HS Hindi project (प्रगतिवादी साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ),कवि

 प्रगतिवादी साहित्य 

की सामान्य प्रवृत्तियाँ

रुढ़ियो का विरोध --



प्रगतिवादी साहित्य विविध सामाजिक एवं सांस्कृतिक रुढ़ियो एवं मान्यताओं का विरोध प्रस्तुत करता है। उसका ईश्वरीय विधान, धर्म, स्वर्ण, नरक आदि पर विश्वास नहीं है। उसकी दृष्टि में मानव महत्व सर्वोपरि है।



शोषण का विरोध



इस की दृष्टि में मानव शोषण एक भयानक अभिशाप है। साम्यवादी व्यवस्था मानव शोषण का हर स्तर पर विरोध करती है। यही कारण है कि प्रगतिवादी कवि मजदूरों, किसानों ,पीड़ितों की दीन दशा का कारूणिक खींचता है। निराला की भिक्षुक कविता में यही ईश्वर है। बंगाल के आकार का दुखद चित्र खींचे हुए निराला जी लिखते हैं:-



बाप बेटा भेचता है भूख से बेहाल होकर ।



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शोषण कर्ताओं के प्रति घृणा का स्वर:-



प्रगतिवादी कविता में पूंजीवाद व्यवस्था को बल प्रदान करने वाले लोगों के प्रति घृणा का स्वर है। 'दिनकर' का आक्रोश भरा स्वर देखिए -



श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं



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क्रांति की भावना :-



वर्गहीन समाज की स्थापना प्रगतिवाद का पहला लक्ष्य है इसलिए वह आर्थिक परिवर्तनों के साथ सामाजिक मान्यताओं में भी परिवर्तन की अपेक्षा करता है। इसके लिए भाई क्रांति का आवाहन करता है। जीर्ण - शीर्ष रुढ़िय हमेशा के लिए समाप्त हो जाए।


मार्क्सवाद का प्रचार:-



प्रगतिवाद साहित्यकार जीवन के भौतिक पक्ष का उत्थान करना चाहते हैं इसलिए मानवता के प्रतिष्ठा उनका मूल लक्ष्य है। सामाजिकता की प्रधानता के कारण प्रगतिवादी जीवन की स्थूल समस्याओं का विवेचन साहित्य में करते हैं।



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नारी भावना:-



प्रगतिवादी कवियों का विश्वास है कि मजदूरों और किसानों की तरह साम्राज्यवादी समाज में नारी भी शोषित हैं। वह पुरुष की दासता जन्य लौह श्रृंखला बंदिनी है।

प्रगतिवादी कवि नरेंद्र शर्मा ने वेश्या के प्रति सहानुभूति जताते हुए लिखा है --



गृह सुख से निर्वासित कर दो,हाय मानवी बनी सर्पिणी।



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यथार्थ चित्रण:-



लौकिक और यथार्थ धरातल पर स्थित होने के कारण प्रगतिवाद जनजीवन कैसे क्या है। सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण प्रगतिवाद में दो धरातल पर प्रकट हुआ है।- सामाजिक जीवन का यथार्थ, चित्रण और सामान्य प्राकृतिक परिवेश का चित्र। डॉ नामवर सिंह के अनुसार---



सामाजिक यथार्थ दृष्टि प्रगतिवाद की आधारशिला है।



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समसामयिक चित्र:-



प्रगतिवादी कवियों में देश विदेश में उत्पन्न समसामयिक समस्या और घटनाओं की अनदेखी करने की दृष्टि नहीं है। संप्रदायिक समस्याओं, भारत पाकिस्तान विभाजन, कश्मीर समस्या, बंगाल का अकाल, बाढ़, अकाल, दरिद्रता, बेकारी, चरित्र हीनता, आदि का कवियों ने बड़े पैमाने पर चित्रण किया है।



इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रगतिवादी साहित्य जीवन के भौतिक पक्ष का उत्थान करना चाहते हैं। 


