधान मंडल के दो सदन थे. -

(i) संघीय विधान सभा -यह निम्न सदन था। इसकी सदस्य संस्था 375 थी, इसमें 125 स्थान देशी रियासतों के लिए था।

(ii) संघीय सभा- यह उच्च सदन था। इसमें सदस्यों की संख्या 260 थी जिसमें 104 स्थान देशी रियासतों के लिए था।

इस अधिनियम के तहत बजट को दो भागों में विभक्त कर दिया गया था मुख्य खर्च एवं अन्य व्यय। मुख्य खर्च के लिए संघीय विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जाती थी। मुद्रा और विनिमय पर कानून बनाने के लिए वायसराय की पूर्वानुमति आवश्यक थी अधिनियम में नये केन्द्रीय रिजर्व बैंक (Reserve Bank) की स्थापना की व्यवस्था की गई जिसे असेम्बली के नियंत्रण से बाहर रखा गया। संघ की राजधानी दिल्ली में एक केन्द्रीय न्यायालय की स्थापना की भी व्यवस्था की गई। इसमें मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त तीन अन्य न्यायाधीश एवं दो सहायक न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान था। अक्टूबर 1937 ई० से यह न्यायालय कार्यरत हो गया।

अधिनियम का महत्व :- इस अधिनियम की सर्व प्रमुख विशेषता प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना थी। इसके द्वारा प्रान्तों में दोहरे शासन का अन्त और पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई। इसी अधिनियम के द्वारा 1935 ई० में बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। कुछ प्रांतों में दो सदनों की व्यवस्था की गई; जैसे बम्बई, मद्रास, बंगाल, संयुक्त प्रान्त एवं बिहार । इस अधिनियम के द्वारा इंडिया कौंसिल को समाप्त कर दिया गया। भारत सचिव अब कुछ परामर्शदाताओं के परामर्श से कार्य करेगा।

इस अधिनियम में भी कई त्रुटियाँ थीं। प्रस्तावित अखिल भारतीय संघीय योजना मजाक बन कर रह गयी। देशी रियासतों के साथ भारतीय दल एवं भारतीय जनता ने भी इसे पूर्णतः अस्वीकार कर दिया। गवर्नर-जनरल भारत में किसी के भी प्रति उत्तरदायी नहीं था जिससे जन प्रतिनिधियों के प्रभावी होने की सम्भावनाएँ समाप्त हो गईं। संघीय न्यायालय के विरुद्ध प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी। अतः संघीय न्यायालय का सर्वोच्च न होना न्यायपालिका की सबसे बड़ी कमजोरी थी।

Most sure
 Vvvi.*** 4. जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की पृष्ठभूमि क्या थी? इसके प्रमुख महत्त्व क्या थे? (What was the background of the Jallianwalla Bagh Massacre? What was its significance?)

Ans. जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की पृष्ठ भूमि :- जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड की पृष्ठभूमि एकाएक तैयार नहीं हुई। इसे जानने के लिए अतीत में झांकना होगा। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय नेताओं और जनता ने ब्रिटिश सम्राज्य का खुलकर साथ दिया। ब्रिटेन के तरफ से लड़ने के लिए 13 लाख भारतीय सैनिक विश्व के विभिन्न हिस्सों में तैनात किए गए, जिसमें 43 हजार भारतीय सैनिकों की शहादत हुई। भारतीय नेताओं को लगा कि ब्रिटिश साम्राज्य इससे खुश होकर उन्हें और रियायत देगी मगर हुआ इसका उल्टा। अंग्रेजों के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगे। अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ आवाजें उठनी भी शुरु हो गई और इन्हें दबाने के लिए 1918 ई० में एक ब्रिटिश जज सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई, जिसकी जिम्मेदारी इस बात का अध्ययन करना था कि भारत में विशेषकर पंजाब और बंगाल में ब्रिटिशों का विरोध किन विदेशी शक्तियों की सहायता से हो रहा है। समिति के सुझावों के अनुसार भारत में प्रतिरक्षा विधान लागू किया गया था, जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था।

रॉलेट एक्ट के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन शुरु हो गए, खासकर पंजाब में तो रोज धरना-प्रदर्शन और गिरफ्तारियाँ आम बात हो गई थी। गाँधी जी ने भी रॉलेट एक्ट के विरोध का आह्वान किया। देश भर से नेताओं की गिरफ्तारी शुरु हो गई। आंदोलन के जुनून को देखते हुए अंग्रेजों की गिरफ्तारी शुरु हो गई। आंदोलन के जुनून को देखते हुए अंग्रेजों को लगा कि अगर इसे यहीं नहीं दबाया गया तो कहीं 1857 के गदर की पुनरावृति न हो जाए। आंदोलन सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को रौलेट एक्ट के तहत गिरफ्तार कर काला पानी की सजा सुनाई गई। विरोध होना ही था और हुआ भी।

रौलेट सत्याग्रह के दौरान पंजाब में सर्वत्र रौलेट ऐक्ट का विरोध हो रहा था। अमृतसर में भी लोग इस ऐक्ट का विरोध कर रहे थे। 12 अप्रैल सन् 1919 को जनरल डायर ने एक घोषणा के द्वारा अमृतसर में सभा करने और जुलूस निकालने पर रोक लगा दी। यह घोषणा सब जगह प्रसारित नहीं हुई। इस घोषणा से अनजान लोगों ने 12 अप्रैल की शाम को ही लोगों को सूचना दी कि 13 अप्रैल को साढ़े चार बजे पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने के विरोध में एक सभा होगी। अतः जलियाँवाला बाग में हजारों की संख्या में लोग एकत्रित हुए। उसी समय जनरल डायर 100 भारतीय और 50 गोरे
सिपाहियों को लेकर सभा स्थल पर पहुँचा और बिना चेतावनी दिए गोली चलाने का हुक्म दिया। 100 गज की दूरी से 50 बन्दूकों द्वारा 1650 राउण्ड गोली चलाई गई जिसमें 400 लोग मारे गए और 1200 लोग घायल हुए। 

महत्त्व - प्रतिक्रिया : रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिक्रिया - इस हत्याकांड के विरोध में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी जाने वाली सम्मानसूचक पदवी 'नाइटहुड' को लेने से अस्वीकार कर दिया।

जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड की विश्वव्यापी निंदा हुई। इंग्लैण्ड के सभी प्रमुख अखबारों ने इसे अमानवीय कृत बताया। आरम्भ में ब्रिटिश सरकार ने इतने बड़े हत्याकाण्ड का कोई संज्ञान नहीं लिया लेकिन जब देश के प्रमुख नेताओं ये इस कांड की भर्त्सना आरम्भ की तब विवश होकर सरकार ने इस मामले की जाँच के लिए हण्टर कमिटी की नियुक्ति की जिसने मार्च सन् 1920 ई० में अपनी रिपोर्ट दी किन्तु रिपोर्ट प्रकाशित होने के पूर्व ही सरकार ने क्षमा कानून पास कर इस कांड से सम्बन्धित सभी व्यक्तियों को क्षमा कर दिया था। डायर के इंग्लैण्ड लौटने पर ब्रिटिश सरकार ने उसे तलवार तथा 200 पौण्ड का इनाम देकर सम्मानित किया।

कांग्रेस की प्रतिक्रिया जलियाँवाला बाग के हत्याकांड का समाचार सुनकर देश अवाक हो गया। कांग्रेस ने अपनी एक जाँच समिति बैठाई, जिसके सदस्य पं. मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास, जयकर, तैय्यब जी और गाँधी जी थे। इस जाँच समिति की राय में जनरल डायर ने जानबूझकर हिंसा को प्रोत्साहित किया ताकि उसे जनता को सबक सिखाने का बहाना मिले। इसके विरोध में गाँधी जी ने 'यंग इण्डिया' में लिखा, इस शैतान की सरकार को सुधारा नहीं जा सकता, इसे समाप्त कर देना चाहिए। विश्व प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीतिज्ञ चर्चिल ने स्वयं स्वीकार किया कि जलियाँवाला बाग जैसा अमानुषिक हत्याकाण्ड ब्रिटिश शासन में विश्व के किसी कोने में नहीं हुआ है।

5. मेरठ षड्यंत्र केस के बारे में संक्षिप्त में लिखिए। (Write in brief about Meerut Conspiracy Case.)
 * Or, मेरठ षडयंत्र केस के पृष्ठभूमि और परिणामों का वर्णन कीजिए। (Discuss the background and the consequences of the Meerut Conspiracy Case.)
 
Ans. मेरठ षड्यंत्र केस (The Meerut Conspiracy Case - 1929-33 ई०) - मेरठ षडयंत्र मामला एक विवादस्पद अदालत का मामला था। 20 मार्च, 1929 ई० को सरकार ने देश भर से 31 कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर लिया और उन पर मेरठ षड्यंत्र केस चलाया गया। इनमें तीन ब्रिटिश फिलिप स्पाट, बैन ब्रेडले तथा लेस्टर हचिंसन भी थे। इन तीनों ब्रिटिश कम्युनिष्टों को भारत से निष्कासित करने का विधेयक तैयार किया था। इन पर आरोप लगाया गया कि ये सम्राट को भारत की प्रभुसत्ता से वंचित करने का प्रयास कर रहे थे। यह केस 33 वर्ष तक चलता रहा। इनमें से लगभग आधे तो राष्ट्रवादी अथवा व्यापार संघ के लोग थे। मुकदमों के दौरान कम्युनिस्टों ने इस बात की घोषणा की कि वे क्रांतिकारी हैं और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत में समाप्त करना चाहते हैं। मुकदमें के दौरान मुजफ्फर अहमद (Muzaffar Ahmad) ने जोरदार शब्दों में कहा-"मैं एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट हूँ, हमारी पार्टी कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के कार्यक्रम, सिद्धान्त और नियमों को मानती है और जहाँ तक हालात अनुमति दे, उनका भरसक प्रचार करती है।" कांग्रेस कार्यकारिणी ने इनके मुकदमे के लिए एक केन्द्रीय सुरक्षा समिति का गठन किया। इस मुकदमे में जवाहर लाल नेहरू, कैलाश नाथ काटजू और डॉ० एफ० एच० अंसारी जैसे लोग प्रतिवादी की तरफ से पेश हुए। गाँधीजी इनसे जेल में मिलने गए और साम्यवादी नेताओं के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की। कांग्रेसी सदस्यों ने साम्यवादियों के विरुद्ध सरकार द्वारा प्रस्तुत सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (Public Safety Bill) को केन्द्रीय विधान सभा में पारित नहीं होने दिया। अंग्रेजी सरकार ने जुलाई, 1934 ई० में भारतीय साम्यवादी दल (Indian Communist Party) को अवैध घोषित कर दिया।

मेरठ केस का परिणाम (Result of Meerut Case) : मेरठ षड्यंत्र केस का फैसला 16 जनवरी, 1933 ई० को सुनाया गया। 27 अभियुक्तों को कड़ी सजा दी गई। मुजफ्फर अहमद को सबसे बड़ी और कड़ी सजा दी गई, जिसके तहत उन्हें आजीवन काले पानी की सजा दी गई। इससे श्रमिक आंदोलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ी।

 6. भारत में 1914ई० से 1945ई० के मध्य ब्रिटिश सरकार की विभिन्न आर्थिक नीतियों का वर्णन कीजिए। (Give an account of the different kinds of economic policy led by British govt. in the period 1914 to 1945 A.D. in India.)
 * Or, 1914ई० से 1943 ई० के मध्य बंगाल के अकाल का अर्थनीति, कला एवं साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा ? (What was the impact of Famine of 50's in Indian economy, art and literature during the period of 1914-1943?)

Ans. 1914 ई० से 1945 ई० के मध्य ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति (Economic policies of British Government from 1914 to 1945 A.D.):- प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुँचा। इन दो विश्व युद्धों ने ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को इतना अधिक अस्त-व्यस्त कर दिया कि उसकी आर्थिक तथा राजनैतिक सर्वोच्चता को गहरा धक्का लगा। युद्ध समाप्त होने के पश्चात् ब्रिटेन ने अपने आर्थिक संकटों से निपटने के लिए उपनिवेशों के लिए विशेष प्रकार की आर्थिक नीति को मंजूरी दी। उसने युद्ध समाप्त होने के पश्चात् आर्थिक संकटों के समाधान के रूप में देश के सभी संसाधनों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित कर लिया। उद्योग-व्यापार, श्रम संस्थानों तथा वाणिज्यिक संस्थानों को पूर्ण रूप से नियंत्रित कर लिया गया। सरकार ने पूरे देश में वणिकवाद (Mercantalism) की एक केन्द्रीय व्यवस्था को चलाकर वहाँ की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया, श्रम शक्ति बढ़ाने का प्रयास किया। इसके साथ-ही-साथ सरकार ने अपने नये आर्थिक नीतियों के तहत भारत में उत्पादित वस्तुओं के लागत मूल्य में वृद्धि कर दी। विभिन्न प्रकार के वस्तुओं के ऊपर नये-नये प्रकार के करों को लगाया जाने लगा। कृषि, व्यापार तथा उद्योग कोई भी क्षेत्र इस नीति से अलग नहीं था। 

सीमित औद्योगीकरण (Limited Industrialization): प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध का व्यापक प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। विश्व युद्धों ने कच्चे माल और खाद्यान्न के लिए व्यापक माँग की सृष्टि की जिससे इन वस्तुओं के मूल्यों को ऊँचा कर भारत के निर्यात व्यापार को बढ़ावा मिला और इस तरह व्यापार संतुलन का काल प्रारम्भ हुआ। परन्तु युद्ध के पश्चात् वस्तुओं के माँगों में आए अचानक गिरावट से यह संतुलन बिगड़ गया। बहुत सारे उद्योग बंद होने के कगार पर पहुँच गए। इन कल-कारखानों से युद्ध के पश्चात् बहुत बड़ी संख्या में मजदूरों की छंटनी की गई, जिससे बेरोजगारी एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आई उद्योगों के उत्पादन में गिरावट लगातार होती रही। सबसे बुरा दौर भारी उद्योग जैसे लौह-इस्पात एवं सूती वस्त्र उद्योगों का आया। उद्योगों के उत्पादन के कम होने का विपरीत प्रभाव यह पड़ा कि आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में अचानक वृद्धि हो गई। युद्ध काल में वस्तुओं के मूल्य सूचकांक में अत्यधिक वृद्धि हुई। अखिल भारतीय मूल्य सूचकांक (Price Index) यदि सन् 1875 में 100 माना जाय तो सन् 1920 में मूल्य सूचकांक बढ़कर 281 हो गया था जबकि 1914 ई० में यह सूचकांक 147 था। नमक, किरोसिन एवं वस्त्र की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हुई जबकि कृषि जनित उत्पाद मूल्यों में गिरावट के लक्षण देखने को मिले।

