HS Hindi Sahitya ka Itihaas notes
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Sahitya ka
Itihaas notes
Vvi***1)खड़ी बोली हिन्दी के विकास का संक्षेप में वर्णन कीजिए।[H.S. 2015, 2017 ]
उत्तर - साहित्य की भाषा का निर्माण सदैव बोलचाल की सामान्य भाषा में होता है। ब्रज भाषा का जो काव्य सर्जना में व्यवहृत हुआ, वह बोलचाल से प्रसूत हुआ, परन्तु निरन्तर कविता में ही परिमित रहने के कारण उसमें एक प्रकार की अगतिशीलता प्रवेश कर गई जिसके कारण भाषा का स्वच्छ प्रसार अन्य विषयों तक न बढ़ सका। 'खड़ी बोली' हिन्दी की एक उप बोली है जिसकी उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश (पश्चिमी हिन्दी) से हुई है। आठवी और नौवीं शताब्दी में ही खड़ी बोली पश्चिमी युक्तप्रान्त के व्यवहार एवं बोलचाल की भाषा थी। उस स्थान से क्रमश: मुसलमानों के प्रसार के साथ ही यातायात की अनुकूलता के अनुरूप यह इधर-उधर फैलने लगी और कालान्तर में समस्त उत्तर भारत की शिष्ट भाषा बन बैठी और आज इसने जन-जन की राष्ट्र वाणी का रूप धारण कर लिया है।
खड़ी बोली अपने प्रारम्भिक काल में ग्राम्य गीतों और दिल्ली तथा मेरठ के आस-पास बोली जानेवाली जनसाधारण की बोलचाल की भाषा थी। खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक भोज के समय से लेकर हम्मीर देव के समय तक अपभ्रंश काव्यों के अनेक पदों में मिलती है। सर्वप्रथम सारंगधर की रचना 'प्राकृत पैगल्भ', अब्दुल रहमान कृत 'संकेत रासक' और पं. दामोदर द्वारा लिखित 'उक्ति प्रकरणम्' आदि अपभ्रंश की रचनाओं में हमें इसका प्रतिविम्ब मिलता है।
संवत् 1572 के आस-पास गंग कवि ने 'चन्द छन्द वरनन की महिमा' खड़ी बोली में लिखी। इसके पहले खड़ी बोली में कोई रचना नहीं मिलती। उदाहरणार्थ सिद्धि श्री 108 श्रीश्री पातसाहजी श्री दलपति जी अकबर साहजी आमरवास में तखत ऊपर विराजमान रहें।" इसके पश्चात् संवत् 1818 में मध्य प्रदेश के दौलत राम ने 'जैन पद्य पुराण' का भावानुवाद किया। वहाँ की प्रचलित खड़ी बोली का प्रयोग इसमें पंडिताऊ शैली में हुआ है।
भाषा विकास की दृष्टि से खड़ी बोली अपभ्रंश से विकसित एक बोली थी। एक बोली के कुछ शब्द अपभ्रंश की रचनाओं के अलावा हिन्दी साहित्य के आदिकाल की रासो रचनाओं में देखे जा सकते हैं। उस समय के फारसी के प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरों की रचनाओं में खड़ी बोली के शब्दों की प्रचुरता है। उदाहरणार्थ -
एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा। चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे॥
ग्यारहवीं सदी से चौदहवीं सदी तक के नाथपंथियों तथा सिख गुरुओं एवं उनके अनुयायियों ने खड़ी बोली का उपयोग अपने धार्मिक उपदेशों के लिए किया है। 12वीं सदी के संत नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि ने उत्तर भारत में अपने धर्म के प्रचार के लिए खड़ी बोली को अपनाया। भक्तिकालीन कवि सूर, मीरा तथा रहीम की रचनाओं में भी खड़ी बोली के शब्द मिलते हैं। रीतिकालीन कवि घनानन्द की रचनाओं में भी खड़ी बोली का आभास मिलता है। अतः उत्तर भारत में जन्मी खड़ी बोली इस क्षेत्र में व्याप्त वैष्णव आन्दोलन के कारण साहित्यिक प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त नहीं हुई और सुदूर दक्षिण में साहित्य की पद्य और गद्य दोनों विधाओं में अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति क्षमता का पूरा पूरा परिचय दिया।
18वीं शदी में महामहोपाध्याय वररुचि ने बंगला लिपि में पत्र व्यवहार की शिक्षा देने के लिए 'पत्र कौमुदी' नामक एक पुस्तक लिखी। इसमें खड़ी बोली के पत्रों के उदाहरण दिए गए हैं। सन् 1800 में इंशा अल्ला खाँ ने 'रानी केतकी की कहानी' लिखी। इससे नये युग के नये विज्ञान, नये मानव मूल्य, बौद्धिकता आदि का प्रवेश जीवन में हुआ। युग चेतना के बदलते तेवर एवं ईसाई धर्म प्रचारक पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रेस के कारण खड़ी बोली ने युग सापेक्षता के अनुकूल तथा अनुरूप ढलना-संवरना प्रारम्भ कर दिया।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में खड़ी बोली जनता की बोली थी। इस बोली में साहित्य की रचना से देश को अधिक लाभ हो सकता था अतः अंग्रेजों ने हिन्दी पढ़ने और समझने की आवश्यकता महसूस किया। उन्होंने फोर्ट विलियम के मदरसे में उर्दू के अतिरिक्त खड़ी बोली (हिन्दी भाषा) के अध्ययन और अध्यापन का प्रबन्ध किया। फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट ने हिन्दी में विषयगत पुस्तकों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया। उसने कुछ भाषा-मुन्श्यिायों की नियुक्ति की भाषा मुन्शियों में श्री लल्लू लालजी और सदल मिश्र प्रमुख थे। इन्होंने खड़ी बोली (हिन्दी भाषा) में स्वतंत्र रूप से स्वान्तः सुखाय गद्य साहित्य की रचना की। आगे चलकर दिल्ली निवासी मुन्शी सदामुन लाल और ईशा