प्रगतिवादी साहित्य के 4 कवि


1-नागार्जुन का व्यक्तित्व एवं कृतित्व


 नागार्जुन के जन्म के सन्दर्भ में विभिन्न भ्रान्तियाँ विद्यमान हैं | किन्तु पूर्ण रूपेण स्वीकृत किया गया है कि नागार्जुन का जन्म 11 जून सन्‌ 1911 ज्येष्ठ मास को उनके ननिहाल ‘सतलखा’ गाँव जिला मधुबनी में हुआ था। बचपन में ही चार पुत्रों के काल कवलित हो जाने के बाद उनके पिता ने रावणेश्वर वैद्‌यनाथ (महादेव) से संतान की याचना की थी, अतः उनका जन्म नाम ‘वैद्‌यनाथ’ मिश्र रखा गया जो लगभग 25 वर्षों तक किसी न किसी रूप में उनसे जुड़ा रहा | बाबा नागार्जुन ने स्वेच्छापूर्वक ‘यात्री’ नाम का चयन अपनी मैथिली रचनाओं के लिए किया था। इसी ‘यात्री’ उपनाम का प्रयोग सन्‌ 1942-43 तक अपनी हिन्दी रचनाओं के लिए भी किया। अपने श्रीलंकायी प्रवास में बौद्ध धर्मांवलंबी होने के पश्चात्‌ सन्‌ 1936-37 में उनका ‘नागार्जुन’ नामकरण हुआ।


सोच और स्वभाव से कबीर एवं देश-दुनिया के खट्टे – मीठे अनुभवों को बटोरने वाले यायावर की तरह जीवन-यापन करने वाले बाबा बैद्यनाथ मिश्र मैथिली में ‘यात्री’, हिन्दी में ‘नागार्जुन’ के अलावा साहित्य में अन्य नामों से भी जाने जाते है। जैसे संस्कृत में ‘चाणक्य’, लेखकों, मित्रों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं में ‘नागाबाबा’।

नागार्जुन का व्यक्तित्व

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का आंकलन बाह्य एवं आंतरिक इन्ही दो पहलुओं के आधार पर उसका किया जाता है। इस असाधारण रचनाकर का बाह्य व्यक्तित्व अत्यंत ही साधारण था। उनके बाह्य व्यक्तित्व के बारे में डॉ. प्रकाशचन्द्र भट्ट ने कहा है कि-


“दुबला – पतला शरीर, मोटे मोटे खद्दर का कुर्ता, पायजामा, मझोला कद, आँखों पर चश्मा, पैरों में चप्पलें, चेहरे पर उत्साह और पीडित़ वर्ग के प्रति व्यथा की मिलती – जुलती प्रतिक्रिया के भाव नागार्जुन हैं |”


साधारण बाहरी व्यक्तित्व वाले बाबा नागार्जुन का आंतरिक व्यक्तित्व बहुत ही आसाधारण था | उनकी स्स्दगी ही उन्हें आसाधारण बना देती थी | उनकी दैनिक आवश्यकताएं भी बेहद सीमित थीं, फिर भी वे मस्ती भरा जीवन जीते थे | अपनी ममत्व भावना, दूसरों को कष्ट न पहुचानें की प्रवृत्ति एवं आत्मसंतोष के कारण वे किसी को भी अपने परिवार के बुजुर्ग लगते थे।


“उनका समूचा जीवन एक झोले में रहता था, कापी, पेन, एक – दो छोटी डिबियायें, गमछा, एक पायजामा, अलीगढ़ कट जो सफेद न होकर कुछ बदरंगीपन लिए होता था। कुर्ता भी मोटी खादी का। दो – चार दिन कहीं निकल जाते और जब लौटते तो बस वही झोला कांधे पर चिपका रहता।”

 – यतीन्द्रनाथ गौड़


नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् 1936 में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया।[12][13] आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर १९४१ ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।[14]


नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो १९२९ ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो १९३४ ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।[15]


नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी 1978 ई० में शुरू किया और सितंबर 1979 ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं।कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक।मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे 1948 ई० में ही कर चुके थे।वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था।१९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से १९६४ ई० में प्रकाशित हुई थी।