    प्रथम विश्व युद्ध के पहले ब्रिटिश आर्थिक नीति का आधार यह था कि भारत में औद्योगिक विकास न हो। इसके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य यह था कि वे भारत को ब्रिटेन के ऊपर वस्तुओं के आयात के लिए निर्भर बनाना चाहते थे। शायद इसी का खामियाजा ब्रिटेन को भुगतना पड़ा औद्योगिक विकास में पिछड़े होने के कारण विश्व युद्ध के समय भारतीय औद्योगिक उत्पाद का लाभ ब्रिटेन न उठा सका। ब्रिटेन को युद्ध के बाद अपनी इस नीति में परिवर्तन लाना पड़ा। भारतीय औद्योगिक विकास के संदर्भ में 1916 ई० में औद्योगिक कमीशन (Industrial Commission), 1918 ई० में म्यूटेशन बोर्ड (Mutation Board) और 1921 ई० में भारतीय वित्त आयोग की स्थापना की गई। इससे भारतीय औद्योगीकरण की गति में वृद्धि हुई।


 1943 ई० के बंगाल के अकाल (Famine of 50) का अर्थनीति, कला एवं साहित्य पर प्रभाव
 अर्थनैतिक प्रभाव:- 1943 ई० में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था जिसमें करीब 15 से 40 लाख लोग मौत के मुँह में समा गए। इस अकाल का मुख्य कारण अनाज के उत्पादन में कमी, ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति तथा द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थिति थी। अकाल की परिस्थिति में कुपोषण एवं भुखमरी आम बात थी। जापान के वर्मा पर अधिकार के उपरान्त स्थिति और अधिक बिगड़ गई। ब्रिटिश सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध में होने वाले धन के कमी को किसानों से अत्यधिक करों की उगाही करके पूरा करने का फैसला किया तथा किसानों पर भू राजस्व के बोझ को बढ़ा दिया। 1941 ई० से 1943 ई० तक अनावृष्टि के कारण बंगाल में फसलों का उत्पादन कम होने से किसान वैसे ही बेहाल थे उस पर अत्यधिक करों की माँग ने तो जैसे उनकी कमर ही तोड़ दी थी। कर को समय से चुकाने की समस्या ने उन्हें महाजनों एवं साहुकारों का ऋणी बना दिया। वे बदहाली, भुखमरी एवं कुपोषण के शिकार होने लगे। ब्रिटिश सरकार उस समय युद्ध में व्यस्त थी जिसके कारण उसने अकाल की स्थिति को गम्भीरता से नहीं लिया, जिसका खामियाजा साधारण जनता को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। अकाल के पश्चात् बंगाल श्मशान में बदल गया था।

कला एवं साहित्य पर प्रभाव :-अकाल की भयंकरता को स्पष्ट और जगजाहिर करने के लिए उस समय के चित्रकारों ने विभिन्न प्रकार के चित्रों को बनाकर जगह-जगह उनकी प्रदर्शनी लगाई ताकि अन्य लोग अकाल की विनाशलीला से परिचित हो सकें। 1943 ई० में चित्र प्रसाद नामक चित्रकार ने 'हंग्री बंगाल- नवम्बर के महीने की मिदनापुर की यात्रा' (Hungry Bengala tour through Midnapur District in November) नामक किताब में बंगाल के अकाल के विभिन्न दृश्यों को रेखांकित किया है। इस किताब को लगभग 5000 प्रतियों को ब्रिटिश सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया तथा पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी। उस किताब की एक प्रति चित्र प्रसाद के परिवार के द्वारा छिपा दी गई थी जो कि आज दिल्ली के कला संग्रहालय में सुरक्षित है। नवान्न (Nabanna) एक बंगाली नाटक को बिजन भट्टाचार्य (Bijon Bhattacharya) ने लिखा और 1944 ई० में शम्भू मित्र (Sombhu Mitra) और 1948 ई० में बहुरूपिया Bohurupea के रूप में कुमार रॉय (Kumar Roy) के निर्देशन में इनका मंचन किया गया। इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (IPTA) ने ग्रामीण बंगाल के लोगों के राहत के लिए चंदा इकट्ठा किया था। विभूति भूषण बंदोपाध्याय (Bibhuti Bhushan Bandopadhyay) की पुस्तक असानी संकेट (Asani Sanket) में बंगाल के अकाल (1943 ई०) के समय एक डॉक्टर और उनकी पत्नी के सराहनीय कार्यों तथा अकाल की विभीषिका का वर्णन है।

• 7. 'रौलट एक्ट' के उद्देश्य क्या थे ? गाँधीजी ने इसका विरोध क्यों किया था ? (What are the aim of the Rowlatt Act ? Why did Gandhiji oppose this Act ?) 
[H.S.2018]

Ans. रौलट ऐक्ट (1919) और पुलिस व सेना का नियंत्रण (Rowlatt Act and Control of Military and
Police - 1919) - भूमिका : प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों ने अंग्रेजों की हर संभव सहायता की थी। युद्ध में भारत से 9,53,374 सैनिक भेजे गए थे। इन सैनिकों पर डेढ़ अरब रूपये व्यय हुए जो भारतीय राजस्व से दिया गया। युद्ध में सहायता के लिए भारतीय नरेशों ने भी लगभग 15 करोड़ रूपये सरकार को दिए थे। युद्ध में भारतीयों ने अंग्रेजों की सहायता व महात्मा गाँधी के आह्वान पर डोमिनियन स्वायत्तता (Dominion status) को पाने का प्रलोभन किया था। इस सहायता के लिए स्वयं ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की प्रशंसा की थी और गाँधीजी को इसके लिए कैसरे हिन्द (Kaiser-i-Hind) की उपाधि प्रदान की गई। लेकिन, युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को स्वशासन के स्थान पर रौलट ऐक्ट (Rowlatt Act) नामक काला कानून इनाम स्वरूप दिया।

1918 ई० में सरकार ने सर सिडनी रौलट (Sir Sidney Rowlatt) की अध्यक्षता में एक समिति भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की जाँच के लिए नियुक्त की 10 अप्रैल 1918 ई० को जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई उसमें भारत के देशभक्तों के कार्यों को बड़े उग्र रूप में चित्रित किया गया। रौलट परामर्शो के आधार पर बिल बनाए गए, जो रौलट बिल कहलाए। काँग्रेस ने अपने दिल्ली अधिवेशन में रौलट ऐक्ट (Rowlatt Act) का विरोध किया। सी०वाई० चिन्तामणि ने लिखा था "रौलट ऐक्ट का विरोध काँग्रेस के गैर सरकारी भारतीय सदस्य, निर्वाचित सदस्य, नामजद सदस्य सबने समान रूप से किया, लेकिन सरकार अपनी बात पर अड़ी रही और तनिक भी पीछे नहीं हटी।" रौलट ऐक्ट लागू करने का मुख्य कारण यह था कि 'भारत रक्षा कानून' की अवधि समाप्त होने को थी। कमेटी ने 1918 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कमेटी द्वारा दिए गए विधेयक लाए गए जिसमें एक विधेयक को तो वापस ले लिया गया परन्तु दूसरे "क्रांतिकारी एवं अराजकतावादी अधिनियम" को 18 मार्च, 1919 ई० को पारित कर दिया गया। इसकी अवधि तीन वर्ष रखी गई। इसे ही रौलट ऐक्ट या काला कानून (Black Law) के नाम से जाना जाता है।

इस विधेयक में यह व्यवस्था की गई थी कि मजिस्ट्रेट किसी भी संदेहास्पद व्यक्ति को गिरफ्तार करके जेल में डाल सकता था, साथ ही उसे अनिश्चित काल के लिए जेल में रख सकता था। इस प्रकार अपने इस अधिकार के साथ सरकार किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दण्डित कर सकती थी। इस ऐक्ट को "बिना वकील, बिना अपील तथा बिना दलील का कानून" भी कहा गया। इसे "काला अधिनियम ( Black Act)" एवं "आतंकवादी अपराध नियम" (Terrorist Criminal Act) के नाम से भी जाना जाता है।

महात्मा गाँधी के द्वारा रौलट एक्ट का विरोध :- गाँधीजी का अब तक भारतीय राजनीति में प्रवेश हो चुका था। उन्होने इस ऐक्ट के विरोध में 6 अप्रैल 1919 ई० को एक देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। पहले 30 मार्च से यह आन्दोलन शुरू करने का निर्णय लिया गया था। दिल्ली में 30 मार्च को स्वामी श्रद्धानन्द (Swami Shradhanand) ने इस आन्दोलन की बागडोर संभाली। वहाँ पर भीड़ पर गोली चलाई गई जिसमें करीब पाँच आन्दोलनकारी मारे गए। इसके बाद बम्बई, अहमदाबाद तथा देश के कई अन्य नगरों में सार्वजनिक विरोध तथा हिंसा का मार्ग अपनाया गया। लाहौर तथा पंजाब में भी भीड़ पर गोलियाँ चलाई गई। सबसे अधिक पुलिस का अत्याचार पंजाब के अमृतसर के जलियाँवाला बाग (Jallianwala Bagh) में हुआ जहाँ पुलिस की गोली से रौलट ऐक्ट का विरोध कर रहे करीब 400 लोग मारे गए और 1200 लोग घायल हुए। गोली चलाने की आज्ञा देने वाले जनरल डायर (General Dyer) ने गोली चलाने के बाद पूरे पंजाब में मार्शल लॉ (Marshal Law) लगा दिया। पुलिस एवं सेना के अधिकारों में वृद्धि कर दी गयी जनरल डायर (General Dyer) के अनुसार, जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड सारे पंजाब में आतंक फैलाने के उद्देश्य से किया गया था। पंजाब में फौजी शासन लागू कर लोगों को तरह-तरह से कष्ट दिए गए और उन्हें कोड़ों से पिटवाया गया। घायलों को सड़कों पर रेंग रेंग कर चलने के लिए बाध्य किया गया। पूरे देश में इस पुलिसिया अत्याचार के खिलाफ प्रतिक्रिया आरम्भ हुआ। मार्शल लॉ (Marshall Law) और आतंक से ऊबकर महात्मा गाँधी ने सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन प्रारंभ कर दिया।

पाठ-6. 

द्वितीय विश्व युद्ध और उपनिवेशों की स्थिति 

(The Second World War and the Colonies)



★1. भारतीय नौसेना विद्रोह के कारणों तथा महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए। (Analyse the causes and importance of Naval Revolt (RIN) in India.) [H.S. 2019] 
Or,
 रायल इण्डियन नेवी (1946 ई०) के विद्रोह के कारणों की समालोचना कीजिए। (Critically analyse the cause of the revolt of Royal Indian Navy in 1946.) 

Ans. नौसेना विद्रोह (Revolt of Royal Indian Navy) - भारतीय स्वाधीनता इतिहास में 1946 ई० में हुए नौसेना विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। 18 फरवरी 1946 ई० को बम्बई बन्दरगाह पर स्थित तलवार नामक नौसेना जहाज के सैनिकों ने भोजन नहीं तो कार्य नहीं (No work without meal) का नारा लगाकर इस विद्रोह की शुरुआत की। इसके अलावा, यह माना जाता है कि यह विद्रोह कोई आकस्मिक घटना के प्रतिवादस्वरूप नहीं
बल्कि भारतीय सेना के प्रति अंग्रेजों के अत्याचारपूर्ण नीति के फलस्वरूप उत्पन्न हुए असंतोष का परिणाम था। 

नौसेना विद्रोह के कारण (Causes of the Naval Revolt)- रायल इण्डियन नेवी (Rayal Indian Navy) के असंतोष के अनेक कारण थे; जो निम्न हैं:

(1) भेदभाव की नीति ब्रिटिश अधिकारी भारतीय और अंग्रेजी सैनिकों के बीच भेदभाव की नीति रखते थे। भारतीयों को अच्छे प्रदर्शन के बावजूद नौकरी में ऊँचा पद नहीं मिलता था जबकि अंग्रेजों को बिना किसी योग्यता के उच्च पदों पर आसीन कर दिया जाता था जिसके कारण भारतीय नौसैनिकों में असंतोष की भावना व्याप्त थी। (2) अपशब्दों का प्रयोग ब्रिटिश नौसेना अधिकारी भारतीय नौसैनिकों के लिए हमेशा अपशब्दों का प्रयोग करते थे जिससे उनके मन में ब्रिटिश अधिकारियों के प्रति घृणा का भाव था।

(3) भारतीय सैनिकों के माँगों की अवहेलना भारतीय नौसैनिकों को ब्रिटिश नौसैनिकों की तुलना में न तो अच्छे किस्म के वस्त्र दिए जाते थे और न हीं अत्याधुनिक हथियार ही किसी भी प्रकार के माँगों को उठाने पर उन्हें अपमानित किया जाता था।

(4) भारतीय सैनिकों को खराब भोजन देना भारतीय नौसैनिकों को अंग्रेजों की तुलना में निम्न स्तर का भोजन दिया जाता था। जिसके कारण सैनिकों ने हमेशा ही असंतोष जताया था।

 (5) भारतीय सैनिकों को सुविधाओं से वंचित रखना भारतीय नौसैनिकों को सेना से निवृत होने के बाद के लाभों को देने में अकारण ही विलम्ब किया जाता था, जिससे सैनिक अत्यन्त नाराज थे।

(6) आजाद हिन्द फौज के सैनिकों पर मुकदमा आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों पर मुकदमा चलाकर उन्हें दण्ड देने को लेकर भी नौसैनिकों में काफी गुस्सा था।

(7) नौसैनिक की गिरफ्तारी का विरोध नौसेना के नाविक बी. सी. दत्त ने तलवार जहाज की दीवालों पर 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' लिखा जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इससे नौसैनिकों का गुस्सा चरम सीमा पर पहुँच गया था।

नौसैनिकों ने ब्रिटिश सरकार के पास एक माँग पत्र पेश किया जिसमें मुख्य माँगें निम्न थीं-

(a) नौसैनिकों को अच्छा वस्त्र, हथियार एवं भोजन दिया जाय।

(b) नौसैनिकों के वेतन और भत्तों में वृद्धि किया जाय।

(c) नौ सेना का भारतीयकरण किया जाय।

(d) आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को मुक्त किया जाय। 
(e) इण्डोनेशिया, बर्मा व अन्य जगहों से ब्रिटिश सेनाएँ हटा ली जाएँ।

परन्तु सरकार ने उनकी एक न सुनी, जिसके तहत नौ सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।

 नौसेना विद्रोह की शुरुआत और प्रसार (The beginning and spread of the Naval Revolt) - रायल इण्डियन नेवी (Royal Indian Navy) के सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 ई० को विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में तलवार नामक जहाज के 1100 नौसैनिकों ने नस्लवादी भेदभाव एवं अखाद्य भोजन के विरोध में अपना असंतोष प्रकट किया। 19 फरवरी को ब्रिटिश झण्डा यूनियन जैक को जहाज के मस्तूल से उतार दिया गया उसके स्थान पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress), मुस्लिम लीग (Muslim league) और कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) के झण्डे फहरा दिए। उन्होंने रायल इण्डियन नेवी की जगह आजाद हिन्द फौज के तर्ज पर इण्डियन नेशनल नेवी (Indian National Navy) के नाम की घोषणा की। उन्होंने भारतीय राष्ट्र-नेताओं के अलावा किसी भी अन्य की बात सुनने से इन्कार कर दिया। सभी युद्धक जहाजों ने बम्बई के कैसल बैरक (Castle Barrack) पर लंगर डाल दिए और कांग्रेस के झण्डों को लेकर अपने बैरक से बाहर निकल कर बम्बई की सड़कों पर ट्रकों में बैठ कर घूमने लगे। विद्रोहियों ने जय हिन्द, इन्कलाब जिन्दाबाद, हिन्दू-मुस्लिम एक हों, अंग्रेजों भारत छोड़ो इत्यादि नारे लगाना शुरू कर दिया।