अल्ला खाँ ने जान मिलक्राइस्ट की प्रेरणा से खड़ी बोली में अपनी गद्य रचनाएं लिखो। जिसमें खड़ी बोली गद्य का प्रारम्भ अंग्रेजी की प्रेरणा से हुआ, उचित नहीं है, क्योंकि मिलाइस्ट के हिन्दी पुस्तक लिखवाने के पूर्व ईशा अल्ला खाँ और मुंशी सदासुख लाल अपनी गद्य रचनाएँ खड़ी बोली में प्रस्तुत कर चुके थे। इनके अतिरिक्त खड़ी बोलों गद्य के प्रारम्भिक लेखकों में राजा शिवप्रसाद 'सतारे हिन्दा राजा सिंह के नाम भी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि हिन्दी को विभिन्न बोलियों में उसका गद्य साहित्य विकसित हुआ किन्तु इन बोलियों में खड़ी बोली का प्रभाव विशेष रूप से परिलक्षित होता है। आज अनेक साहित्यकार खड़ी बोली में गद्य एवं पक्ष विधा को अपनी रचना कौशल से निखारने, सँवारने, सजाने एवं परिष्कृत करने में संलग्न हैं। प्रारम्भिक खड़ी बोली में गद्य लिखने का श्रेय चार लेखकों को मिलना चाहिए। इनके नाम ईशा अल्ला खाँ, मुशी सदासुखलाल, लल्लू लालजी और सदल मिश्र हैं। इनमें से प्रथम दो ने स्वतंत्र रूप से गद्य साहित्य की रचना की। अन्तिम दो ने कलकता के फोर्ट विलियम कॉलेज में जॉन गिलक्राइस्ट के कथनानुसार अपनी गद्य-रचनाएँ लिखीं। इनके अतिरिक्त राजा शिवप्रसाद तथा राजा लक्ष्मण सिंह के नाम भी गौरव के साथ लिए जाते हैं।
Vi**2)खड़ी बोली हिन्दी के विकास के किन्हीं दो प्रमुख कारणों को लिखिए। [H.S. 2020]
उत्तर : भूमिका - आजकल जिसे हिन्दी कहा जाता है वह खड़ी बोली का विकसित रूप है। इसके वर्तमान मानक स्वरुप का विकास 19वीं शताब्दी में हुआ है परन्तु इसका आरम्भिक रूप 10वीं शताब्दी में ही दिखाई देने लगा था। 14वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में पहेलियाँ रचकर साहित्य लेखन का श्री गणेश कर दिया था। अमीर खुसरों ने खड़ी बोली का प्रयोग करना आरम्भ किया और उसमें कुछ कविताओं की रचना की जो सरल तथा सरस होने के कारण शीघ्र ही प्रचलित हो गयीं।
उत्तर भारत की इस खड़ी बोली को मुसलमान शासक जब दक्षिण भारत गये तो वे इस खड़ी बोली को भी अपने साथ ले गये और इसका प्रयोग बोल-चाल के रूप में करने लगे। सरल होने के कारण इसका प्रयोग बोल-चाल में अधिक होने लगा।
19वीं और 20वीं शताब्दी में जन सम्पर्क की सशक्त भाषा होने के कारण खड़ी बोली का विकास हुआ। ज्ञान विज्ञान और जन सम्पर्क को एक गद्य भाषा की आवश्यकता थी जबकि ब्रज, मैथिली और अवधि काव्य भाषाएँ थी अतः खड़ी बोली के विकास का मार्ग स्वयं प्रशश्त हो गया और इसे ज्ञान का वाहन बनाने के लिए स्वभाविक रूप से चुना गया।
उन्हीं दिनों भारत में छापेखाने का आगमन हुआ राजनीतिक चेतना का उदय हुआ, पत्र-पत्रिकाओं का उद्भव और प्रसार हुआ, लोकतंत्रात्मक भावनाओं का जन्म हुआ जनजागरण का वातावरण बना, शिक्षा का विकास हुआ परिणाम स्वरूप खड़ी बोली देश में प्रसारित हो गयी और यह राष्ट्रीय एकता का भी पर्याय बन गयी ।
खड़ी बोली को लोकप्रिय बनाने में भारतेन्दु हरिचन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द आदि साहित्यकारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वानों ने इसे व्याकरण शुद्ध मानक रूप दिया। सौभाग्य से स्वामी विवेकानन्द, दयानंद, बालगंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस आदि महापुरुषों ने भी हिन्दी के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना और देशप्रेम की भावना को जगाया। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में खड़ी बोली हिन्दी ही राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने में अग्रणी रही। उपर्युक्त कारणों से हिन्दी खड़ी बोली का देश में चारों तरफ, सम्पर्क भाषा के रूप में विकास हुआ। अतः सन् 1949 ई० में इसे संविधान में राजभाषा का गौरवशाली सम्मान प्रदान किया गया।
***(3) प्रगतिवादी साहित्यकार के रूप में 'दिनकर' के साहित्यिक अवदानों का उल्लेख कीजिए।[H.S.2015, 2019]
उत्तर- 'दिनकर' की काव्यगत विशेषताएँ :
छायावादी घटाटोप को विदीर्ण कर हिन्दी साहित्य के गगन में जिस नये सूर्य का उदय हुआ उसे हिन्दी जमत में रामधारी सिंह 'दिनकर' के नाम से जाना जाता है। समय की उग्र राष्ट्रीय चेतना से प्रेरित होकर काव्य जगत में पदार्पण करने वाले महाकवि 'दिनकर' सदैव युग चेतना के साथ चलते रहे। उन्होंने छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद और नयी कविता के मूल स्वर को पहचानते हुए साहित्य का सृजन किया और अपनी प्रतिभा के बल पर 'युग प्रतिनिधि' या 'युग चारण' के पद पर प्रतिष्ठित हुए। 'दिनकर' का भावलोक अत्यन्त विस्तृत और व्यापक है जिसमें जीवन के समस्त उदात्त पक्ष समाहित हैं। निःसन्देह वे 'राष्ट्रकवि' कहलाने के अधिकारी हैं। उनकी निम्नलिखित काव्यगत विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं:-