प्रकाशित कृतियाँ

संपादित करें

कविता-संग्रह-

युगधारा -१९५३

सतरंगे पंखों वाली -१९५९

प्यासी पथराई आँखें -१९६२


प्रबंध काव्य-

भस्मांकुर -१९७०

भूमिजा

उपन्यास-

रतिनाथ की चाची -१९४८

बलचनमा -१९५२

नयी पौध -१९५३

बाबा बटेसरनाथ -१९५४

वरुण के बेटे -१९५६-५७


संस्मरण-

एक व्यक्ति: एक युग -१९६३

कहानी संग्रह-

आसमान में चन्दा तैरे -१९८२



2-रामधारी सिंह दिनकर का

 व्यक्तित्व एवं कृतित्व

राष्ट्रकवि दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के सिमिरिया ग्राम में 23 सितंबर 1908 को हुआ। इनके पिता श्री रवि सिंह एक साधारण किसान थे, तथा इनकी माता का नाम मनरूप देवी था जो अशिक्षित व सामान्य महिला होने के बावजूद, जीवट व गंभीर साहसिकता से युक्त थीं। पटना विश्वविद्यालय से बी.ए ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात दिनकर नें पहले सब-रजिस्ट्रार के पद पर और फिर प्रचार विभाग के उप-निदेशक के रूप में कुछ वर्षों तक सरकारी नौकरी की। इसके बाद इनकी नियुक्ति मुजफ्फरपुर के लंगट सिह क़ॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक के रूप में हुई। दिनकर की जीवटता न केवल उनके कृतित्व में अपितु व्यक्तित्व में भी दृष्टिगोचर होती है। अपनी नौकरी के पहले चार वर्षों में ही अंग्रेज सरकार नें उन्हें बाईस बार स्थानांतरित किया। उनके पीछे अंग्रेज गुप्तचर लगे रहते थे, उनपर नौकरी छोडने का दबाव बनाया जाता रहा। दिनकर तो भारत की अंधकार में खोई आत्मा को ज्योति प्रदान करने के लिये कलम की वह लडाई लडने को उद्यत थे जिससे सारे राष्ट्र को जागना था। वे स्वयं दृढ रहे, जितनी सशक्तता से उन्होंने आशावादिता का दृष्टिकोण दिया कि:


वह प्रदीप जो दीख रहा है, झिलमिल दूर नहीं है

थक कर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं


सन 1952 में इन्होंने संसद सदस्य के रूप में राजनीति में प्रवेश किया। कुछ समय तक वे भागलपुर विश्वविद्यालय के उप-कुलपति भी रहे। भारत सरकार नें उन्हें “पद्मभूषण” की उपाधि से सम्मानित किया। भारत सरकार के गृह-विभाग के अंतर्गत हिन्दी सलाहकार के दायित्व का भी उन्होंने दीर्घकाल तक निर्वाह किया। उनका देहावसान 24 अप्रैल 1974 में हुआ।


रामधारी सिंह का उपनाम ‘दिनकर’ था। दिनकर आशावाद आत्मविश्वास और संघर्ष के कवि रहे हैं। आरंभ में उनकी कविताओं में क्रमश: छायावाद तथा प्रगतिवादी स्वर के दर्शन होते हैं। शीघ्र ही उन्होंने अपनी वांछित भूमिका प्राप्त कर ली और वे राष्ट्रीय भावनाओं के गायक के रूप में विख्यात हुए। दिनकर की रचनायें प्रबंध भी हैं और मुक्तक भी, दोनों ही शैलियों में वे समान रूप से सफल हुए हैं। डॉ. सावित्री सिन्हा के शब्दों में दिनकर में “क्षत्रिय के समान तेज, ब्राह्मण के समान अहं, परशुराम के समान गर्जन तथा कालिदास की कलात्मकता का अध्भुत समंवय था”। दिनकर अपने आप को ‘जरा से अधिक देशी सोशलिस्ट” कहा करते थे। गाँधीवाद के प्रति आस्थावान रहते हुए भी वे नपुंसक अहिंसा के समर्थक नहीं थे। रामवृक्ष बेनीपुरी कहते हैं “दिनकर इंद्रधनुष है जिस पर अंगारे खेलते हैं”।