धीरे-धीरे इन विद्रोहियों को जनसमर्थन मिलना भी आरम्भ हो गया। लोगों ने विद्रोहियों के समर्थन में सभाएँ की, जुलूस निकाले, अंग्रेजों पर आक्रमण किया, थाना, डाकघर, बैंकों, अनाज की दुकानों में तोड़-फोड़ किया तथा आग लगाया। रेल की लाइनों को उखाड़ दिया गया तथा बिजली के खम्भों को नष्ट कर दिया गया। कुछ स्थानों पर उग्र भीड़ ने पुलिस चौकियों पर भी आक्रमण किया। नौसेना के पक्ष में किया गया यह जनआन्दोलन स्व-स्फूर्त था। जैसे-जैसे बम्बई के नौसेना विद्रोह की खबर देश के विभिन्न भागों में फैली वैसे ही कराँची, मद्रास, विशाखापट्टनम, कलकत्ता, दिल्ली, कोचीन, अण्डमान में भी विद्रोह के असर दिखाई पड़ने लगे। इस विद्रोह के पक्ष में जगह-जगह हड़तालें की गईं। इस हड़ताल में 70 जहाजों, तथा 20 तटवर्ती प्रतिष्ठानों के 22 हजार लोग शामिल हुए। भारतीय वायुसेना (Royal Indian Airforce) के सैनिकों ने भी हड़तालें कीं। जबलपुर तथा कोलावा के थल सैनिकों ने भी नौसेना विद्रोह को अपना समर्थन दिया।

सरकारी दमन चक्र (Repression led by Government) :- नौसना विद्रोह को दबाने के लिए सरकार ने हर संभव प्रयास किया। उसने कराँची के नौसैनिकों को जबरन आत्मसमर्पण करने को बाध्य किया। कई नाविकों को मौत के घाट उतार दिया। बम्बई में नौसेना के समर्थन में आरम्भ हुए जनता के विद्रोह को ब्रिटिश पुलिस एवं सेना ने मिलकर अपने नृशंस अत्याचार से दबा दिया। एडमिरल गॉडफ्रे (Admiral Godfrey) ने रायल नेवी को नष्ट कर देने की घोषणा की तथा विद्रोही जहाजों पर बमवर्षक जहाजों से बम गिराए। सरकारी दमन चक्र के मद्देनज़र 330 व्यक्ति मारे गए और 1148 व्यक्ति घायल हुए। बाद में जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल और डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के निवेदन एवं मध्यस्थता के बीच सैनिकों ने अपना विद्रोह वापस ले लिया। इस विद्रोह में विद्रोहियों को राष्ट्रवादी नेताओं से जिस समर्थन की उम्मीद थी, वह उन्हें नहीं मिली। ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह के कारणों को जानने के लिए एक जाँच आयोग की स्थापना की जिसमें तीन भारतीय जज और दो ब्रिटिश सेना के प्रतिनिधियों को रखा गया। इस आयोग ने 1947 ई० में अपनी जाँच रिर्पोट प्रस्तुत की जिसमें नौ सैनिकों की शिकायतों को सही पाया गया।

नौसेना विद्रोह का परिणाम व महत्त्व (Result and importance of the Naval Revolt ) : रायल इण्डियन नेवी (Royal Indian Navy) के विद्रोह के परिणाम एवं महत्त्व निम्नलिखित थे -

(i) इस विद्रोह के कारणों को जानने के लिए ब्रिटिश सरकार ने जो जाँच समिति बनाई थी उसने सैनिकों के विक्षोभ को सही पाया। इसके पश्चात् दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने का भरोसा ब्रिटिश सरकार ने दिया।

(ii) इस विद्रोह को व्यापक जन समर्थन भी मिला, जिससे ब्रिटिश सरकार ने समझ लिया कि अब भारतीय सेना को ब्रिटिश शासन की ढाल समझना भूल है।
(iii) इस विद्रोह को राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन नहीं मिला परन्तु भारतीय नौसैनिकों ने इस विद्रोह को अपने दमखम पर एक संगठित विद्रोह बना दिया।

(iv) इस विद्रोह को हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों के लोगों का समर्थन मिला, जिससे हिन्दू-मुस्लिम एकता को बल मिला।
 (v) इस विद्रोह के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने यह स्पष्ट रूप से समझ लिया कि अब उनके शासन व्यवस्था में जंग (Rust) लग गया है, जो अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता है।

(vi) इस विद्रोह के पश्चात् ब्रिटेन की सरकार ने भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंपने के विचार से कैबिनेट मिशन(Cabinet Mission) को भारत भेजा। 

*2. 1950 के दशक में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए। (Evaluate the impact of Communist China in Internation politics at 1950).[H.S. 2019]

 Ans. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नवीन चीन का प्रादुर्भाव तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उसकी भूमिका (Importance of the rise of China in International Relations) - जनवरी 1949 ई० को चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीनी जनवादी गणतंत्र (People's Republic of China) की स्थापना हुई जो कि स्वभाव से साम्यवादी व्यवस्था पर आधारित थी। चीन में साम्यवादी (Communist) व्यवस्था की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने वर्तमान विश्व-राजनीति को बहुत ही प्रभावित किया। चीन में साम्यवादी व्यवस्था के अभ्युदय से विश्व की राजनीति में एक हलचल पैदा हो गई। एशिया के समस्त देशों पर इसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण से चीन की क्रांति की सफलता युद्धोत्तरकाल में सोवियत गुट की सबसे बड़ी विजय और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके गुट की सबसे बड़ी • पराजय मानी जाती है। दो विश्व युद्धों के बीच तथा द्वितीय विश्व युद्ध तक संसार में केवल सोवियत संघ एकमात्र ऐसा देश था, जहाँ साम्यवादी व्यवस्था स्थापित थी। लेकिन, विश्व युद्ध के पश्चात् चीन में सामाजवादी व्यवस्था की स्थापना से सोवियत गुट की शक्ति में असाधारण वृद्धि हुई, क्योंकि क्षेत्रफल और आबादी की दृष्टि से चीन एक विशाल देश है। फलतः, संसार के शक्ति संतुलन में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो गया। अतः सोवियत रूस की यह सफलता संयुक्त राज्य अमेरिका की भीषण पराजय मानी जाती है। अमेरिका ने च्यांग काई शेक के शासन को बनाए रखने के लिए पानी की तरह डॉलर बहाए और उसकी सहायता की। परन्तु इतनी अधिक सहायता के बावजूद वह चीनी साम्यवादियों को हराने में सफल नहीं हो सका। इसलिए, यह अमेरिका की बहुत बड़ी पराजय मानी जाती है।

चीन में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना के परिणामस्वरूप एशिया में साम्यवाद के विस्तार का रास्ता पहले की अपेक्षा विस्तृत हो गया। इससे एशिया के विभिन्न देशों के साम्यवादी आन्दोलन को काफी बल और प्रोत्साहन मिला। एशिया में इस प्रकार साम्यवादी प्रसार को रोकने के लिए अमेरिका को विविध कार्य करने पड़े हैं। उसे सैनिक संधियाँ तथा संगठनों की स्थापना करनी पड़ी है। दक्षिण पूर्व एशिया सैन्य संगठन की स्थापना इसी नीति का परिणाम था। इस सैन्य संगठन के कारण इस क्षेत्र की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति बहुत ही जटिल हो गई।

*3. द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् हिन्द-चीन ने साम्राज्यवाद के ताप को किस प्रकार सहा ? (How did the Indo-China face the heat of colonialism after Second World War?) 
Or,
 हो ची मिन्ह के नेतृत्व में हुए वियतनामी स्वाधीनता संग्राम का वर्णन करो। (Give a brief account of the liberation movement of Vietnam under Ho-Chi-Minh.)[H.S. 2015]

Ans. हिन्द- चीन (Indo-China) में साम्राज्यवाद - उपनिवेशकाल में हिन्द-चीन फ्रांस के अधीन था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान ने हिन्द-चीन पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। परन्तु जापानियों के अत्याचार के विरुद्ध हिन्द- चीन (वियतनाम) के निवासियों ने हो - ची मिन्ह (Ho-Chi-Minh) के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन आरम्भ कर दिया। उन्होंने वियत-मिन्ह (Vietminh) नामक एक जनसेना का गठन किया तथा इसकी मदद से द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दौर में जापानियों के पराजय के पश्चात् हिन्द-चीन के विभिन्न भागों से जापानियों को खदेड़ना आरम्भ किया। बाद में अगस्त 1945 ई० में हो ची मिन्ह के राष्ट्रपतित्व में वियतनाम में डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ वियतनाम (Democratic Republic of Vietnam) के नाम से स्वतंत्र प्रजातंत्र की सरकार की स्थापना की गई। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी के पराजय के पश्चात फ्रांस ने एक बार फिर हिन्द चीन पर अधिकार करने के उद्देश्य से उस पर आक्रमण किया। जिससे हो ची मिन्ह की वियतमिन्ह और फ्रांसीसी सेना के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया। फ्रांस ने अपनी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन कर दक्षिणी हिन्द-चीन (वियतनाम) पर अधिकार कर लिया और वहाँ बाओदाई (Baodai) के नेतृत्व में अपने समर्थित सरकार की स्थापना किया। परन्तु उत्तरी वियतनाम को वह हो ची मिन्ह (Ho-Chi-Minh) से न छीन सका।

फ्रांसीसी षड्यंत्र और दियेन बियेन फू की घटना (Conspiracy of France and the incident of Dien Bien Phu (1954)- फ्रांसीसी वियतनामियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे जिससे वे जनता का विश्वास खो रहे थे। वियतनामी युद्ध में फ्रांसीसियों की मदद अमेरिका कर रहा था। इसके बावजूद विभिन्न मोर्चे पर फ्रांस की सेना पराजित हो रही थी: 1954 ई० के प्रारम्भ में ही फ्रांसीसी सेना हनोई एवं हाइफांग में पराजित हो गई। इस परिस्थिति में फ्रांसीसी सेनापति नेवारे (Navaree) ने वियतनामियों की शक्ति को पूरी तरह से नष्ट करने के उद्देश्य से दियेन बियेन फू नामक एक पहाड़ी गाँव में विशाल शस्त्रागार का निर्माण कार्य शुरू किया। जिसकी जानकारी वियतनामी सेनापति जनरल गेयाप (Geyap) को पहले ही लग गई। उसने एक सेना की टुकड़ी के साथ दियेन बियेन फू (Dien Bien Phu) के शस्त्रागार पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। दियेन बियेन फू की घटना के महत्त्व को समझते हुए फ्रांस ने वियतनाम के साथ समझौता किया। परन्तु 1954 ई० के बाद हो ची मिन्ह और बाओदाई की सरकार के बीच गृह युद्ध पुनः आरम्भ हो गया। उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के संघर्ष से एशिया में शीत युद्ध के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगे थे। अंततः अप्रैल 1954 ई० के जेनेवा सम्मेलन के द्वारा यूरोपीय संघ ने हिन्द-चीन की समस्या का हल खोजने का प्रयास किया।

हिन्द-चीन समस्या में अमेरिकी हस्तक्षेप (American interference in the problem of Indo-China)- चूँकि जेनेवा सम्मेलन में हिन्द-चीन की समस्या पर विचार किया गया परन्तु यह सफलीभूत न हो पाया। इस सम्मेलन में वियतनाम को 17° अक्षांश रेखा के आधार पर दो भागों में बाँट दिया गया। उत्तरी भाग वियतनामी साम्यवादियों को मिला तो दक्षिणी भाग वियतनामी गणराज्य को । फ्रांस वियतनाम से अपनी सेना हटा लेने पर सहम हो गया। दो वर्ष के पश्चात् वियतनाम में देशव्यापी चुनाव कराकर उसके एकीकरण के सम्बन्ध में सहमति बनी। भारत, पोलैण्ड और कनाडा के नेतृत्व में इन संधियों की शर्तों की पालन सम्बन्धी बातों को देखने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण आयोग का गठन किया गया।

परन्तु जेनेवा सम्मेलन (Jeneva Conference) ने शान्ति की स्थापना के बजाय दोनों पक्षों को सैनिकों की संख्या और अस्त्र-शस्त्रों के अनुपात में वृद्धि करने का सुअवसर प्रदान किया। 1960 ई० में दक्षिणी वियतनाम में वियतकांग (Vietcong) नामक एक गुप्त क्रांतिकारी संस्था की स्थापना हुई जो वियतनामी एकीकरण का विरोध कर रही थी। उसने शीघ्र ही अपने सरकार के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यवाही को अंजाम देना आरम्भ किया। दक्षिणी वियतनाम ने इसको उत्तरी वियतनाम के वियतकांग (Vietcong) का षड्यंत्र माना। दक्षिणी वियतनाम के प्रधानमंत्री ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और वियतकांग के दमन के लिए सैनिक अभियान आरम्भ किया। उसने इस युद्ध में अमेरिकी सहायता की भी पेशकश की जिसे अमेरिका ने स्वीकारते हुए चार हजार सैनिकों को युद्ध करने के लिए भेज दिया। रूस एवं चीन ने अमेरिका के इस कदम का तीव्र विरोध किया। चूँकि दक्षिणी वियतनाम (South Vietnam) की सहायता के माध्यम से अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देश उत्तरी वियतनाम (North Vietnam) के साम्यवादी ताकतों को नष्ट कर देना चाहते थे। इस परिस्थिति को भाँप कर रूस से अपनी सेना उत्तरी वियतनाम के भेज दी। जिससे एक बार फिर विश्व युद्ध के बादल मँडराने लगे और वियतनाम शीत युद्ध के रणभूमि में तब्दील हो गया।

*4. संविधान सभा का गठन किस प्रकार हुआ ? (How did the Constituent Assembly of India was formed?)