1. देशव्यापी राष्ट्रीयता और देशप्रेम की अभिव्यक्ति:- महाकवि 'दिनकर' के काव्य में उत्कट राष्ट्रीयता और उज्ज्वल देशप्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। उनके काव्य में देश के गौरवशाली अतीत का गान और राष्ट्रीय जागरण का स्वर मुखर है। अनेक अन्धविश्वासों और सामाजिक रूढ़ियों में जकड़े भारत देश की दुर्दशा उनके पौरुष को ललकारती है और वे हुकार कर उठते हैं-
फेंकता हूँ लो तोड़ मरोड़, अरी निष्ठुरे ! बीन के तार उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख, पूँकता हूँ भैरव हुंकार ।। नहीं जीते जी सकता देख, विश्व में झुका तुम्हारा भाल। वेदना मधु का भी कर पान, आज उगलूँगा गरल कराल ।।
2. क्रांति और विद्रोह का स्वर:- 'दिनकर' जी का हिन्दी काव्य जगत में प्रवेश क्रांति और विद्रोह के तीव्र स्वर के साथ हुआ था। उनकी कविताओं में क्रांति और विद्रोह का यह स्वर आरंभ से लेकर अंत तक है। रूढ़ियों के प्रति विराट विद्रोह दिनकर की प्रत्येक पंक्ति में व्यक्त हुआ है। वे सड़े-गले समाज को क्रांति के द्वारा बदल डालना चाहते हैं, इसलिए कहते हैं
क्रांतिधात्रि! कविते ! जाग उठ आडम्बर में आग लगा दे । पतन, पाप, पाखण्ड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे ।।
3. शोषण के विरुद्ध आवाज - पीड़ित मानवता और दलित समाज के प्रति गहरी सहानुभूति 'दिनकर' जी के सम्पूर्ण काव्य में व्याप्त दिखाई देती है। समाज में फैले शोषण का उन्होंने तीव्र स्वर में प्रतिवाद किया है। मजदूरों, किसानों और सर्वहारा दलित वर्ग के प्रति उनकी करुणा की गंगा अबाध रूप से प्रवाहित हुई है। समाज में व्याप्त आर्थिक वैषम्य और शोषण को देखकर उनका पौरुष दहाड़ उठता है|
4. पुराण और इतिहास से प्रेरणा:- इतिहास के छात्र होने के कारण 'दिनकर' जी ने उससे सार्थक प्रेरणा ली है। उन्होंने इतिहास के स्वर्णिम प्रसंगों का चित्र खींचकर वर्तमान को जाग्रत और ज्वलन्त करना चाहा है। इसी प्रकार पौराणिक प्रसंगों से प्रेरणा लेकर उन्होंने 'रश्मिरथी', 'कुरुक्षेत्र' और 'उर्वशी' जैसे काव्य-ग्रंथों का निर्माण करके आधुनिक युग की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास किया है। 'कर्ण' का युगानुरूप चित्रण करते हुए कवि ने लिखा है
मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे। पूछेगा जग किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे ।।
5. विचार एवं भावना का समन्वय - 'दिनकर' जी के काव्य में विचार और भावना का सुन्दर समन्वय दिखाई पड़ता है। भावना के उच्छल प्रवाह के साथ-साथ विचारों की गहनता भी उनके काव्य में सर्वत्र मिलती है। उनकी प्रबन्ध रचनाओं में भावुकता और बौद्धिकता दोनों ही सुन्दर ढंग से समाहित हैं। उर्वशी, कुरुक्षेत्र तथा रश्मिरथी इसके प्रपुष्ट प्रमाण हैं।
6. भाग्यवाद का विरोध - 'दिनकर' जी कर्म में विश्वास रखते हैं। अत: उन्हें मनुष्य पुरुषार्थ पर विश्वास है। भाग्यवाद उनकी दृष्टि में एक छल है जिसके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के हक को दबाकर सुख भोगता है।
7. यथार्थवादी दृष्टिकोण और साम्यवाद का समर्थन:- 'दिनकर' जी साम्यवादी होने के कारण कल्पना की अपेक्षा यथार्थ की ठोस धरती पर चलना पसन्द करते हैं। यथार्थवाद के प्रबल पक्षधर होते हुए भी वे आदर्श की उपेक्षा नहीं करते।
8. ओजपूर्ण शैली - 'दिनकर' जी की शैली ओज गुण प्रधान है। उनकी कविता पढ़ने से बाहें फड़क उठती हैं, मन में नया उत्साह और जोश भर जाता है।
9. परिष्कृत भाषा - दिनकर जी की काव्य-भाषा शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी है। उसमें नाद-सौन्दर्य, चित्रमयता एवं मुहावरों का समुचित प्रयोग मिलता है। भावानुकूल भाषा का प्रयोग करने में दिनकर जी दक्ष हैं। कठोर भावों की अभिव्यक्ति के समय उनकी शब्दयोजना कर्कश और कोमल भावों की अभिव्यक्ति के समय कोमल हो जाती है। उनकी भाषा परिष्कृत और विचारों को व्यक्त करने में पूर्णतया सक्षम है।
10. अलंकार एवं छन्द योजना - दिनकर जी के काव्य में अलंकार स्वाभाविक रूप से आये हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि सादृश्यमूलक अलंकारों के साथ-साथ उन्होंने मानवीकरण अलंकार का प्रयोग किया है। प्रतीक एवं बिम्बों का प्रयोग भी दिनकर जी ने अपने विचारों एवं भावों को व्यक्त करने के लिए किया है।
'दिनकर' जी ने छन्दमुक्त और छन्दबद्ध दोनों प्रकार की कविताएँ लिखी हैं। उनका छन्दों पर पूर्ण अधिकार है। उनकी कविता साँचे में ढली हुई दिखाई देती है। 'उर्वशी' में छन्दयुक्त और छन्दबद्ध दोनों पद्धतियाँ प्रयुक्त हुई हैं। साहित्य में स्थान - स्व० रामधारी सिंह 'दिनकर' अपनी प्रतिभा और श्रेष्ठ काव्य-रचनाओं के कारण 'राष्ट्रकवि' कहलाने के अधिकारी समझे गये हैं। उनका काव्य शाश्वत और अमर है।
**(4)महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालिए।
[H.S. 2019]