रामधारी सिंह दिनकर की कविता का मूल स्वर क्रांति, शौर्य व ओज रहा है। उनकी कविता में आत्मविश्वास, आशावाद, संघर्ष, राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति आदि का ओजपूर्ण विवरण मिलता है। जनमानस में नवीन चेतना उत्पन्न करना ही उनकी कविताओं का प्रमुख उद्देश्य रहा है। उनकी कविताओं की विशेषता यथार्थ कथन, दृढतापूर्वक अपनी आस्था की स्थापना तथा उन बातों को चुनौती देना है, जिन्हे वे राष्ट्र के लिये उपयोगी नहीं समझते थे। भारतीय संस्कृति के प्रति उनके इसी अगाध प्रेम नें उन्हें राष्ट्र कवि के रूप में प्रतिष्ठा दिलायी।

रेणुका, द्वंद्वगीत, हुँकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, नीलकुसुम, परशुराम की प्रतीक्षा, धूपछाँह आदि दिनकर की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। एक कवि से पृथक भी दिनकर को गद्यकार एवं बालसाहित्यकार के रूप में जाना जाता है। दिनकर की गद्य रचनाओं में उजली आग (गद्य- काव्य), संस्कृति के चार अध्याय (संस्कृति इतिहास), अर्ध-नारीश्वर, मिट्टी की ओर, रेती के फूल, पंत प्रसाद और निराला (निबंध व आलोचना) आदि प्रमुख हैं। बाल साहित्य में चित्तौड का साका, सूरज का व्याह, भारत की सांस्कृतिक कहानी, धूप छाँह, मिर्च का मजा आदि प्रमुख हैं।


मूलरूप से दिनकर ओजस्वी अभिव्यक्ति के अमर कवि है। दिनकर की भाषा विषय के अनुरूप है जिसमें कहीं कोमलकांत पदावली है तो कहीं ओजपूर्ण शब्दों का प्रयोग मिलता है। भाषा में प्रवाह लाने के लिये उन्होंने उर्दू-फारसी तथा देशज शब्दों का भी प्रचुर प्रयोग किया है। दिनकर की रचनाओं के सामाजिक सरोकारों से आन्दोलित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। एक ओर जहाँ जातिवाद का विरोध करते हुए वे लिखते हैं:-


जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर

पाते हैं सम्मान तपोबल से धरती पर शूर...


वही दूसरी ओर उनका आक्रोश क्रांति के लिये पृष्ठभूमि भी तैयार करता है:-



श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं

माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाडों में रात बिताते हैं

युवती के लज्जा वसन बेच, जब व्याज चुकाये जाते हैं

मालिक जब तेल-फुलेलो पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं

पापी महलों का अहंकार, देता तुझको तब आमंत्रण..


दिनकर विवशता को भी प्रस्तुत करने से नहीं चूकते:-


जहाँ बोलना पाप वहाँ गीतों में क्या समझाउं मैं?


3-सुमित्रानंदन पंत 

का व्यक्तित्व एवं कृतित्व

महा कवि सुमित्रानंदन पंत जी एक ऐसे कवि माने जाते हैं, जिनके बिना हिंदी साहित्य का विकास अधूरा माना जाता है। सुमित्रानंदन पंत जी हिंदी साहित्य के महान कवि थे। सुमित्रानंदन पंत जी ने हिंदी साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।


महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी के जन्म स्थान कौसानी अत्यधिक खूबसूरत गांव था। वह एक ऐसा गांव था, जहां पर प्रकृति के द्वारा लोगों को घनघोर प्रेम प्राप्त होता था।


ऐसे ही महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी को भी इस घनघोर प्रकृति का यथार्थ प्रेम मिला, जिसके कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में अधिकतर झरने, बर्फ, पुष्प, उषा, किरण, लता, भ्रमण गुंजन, शीतल पवन, तारों इत्यादि का उपयोग करके अपनी रचनाओं को अत्यधिक प्रभावशाली बनाया।सुमित्रानंदन पंत जी के बचपन का नाम गोसाई दत्त था।