#Or, संविधान सभा के गठन की पृष्ठभूमि का वर्णन कीजिए। संविधान सभा के दो सदस्यों के नाम लिखें। (Discuss the background of the formation of the Constituent Assembly. Name two members of the Constituent Assembly.)[Sample - 2014]

Ans. संविधान सभा का गठन :- जुलाई 1946 ई० में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार चुनाव हुए। ब्रिटिश प्रांतों के लिए 210 साधारण स्थानों में से कांग्रेस ने 199 स्थान जीत लिए, जो 11 स्थान बाकी बचे, उनमें से पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी (Unionist Party) ने 2 स्थान, स्वतंत्र उम्मीदवारों ने 6 स्थान, कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) ने एक स्थान, दलित उद्धार संघ ने 2 स्थान जीत लिए। 78 मुस्लिम स्थानों में से मुस्लिम लीग ने 73 स्थान जीते। शेष 5 स्थानों में से कांग्रेस ने तीन स्थान, पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी (Unionist Party) ने एक स्थान और बंगाल की कृषक प्रजा पार्टी (Krishak Praja Party) ने एक स्थान पर कब्जा कर लिया। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि 296 सदस्यों में से कांग्रेस का साथ देने के लिए 212 सदस्य थे और मुस्लिम लीग की आज्ञा पालन करने के लिए 73 सदस्य थे। शेष 11 सदस्यों में भी 6 सदस्य कांग्रेस का नेतृत्व मानने के लिए तैयार थे। संविधान सभा के चुनाव के आधार पर 9 दिसम्बर, 1946 ई० को संविधान सभा की पहली बैठक दिल्ली में हुई। इसके अस्थायी अध्यक्ष डॉ० सच्चिदानंद सिन्हा थे। 11 दिसम्बर, 1946 ई० को संविधान सभा की दूसरी बैठक दिल्ली में हुई, तब डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। बाद में 29 अगस्त, 1947 ई० को संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर निर्वाचित हुए। इस कारण उन्हें संविधान निर्माता भी कहा जाता है।

जुलाई 1946 ई० में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार चुनाव हुआ और उसमें ब्रिटिश भारत के 210 स्थानों में से कांग्रेस ने 110 स्थान जीत लिए, लेकिन मुस्लिम लीग को चुनाव में कांग्रेस की शानदार विजय से घोर निराशा हुई। परिणामस्वरूप, 29 जुलाई 1946 ई० को उसने यह योजना अस्वीकार कर दी। 12 अगस्त 1946 ई० को लॉर्ड वैबेल ने पं० जवाहरलाल नेहरू (Pt. Jawahar lal Nehru) को अस्थायी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। बाद में मुस्लिम लीग भी उसमें शामिल हो गई, लेकिन सरकार की सहायता न कर उसने अड़ंगा लगाना प्रारंभ किया।

संविधान सभा के दो सदस्य थे डॉ० राजेन्द्र प्रसाद और डॉ० सचिदानन्द सिन्हा।



**5. सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन पर एक निबंध लिखिए। (Write an essay on Quit India Movement of 1942 A.D.)
(HS-2020,2019,2017,2016)

Ans. कांग्रेस का 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव (Quit India proposal of the Congress) - भूमिका :- 8 अगस्त 1942 ई० को बम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन आरम्भ हुआ। महात्मा गाँधी ने समिति के समक्ष अपना ऐतिहासिक 'भारत छोड़ो' (Quit India) प्रस्ताव पेश किया। उस प्रस्ताव में कहा गया कि "भारत में ब्रिटिश सरकार का तत्काल अंत भारत के लिए तथा मित्र राष्ट्रों के आदर्शों की पूर्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इसी के ऊपर युद्ध का भविष्य एवं स्वतंत्रता तथा प्रजातंत्र की सफलता निर्भर है।" गाँधीजी ने कांग्रेस कार्य समिति के समक्ष कहा था, "मैं स्वतंत्रता के लिए और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता। मैं जिन्ना साहब के हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता. यह मेरे जीवन का अंतिम संघर्ष है।" कांग्रेस कार्यसमिति में अपने दिए गए भाषण में गाँधीजी ने कहा था कि संघर्ष करो या मरो (Do or Die ) । आन्दोलन आरम्भ होने से पहले महात्मा गाँधी वायसराय से मिलना चाहते थे परन्तु सरकार ने उन्हें मौका नहीं दिया। 9 अगस्त 1942 ई० को महात्मा गाँधी और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस को अवैध संस्था घोषित कर दिया गया। अपने सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी से क्षुब्ध होकर जनता ने 9 अगस्त को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' (Quit India Movement ) की शुरुआत कर दी। चूँकि यह आन्दोलन अगस्त के महीने में हुआ था, इसलिए इसे

अगस्त आन्दोलन (August Movement) के नाम से भी जानते हैं। 

'भारत छोड़ो' आन्दोलन के कारण (Causes of the Quit India Movement) - 1942 ई० के 'भारत छोड़ो' (Quit India) आन्दोलन के निम्नलिखित कारण थे -

(1) क्रिप्स मिशन की असफलता (Failure of the Cripps Mission) :- क्रिप्स योजना की असफलता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश सरकार भारतीय समस्या का समाधान नहीं चाहती है। सरकार ने कठोर दमनकारी नीतियों का अनुसरण करना प्रारम्भ कर दिया था। इससे भारतीयों में निराशा का वातावरण छाया हुआ था, फलस्वरूप 1942 ई० में भारत छोड़ो आन्दोलन किया गया।

(2) द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन की पराजय (Defeat of Britain in the Second World War) : द्वितीय विश्व युद्ध के समय 1941 ई० के अंत तक ब्रिटेन की स्थिति कमजोर पड़ने लगी थी। ब्रिटिश सैनिक विभिन्न मोर्चों पर हारने लगे थे। ब्रिटिश सेना बर्मा तथा मलाया में पराजित हो चुकी थी तथा भारत पर भी संकट के बादल घिरने लगे थे। अत: भारतीयों ने युद्ध की संकट की स्थिति से उबरने के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आन्दोलन करने का निश्चय किया।

(3) भारत पर जापानी आक्रमण का भय (The fear of Japanese attack on India) :

विश्व युद्ध के शुरुआती दौर में जापान की स्थिति काफी मजबूत थी। जापान की सेना निरन्तर आगे बढ़ रही थी और भारतीय प्रदेशों पर जापानी आक्रमण का खतरा उत्पन्न हो गया था। महात्मा गाँधी ने अनुभव किया कि भारत पर जापानी आक्रमण को रोकने का एकमात्र उपाय अंग्रेजों को भारत से भगाना है। अतः उन्होंने 'भारत छोड़ो' (Quit India) आन्दोलन को आरम्भ करने की ठानी।

(4) पूर्वी बंगाल में आतंक का राज्य (Reign of terror in East Bengal) :- अंग्रेजों ने पूर्वी बंगाल में आतंक के राज्य की सृष्टि की थी। किसानों को बिना मुआवजा दिए उनकी जमीनों से उन्हें वंचित किया गया।
भारत पर जापानियों के आक्रमण के भय से अंग्रेजों ने 'स्कोर्चिंग अर्थ' (Scorching earth) की नीति अपनाई, जिसके तहत पूर्वी बंगाल एवं बर्मा के करीबी क्षेत्रों को पूरी तरह से खाली करवाकर वहाँ आग लगवा कर सब कुछ तहस-नहस कर दिया गया और भारतायों को शरणार्थी कैम्पों में रहने तथा दर-दर भटकने के लिए छोड़ दिया गया, जिससे भारतीयों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जबरदस्त गुस्सा था।

Most sure
Vvi***6. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में सुभाष चन्द्र बोस के योगदान पर प्रकाश डालिए। (Review the contributions made by Subhash Chandra Bose in the Indian freedom struggle.) (HS -2020,2018)

Ans. भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में सुभाष चन्द्र बोस के योगदान
भूमिका :- नेताजी का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई० को कटक में हुआ था। ये जन्मजात देशभक्त थे। इन्होंने मात्र चार महीने के गहन अध्ययन के बल पर आइ.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु ब्रिटिश सरकार में कोई भी पद लेने से इनकार कर दिया। इन्होंने इस तथ्य को माना कि ब्रिटिश सरकार में नौकरी करते हुए भारत माता के स्वार्थ की पूर्ति नहीं हो सकती है। सिविल सेवा में अपना योगदान न देकर ये भारत में देशबंधु चित्तरंजन दास (Deshbandhu Chittaranjan Das) के सम्पर्क में आए और इसके बाद इन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। कुछ दिनों तक ये कलकत्ता में मेयर के पद पर रहे, फिर कांग्रेस में सम्मिलित हो गए और कर्मठ नेता के रूप में तत्परता के साथ भारत माता की सेवा करने लगे।

कांग्रेस की सेवा तथा फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना (Service to the Congress and the establishment of Forward Bloc) : उस समय गाँधीजी कांग्रेस के सबसे बड़े कद्दावर नेता थे। असहयोग आन्दोलन की असफलता से नेताजी खुश नहीं थे। वे महात्मा गाँधी के कार्यक्रमों से प्रभावित नहीं थे। 1921 ई० में वे देशबंधु चित्तरंजन दास द्वारा स्थापित राष्ट्रीय कॉलेज के प्राध्यापक नियुक्त हुए। बोस को महात्मा गाँधी द्वारा संचालित आन्दोलन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल का कमांडर बनाया गया। 

प्रिंस ऑफ वेल्स (Prince of Walse ) के बहिष्कार - सम्बन्धी आन्दोलन में सुभाषचन्द्र ने भाग लिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जब स्वराज दल का गठन किया गया तब उसके प्रचार की जिम्मेदारी सुभाष ने अपने ऊपर ले ली। 1925 ई० में बंगाल अराजक आदेश के अन्तर्गत उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने पर उन्होंने अपना समय रचनात्मक कार्यों की ओर लगा दिया। उन्होंने गाँधी-इरविन समझौते (Gandhi-Irwin Pact) का घोर विरोध किया। 1929 ई० के लाहौर अधिवेशन (Lahore Conference) से एक वर्ष पहले जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने 'Indepen dence League' की स्थापना की और लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में पूर्ण स्वराज्य की माँग की। साइमन कमीशन (Simon Commission) के बहिष्कार में उन्होंने महात्मा गाँधी की नीतियों की तीव्र आलोचना की। सुभाषचन्द्र बोस ने बहिष्कार, हड़ताल और वैकल्पिक सरकार के गठन की माँग रखी जिसे गाँधीजी के विरोध के कारण कांग्रेस द्वारा समर्थन नहीं मिला।

परन्तु सुभाष चन्द्र बोस अपने देशहित सम्बन्धी कार्यों को लेकर शीघ्र ही भारतीय जनमानस के हृदय पर राज करने लगे। कांग्रेस के अन्दर भी वे पसन्द किए जाने लगे। 1938 ई० में सुभाष चन्द्र बोस हरिपुरा कांग्रेस(Haripura Congress) के अध्यक्ष चुने गए। अपने अध्यक्षीय काल में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस में रहते हुए. साम्यवादी (Communist) और वामपंथी (Leftist) ताकतों के साथ हाथ मिलाया एवं पूरे देश में ब्रिटिश विरोधी एवं साम्राज्यवादी ताकत के विरोध में जनमत तैयार किया। अतः 1939 ई० में जब वे त्रिपुरी के अधिवेशन में अध्यक्ष के पद पर खड़े हुए तो महात्मा गाँधी ने उनके विरोध में अपने समर्थक पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष के पद के लिए खड़ा कराया। लेकिन सुभाषचन्द्र बोस ने पट्टाभि सीतारमैया को अधिक वोट से पराजित कर अध्यक्ष के पद को हासिल किया। महात्मा गाँधी के साथ बढ़ते तीव्र मतांतर के बीच सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र दे दिया और कांग्रेस से निकलकर एक अलग दल 'फारवर्ड ब्लॉक' (Forward Bloc) नामक दल की स्थापना की।

विदेश पलायन (Migration to the abroad):- ब्रिटिश सरकार उनके ब्रिटिश विरोधी नीति से सशंकित थी। अतः उसने उन्हें उनके निवास स्थान ( एलिंगन रोड ) पर ही नजर बंद कर दिया। परन्तु ब्रिटिश सरकार की आँखों में धूल झोंकते हुए 17 जनवरी, 1941 ई० को मौलवी के वेश में वे वहाँ से भाग निकले और बिहार के गोमो से होते हुए अफगानिस्तान के रास्ते रूस पहुँचे और देश की स्वतंत्रता के लिए स्टालिन (Stalin) ने जब सहयोग करने से इनकार कर दिया तो वे जर्मनी गए और वहाँ हिटलर (Hitlar) के विदेश मंत्री रिबेन ट्राप से 28 मार्च, 1941 ई० को मिले। उन्होंने इटली के तानाशाह मुसोलिनी (Mussolini) से भी सम्पर्क स्थापित किया। इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश विरोधी भावना का प्रचार करने के उद्देश्य से 'आजाद हिन्दुस्तान' (Azad Hindustan) नामक रेडियो स्टेशन की स्थापना की।

जापान एवं सिंगापुर में आगमन (Arrival to Japan and Singapore) : जर्मनी के पश्चात् नेताजी जापान के प्रधान मंत्री जनरल तोजो हिडेकी (Tojo Hideki) से मिले। इस समय जापान के जेलों में बहुत से भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना के सैनिक के रूप में बंदी थे। कैप्टन मोहन सिंह (Captain Mohan Singh) ने इन बंदी 25,000 सैनिकों को लेकर एक ब्रिटिश विरोधी दल बनाया। बाद में यह संख्या बढ़ कर 40,000 हो गई। बाद में 1942 ई० में रास बिहारी बोस (Ras Bihari Bose) ने इस सैनिकों के दल का नाम 'Indian Indepen dence League' रखा। सितम्बर सन् 1942 ई० को रास बिहारी बोस ने इन सैनिकों को लेकर 'आजाद हिन्द फौज (Indian National Army) का गठन किया। तब रास बिहारी बोस ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को आजाद हिन्द फौज का प्रमुख बनाया। उन्होंने अपने प्रभावशाली भाषण से आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत किया। उन्होंने सैनिकों से कहा कि "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।" ("You give me blood, I will give you freedom") उन्होंने सैनिकों को दिल्ली चलो (Delhi chalo) का नारा दिया।

आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन करने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी सेना को तीन टुकड़ियों में बाँटा और प्रत्येक का नामकरण भारतीय राष्ट्रनेता क्रमश: गाँधी (Gandhi), नेहरू (Nehru) और आजाद (Azad) के नाम पर किया। उन्होंने एक महिला रेजीमेंट का भी गठन किया था जिसकी प्रधान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (Laxmi Swaminathan) थी। नेताजी के एक इशारे पर आजाद हिंद फौज के सैनिक अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार थे। नागालैण्ड एवं अण्डमान पर अधिकार (Capturing Nagaland and Andaman) :

बर्मा के प्रधान मंत्री वामाओं और जापान के प्रधान मंत्री तोजो ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को पूर्ण सहयोग देने का वचन दिया। 6 नवम्बर 1943 ई० को तोजो ने अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह नेताजी को दे दिया जिसका नाम उन्होंने 'शहीद' (Shahid) और 'स्वराज' (Swaraj) रखा। नेताजी चटगाँव बन्दरगाह पर आक्रमण की योजना बना रहे थे और इसके लिए उन्होंने बर्मा के रंगून में प्रमुख सैनिक कैम्प बनाया। 19 मार्च, 1944 ई० को नेताजी की सेना ने इम्फाल होते हुए कोहिमा पर अधिकार कर वहाँ तिरंगा फहरा दिया। पूर्वी भारत के 150 कि०मी० क्षेत्र पर नेताजी की सेना ने अधिकार कर लिया। उन्होंने इसके पश्चात् यह योजना बनाई कि वर्षा काल में असम होते हुए बंगाल पर आक्रमण करेंगे।