उत्तर- महावीर प्रसाद द्विवेदी -युग प्रवर्तक आचार्य पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधा, आलोचना साहित्य के उन्नायक एवं आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रथम आचार्य हैं। आपका जन्म वैशाख शुक्ल 4 सम्वत् 1921 में रायबरेली जिला स्थित दौलतपुर गाँव में हुआ था। इनके पिताजी का नाम रामसहाय द्विवेदी था। गाँव के विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने घर पर ही उर्दू एवं संस्कृत का अध्ययन किया। 13 वर्ष की आयु में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आपने रायबरेली के जिला स्कूल में अपना नाम लिखाया परन्तु अर्थाभाव के कारण वह विशेष अध्ययन न कर सके। पहले 15 रुपये मासिक वेतन पर अजमेर में कार्यरत हुए। बाद में तार का कार्य सीख कर जी०आई०पी० रेलवे में 50 रुपये मासिक वेतन पर तार बाबू का कार्य करने लगे। परन्तु अधिकारियों के अन्याय के कारण उन्होंने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। बाद में आप 'सरस्वती-पत्रिका' के सम्पादक बने और 18 वर्षों तक पूर्ण निष्ठा के साथ इस कार्य को सम्पन्न किया। जीवन के अन्तिम दिनों में वे जलोदर रोग से पीड़ित हुए तथा दिसम्बर सन् 1938 ई० में आपका देहावसान हो गया।
रचनाएँ: द्विवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे। कविता, निबंध, समालोचना आदि सभी क्षेत्रों में इन्होंने कार्य किया। अपने निबंधों एवं समालोचनाओं द्वारा ये सदा साहित्यकारों को प्रेरणा देते रहे। कठिन से कठिन विषय को सरल बनाने में ये सिद्धहस्त थे। आपने मुख्यतः विचारात्मक निबंध लिखे हैं। आपकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:-
(i) निबंध रसज्ञ रंजन, साहित्य सीकर।
(ii) काव्य काव्य मंजूषा, सुमन ।
(iii) अनुवाद - स्नेह माला, बिहार वाटिका, कुमार संभव, गंगा लहरी, विचार रत्नावली, रघुवंश, मेघदूत, किरातार्जुनीय आदि ।
समालोचना : द्विवेदी जी हिन्दी भाषा को व्याकरणसम्मत बनाने के पक्षपाती थे। आप भाषा को अधिकाधिक व्यावहारिक बनाने के पक्ष में थे। उर्दू, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के प्रचलित शब्दों के प्रयोग के आप समर्थक थे। भाषा को सजीव बनाने के लिए आपने व्यावहारिक मुहावरों का भी प्रयोग किया।
शैली : इनकी रचनाओं में मुख्यत: तीन प्रकार की शैलियाँ मिलती हैं
(i) परिचयात्मक शैली - इस प्रकार की शैली की भाषा सरल और सुबोध है। इस प्रकार के लेखों से ज्ञात होता है जैसे कोई शिक्षक अपने विद्यार्थियों को पढ़ा रहा है।
(ii) आलोचनात्मक शैली- इस शैली के माध्यम से लेखक ने भाषा एवं साहित्य की कुरीतियों पर प्रहार किया है। इनकी भाषा व्यावहारिक है।
(iii) गवेषणात्मक शैली - गवेषणात्मक शैली तथा ओजपूर्ण रचनाओं और लेखों में इस शैली के उदाहरण मिलते हैं। वास्तव में द्विवेदी जी खड़ी बोली के निर्माता और युग प्रवर्तक साहित्यकार हैं। इनकी साहित्य को बहुमुखी देन है। हिन्दी साहित्य जगत में आपका स्थान स्थायी और अमर है।
Vvi**5)हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद की विशेषताओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
[H.S. 2018]
उत्तर:
प्रगतिवाद की विशेषताएँ :-
छायावाद के घोर व्यक्तिवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रगतिवाद का जन्म हुआ। जो विचारधारा सामाजिक क्षेत्र में उत्तर समाजवाद, राजनीतिक क्षेत्र में साम्यवाद तथा दार्शनिक क्षेत्र में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नाम से जानी जाती है, साहित्य क्षेत्र में वही प्रगतिवाद है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि मार्क्सवादी या साम्यवादी दृष्टि से लिखी गई काव्यधारा प्रगतिवाद है। छायावाद के सूक्ष्म आकाश में अति काल्पनिक उड़ान भरने वाली या रहस्यवाद के निर्जन अदृश्य शिखर पर विराम करने वाली कल्पना को जन-जीवन का चित्रण करने के लिए एक हरी-भरी ठोस जनपूर्ण धरती की आवश्यकता थी। इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु 'रोटी का राग' और 'क्रान्ति की आग' के लिए प्रगतिवाद आगे आया।
प्रगतिवाद के उदय के सम्बन्ध में तीन प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं :-
(1) इसके उदय का कारण सन् 1936 हूँ में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ है।
(2) उसके उदय का कारण रूसी कम्युनिस्टों का प्रचार-प्रसार हूँ।
(3) इसका उदय एकाएक या रूसी प्रस्ताव से नहीं हुआ है। यह बहुत पहले से शोषित समाज में चली आई असन्तोष और विद्रोह की भावना का फल है। प्रगतिवाद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ-साथ एक साहित्यिक आन्दोलन अवश्य था, परन्तु इसकी जड़ें हमारे देश की आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों में थी। यह प्रगतिवाद केवल कविता तक सीमित न रहकर गद्य की सभी विधाओं में खुलकर उभरा।
प्रगतिवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