सुमित्रानंदन पंत जी को अपना यह नाम अच्छा नहीं लगता था, इसलिए उन्होंने अपना नाम स्वयं से बदलकर के सुमित्रानंदन पंत रख लिया। सुमित्रानंदन पंत जी इतने विद्वान थे कि उन्होंने लगभग 7 वर्ष की उम्र से ही कविताएं लिखना प्रारंभ कर दिया है।



महा कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने अपनी स्नातक तक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सत्याग्रह आंदोलन के समय सुमित्रानंदन पंत जी ने महात्मा गांधी का साथ देने लगे। जब से महा कवि सुमित्रानंदन पंत जी महात्मा गांधी के साथ सत्याग्रह आंदोलन से जुड़ गए, उसके बाद उन्होंने कभी भी अपनी पढ़ाई को आगे नहीं बढ़ाया। परंतु इसके विपरीत उन्होंने घर पर से ही हिंदी, संस्कृत, बंगाली इत्यादि साहित्य का अध्ययन किया।


सुमित्रा नंदन पंत जी की मुख्य रचनाएं


युगवाणी (1938)


कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने अपनी यह अपनी यह कृति प्रगतिवाद से प्रभावित होकर लिखी है।


वीणा, (1919)


महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी ने अपने इस काव्य संग्रह में कुदरत की अद्भुत सौंदर्यता का चित्रण, कुछ गीतों के माध्यम से किया है।


लोकायतन, (1964) –


सुमित्रानंदन पंत जी का यह प्रसिद्ध महाकाव्यों में से एक है, इस महाकाव्य में कवि ने अपने दार्शनिक एवं सांस्कृतिक विचारधारा अभिव्यक्त की है। इसमें कवि ने ग्राम्य जीवन की दशा को समझते हुए संवेदना प्रकट की है, और सामान्य जन भावना को भी स्वर प्रदान किया है।


पल्लव (1926) –


हिन्दी साहित्य के महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने इसमें खुद को एक छायावादी कवि के रुप में स्थापित किया है। इसके अलावा इसमें उन्होंने अपने प्रकृति के प्रति प्रेम एवं उसकी खूबसूरती का बखान किया है।


ग्रंथी (1920) –


हिन्दी साहित्य के महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी ने अपने इस काव्य संग्रह में कुदरत को माध्यम बनाकार अपने वियोग-व्यथा को व्यक्त किया है।


गुंजन (1932) –


अपनी इस रचना में भी महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी ने अपने कुदरती प्रेम और इसकी अद्भुत छटा का खूबसूरत तरीके से वर्णन किया है।


ग्राम्‍या, (1940) –


महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी ने अपनी इस रचना को समाजवाद और प्रगतिवाद से प्रभावित होकर लिखा है। दलित -पीड़ितों के प्रति कवि ने अपनी इस रचना में संवेदना प्रकट की है।


युगांत (1937)–


महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी की इस रचना में भी समाजवाद का प्रभाव साफ दिखता है।


4-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

का व्यक्तित्व एवं कृतित्व


हिन्दी साहित्य की विरल विभूतियों में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला गणनीय है। उन्होंने अपने जीवन का कण-कण मां भारती के पद पदों में निष्काम भाव से समर्पित कर दिया था। छाया वादी युग के स्तम्भ होने पर भी उनकी आत्मा संतवत थी । यदि विद्रोही और फक्कड़ स्वभाव की दृष्टि से उनकी समता किसी से की जा सकती है तो केवल संत कबीर से ही। जिस प्रकार कबीर लकुटी हाथ में लेकर बाजार में आ खड़े हुए थे और अपने साथ चलने वालों से घर फूंकने की आशा रखते थे, उसी प्रकार निराला भी समाजिक दृष्टि से विपन्न और सर्वहारा कोटि के प्राणी थे ।