जापान की पराजय और आज़ाद हिन्द फौज की असफलता (Defeat of Japan and failure of INA) : ब्रिटिश लड़ाकू जहाजों के आक्रमण से जापान को बर्मा, कोहिमा, इम्फाल, दिनाजपुर से पीछे हटना पड़ा। इस युद्ध में 2,70,000 जापानी सैनिकों में से 2 लाख मारे गए। अतः आज़ाद हिन्द फौज को जापानी सहायता मिलनी बन्द हो गई। अन्नाभाव, मलेरिया के प्रकोप, जहरीले कीटाणुओं के काटने से सैनिकों के सामने विकट परिस्थिति उपस्थित हो गई। इसी बीच अमेरिका ने जापान के दो नगरों हिरोशिमा (Hiroshima) और नागाशाकी (Nagashaki) पर परमाणु बम गिरा कर जापान को 1945 ई० में आत्म-समर्पण करने के लिए बाध्य किया। सुभाष चन्द्र ने अपने सैनिकों से आत्म-समर्पण न करने को कहा। इसी बीच वे सिंगापुर से टोकियो जाने के लिए विमान में बैठे जो कि दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इसके बाद इस महानायक का कुछ भी पता नहीं चला। इस प्रकार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस देश को स्वतंत्र कराने का अपना सपना पूरा नहीं कर पाए पर उनकी भारत माता के प्रति अटूट श्रद्धा थी और उनके इस प्रयास को देखकर ही भारतीय नौ सेना ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में विद्रोह किया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने कहा, "इस देश पर सेना और पुलिस के बल पर शासन नहीं किया जा सकता।

Vvvi****.लखनऊ समझौता के प्रावधानों का उल्लेख कीजिए। इसके महत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।


Ans-लखनऊ समझौता , 1916 के प्रावधान

1. कांग्रेस द्वारा उत्तरदायी प्रशासन की मांग को मुस्लिम लीग ने स्वीकार कर लिया । 
2. कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की मुस्लिम लीग के लिए अलग निर्वाचक व्यवस्था की मांग को स्वीकार किया । 
3. प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं में निर्वाचित भारतीय सदस्यों की संख्या का एक निश्चित भाग मुस्लिमो के लिए नामांकन कर दिया गया। पंजाब में 50%, बंगाल में 40%, बम्बई सहित सिंध में 33%, संयुक्त प्रान्त में 30%, बिहार में 25%, मध्य प्रदेश में 15% तथा मद्रास में भी 15% सीट मुस्लिम लीग को दी गई हैं।

4. केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा में कुल निर्वाचित भारतीय सदस्यों के 1/9 सदस्यों को सदस्यता के लिए नामांकित किया गया और कुछ निर्वाचन अधिकार सांप्रदायिक चुनाव व्यवस्था को स्वीकार किया गया।

5. यह निश्चित किया गया कि यदि किसी सभा में कोई प्रस्ताव किसी सम्प्रदाय के अधीन के विरुद्ध हो तथा 3/4 सदस्य उस आधार पर उसका विरोध करेंगे तो उसे पास नहीं किया जाएगा।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा सरकार की निम्नलिखित मांगें ( 19 सूत्रीय रूप पत्र) प्रस्तुत की गईं –

1. ब्रिटिश सरकार भारत को उत्तरदायित्वपूर्ण शासन देने की जल्द से जल्द घोषणा करें।

2. केंद्रीय विधान परिषदों , प्रांतीय विधान परिषदों और निर्वाचित भारतीयों की संख्या का विस्तार किया जा सकता है और उन्हें अधिक अधिकार दिए जा सकते हैं।
3. गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार किया जाए तथा परिषद में कम से कम भारतीय सदस्य हों।
4. विधान परिषदों की अवधि 5 वर्ष होने वाली है ।

5. परिषदों में जिन / जिलाधिकारियों को बड़े बहुमत से पारित किया गया , उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा विभाजित के रूप में स्वीकार किया गया ।

6. प्रांतों में अल्पसंख्यकों की रक्षा की जानी चाहिए ।

7. सभी प्रांतों को स्वायत्तता दी जानी चाहिए।

8. कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग करना ।

9. विधान परिषद में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत हो ।

लखनऊ समझौता 1916 का महत्व

1. हिंदू मुस्लिम एकता को बढ़ावा मिला जिससे भारतीय राष्ट्रवाद मजबूत हुआ।

2. समझौते के बाद दोनों प्रमुख दलों ने संवैधानिक सुधार करने, विधाय निर्वाचन क्षेत्रों के प्रजातांत्रिक करने, कार्यपालिका को अधिक जवाबदेह बनाने, शासन में भारतीय को अधिक अधिकार बनाने आदि की मांगे प्रस्तुति की इससे राष्ट्रीय राजनीति का विकास हुआ।

3. एकता के बाद हिंदू मुस्लिम नेतृत्व होमरूल आंदोलन को मिला और आगे गांधीवादी आंदोलन ने मजबूत समर्थन और आधार प्राप्त किया|

4. समझौते ने मुस्लिम के अंदर इस विशालता के भय को दूर किया कि स्वशासन प्राप्ति की स्थिति में कम संख्या के कारण उनकी स्थिति कमजोर होगी।

5. समझौते से ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला गया और इसी के अनुरूप भारत के उत्तरदाई सरकार की स्थापना के प्रयास शुरू किए गए। अगस्त 1917 में मांटेग्यू की स्वशासी संस्थाओं और उत्तरदाई प्रणाली की घोषणा में क्रमिक विकास को नुकसान पहुंचाया गया।

लखनऊ समझौता बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया, क्योंकि इसके कारण भारत की दो बड़ी राजनीतिक शक्तियों मे गठबंधन हो गया। लेकिन यह मानना होगा कि कुल मिलाकर यह समझौता लीग की विजय का सूचक था, क्योंकि लीग के साथ गठबंधन करने की लालसा मे कांग्रेस ने जिन सिद्धांतों ( प्रजातंत्र, संयुक्त निर्वाचन प्रणाली और धर्म निरपेक्षता ) का बलिदान दिया, वह देश को बहुत ही महंगा पड़ा। वास्तव मे पाकिस्तान की नीवं के तत्व को इस समझौते मे देखा जा सकता है।



Most sure 
Vvi.***आजाद भारत के पहले तीन पंचवर्षीय योजनाओं का लक्ष्य और महत्व पर चर्चा करें।
Ans-
पहली पंचवर्षीय योजना, 1951-56 (First five year plan, 1951-56)
पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1951 से प्रारंभ की गई। यह योजना डोमर संवृद्धि मॉडल पर आधारित थी।

लक्ष्य-:
इस योजना के मुख्‍य उद्देश्‍यों में युद्ध एवं विभाजन से उत्‍पन्‍न असंतुलन को दूर करता, खाद्यान्‍न आत्‍मनिर्भरता प्राप्‍त करना, स्‍फीतिकारक प्रवृत्तियों को रोकना था।
इस योजना के तहत कृषि एवं सिंचाई को प्राथमिकता दी गई।
इसी योजना में 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम एवं 1953 में राष्‍ट्रीय प्रसार सेवा को प्रारंभ किया गया था। ध्‍यातव्‍य है कि भाखड़ा नांगल, दामोदर घाटी एवं हीराकुंड जैसी बहूद्देशीय परियोजनाएँ इसी योजना की देन थी।

महत्व

इस योजना का प्राप्ति लक्ष्‍य से अधिक था। इस योजना में 2.1 प्रतिशत वृद्धि दर प्राप्‍त की गई। इसके साथ ही कृषि सिंचाई और सामुदायिक विकास के क्षेत्र में महत्‍वपूर्ण सफलता प्राप्‍त हुई।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना, 1956-61 (Second five year plan, 1956-61)

यह योजना पी.सी. महालनोबिस मॉडल पर आधारित थी। इस योजना में भारी उद्योगों की स्‍थापना पर जोर दिया गया था।

लक्ष्य-:
इस योजना के मुख्‍य उद्येश्‍यों में समाजवादी समाज की स्‍थापना, राष्ट्रीय आय में 25 प्रतिशत की वृद्धि, तीव्र गति से औद्यो‍गीकरण एवं पूंजी निवेश की दर को 11 प्रतिशत करने का लक्ष्‍य था।
इस योजना के दौरान राउरकेला, भिालाई तथा दुर्गापुर में लौह-इस्‍पात संयंत्र स्‍थापित किये गये। चितरंजन लोकोमोटिव एवं सिंदरी उर्वरक कारखाना भी इसी योजना की देन हैं।

महत्व

इस योजना में कृषि के स्‍थान पर उद्योगों को प्राथमिकता देने के परिणामस्‍वरूप खाद्यान्‍न तथा अन्‍य कृषि उत्‍पादों में भारी कमी हुई। मुद्रास्‍फीति बढ़ी और इस कारण विदेशी मुद्रा का संकट पैदा हो गया। सार्वजनिक क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र में उत्‍प्रेरक के रूप में उभरा। परिवहन एवं ऊर्जा क्षेत्र में विस्‍तार हुआ। प्रति व्‍यक्ति आय की वृद्धि दर 1.9 प्रतिशत रही।

तृतीय पंचवर्षीय योजना, 1961-66 (Third five year plan, 1961-66)
तृतीय योजना में कृषि एवं उद्योगों पर बल दिया गया था।तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961 – 1966) को गाडगिल योजना के नाम से जाना जाता है।

लक्ष्य-:
 इस योजना का मुख्‍य उद्देश्‍य भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को आत्‍मनिर्भर व स्‍वत:स्‍फूर्त बनाना था।
भारत-चीन युद्ध (1962), भारत-पाक युद्ध (1965) और 1965-66 के दौरान सूखा पड़ जाने से तीसरी योजना पूरी तरह असफल रही।
इस योजना में रुपये का अवमूल्‍यन किया गया।
रूस के सहयोग से बोकारो (झारखण्‍ड) में बोकारो ऑयरन एवं स्‍टील इं‍डस्‍ट्री की स्‍थापना की गई।
पहली, दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय योजना में सरकार ने ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ का अनुसरण किया।
देश की श्रम शक्ति का अधिकतम उपयोग तथा रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना।

महत्व

खाद्यान्‍न अत्‍पादन में 6 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि के स्‍थान पर 2 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्‍त की जा सकी तथा औद्योगिक उत्‍पादन में 14 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की जगह यह बहुत कम प्राप्‍त हुई। राष्‍ट्रीय आय की वृद्धि दर 5.6 प्रतिशत के विरुद्ध 2.4 प्रतिशत रही, प्रति व्‍यक्ति आय की वृद्धि दर मात्र 0.2 प्रतिशत ही रही।


     

पाठ -7

1)Vvvi**** स्वेज संकट के कारण लिखिए।स्वेज संकट के महत्व एवं परिणामों का उल्लेख कीजिए। ** (2015, 2018)

Ans:-
स्वेज नहर मिस्र देश के उत्तर-पूर्व में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की देखरेख में खोदी गई एक नहर है। नहर की खुदाई 1859 में शुरू हुई, लेकिन वाणिज्यिक शिपिंग 1869 में शुरू हुई। यूनिवर्सल स्वेज कैनाल कंपनी नामक एक कंपनी को 99 वर्षों की अवधि के लिए नहर को संचालित करने का ठेका दिया गया था। लेकिन समाप्ति तिथि से पहले, 26 जुलाई, 1956 को तत्कालीन मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासिर ने एक उद्घोषणा के माध्यम से स्वेज नहर और स्वेज नहर कंपनी दोनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। परिणामस्वरूप, स्वेज नहर के आसपास एक समस्या उत्पन्न हो गई। स्वेज संकट दुनिया भर में इस समस्या का प्रतीक है।

स्वेज संकट के कारण
[1] ब्रिटेन और फ्रांस की भूमिका: अरब-इजरायल संघर्ष के दौरान, ब्रिटेन और फ्रांस ने इजरायल को हथियारों की आपूर्ति करने का फैसला किया, जिससे अरब देश नाराज हो गए और पश्चिमी देशों ने नासिर को शर्मिंदा करना शुरू कर दिया। ब्रिटेन और फ्रांस अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए स्वेज नहर पर सबसे अधिक निर्भर थे। जब अमेरिकी विदेश मंत्री डलेस ने स्वेज नहर का उपयोग करने वाले देशों के एक संगठन के गठन का प्रस्ताव रखा, तो ब्रिटेन और फ्रांस ने प्रस्ताव का जवाब नहीं दिया। इससे स्वेज संकट पैदा हुआ। बाद में जब मिस्र ने यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने पेश किया तो ब्रिटेन और फ्रांस ने स्वेज नहर पर अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण स्थापित करने की मांग की, जिसे नासिर स्वीकार नहीं कर सके।

[2] असवान बांध परियोजना: नासिर मिस्र के वित्त में सुधार के लिए नील नदी पर असवान बांध का निर्माण करना चाहते थे। क्योंकि इस बांध की मदद से 8 लाख 60 हजार हेक्टेयर भूमि को सिंचित कर कृषि योग्य भूमि में बदला जा सकता है. पुनः इस बांध के जलाशय से उत्पन्न होने वाली बिजली औद्योगिक विकास में सहायक होगी। इस निर्माण परियोजना की कुल लागत 1400 मिलियन डॉलर आंकी गई थी। इस परियोजना के लिए इंग्लैंड, अमेरिका और विश्व बैंक ने 70 मिलियन डॉलर का ऋण देने पर सहमति व्यक्त की। लेकिन एक साल तक चले विचार-विमर्श के बाद जब विश्व बैंक ने अमेरिका और ब्रिटेन की शह पर कर्ज का प्रस्ताव रद्द कर दिया तो नासिर भड़क गए।

[3] स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण: नाराज नासिर ने स्वेज नहर और स्वेज नहर कंपनी का राष्ट्रीयकरण किया (26 जुलाई, 1956 ई.) और घोषणा की कि ㅡ

[i] इस स्वेज नहर से एकत्रित धन का उपयोग असवान बांध के निर्माण के लिए किया जाएगा। 

[ii] कंपनी के विदेशी भागीदारों को प्रचलित बाजार दरों के अनुसार मुआवजा दिया जाएगा। 

[iii] सभी देशों के जहाज इस जलमार्ग को एक अंतरराष्ट्रीय लिंक के रूप में उपयोग कर सकते हैं। इसके ठीक तीन महीने बाद (29 अक्टूबर, 1956 ई.) ब्रिटेन और फ्रांस के गुप्त निर्देश पर इस्राइल ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया।

स्वेज संकट का महत्व या परिणाम:-
[1] अरब दुनिया में पश्चिम से दुश्मनी: पहले अरब-इजरायल युद्ध में, संयुक्त राज्य अमेरिका सहित पश्चिमी शक्तियों ने अपने हितों के लिए विभिन्न तरीकों से इजरायल की मदद की। ऐसे में स्वेज संकट के आधार पर जब मिस्र पर आंग्ल-फ्रांसीसी हमला शुरू हुआ तो मिस्र सहित पूरे अरब जगत में एक पश्चिमी-विरोधी रवैया पैदा हो गया।
[2] मजबूत अरब एकता: पश्चिमी विरोधी भावना अरबों को और अधिक एकजुट बनाती है। उनकी एकता और मजबूत होती है। मिस्र और सीरिया 'संयुक्त अरब गणराज्य' बनाने के लिए एकजुट हुए। नासिर इसके पहले अध्यक्ष बने।
[3] शत्रुता का बढ़ना: स्वेज संकट ने मिस्र और इज़राइल के बीच शत्रुता को बढ़ा दिया। मध्य पूर्व की राजनीति इजरायल के इर्द-गिर्द केंद्रित होने के कारण और अधिक जटिल हो गई।
[4] मिस्र का अधिकार: स्वेज नहर पर मिस्र का अधिकार तब मजबूती से स्थापित हो गया था जब अंतरराष्ट्रीय जगत ने मिस्र के स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण को मान्यता दी थी।
[5] अमेरिका पर इजरायल की बढ़ती निर्भरता: दूसरे अरब-इजरायल युद्ध में इजरायल को आर्थिक और सैन्य रूप से नुकसान उठाना पड़ा, जो स्वेज संकट के परिणामस्वरूप हुआ। इन सुधारों के लिए, इज़राइल संयुक्त राज्य अमेरिका के करीब बढ़ गया।

2)Vvi.**क्यूबा मिसाइल संकट के बारे में आप क्या जानते हैं? इसका क्या महत्व था?