(1) रूड़ियों का विरोध :- प्रगतिवादी साहित्य विविध सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूढ़ियों एवं मान्यताओं का विरोध प्रस्तुत करता है। उसका ईश्वरीय विधान, धर्म, स्वर्ग, नरक आदि पर विश्वास नहीं है। उसकी दृष्टि में मानव महत्ता सर्वोपरि है।
(2) शोषण का विरोध इनकी दृष्टि में मानव शोषण एक भयानक अभिशाप है। साम्यवादी व्यवस्था मानव शोषण का हर स्तर पर विरोध करती है। यही कारण है कि प्रगतिवादी कवि मजदूरों, किसानों, पीड़ितों की दीन दशा का कारुणिक चित्र खींचता है। निराला की 'भिक्षुक' कविता में यही स्वर है। बंगाल के अकाल का दुखद चित्र खींचते हुए निराला जी लिखते हैं-
बाप बेटा बेचता है भूख से बेहाल होकर ।
(3) शोषणकर्त्ताओं के प्रति घृणा का स्वर :- प्रगतिवादी कविता में पूँजीवादी व्यवस्था को बल प्रदान करने वाले लोगों के प्रति घृणा का स्वर है 'दिनकर' का आक्रोश भरा स्वर देखिए श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं।
(4) विद्रोह का स्वर :- प्रगतिवादी कवि पूँजीवादी व्यवस्था, रूढ़ियों तथा शोषण के साम्राज्य को समूल नष्ट करने के लिए विद्रोह का स्वर निकालता है।
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये। -नवीन
(5) मानवतावाद :- प्रगतिवादी कवि कविताओं के माध्यम से मानवतावादी स्वर मुखर करता है। वह जाति-पाति तथा वर्ग भेद से मानव को मुक्त करके उसे एक मंच पर देखना चाहता है।
(6) नारी भावना :- प्रगतिवादी कवियों का विश्वास है कि मजदूरों और किसानों की तरह साम्राज्यवादी समाज में नारी भी शोषित है। वह पुरुष की दासताजन्य लौह-श्रृंखला में बन्दिनी है। वह आज अपना स्वरूप खोकर वासना पूर्ति का उपकरण मात्र रह गयी है। अतः कवि कहता है -
'मुक्त करो नारी तन।'- पन्त
प्रगतिवादी कवि नरेन्द्र शर्मा ने वेश्या के प्रति सहानुभूति जताते हुए लिखा है। गृह सुख से निर्वासित कर दो, हाय मानवी बनी सर्पिणी।
(7) यथार्थ चित्रण :- प्रगतिवादी कविता में समाज के यथार्थ चित्रण की प्रवृत्ति मिलती है। कविवर पन्त भारतीय ग्राम का चित्रण करते हुए लिखते हैं-
यह तो मानव लोक नहीं है, यह तो नरक अपरिचित यह भारत की ग्राम संस्कृति, सभ्यता से निर्वासित।
(8) समसामयिक चित्रण :- प्रगतिवादी कवियों में देश-विदेश में उत्पन्न सम-सामयिक समस्याओं और घटनाओं की अनदेखी करने की दृष्टि नहीं है। साम्प्रदायिक समस्याओं, भारत-पाक विभाजन, कश्मीर समस्या, बंगाल का अकाल बाढ़, अकाल, दरिद्रता, बेकारी, चरित्रहीनता आदि का इन कवियों ने बड़े पैमाने पर चित्रण किया है।
नागार्जुन ने कागजी आजादी पर लिखा है-
कागज की आजादी मिलती, ले लो दो-दो आने में।
***(6) प्रगतिशील कवि नागार्जुन के साहित्यिक अवदानों का उल्लेख कीजिए।
अथवा, नागार्जुन का वास्तविक नाम बताते हुए उनके योगदान पर प्रकाश डालिए।[H.S.2016) [H.S.2018)
उत्तर - आधुनिक युग की नवचैतना के प्रतीक नागार्जुन का जन्म दरभंगा के तरौना गाँव में सन् 1910 हुआ था। इनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र है। पहले आप 'यात्री' के नाम से लिखा करते थे परन्तु सन् 1937 ई० में बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद आपने अपना नाम नागार्जुन रखा। आपके व्यक्तित्व पर राहुल सांस्कृत्यायन एवं सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का अधिक प्रभाव पड़ा। राहुल सांस्कृत्यायन के प्रभाव से नागार्जुन जी राजनीतिक दृष्टि से साम्यवादी विचार धारा की ओर उन्मुख हुये तो निराला जी के प्रभाव से वे जनवादी विचारधारा को लेकर चले तथा पीड़ित तथा अभावग्रस्त जनता के प्रति सहानुभूति व्यक्त की। उन्होंने उच्च समाज के शोषण का विरोध किया है तथा संघर्षरत सर्वहारा वर्ग का वीरता के साथ गुणगान किया है।
नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।
नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। लोकजीवन, प्रकृति और समकालीन राजनीति उनकी रचनाओं के मुख्य विषय रहे हैं। विषय की विविधता और प्रस्तुति की सहजता नागार्जुन के रचना संसार को नया आयाम देती है। छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती हैं। जटिल से जटिल विषय पर लिखी गईं उनकी कविताएँ इतनी सहज, संप्रेषणीय और प्रभावशाली होती हैं कि पाठकों के मानस लोक में तत्काल बस जाती हैं। नागार्जुन की कविता में धारदार व्यंग्य मिलता है। जनहित के लिए प्रतिबद्धता उनकी कविता की मुख्य विशेषता है।
नागार्जुन ने छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों प्रकार की कविताएँ रचीं। उनकी काव्य-भाषा में एक ओर संस्कृत काव्य परंपरा की प्रतिध्वनि है तो दूसरी ओर बोलचाल की भाषा की रवानी और जीवंतता भी। पत्रहीन नग्न गाछ (मैथिली कविता संग्रह) पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें
