Class 12 Geography notes

 Class 12

 Geography notes










**Q.भूजल के नियामकों को लिखिए। **3
Ans-:From book Pg no.-9,10



Vvvi.इन-सीटू और एक्स-सीटू के बीच अंतर

Vvi ***




Vvi.**उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात की संरचना एवं निर्माण की व्याख्या कीजिए। (Explain the formation and structure of tropical cyclones.)

Ans. कर्क तथा मकर रेखाओं के मध्य उत्पन्न चक्रवातों को 'उष्ण कटिबंधीय चक्रवात' के नाम से जाना जाता है। शीतोष्ण चक्रवातों की तरह इन चक्रवातों में समरूपता नहीं होती है। ये ग्रीष्मकाल में उत्पन्न होते हैं, जबकि तापमान 27°C से अधिक होता है। चक्रवात के केन्द्र में वायुदाब बहुत कम होता है। समदाब रेखाएँ वृत्ताकार होती हैं, परन्तु इनको संख्या बहुत कम होती है।

इनका विकास केवल गर्म सागरों के ऊपर होता है। भूमध्यरेखा पर ये नहीं पाए जाते हैं। गर्मियों में इनकी उत्पत्ति अन्तरा उष्ण कटिबंधीय अभिसरण (ITCZ) के साथ होती है, जबकि यह खिसक कर 5° से 30° उत्तरी अक्षांश तक चली जाती है। भूमध्यरेखा पर कोरिआलिस बल की अनुपस्थिति के कारण ही यहाँ चक्रवात उत्पन्न नहीं हो पाते हैं। भूमध्यरेखा से उत्तर कोरिऑलिस बल तथा पृथ्वी की अक्षीय गति के कारण हवाओं की अवस्था चक्रीय हो जाती है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के आकार में पर्याप्त अन्तर होता है। सामान्य रूप से इनका व्यास 80 से 300 कि०मी० तक होती है, परन्तु कभी-कभी ये इतने छोटे होते हैं कि व्यास 50 कि०मी० से भी कम हो जाता है। ये चक्रवात सागरों के ऊपर तेज चलते हैं, परन्तु स्थलों पर पहुँचते-पहुँचते क्षीण हो जाते हैं तथा आन्तरिक भागों में पहुँचने के पहले ही समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि ये महाद्वीपों के केवल तटीय भागों को ही अधिक प्रभावित कर पाते हैं। ये विभिन्न गति (साधारण से प्रचण्ड) से आगे बढ़ते हैं। क्षीण चक्रवात 32 कि०मी० प्रति घंटे की चाल से भ्रमण करते हैं, जबकि हरिकेन 180 कि०मी० प्रति घण्टे से भी अधिक तेज चलते हैं। शीतोष्ण चक्रवातों की तरह इनमें तापमान सम्बन्धी विभिन्नता नहीं होती है, क्योंकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में विभिन्न वाताग्र (fronts) नहीं होते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के प्रत्येक भाग में वर्षा होती है। शीतोष्ण चक्रवात की भाँति इनमें वर्षा की विभिन्न कोशिकाएँ नहीं होती हैं। ये सदैव गतिशील नहीं होते हैं। कभी-कभी एक ही स्थान पर कई दिन तक स्थायी हो जाते हैं तथा तीव्र वर्षा प्रदान करते हैं। 

उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का भ्रमण पथ भित्र-भित्र क्षेत्रों में विभिन्न होता है। साधारण तौर पर ये व्यापारिक हवाओं के साथ पूर्व से पश्चिम दिशा में अग्रसर होते हैं। भूमध्य रेखा से 15° अक्षांशों तक भ्रमण दिशा पश्चिमी 15° से 30°तक ध्रुवों की ओर तथा उसके आगे पुनः पश्चिमी हो जाती है, परन्तु ये चक्रवात उपोष्ण कटिबंध में प्रविष्ट होते ही समाप्त होने लगते हैं। ये चक्रवात वर्ष के निश्चित समय में ही आते हैं। खासकर इनका समय ग्रीष्मकाल होता है। शीत काल में ये दिखाई नहीं पड़ते हैं। शीतोष्ण चक्रवातों की तुलना में इनकी संख्या तथा प्रभावित क्षेत्र कम होते हैं। अपनी प्रचण्ड गति तथा तूफानी स्वभाव के कारण ये चक्रवात अत्यन्त विनाशकारी होते हैं। एक स्थान पर कई दिनों तक स्थायी होकर इतनी भीषण वर्षा प्रदान करते हैं कि भयंकर बाढ़ आ जाती हैं। तटीय भागों में अपार क्षति होती है।