उनके मानस पर पत्नी के असामायिक निधन का वियोग जन्य प्रभाव पड़ा था । उन्होंने शून्य में निहारते हुए जूही की कली कविता लिखी जो कल्पना बेग को ग्रहण कर भावभिव्यक्ति में समर्थ हुई। जूही की कली आज हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक एवं साहित्यिक महत्व वाली रचना मानी जाती है जिसमें केवल रचयिता की शाक्ति का ही आभास नहीं वरन उस युग के भावी परिवर्तन का भी संकेत दिया है।


निराला के जीवन की गतिविधि का दिग्दर्शन उनकी सरोज स्मृति कविता से होता है । विवाहित पुत्री की उपयुक्त चिकित्सा के अभाव से निधन होने पर उनकी स्मृति को सजीव करने के लिए उन्होंने जो काव्य रचना लिखी है वह उसका आत्म चरित्र बन गई है। इस कविता के आरम्भ में उन्हें पिता होने की निरर्थकता की अनुभूति होती है और वह पुत्री के लिए कुछ भी न कर पाने पर आत्मग्लानि के साथ लिखेंगे:


‘धन्ये मैं पिता निरर्थक था

कुछ भी तेरे हित कर न सका।’


निराला का शैशव बंगाल में व्यतीत हुआ था और प्रारम्भिक शिक्षा भी बंगला भाषा में हुई थी। हिन्दी सीखने की प्रेरणा उन्हें अपनी पत्नी से मिली। उन्होंने स्वयं लिखा है श्रीमती जी समझती थी कि मैं और चाहे कुछ और होऊं किंतु हिन्दी का पूरा गंवार हूं और फिर भला कौन पति अपनी पत्नी के आगे गंवार बनना पसंद करेगा ? फलत: उन्होंने अपनी पत्नी से न केवल हिन्दी ही सीखी अपितु उसमें काव्य रचना कर उस भाषा पर अपना अधिकार भी प्रभावित कर दिया । उनकी रचनाओं में ग्राम्य जीवन के प्रति उनकी तीव्र आसक्ति का भी दर्शन होता है। 


निराला जी भारतीय संस्कृति से ओत प्रोत थे । उन्हें अपने अतीत पर बड़ा गर्व था । सुप्त भारतवासियों के अपनी विस्मृत वीरता का एहसास कराने हेतु उन्होंने ‘जागो फिर एक बार’ लिखा था ।


निराला ने १९२० ई॰ के आसपास से लेखन कार्य आरंभ किया।[7][8] उनकी पहली रचना 'जन्मभूमि' पर लिखा गया एक गीत था।[7] लंबे समय तक निराला की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध 'जूही की कली' शीर्षक कविता, जिसका रचनाकाल निराला ने स्वयं १९१६ ई॰ बतलाया था, वस्तुतः १९२१ ई॰ के आसपास लिखी गयी थी तथा १९२२ ई॰ में पहली बार प्रकाशित हुई थी।[9][10] कविता के अतिरिक्त कथासाहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला ने प्रभूत मात्रा में लिखा है।


प्रकाशित कृतियाँ

काव्यसंग्रह

अनामिका (१९२३)

परिमल (१९३०)

गीतिका (१९३६)

अनामिका (द्वितीय) (१९३९)[11] (इसी संग्रह में सरोज स्मृति और राम की शक्तिपूजा जैसी प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है।

तुलसीदास (१९३९)

कुकुरमुत्ता (१९४२)

अणिमा (१९४३)

बेला (१९४६)

नये पत्ते (१९४६)

अर्चना(१९५०)

आराधना (१९५३)

गीत कुंज (१९५४)

सांध्य काकली

अपरा (संचयन)

उपन्यास

अप्सरा (१९३१)

अलका (१९३३)

प्रभावती (१९३६)

निरुपमा (१९३६)

कुल्ली भाट (१९३८-३९)

बिल्लेसुर बकरिहा (१९४२)

चोटी की पकड़ (१९४६)

काले कारनामे (१९५०) {अपूर्ण}

चमेली (अपूर्ण)

इन्दुलेखा

तकनीकी

कहानी संग्रह

लिली (१९३४)

सखी (१९३५)





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