इनकी कविताओं के तीन संकलन प्रकाशित हो चुके हैं- 'युगधारा', 'प्यासी पथराई आँखें' और 'सतरंगी पंखोंवाली' ।इनके अतिरिक्त तालाब की मछलियाँ, हजार-हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या: ऐसे भी तुम क्या, पका है कटहल, भस्मांकुर बलचनमा, रतिनाथ की चाची, कुंभी पाक, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, वरुण के बेटे जैसे उपन्यास भी विशेष महत्त्व के हैं। आपकी समस्त रचनाएँ नागार्जुन रचनावली (सातखंड) में संकलित हैं।इनके अतिरिक्त काम दहन के प्रसंग पर आधारित 'भस्मांकुर' खण्ड काव्य भी प्रकाशित हो चुका है। नागार्जुन के काव्य की मुख्य विशेषता है- प्रणय भावना ।
उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं:-
युगधारा, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगे पंखों वाली,
*(7) छायावाद युग की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा कीजिए।[H.S. 2018]
उत्तर :- छायावाद युग की विशेषताएँ- सुश्री महादेवी वर्मा के अनुसार, "छायावाद स्वच्छन्द छन्दों में चित्रित मानव अनुभूतियों का नाम है।" डॉ० राम कुमार वर्मा के अनुसार, “परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की छाया भी परमात्मा में, यही छायावाद है।" छायावाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं। :
1. व्यक्तिवाद की प्रधानता अहंभाव छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषता है। छायावादी कविता मुख्यतः व्यक्तिवाद की कविता है। प्रसाद के 'आँसू' तथा पंतजी के 'उच्छ्वास' में व्यक्तिगत सुख-दुःख की अभिव्यक्ति खुलकर हुई है -
"जो घनीभूत, पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर, वह आज बरसने आई ।। "
-प्रसाद
2. प्रकृति का मानवीकरण छायावादी काव्य में प्रकृति पर चेतना का आरोप किया गया है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा आदि छायावाद के प्रमुख कवियों ने प्रकृति का नारी रूप में चित्रण किया है और सौन्दर्य एवं प्रेम की अभिव्यक्ति की है। जैसे :
"पगली री ले संभाल यह कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल । देख बिखरती है मणिराजी उठा अरी बेसुध चंचल।"
-प्रसाद
"बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन।"
-पंत
"दिवसावसान का समय, मेघमय आसमान से,
उतर रही है सन्च्या सुन्दरी, परी-सी, धीरे-धीरे-धीरे।"
- निराला
3. नारी तथा प्रेम का चित्रण - छायावादी कवियों का नारी-सौन्दर्य के प्रति विशेष आकर्षण है। परन्तु रीतिकालीन कवियों की तरह स्थूलता एवं नग्नता नहीं मिलती है
"नीलपरिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग ।
इसमें खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग ।।"
- प्रसाद
4. रहस्यवाद - इस काव्य में प्रकृति पर चेतना का आरोप लगाया गया है। यदि निराला ने तत्व ज्ञान के कारण इसे तो पंत ने प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत होकर। महादेवी वर्मा ने अतिशय प्रेम व वेदना के कारण इसे तन-मन में बसाया तो प्रसाद जी ने परम सत्ता को बाह्य संसार में खोजने की दृष्टि से
"न जाने कौन अरे द्युतिमान,
जान मुझको फूंक देते अबोध छिद्रों में अज्ञान।
गान, अरे सुख दुःख के सहचर मौन नहीं कह सकता तुम हो कौन ?"
5. वेदना की अभिव्यक्ति - छायावादी कविता का जन्म ही वेदना से हुआ है।
"वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान"
-पंत
"इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागनी बजती।"
यही वेदना कहीं करुणा के रूप में चित्रित है तो कहीं निराशा के रूप में।
-प्रसाद
6. राष्ट्रीय जागरण - छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण का शंखनाद सुनाई पड़ता है। राष्ट्रीय भावना के जागरण ने छायावाद के व्यक्तिवाद को असामाजिक पथों पर भटकने से बचा लिया--
"अरुण यह मधुमय देश हमारा।" -प्रसाद
देना उस पथ पर तुम फेंक
- माखनलाल चतुर्वेदी
"मुझे तोड़ लेना बन माली, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेक।।"
7. स्वच्छन्दता - छायावादी कवि विषय एवं शैली दोनों दृष्टियों में स्वच्छन्द हैं। इसी स्वच्छन्दता के कारण सम्भवतः इन्हें ‘रोमाण्टिक कवि' कहा जाता है। यह प्रवृत्ति सौन्दर्य एवं प्रेम चित्रण, प्रकृति चित्रण, राष्ट्रीयता, रहस्यात्मकता, वेदनाभिव्यक्ति, प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता आदि में देखी जा सकती हैं। इन्हें लकीर का फकीर या पिटे पटाये मार्ग पर चलना स्वीकार नहीं है।
8. नारी सम्मान की भावना छायावादी कवियों ने युग-युग से उपेक्षित नारी को सदियों की कारा से मुक्त कराने का प्रयास किया। प्रसाद जी ने तो नारी को श्रद्धा की मूर्ति माना है -
"नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में ।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।।"
**(8) महादेवी बर्मा की काव्यगत विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
[H. S. 2020]
उत्तर - बुद्ध की अनिन्द्य करुणा, सूफियों की विरहानुभूति, मीरा का प्रेम दीवानापन, छायावाद की प्रेम सौन्दर्य व्यंजना, प्रकृति की सलोनी क्रीड़ाएँ, मधुर चित्रमयी भाषा और मोहनी गीति-शैली-इन सबको मिलाकर एक ही संज्ञा है 'महादेवी की कविता' ।