Ans-क्यूबा मिसाइल संकट
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक अल्पकालिक संघर्ष, जिसे क्यूबा मिसाइल संकट के रूप में जाना जाता है, कैरेबियन सागर में वेस्ट इंडीज के सबसे बड़े क्यूबा पर मिसाइल ठिकानों के निर्माण को लेकर शुरू हुआ।

[1] पृष्ठभूमि: क्यूबा 1898 ई. स्पेन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका प्रगति का लक्ष्य बन गया। इस अवसर का फायदा उठाते हुए, अमेरिकी पूंजीपतियों ने क्यूबा की अर्थव्यवस्था की रीढ़, गन्ने के 40 प्रतिशत खेतों पर कब्जा कर लिया। क्यूबा पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए अमेरिका ने 1954 ई. में अपने अनुयायी फाल्जेनिको बतिस्ता को भेजा। अध्यक्ष नियुक्त किया गया। लेकिन क्यूबा के लोग बतिस्ता सरकार के खिलाफ हो गए क्योंकि वह अमेरिकी पूंजीवाद का बलि का बकरा बन गया।

[2] फिदेल कास्त्रो की भूमिका: क्यूबा के छात्र नेता फिदेल कास्त्रो ने उस समय बतिस्ता सरकार की जनविरोधी गतिविधियों का विरोध करने के लिए एक मजबूत सरकार विरोधी आंदोलन का गठन किया। धीरे-धीरे लोकप्रिय समर्थन प्राप्त करते हुए, एक क्रांतिकारी तख्तापलट ने बतिस्ता सरकार को उखाड़ फेंका। कास्त्रो ने क्यूबा में सत्ता हथिया ली (1959 ई., 1 जनवरी)। क्यूबा के राष्ट्रपति कास्त्रो तब पूंजीवादी अमेरिका से दूर चले गए और रूस, चीन और अन्य समाजवादी देशों के साथ संबंध बनाने की पहल की। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने क्यूबा में अमेरिकी पूंजीपतियों की चीनी मिलों का राष्ट्रीयकरण किया। इसके अलावा, उन्होंने अमेरिकी पूंजीवादी समूह के प्रबंधन के तहत बैंकों और अन्य औद्योगिक केंद्रों का भी राष्ट्रीयकरण किया।

3] कास्त्रो को हटाने में अमेरिका की भूमिका संयुक्त राज्य अमेरिका कास्त्रो की गतिविधियों से बहुत नाराज था और उसने विभिन्न तरीकों से कास्त्रो सरकार को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। यूएस सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) से गुप्त सहायता के साथ 1,400 भाड़े के सैनिक, अमेरिकी जहाजों द्वारा क्यूबा में फ्लोरिडा के तट पर सूअरों की खाड़ी में पहुंचे। यूएस बी-26 विमान विद्रोहियों की सहायता के लिए तैयार थे। लेकिन अमेरिकी साजिश तब विफल हो गई जब क्यूबा की सेना ने आखिरकार उन्हें हरा दिया।

[4] क्यूबा में मिसाइल बेस का निर्माण: कास्त्रो सरकार ने क्यूबा में 500,000 क्यूबाई लोगों की सुरक्षा के लिए रूसी मदद से मिसाइल बेस बनाने का फैसला किया। 1962 की शुरुआत में, क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने रूस से इंटरमीडिएट रेंज बैलिस्टिक मिसाइल (IRBM) का गुप्त रूप से आयात किया और उन्हें क्यूबा में बदल दिया ।

मिसाइल संकट का महत्व
[1] घटता जुझारूपन: इस संकट के कारण अंतत: मॉस्को और वाशिंगटन की जुझारूपन में कमी आई।
[2] मानवता की जीत में: क्यूबा मिसाइल संकट ने रूस और अमेरिका दोनों को परमाणु युद्ध की भयावहता का अहसास कराया। नतीजतन, संयम, सामान्य ज्ञान और मानवतावाद अंततः हिंसा पर विजय प्राप्त करते हैं। दुनिया विनाश से बच जाती है।
[3] आपसी परामर्श से: अब से दोनों शक्तियों ने आपसी परामर्श के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान को अपनाया। दोनों के बीच मधुर संबंध बनने लगे।
[4] परमाणु हथियार परीक्षण प्रतिबंध संधि: इस संकट का एक महत्वपूर्ण परिणाम परमाणु हथियार परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर करना था। 1963 में सोवियत संघ, अमेरिका और फ्रांस के बीच समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।
5] हॉटलाइन की स्थापना: इस संकट के बाद से, किसी भी संकट के सीधे समाधान के लिए हॉटलाइन के माध्यम से व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के बीच दूरसंचार स्थापित किया गया है।
6] क्यूबा में समाजवाद की स्थापना पर: एक समाजवादी राज्य की स्थापना भौगोलिक दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका के इतने करीब निस्संदेह अंतरराष्ट्रीय संबंधों के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। ध्यान दें कि क्यूबा पश्चिमी गोलार्ध में पहला समाजवादी राज्य है।

अंत में (20 नवंबर, 1962) जब सोवियत रूस ने क्यूबा से अपना मिसाइल बेस हटा लिया, तो संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी क्यूबा के खिलाफ नौसैनिक प्रतिबंध हटा लिया। इस प्रकार दो महाशक्तियों की सद्भावना से दुनिया को एक सर्वनाश युद्ध से बचाया गया।


2-शीत युद्ध से क्या समझते हो? किन परिस्थितियों में शीतयुद्ध का उदय हुआ।
Ans-शीत युद्ध (The Cold War)-शीत युद्ध की परिभाषा विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी। फ्रैन्कले के अनुसार, "शीत युद्ध आपसी दोषारोपण के कारण उत्पन्न चरम तनाव की स्थिति है, जो युद्ध में बदल सकती (Cold war is a state of extreme tension due to mutual accusations that may degenerate into open hastilities.)- Frnackel
प्रारम्भ (Inception)

शीत युद्ध की अवधारणा अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों के कारण आया। अमेरिका में साम्यवाद विरोधी एक संगठित गुट था जिसके कारण शीतयुद्ध की भावना विकसित हुई। शीतयुद्ध की अवधारणा की उत्पत्ति जर्जकेनन के एक गुप्त टेलीग्राम से हुयी। वे सोवियत संघ में अमेरिका के राजदूत थे। उन्होंने अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट D.G. Acheson को एक गुप्त टेलीग्राम द्वारा सूचित किया कि सोवियत संघ के प्रति एक कठोर दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है इस प्रकार शीत युद्ध की नीति को अमेरिका ने ही अपनाया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल जै श्री शीत युद्ध की नीति का समर्थन किया। 5 मार्च 1946 ई० को अमेरिका के फुल्टन नामक स्थान पर चर्चिल द्वारा दिये गए भाषण (Fulton Speech of Churchill) ने शीत युद्ध को आधुनिक रूप से आरम्भ किया। अपने भाषण में चर्चिल ने यह स्पष्ट किया "हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर उसके दूसरे स्वरूप की स्थापना को रोकना चाहिए।" उन्होंने फुल्टन के वेस्ट मिन्सटर कॉलेज में अपने भाषण में स्वतंत्रता की दीप शिखा प्रज्ज्वलित रखने एवं ईसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए अमेरिका और ब्रिटेन के गठबंधन की मांग की। उनका सुझाव था कि साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए हर सम्भव उपाय किये जाने चाहिये। उनके इस भाषण के कारण समूचे अमेरिका में सोवियत विरोधी भावना शा तूफान फूट पड़ा। उनका मानना था कि सोवियत संघ और उसका अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट संघ भविष्य में क्या करेगा. कोई भी नहीं जानता है। इस प्रकार फुल्टन के भाषण में चर्चिल ने सोवियत संघ से गठबंधन समाप्त करने की खुली भांग किया । अतः इस भाषण द्वारा भी शीत युद्ध की अवधारणा उत्पन्न हुई।

शीत युद्ध की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकार तीन गुटों में बंटे हुये है। पारम्परिक विचारधारा के इतिहासकारों के अनुसार शीत युद्ध की उत्पत्ति पूंजीवाद और समाजवाद के आदर्शगत मतभेदों के कारण हुई। आधुनिक विचारधारा के इतिहासकार सोवियत संघ को शीत युद्ध के लिए उत्तरदायी नहीं मानते हैं। उनके अनुसार अमेरिका के आर्थिक स्वार्थ के कारण ही उसका सोवियत संघ के साथ संबंध समाप्त हुआ। एक नयी विचारधारा के अनुसार, विश्व की समकालीन स्थिति के कारण शीत युद्ध की उत्पत्ति हुई ।

शीत युद्ध के कारण (Causes of the Cold War)

द्वितीय विश्वयुद्ध ने दो महाशक्तियां संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ को जन्म दिया। युद्ध की समाप्ति के बाद ये दोनों महाशक्तियाँ अपने प्रभाव के विस्तार के लिए उत्सुक थी। प्रभाव विस्तार के मार्ग में एक शक्ति दूसरे के लिए बाधक थी। दोनों पक्षों में ही अधिकांश मामलों में मतभेद थे। ये मतभेद ही शीतयुद्ध का मूल कारण था। इसके अलावा शीतयुद्ध के अन्य कारण भी थे, जो निम्नलिखित हैं-

1. ऐतिहासिक कारण (Historical causes): कुछ विद्वान यह मानते है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में शीतयुद्ध का आरम्भ 1917 ई० में बोल्शेविक क्रान्ति के साथ हुआ जिससे राज्य शक्ति का नया स्वरूप सामने आया। इसी समय से पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ को समाप्त करने का प्रयत्न करने लगे क्योंकि साम्यवाद एक विश्वव्यापी आंदोलन था जिसका उद्देश्य पूँजीवाद को समाप्त करके पूरे विश्व में साम्यवाद का प्रसार करना था। पश्चिमी देश साम्यवादी रूस को जर्मनी को अपेक्षा अधिक आशंका की दृष्टि से देखते थे। अतः ये देश जर्मनी को सोवियत संघ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करते रहे। इस प्रकार तनाव बढ़ता ही चला गया।

2. अणु बम का आविष्कार (Invention of Atom Bomb) : शीत युद्ध का एक अन्य कारण अणु बम का आविष्कार भी था। ऐसा माना जाता है कि अणु बम ने हिरोशिमा और नागासाकी का ही विध्वंश नहीं किया बल्कि युद्धकालीन मित्र राष्ट्रों को मित्रता का भी अंत कर दिया। अमेरिका में अणु बम पर अनुसंधान बहुत पहले से चल रहा था। इस अनुसंधान की प्रगति से उसने ब्रिटेन को तो अवगत रखा लेकिन रूस से इसका रहस्य गुप्त रखा गया। रूस को अमेरिका की इस कार्रवाई से गहरा आघात लगा । उसने इसे एक घोर विश्वासघात माना । अतः इस कारण से भी दोनों पक्षों के संबंध कटु हुये ।
3. सोवियत संघ द्वारा बाल्कन समझौते का उल्लंघन (Violation of Balkan agreement by Soviet Ruma 1944 ई० में सोवियत संघ ने चर्चिल के पूर्वी यूरोप के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। इसके अनुसार बुल्गारिया और रूमानिया पर सोवियत संघ का और यूनान पर ब्रिटेन का प्रभाव स्वीकार कर लिया गया था। हंगरी और युगोस्लाविया पर दोनों का बराबर प्रभाव स्वीकार किया गया था। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त ह के बाद इन देशों में बाल्कन समझौते की उपेक्षा करते हुये सोवियत संघ ने साम्यवादी दलों को खुलकर सहायत दी तथा वहाँ साम्यवादी शासन स्थापित करवा दिया। रूस के इस कदम से पश्चिमी देश बहुत नाराज हुए और रूस के प्रभाव को समाप्त करने के लिए हर संभव प्रयास करने लगे।

4. सोवियत संघ द्वारा 'वीटो' का वार-बार प्रयोग (Use of Veto repeatedly by Russia): सोवियत संघ द्वारा बार-बार अपने वीटो के अधिकार के प्रयोग करने से भी स्थिति तनावपूर्ण बनी। ऐसा कर उसने संयुक्त राष्ट्र के कार्यों में बाधा डालना आरम्भ किया। वास्तव में सोवियत संघ संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व शान्ति स्थापित करने वाली एवं विश्व संस्था न मानकर अमेरिका के विदेश विभाग का एक अंग मानता था। इसलिये अपने वीटो के अधिकार के बल पर उसने अमेरिका और पश्चिमी देशों के लगभग प्रत्येक प्रस्ताव को निरस्त करने की नीति अपना लिया। सोवियत संघ द्वारा वीटो के दुरूपयोग करने से पश्चिमी राष्ट्रों में यह धारणा उत्पन्न हो गयी कि वह इस संगठन को समाप्त करना चाहता है। इस कारण पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की कड़ी आलोचना करने लगे और उनमें परस्त विरोध और तनाव का वातावरण और अधिक विकसित हो गया।

5. वैचारिक संघर्ष (Idealistic Struggle) : शीतयुद्ध एक प्रकार का वैचारिक या सैद्धान्तिक संघा सैद्धान्तिक दृष्टि से अमेरिका और सोवियत संघ में बहुत अधिक अंतर था। अमेरिका एक पूँजीव उदार, लोकतंत्रात्मक देश है जबकि सोवियत संघ साम्यवादी और एकदलीय व्यवस्था वाला देश था। अतः दोनो महाशक्तियाँ अपनी प्रभुसत्ता की स्थापना के लिए और अपनी विचारधारा को थोपने के लिए तत्पर थी। दोनों को दो विरोधी जीवन पद्धतियाँ थी। ये दो ध्रुव की तरह थे जिनमें मेल असम्भव था। अतः विश्व में अपने प्रभाव को स्थापित करने के लिए आपसी संघर्ष होना आवश्यक था।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के 50 वर्षो तक अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धी की मुख्य धुरी शीत युद्ध था जिसने प्रत्येक घटनाचक्र को प्रभावित किया। शीत युद्ध शब्द का प्रयोग अमेरिका के महान राजनीतिक चिंतक वर्नाड वच (Bernard Baruch) द्वारा सर्वप्रथम 16 अप्रैल 1947 ई० को अमेरिका के कोलाम्बिया में एक भाषण में किया गया । उन्होंने कहा था "Let us not be deceived today we are in the midst of a cold war." यह एक 'कूटनीतिक युद्ध था, सशस्त्र संघर्ष नहीं था ।

3-अल्जीरिया किस प्रकार स्वतंत्र हुआ? 
Ans-अल्जीरिया एक फ्रेंच उपनिवेश था। अल्जीरिया में बड़ी संख्या में फ्रांसीसी लोग बसे हुए थे। अफ्रीका के क्षेत्र अल्जीरिया में फ्रांसीसी शासन 1830 से 1962 तक रहा। अल्जीरिया पर फ्रांसीसियों के अधिकार के बाद बहुत से यूरोपीय वहाँ बस गए । अल्जीरिया में बसे इन यूरोपीय का वहां, कोलोन (Colons) या पेड-नोयर (Paid Noirs) कहा जाता था। फिर भी अल्जीरिया में मुस्लिम बहुसंख्यक थे और उनमें फ्रांसीसी शासन के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा था।
अल्जीरियन राष्ट्रीयता (Algerian Nationalism) प्रथम विश्व युद्ध के समय अल्जीरिया में नए मुस्लिम राष्ट्रीय नेताओं की पीढ़ी उभरी। इनकी राष्ट्रीयता की भावनाएँ 1920 और 1930 के दशक में अधिक मजबूत होती चली गई। इन राष्ट्रवादी नेताओं में से कुछ अमीर मुस्लिम परिवारों से सम्बन्धित थे। साथ ही कुछ उन 173.000 अल्जीरियन लोगों में से थे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांसीसी सैनिकों के साथ युद्ध में शामिल तथा कुछ युद्ध के दौरान कारखानों में हाड-तोड़ मेहनत कर रहे थे कि युद्ध के समय सेना को वस्तुओं की कमी नहीं हो। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के पक्षात बहुत से अल्जीरियन फ्रांस में काम करते थे। इन लोगों ने फ्रांस के निवासियों के जीवन स्तर को अल्जीरिया के किसी भी अमीर निवासी के जीवन स्तर से बेहतर पाया। साथ ही फांस में रहने के दौरान वे नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक हुए तथा उनमें राष्ट्रीयता की भावना बढ़ी। इन लोगों ने महसूस किया कि वे नागरिक अधिकार जो एक फ्रांसीसी को प्रदान किए गए थे, वे ही अधिकार कोलोनासीसी अधिकारी वर्ग कभी-भी अल्जीरिया में लागू नहीं करना चाहते थे। साथ ही अल्जीरियन मध्य अरब में चल रहे पान अरब राष्ट्रवाद (Pan-Arab Nationalism) से भी प्रभावित थे।

राजनीतिक आंदोलन (Political movement) : अल्जीरिया में राष्ट्रवादी आंदोलन की शुरूआत युवा वर्ग (Jeunese Algerienne) द्वारा की गई । 1908 ई० में फ्रांस के प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लेमेंसो (Georges Clemenceau) को एक याचनापत्र (Petition) दी जिसमें अल्जीरिया के मुस्लिम जनता पर फ्रांसीसी सेना में अनिवार्य सेवा प्रदान करने को बाध्यता का विरोध किया गया। 1911 ई० में इस युवा वर्ग ने असमान पद्धति का अंत, मताधिकार का विस्तार, शिक्षा का विस्तार तथा सम्पत्ति की रक्षा तथा विद्वानों के साथ सम्माजनक व्यवहार की मांग की। अल्जीरिया के मुस्लिम जनता द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध में फ्रांस सेना में साहसपूर्वक सेवा के पुरस्कार स्वरूप प्रधानमंत्री क्लेमेसो ने उदारवादी चार्ल्स जोनार्ट (Charles Jonnart) को गवर्नर जनरल बनाया। जीनार्ट ने 1919 में कानून (Jonnars law) में सुधार करके लगभग 4,25,000 मुसलमानों को मतदान का अधिकार प्रदान किया।

प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् मुस्लिम नेता खालिद इब्न हाशिम (Khalid ibn Hashim) एक लोकप्रिय नेता के रूप में उभरें। वे जूवेनेसे अल्जीरिने (युवा वर्ग, Jeunesse Algerienne) के सदस्य थे, हालांकि जोनार्ट कानून को लेकर जूवेनेसे अल्जीरिने के विचार का समर्थन नहीं करते थे। कुछ अल्जीरियन ने जूनार्ट लॉ द्वारा किए गए सुधार को समर्थन देते थे, पर अमीर खालिद सारे जनता के लिए मतदान का अधिकार चाहते थे। 1923 के चुनाव में वे विजयी रहे। 1926 में युवा अल्जीरियन ने 'फेडेरेशन ऑफ इलेक्टेड नेटिव' (Federation of Elected Natives) की स्थापना की। अल्जीरिया की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाने वाली पहली संस्था 'स्टार ऑफ नोर्थ अफ्रीका (Star of North Africa) थी। इस संस्था की स्थापना 1926 में पेरिस (Paris) में की गई थी। इस संस्था का उद्देश्य "उत्तरी अफ्रीका के मुसलमानों के भौतिक, नैतिक और सामाजिक स्वार्थ की रक्षा करना था।" (to defend the material, moral and social interest of North African muslims) इसके नेता अहमद मेसाली हज (Ahmed Messali Hadj) ने 1927 ई० में एक सामूहिक मांग फ्रांस की सरकार के समक्ष रखी। स्वतंत्रता की मांग के अलावा, प्रेस की स्वतंत्रता, संघ स्थापित करने की स्वतंत्रता, सार्वजनिक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित संसद, अधिक स्कूलों की स्थापना माँग रखी गई । 1929 से 1933 ई० तक में स्टार को अवैध घोषित कर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 'स्टार आदि ऑफ नोर्थ अफ्रीका' का समाचार पत्र 'अल-उमा' (EL-Ouma) की प्रति 43.500 छपती तथा बिकती थी। अरब राष्ट्रवाद से प्रभावित होकर मेसाली अधिक राष्ट्रवादी हो गए तथा साम्यवाद के प्रति उनकी आस्था कम हुई। अतः फ्रांसीसी साम्यवादी पार्टी (French Communist Party) स्टार की विरोधी हो गई। 1937 में मेसाली स्टार पार्टी को मजबूत करने तथा कृषकों और मजदूरों के बीच पार्टी को लोकप्रिय बनाने के लिए अल्जरिया आ गए और अल्जीरिया पिपल पार्टी (Algerian People's Party - APP) की स्थापना की।
मिस्र के मुसलमान नेताओं मुहम्मद अब्दुस और मुहम्मद राशिद रिदा (Mohammed Abdus and Muhammad Rashid Rida) के सुधारवादी आंदोलन से प्रेरणा लेकर अल्जीरिया में भी मुसलमानों ने सुधारवादी आंदोलन प्रारम्भ किया। इन नेताओं ने अपने विचारों के प्रसार के लिए मुफ्त इस्लामिक स्कूल की स्थापना की तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। इस आंदोलन के लोकप्रिय होने के कारण फ्रांसीसी सरकार ने 1933 में सरकारी मस्जिदों में उनके प्रसार पर रोक लगा दी |

वायलेट प्लान (Violette Plan - 1936) : 1933 से 1936 के मध्य अल्जीरिया में अनेका राजनीतिक उपद्रव हुए क्योंकि अल्जीरियाई लोग अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं के लिए औपनिवेशिक सरकार को दोषी मानते थे। अतः सरकार ने बहुत से दमनकारी कानून बनाए। 1936 में फ्रांसीसी समाजवादी लियोन ब्लूम (French Socialist Leon Bleem) ने मॉरिश वायलेट (Marice Violette) को फ्रांसीसी मंत्री नियुक्त किया । इसी साल अल्जीरियन मुस्लिम कांग्रेस (Algerian Muslim Congress) की स्थापना हुई तथा सरकार के समक्ष मांग का चार्टर (Charter of Demands) रखा। इन्होंने मांग की कि रेजिमे डी-एक्सेप्सन के लागू करने की स्वीकृति तथा अल्जीरिया और फ्रांस का राजनैतिक एकीकरण. मुसलमानों को फ्रांसीसी नागरिक की हैसीयत प्रदान करना तथा अल्जीरिया में इस्लामिक और मुस्लिम मिश्रित व्यवस्था को लागू करना, अरबी शिक्षा तथा प्रेस की स्वतंत्रता, समान काम के लिए समान वेतन, भूमि सुधार, सार्वजनिक मताधिकार को लागू करना इत्यादि मांगों को रखा गया।
अल्जीरियन युद्ध (Algerian war / Algerian war of Independence / Algerian Revolution) : 1954 ई0 से लेकर 1962 ई० तक अल्जीरिया ने अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए फ्रांस के साथ युद्ध किया। यह विश्व इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण विऔपनिवेशिक युद्ध था। अल्जीरियन गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करके फ्रांस के साथ लोहा ले रहे थे । इसके अलावा अल्जीरिया को फ्रांसीसी समर्थकों के साथ भी गृहयुद्ध करना पड़ रहा था । 1 नवम्बर 1954 ई0 में ऑल सेंट दिवस (All Saints Day) के दिन राष्ट्रीय स्वतंत्रता फ्रंट ने अचानक से आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण ने चौथे फ्रेंच गणतंत्र की नींव हिलाकर रख दी । 1961 में फ्रेंच राष्ट्रपति चार्ल्स द गॉल (Charles de gaulle) ने अल्जीरिया को शीघ्र ही स्वतंत्रता प्रदान करने की घोषणा की। इस घोषणा ने फ्रांस में विद्रोह की स्थिति पैदा कर दी तथा गॉल पर प्राणघातक आक्रमण भी हुए। साथ ही सैन्य अधिकारियों पर भी आक्रमण किए गए।

1962 में अल्जीरिया की स्वतंत्रता के समय नौ लाख पेड-नोर्यस (Pieds Noirs) फ्रांस भाग गए। पेड-नोर्यस के नेशनल लिबरेशन फ्रंट (राष्ट्रीय स्वतंत्रता फ्रंट) द्वारा उनके खिलाफ बदले की कार्यवाही किए जाने का भय था। इतनी बड़ी संख्या में प्रवासियों के फ्रांस जाने से फ्रांस में गड़बड़ी की स्थिति पैदा हो गई। वे अल्जीरियाई सिपाही जो स्वतंत्रता युद्ध के दौर में फ्रांस के तरफ से युद्ध किए, उन्हें अल्जीरिया में हरक (Harkis) कहा जाता था। नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हरकी के खिलाफ बदले की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी। 50,000 से लेकर 1,50,000 हरकी तथा उनके परिवार को मार डाला गया। 91,000 हरकी फ्रांस भागने में सफल हुए। कालांतर में वे फ्रांस के नागरिक मान लिए गए।
राष्ट्रपति डी गॉल ने अल्जीरिया में मतदान करवाया। अल्जीरियन्स ने स्वतंत्रता का चुनाव किया। मार्च 1962 में फ्रांस की सरकार से अल्जीरिया स्वतंत्र हो गया । अहमद वेन बेला को रिहा कर दिया गया और वे अल्जारिया के पहले राष्ट्रपति बने ।

5-भारत छोड़ो आन्दोलन में नारीयों की भागीदारी का संक्षेप में विवरण करें|
Ans:-'भारत छोड़ो आंदोलन' में महिलाओं ने भारतीय स्वतंत्रता के अनुशासित सिपाही की तरह अपनी भूमिका निभाई। गांधीजी ने पिछले अहिंसक आंदोलनों की तरह महिलाओं का नमक बनाने, विद्यालयों के बहिष्कार, विदेशी व शराब की दुकानों पर घरने देने का आह्वान किया। भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं ने गरम व अहिंसक, दोनों तरीकों का प्रयोग किया। गांधीजी ने "करो व मरो' का नारा दिया और महिलाओं की विशेष भागीदारी पर जोर दिया। आंदोलन शुरू होते ही गांधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन को चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं ने स्वयं संभाल ली। महिलाओं ने व्यापक स्तर पर धरने-प्रदर्शन किये, हड़तालें की, सभाएँ की और कानून तोड़े। इन महिलाओं में असम की कबकलता बरुआ, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, पद्मजा नायडू (सरोजिनी नायडू की पुत्री), ऊषा मेहता, अरुणा आसफ अली आदि प्रमुख थीं।
ऊषा मेहता: ऊषा मेहता ने बंबई में भूमिगत होकर रेडियो की स्थापना की और जब सरकार ने सभी संचार माध्यमों पर रोक लगा दिया, तो उन्होने भूमिगत रहकर कांग्रेस रेडियो से प्रसारण किया। ऊषा मेहता की आवाज देशभक्ति व स्वतंत्राता की आवाज बन गई थी।

अरुणा आसफ अली: अरुणा आसफ अली ने सुचेता कृपलानी व अन्य आंदोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आंदोलन को आगे बढ़ाया। 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान भी आसफ अली को अपनी गतिविधियों के कारण जेल जाना पड़ा। 'भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान 9 अगस्त, 1942 को अरुणा आसफ अली ने बंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में राष्ट्रीय झंडा फहराकर आंदोलन की अगुवाई की। 1942 में अरुणा आसफ अली की सक्रिय भूमिका के कारण 'दैनिक ट्रिब्यून' ने उन्हें '1942 की रानी झाँसी' नाम दिया। 1942 के आंदोलन के दौरान ही दिल्ली में 'गर्ल गाइड' की 24 लड़कियाँ अपनी पोशाक पर विदेशी चिन्ह धारण करने और यूनियन जैक फहराने से इनकार करने के कारण अंग्रेजी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार हुईं।

इसी आंदोलन के दौरान तामलुक की 73 वर्षीय विधवा मातंग हाजरा ने गोली लगने के बावजूद राष्ट्रीय ध्वज को अंत तक ऊँचा उठाये रखा। इस आंदोलन की महत्त्वपूर्ण विशेषता ग्रामीण स्त्रियों की व्यापक सहभागिता थी। 1930 में दांडी में पुरुषों के बाद महिलाओं ने अपनी भूमिका निभाई, किंतु 1942 के आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया।