कबीर की आध्यात्म-भावना और मीरा की पीड़ा को मधुर संगीतमय भाषा में प्रस्तुत करने वाली महादेवी के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(अ) भाव पक्ष सम्बन्धी विशेषताएँ
(1) गहन और व्यापक प्रेमानुभूति महादेवी का काव्य-प्रेम का काव्य है। उनकी प्रेमानुभूति बड़ी तीव्र, गहन और व्यापक है। अपने प्रिय के प्रेम में तन्मय होकर वे इस गहराई तक उतरती हैं कि उनका प्रेम विश्वव्यापी बन जाता है।
"लघु हृदय तुम्हारा अमर छन्द,
स्पन्दन में स्वर-लहरी अमन्द,
हर स्वप्न स्नेह का चिर निबन्ध,
हर पलक तुम्हारा भाव-बन्ध ।"
(2) विरह भावना - महादेवी विरह की कवयित्री हैं, वेदना की गायिका हैं। वे अपने जीवन को ही विरह का सुकोमल कमल मान बैठी हैं, जो वेदना, करुणा और आँसुओं में ही जन्मा और पला है|
(3) पीड़ा से प्रेम - महादेवी ने विरह में जिस वेदना की, जिस पीड़ा की अनुभूति की है, वह पीड़ा उन्हें विशेष प्रिय है। उसमें प्रिय से मिलन की भावमयी छटपटाहट है। इसलिए वे अपने प्रिय को पा लेने पर भी उसमें मधुर पीड़ा को खोजना चाहती हैं-
"तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा, तुम में ढूंढूँगी वे स्वयं पीड़ामयी हैं।
तभी तो कह उठती हैं पीड़ा।
"मैं नीर भरी दुःख की बदली।"
(4) भावात्मक रहस्यवाद - छायावादी काव्य की रहस्य भावना का पूर्ण उत्कर्ष महादेवी वर्मा के गीतों में ही हुआ है। उनका प्रेम ससीम का असीम के प्रति, आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम है। उनकी यह आत्मा-परमात्मा के प्रेम की व्यंजना बड़ी भावपूर्ण है। यथा
"कौन तुम मेरे हृदय में ?"
"तुम हो विधु के बिम्ब और मैं मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर कौतूहल के वाण।। "
(5) भावमय प्रकृति-चित्रण - महादेवी जी ने प्रकृति के मधुर मन्दिर में भावमय इन्द्रधनुषी चित्र अंकित किए हैं। आलम्बन, उद्दीपन, आलंकारिक आदि सभी प्रकार के प्रकृति-चित्र उनके काव्य में मिल जाते हैं। सामान्यतः वे प्रकृति को अपनी विरह और संयोग की अनुभूतियों के साथ ही जोड़ कर प्रस्तुत करती रही हैं। उनका भावमय प्रकृति-चित्रण निम्न पंक्तियों में देखने योग्य है-
लाये कौन सन्देह नये घन ?
अम्बर वित्त हो आया नत,
चिर निस्पन्दन हृदय में उसके उमड़े री पुलकों के सावन।"
(ब) कला-पक्ष सम्बन्धी विशेषताएँ:
(1) संस्कृतनिष्ठ सुकुमार भाषा महादेवी वर्मा की भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है, किन्तु उसमें एक विशेष सुकुमारता, माधुर्य और लालित्य है। ध्वनि-सौन्दर्य और संगीतात्मकता से परिपूर्ण महादेवी की भाषा में भाव-चित्र अंकित करने की अद्भुत क्षमता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत है कि 'न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध प्रवाह और कहीं मिलता है और न हृदय की भावभंगी।'
(2) मुक्तक गीति शैली - महादेवी वर्मा की काव्य-शैली मुक्तक गीति-शैली है। उन्होंने जैसे ढले हुए गीतह को दिये हैं, वैसे अन्य कवि से नहीं बन पड़े हैं। वैयक्तिक अनुभूति को भाव मधुर गीतों में बाँधने की कला में वे अद्वितीय हैं। आचार्य शुक्ल ने यह स्पष्टत: स्वीकार किया है कि
“गीत लिखने की शैली में जैसी सफलता महादेवी जी को प्राप्त हुई, वैसी और किसी को नहीं।"
(3) विविध गीत-छन्द - यों महादेवी ने कतिपय मात्रिक छन्दों में भी कविता लिखी है, पर सामान्यत: उन्होंने विविध गीत छन्दों का ही प्रयोग किया है। इन गीतों के अनेक छन्द उनकी अपनी मौलिक देन हैं।
(4) अलंकारों की सरस सुन्दर योजना- महादेवी जी ने उपमा, रूपक, श्लेष, रूपकातिश्योक्ति, अन्योक्ति, मानवीकरण, ध्वन्यार्थ व्यंजना, विशेषण विपर्यय, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रचुरता से प्रयोग किया है। उनके अलंकार अत्यन्त स्वाभाविक, सरस और सुन्दर हैं। वे भाव का सहज शृंगार बनकर आये हैं।
निष्कर्ष - छायावादी काव्य-धारा में वेदना और रहस्यभावना का जो उत्कर्ष महादेवी में देखने को मिलता है, वह प्रसाद, पन्त और निराला में भी नहीं है। वेदना-मूलक भावमय रहस्यवाद की वे अन्यतम कवयित्री हैं। उनकी कविता संगीतकला और काव्यकला की पावन त्रिवेणी है। अपनी विरहाकुलता और प्रेमोन्माद के कारण उन्हें 'आधुनिक काल की मीरा' कह जाता है। निश्चय ही वे वेदना की अनन्य गायिका हैं।
*9)जयशंकर प्रसाद की काव्यगत विशेषताओं की चर्चा कीजिए।[H.S. 2019]
उत्तर :-प्रसाद जी छायावादी काव्य-धारा के प्रवर्तक तथा सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(अ) भाव पक्ष सम्बन्धी विशेषताएँ:
(1) भारतीय संस्कृति और राष्ट्र-प्रेम प्रसाद जी सांस्कृतिक जागरण के सशक्त कवि हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा और राष्ट्र-प्रेम की भावना उनके काव्य और नाट्य रचनाओं में कहीं-कहीं पर अपने पूरे वेग से व्यक्त हो उठी है, यथा-