8-साम्राज्यवाद सें क्या समझतें हो ? साम्राज्यवाद के उदय के कारणों का उल्लेख करें।
Ans- पूँजीवादी देशों के द्वारा पूँजीवाद से पूर्व की अवस्था वाले देशों को जीतकर उन पर अपना अधिकार स्थापित करने की प्रक्रिया को साम्राज्यवाद (Imperialism) कहा जाता है। 

साम्राज्यवादी व्यवस्था में औद्योगिक रूप से उन्नत देश अविकसित देशों की घरेलू और विदेशी नीतियों, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर अधिकार कर लेते हैं। औद्योगिक रूप से उन्नत पूँजीवादी देश 'केन्द्रीय देश' और कम विकसित अधीन देश 'पराधीन देश' माने जाते हैं। साम्राज्यवाद की चार प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं। -
• साम्राज्यवाद के अन्तर्गत विश्व के विभिन्न देशों के मध्य उत्पाद पूँजी और लोगों की आवाजाही में तेजी से वृद्धि हुई ।
• सभी देश औद्योगिक विकास के विभिन्न स्तरों पर एक-दूसरे पर निर्भर होते थे। साम्राज्यवादी देश तकनीकी स्तर पर विकसित होते थे।
• साम्राज्यवादी देशों के भीच प्रतिस्पर्धा बनी रहती थी।
 • साम्राज्यवाद के विकास के मुख्यतः तीन चरण होते है-
• साम्राज्यवाद के प्रारम्भिक चरण में पुर्तगाल और स्पेन (आइबेरियन देश) ने विश्व के अन्य भागों में विजय करके व्यापारिक साम्राज्य स्थापित किया। परन्तु वे इंग्लैण्ड व फ्रांस के द्वारा स्थापित औद्योगिक पूँजीवाद के युग में पीछे रह गये थे।
• साम्राज्यवाद का द्वितीय चरण औद्योगिक साम्राज्यवाद का युग था। इस युग में इंग्लैंड और फ्रांस के पास सबसे अधिक उपनिवेश थे तथा उपनिवेशों के ऊपर उनका पूरा नियंत्रण था। 
°साम्राज्यवाद के तीसरे और अंतिम चरण वे देश जिनमें बाद में औद्योगिकीकरण प्रारम्भ हुआ, वे भी उपनिवेश स्थापना के दौड़ में शामिल हुए। इस युग में जर्मनी और इटली जैसे साम्राज्यवादी देश थे, जिनके पास या तो औपचारिक उपनिवेश नहीं थे, या बहुत कम थे ।
 • पूँजीवाद के विस्तार और विकास के विभिन्न चरणों के आधार पर ही साम्राज्यवाद का स्वरूप बदलता था।




















IMPORTANT MCQ




















History Most important

 short question -2023

1-क्यूबा मिसाइल संकट का क्या अर्थ है?
Ans- क्यूबा में मिसाइल ठिकानों के निर्माण को लेकर सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच 13 दिनों के युद्ध को क्यूबा मिसाइल संकट के रूप में जाना जाता है।
 (2)ट्रूमैन नीति क्या थी?
Ans-अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन द्वारा घोषित राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक सहायता के सिद्धांत को ट्रूमैन नीति कहा जाता है।
 (3) द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के प्रधानमंत्री कौन थे?
Ans- तोजो हिदेकी।

4)ताइपिंग विद्रोह कब और क्यों हुआ?
Ans- 1850-1864 में, चीन को विदेशी शासन से मुक्त करने के लिए ताइपिंग विद्रोह हुआ। 
5) किस चार्टर अधिनियम द्वारा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने एकाधिकार व्यापारिक अधिकारों को खो दिया?
Ans. 1813 का चार्टर एक्ट।
(6) वाणिज्यिक पूंजी क्या है?(What is mercantile capital?)
Ans. वाणिज्यिक पूंजी में पूंजी के बार-बार उपयोग के माध्यम से संपत्ति बढ़ाने पर जोर दिया जाता है।
7)उत्तरी वियतनाम की साम्यवादी ताकतों को किस नाम से जाना जाता था?
Ans. Viet Minh।
8) कैबिनेट मिशन भारत क्यों आया था?
Ans. डोमिनियन स्टेटस या पूर्ण स्वतंत्रता के दावों की समीक्षा के लिए। 
9)भारतीयों ने साइमन कमीशन का बहिष्कार क्यों किया?
Ans. क्योंकि साइमन कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था।
10)वाणिज्यवाद क्या है?
Ans. एडम स्मिथ ने 1776 में अपनी पुस्तक 'द वेल्थ ऑफ नेशंस' में कहा था
वाणिज्यवाद यूरोप के शक्तिशाली देशों द्वारा कच्चा माल प्राप्त करने और उन्हें बेचने के लिए बाजार पर कब्जा करने की नीति थी।

11)साहूकार किसे कहते हैं?
Ans. बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गरीब किसान जिन महाजन से उच्च ब्याज दरों पर पैसा उधार लेते थे,उन्हें साहूकार कहते थे|
12)वियतनाम को किस वर्ष लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था?
Ans. 1949 में।
13) किस देश का नारा है 'एशिया फॉर एशियन'?
Ans- जापान।
14) मार्शल योजना क्या है?
Ans. मार्शल द्वारा 5 जून, 1947 को विभिन्न यूरोपीय देशों में आर्थिक पुनरुद्धार के लिए घोषित कार्यक्रम को मार्शल योजना कहा जाता है।
15)वारसॉ पैक्ट कब और क्यों हुआ था?
उत्तर. U.S.A. NATO के सैन्य संरेखण का विरोध करने के लिए वारसा संधि 1945 में हुआ था|
(16) डिटेंट क्या था?
उत्तर. डिटेंटे फ्रेंच शब्द है जिसका अर्थ है तनाव से मुक्ति।
(17) बेन बेला कौन थे?
उत्तर. बेन बेला Algeria गणराज्य के पहला राष्ट्रपति थे।
18).कौन-सा देश स्पाइस द्वीप समूह के नाम से प्रसिद्ध था?
Ans- इंडोनेशिया के मलूकू द्वीप समूह को 'स्पाइस आइलैंड' के नाम से जाना जाता है। 
19) नई दुनिया का क्या अर्थ है?
A. 17वीं-18वीं सदी तक आते-आते स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन आदि यूरोपीय देशों ने अमेरिकी महाद्वीप में नए उपनिवेश बना लिए। इस कॉलोनी को 'नई दुनिया' कहा जाता है|
20)भारत में पुर्तगाली व्यापारिक केंद्र कहाँ विकसित हुआ?
Ans- पुर्तगालियों ने भारत में बंबई, कोचीन, बेसिन, सालसेटे, दीव, हुगली आदि में अपने व्यापारिक पदों की स्थापना की।

(21) 'दस्तक' क्या है?
Ans. मुगल बादशाह फर्रुखशियर ने 1717 ई. में भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पक्ष में एक फरमान जारी किया। इस फरमान के मुताबिक कंपनी को 3 हजार रुपये सालाना के बदले बंगाल में शुल्क मुक्त व्यापार और कुछ अन्य अधिकार मिलते हैं। यह फर्रुखियार के फरमान या 'दस्तक' के रूप में जाना जाता है।
22)1924-25 के वैकोम सत्याग्रह का नेतृत्व किसने किया था?
Ans- श्री नारायण गुरु ने 1924-25 के वैकोम सत्याग्रह का नेतृत्व किया।
23)एक सौ दिन का सुधार क्या था?
Ans. चीन के सम्राट क्वांगसू ने 1898 ई. में उस देश के सुधारकों की मांगों के अनुसार एक सुधार कार्यक्रम की घोषणा की। यह सुधार-कार्य 100 दिनों तक चलता है, इसे 'एक सौ दिन का सुधार' के नाम से जाना जाता है।
(24) रामकृष्ण मिशन की स्थापना किसने की थी?
Ans. स्वामी विवेकानंद 1897 ई. रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
(25) रौलट सत्याग्रह किसने और कब शुरू किया?
Ans. रौलट सत्याग्रह की शुरुआत गांधीजी ने 6 अप्रैल 1919 ई. को की थी। 
26) स्वेज संकट को हल करने के लिए लंदन सम्मेलन (1956)में कौन भारतीय विदेश मंत्री शामिल हुए?
Ans-स्वेज संकट के समाधान के लिए ए. कृष्ण मेनन ने लंदन सम्मेलन (1956 ई.) में भाग लिया।
27)सार्क क्या है?
Ans. दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने के लिए, इस क्षेत्र के सात देश- भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव ने
1985 में, बांग्लादेश की राजधानी ढाका में एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग संगठन की स्थापना की गई थी। इसे दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन(South Asian Association For Regional Cooperation) या सार्क (SAARC) के रूप में जाना जाता है।
28)लिनलिथगो प्रस्ताव की घोषणा कब की गई थी?
A. 1940 ई. में।
29)कौन सा अमेरिकी कमांडर सबसे पहले जापान में उतरा?
Ans- कमोडोर पेरी।
30)वेल्थ ऑफ नेशन पुस्तक के लेखक कौन हैं?
 Ans-एडम स्मिथ। 
31) भारत में सबसे पहले किन दो स्थानों के बीच रेलवे लाइन बिछाई गई थी?
Ans. बंबई से ठाणे तक।
32)यासिर अराफात कौन थे?
Ans. फिलिस्तीन के नेता।
33)वुड्स डिस्पैच क्या है?
Ans. शिक्षा नीति।
34)लखनऊ समझौता किसके बीच हुआ था?
 Ans. राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच।
 35) नौसैनिक विद्रोह किस जहाज पर शुरू हुआ था? 
Ans. तलवार नामक जहाज पर।
36)'एशिया फॉर एशियन' - इस नारे का उद्देश्य क्या था? 
Ans. एशिया को यूरोपीय शक्तियों से मुक्त करना। 
37) संलग्नक सिद्धांत क्या है?
Ans-साम्यवादी आक्रामकता के लिए अमेरिका का प्रतिरोध।
38) स्वतंत्र बांग्लादेश का उद्घाटन कब हुआ था?
Ans. 1971 ई. में।
39)आर्य समाज की स्थापना किस वर्ष हुई थी? (In which year was the Arya Samaj established?)

Ans. आर्य समाज की स्थापना 1875 ई० में हुई थी।
40)प्रार्थना समाज की स्थापना किसने की ? (Who established Prarthana Samaj?) 
Ans. आत्माराम पांडुरंग ने प्रार्थना समाज की स्थापना की।
41)'बंधुआ मजदूर' कहने से आप क्या समझते हैं? (What do you understand by “Indentured labourer"?)

Ans. उपनिवेशवाद के दौर में चीन एवं भारत से लाखों की संख्या में लोगों को चाय की बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण की योजना में काम करने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस तथा अन्य देशों में एक खास तरह के अनुबंध के तहत ले जाया जाता था, जिन्हें अनुबंधित मजदूर, कहा जाता था।

42)दलित किन्हें कहा जाता था ? (Who were known as the Dalits?) [H.S. 2015]
 Ans. भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही निचले तबके के वे लोग जो घृणित कार्यों जैसे मरे हुए जानवरों के खाल निकालना, शवों का दाह संस्कार करना इत्यादि से जुड़े हुए थे, उन्हें अस्पृष्य या दलित कहा जाता था।

43)1944 ई० के सी० आर० फार्मूला का मुख्य उद्देश्य क्या था ? (What are main objectives of C.R. Formula, 1944?)[H.S. 2018]

Ans. 1944 ई० में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच बढ़ते गतिरोध को दूर करते हुए यह सुझाव दिया कि जिन क्षेत्रों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं उन प्रांतों को लेकर पाकिस्तान के निर्माण को मंजूरी दे दी जाय। इसे ही C.R.Formula के नाम से जाना जाता है।

44)डॉ० सुकार्णो कौन थे ? (Who was Dr. Sukarno?)

Ans. डॉ० अहमद सुकर्णो इण्डोनेशिया के राष्ट्रवादियों का नेता था जो स्वतंत्र इण्डोनेशिया का प्रथम राष्ट्रपति बना।

45)आजाद हिन्द फौज के महिला रेजीमेंट की प्रमुख कौन थी ? (Who was the chief of women egiment of Azad Hind Fauj?)

Ans. कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (Laxmi Swaminathan)।

46)द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापान के प्रधान मंत्री कौन थे? (Who was the Prime Min- ister of Japan during World War II?)[H.S. 2015]

Ans. द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो हिडेकी (General Tojo Hideki) थे।

 47. उत्तरी वियतनाम की साम्यवादी वाहिनी को किस नाम से जाना जाता था ? (What were the Communist forces in North Vietnam known as?)
[H.S. 2015]

Ans. वियेत-मिन्ह (Viet Minh) के नाम से उत्तरी वियतनाम की साम्यवादी वाहिनी को जाना जाता था।

*48. कैबिनेट मिशन भारत क्यों आया? (Why did the Cabinet Mission come to India?)
[H.S. 2015]

Ans. कैबिनेट मिशन (1946 ई०) भारतीय स्वाधीनता एवं शक्ति हस्तांतरण पर भारतीय नेताओं के साथ चर्चा करने के उद्देश्य से भारत आया था।











History Most important 

MCQ question -2023

1-Who started dual government in Bengal ?
बंगाल में द्वैध शासन किसने प्रारंभ किया ?
Ans-Robert Clive( रॉबर्ट क्लाइव)
2-Who published mirat ul akhbar?
किसने मिरात उल अख़बार प्रकाशित किया?
Ans-राजा राममोहन रॉय
3-who established central hindu school at banaras?
किसने बनारस में सेंट्रल हिंदू स्कूल की स्थापना की?
Ans-Annie Besant
4-When was India's planning commission formed?
भारत के योजना आयोग का गठन कब हुआ था?
Ans-15 March 1950
5-वेल्टपोलिटिक' ('Weltpolitik')की नीति का परिचय दिया-
Ans-बिस्मार्क ने
6-Louvre संग्रहालय स्थित है-
Ans) पेरिस में/ France में
7-वारेन हेस्टिंग्स द्वारा शुरू किया गया भूमि राजस्व व्यवस्था-
Ans-एक-शाला प्रणाली और पांच-शाला प्रणाली
8-"संग्रहालय" Museum शब्द की उत्पत्ति 'मौसियन' से हुई है जो
Ans- ग्रीक शब्द है
9-'Joto Dur Mone Pore 'किसकी आत्मकथा है? -
Ans- ज्योति बसु की|
10-'व्यापार बोर्ड ( Board of Trade)का गठन किया गया था-
Ans-लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा
11-'रियलपोलिटिक'('Realpolitik' )की नीति किसने अपनाई थी?
Ans-बिस्मार्क
12-चीनी खरबूजे के विभाजन से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by cutting of Chinese melon ?)
Ans. साम्राज्यवाद के दौर में यूरोपीय शक्तियों ने एक-एक कर चीन पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया तथा अधिकृत भाग में अपने उपनिवेश स्थापित किए। इस विभाजन को ही चीनी खरबूजे के विभाजन के नाम से जानते हैं।



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