"हिमाद्रि-तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध-शुद्ध-भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला-स्वतन्त्रता पुकारती|"
(2) प्राचीन और नवीनता का समन्वय -प्रसाद जी ने प्राचीन भारतीय आदर्शों के साथ ही आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और युगीन समस्याओं को भी प्रस्तुत किया है। कामायनी में ही मनु और श्रद्धा की प्राचीन कथा लेकर आधुनिक बुद्धि प्रधान मानव को श्रद्धा का सम्बल ग्रहण कर आनन्द अवस्था तक पहुँचने का महान सन्देश दिया है।
(3) प्रेम और सौन्दर्य की अभिव्यंजना- छायावाद के प्रवर्तक प्रसाद जी मूलतः प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। प्रेम भावना के बड़े सूक्ष्म विविध भाव तरंगों से युक्त संयोग-वियोग के सरस चित्र उन्होंने अंकित किए हैं। नारी तथा पुरुष के शारीरिक एवं मानसिक सौन्दर्य की मधुर मंदिर झाँकियाँ प्रसाद साहित्य में देखते ही बनती हैं। इन चित्रों में सूक्ष्मता है, मनोहारिता है, भावात्मक तरलता है और अन्तर्जगत का अनन्त सौन्दर्य है।
उदाहरण- "नील परिधान बीच सुकुमार, खिल रहा मृदुल अधखुला अंग खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ-वन बीच गुलाबी रंग ।।"
(4) प्रकृति प्रेम -प्रसाद का प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम उनकी रचनाओं में प्राप्त प्रकृति के जीवन्त चित्रों से सहज ही प्रकट हो जाता है। अपनी नूतन मौलिक कल्पना के इन्द्रधनुषी रंगों में रंग कर प्रकृति के लघु-विराट, कोमल-कठोर, मधुर भयानक सभी रूपों का चित्रण प्रसाद ने किया है। प्रकृति का मानवीकरण प्रसादजी की प्रमुख विशेषता है। उनके काव्य में उसके आलम्बन, उद्दीपन, उपदेशिका, रहस्यात्मकता, आलंकारिता आदि विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं।
(5) रहस्य - भावना - प्रसाद संवेदनशील कवि थे, दार्शनिक थे। अनन्त सुन्दरी प्रकृति के मूल में वे एक 'अनन्त रमणीय' सत्ता का आभास पाते थे। जिसकी अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में विभिन्न स्थलों पर हुई है- उदाहरणार्थ-
हे अनन्त रमणीय! कौन तुम ? यह मैं कैसे कह सकता ?
(6) नारी के प्रति संवेदनशीलता और पूज्य भाव - प्रसाद जी नारी के प्रति अत्यन्त संवेदनशील रहे हैं। उन्होंने नारी के बहुविधि रूपों का चित्रण किया है। ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ उनकी नारी भावना की परिचायिका हैं—
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नग-पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ।।
(7) मानवतावादी दृष्टिकोण प्रसाद जी सच्चे अर्थों में मानवतावादी कवि थे। दीन-दुःखी मनुष्यों के प्रति करुणा भाव से भरकर मानव सेवा करने को ही वे जीवन का सुख मानते थे। 'कामायनी' तो मानवता की विजय का ही काव्य है।
(ब) कला-पक्ष सम्बन्धी विशेषताएँ :
(1) भाषा सौष्ठव प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनाओं में सरल व्यावहारिक भाषा देखने को मिलती है। बाद में भाषा अधिक परिष्कृत और साहित्यिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होती चली गई है। यह संस्कृतनिष्ठ सौष्ठवपूर्ण भाषा है। अद्वितीय शब्द चयन, अर्थ- गाम्भीर्य लक्षणा-व्यंजना शक्तियों के प्रचुर प्रयोग उनकी कविता में देखते ही बनते हैं। उनमें लालित्य है और एक सहज मोहकता है।
(2) शैली के नवीन मौलिक प्रयोग सामान्यतः प्रसाद जी की शैली भावमय लाक्षणिक शैली है। काव्य रूप की दृष्टि से उन्होंने नयी प्रबन्ध शैली (कामायनी) और मुक्तक शैली (झरना, लहर आदि) दोनों का ही प्रयोग किया है। मुक्तक क्षेत्र में गीत काव्य-शैली का उनके काव्य में बड़ा निखरा हुआ रूप मिलता है। उनकी इन सभी शैलियों में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता तथा चित्रमयता सर्वत्र विद्यमान है।
(3) अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग प्रसाद जी ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि प्रचलित अलंकारों का अत्यन्त स्वाभाविक प्रयोग किया है। विशेषता यह है कि अलंकार नये रंग-रूप में प्रयुक्त हुए हैं। साथ ही मानवीकरण, विशेषण विपर्यय ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि नवीन अलंकारों के भी प्रसाद जी ने बड़े हृदयहारी प्रयोग किए हैं।
(4) नव-छन्द विधान - छन्दों के क्षेत्र में भी प्रसाद जी ने अनेक नवीन प्रयोग किए हैं। प्राचीन छन्दों में भी आपने सफल काव्य-रचना की और गीतों तथा अन्य मुक्तक रचनाओं में अनेक नवीन छन्दों की योजना की। 'आँसू' का छन्द प्रसाद जी का अपना मौलिक छन्द है। इनके छन्दों में अद्भुत लयात्मकता और नाद सौन्दर्य है।
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के शब्दों में, "भारत के इने-गिने आधुनिक श्रेष्ठ साहित्यकारों में प्रसाद जी का पद सर्वदा ऊँचा रहेगा।"
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