Vvi.**भारतीय मानसून को 'एल नीनो' कैसे नियंत्रित करता है? जेट धारा की तीन विशष्टताओं का उल्लेख कीजिए। (How does EI-Nino control the Indian Monsoons? Mention three characteristics of Jet Stream.)(4+3)

Ans. एल-नीनो का भारतीय मानसून पर नियन्त्रण (Contral of El-Nino on Indian Monsoons) :- पेरू तट के पश्चिम में 3° दक्षिणी अक्षांश से 36° दक्षिणी अक्षांश के बीच 400 मीटर की गहराई पर प्रशान्त महासागर में उत्तर से दक्षिण की ओर बहने वाली गर्म धारा को एल नीनो (El-Nino) के नाम से जाना जाता है। आज एल-नीनो को मौसम में परिवर्तन लाने वाली घटना के रूप में देखा जाता है। चार पाँच वर्ष के अन्तराल पर इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। एल- नौनों का प्रभाव भारतीय मानसून अर्थात् ग्रीष्मकालीन दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति तथा वर्षा की मात्रा व वितरण पर पड़ता है। जब एल-नीनों का प्रभाव उत्पन्न होता है तो गहराई में बहने वाली गर्म धारा के प्रभाव से सम्पूर्ण दक्षिणी प्रशान्त महासागर के जल का ऊपरी सतह गर्म हो जाता है तथा यह धारा दक्षिणी अटलांटिक प्रवाह के साथ मिलकर दक्षिणी हिन्द महासागर तथा आस्ट्रेलिया तक फैल जाता है। इस गर्म धारा के प्रभाव से हिन्द महासागर का तापमान बढ़ जाता है और वहाँ निम्न वायुदाब का केन्द्र बन जाता है जिसके कारण आस-पास की हवाएं वहीं केन्द्रीत होने लगती हैं। इस कारण मानसून कम शक्तिशाली हो जाता है तथा उसकी उत्पत्ति भी समय से नहीं होती है। इसके प्रभाव से मानसून अपने उत्पत्ति काल के समय से 15 से 20 दिन पिछड़ जाता है तथा वर्षा की मात्रा में 30 से 40% की कमी आ जाती है। इतना ही नहीं वर्षा का वितरण पहले की तुलना में और अधिक असमान हो जाता है। कहीं अत्यधिक वर्षा के कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है, तो कहीं सूखा के हालात पैदा हो जाते हैं। वर्ष 2014 में एल-नीनो के प्रभाव के कारण ही भारत में समान्य वर्षा से 30% से 40% वर्षा कम हुई है। एल नीनो का प्रभाव पत्यावर्तन मानसून (Retreating Monsoon) पर भी पड़ता है। सितम्बर महीने में हिन्द महासागर पर उच्च दाब की जगह निम्न दाब स्थापित हो जाता है। इस कारण लौटने वाली मानसून पबनें भारत के स्थल के भीतरी भागों में बनी रहती हैं, जिससे इन महीनों में भारत के विभिन्न भागों अनियमित रूप से कहीं भारी तो कहीं हल्की वर्षा होने लगती है तथा समुद्र तटीय भागों में चक्रवाती दशाएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिसके कारण भीषण तबाही होती है।
इस प्रकार एल-नीनो भारतीय मानसून को नियन्त्रित व प्रभावित करता है। 

जेट धारा की विशेषताएँ (Characteristics of Jet Stream) :- धरातल से ऊपर क्षोभ मण्डल में 6 से 14 किलोमीटर की ऊँचाई पर लहरदार रूप में तीव्र गति से चलने वाली परि ध्रुवीय पवन प्रवाह को जेट धारा कहते हैं। इनकी प्रवाह दिशा जल धाराओं की तरह निश्चित होती है, इसलिए इसे जेट स्ट्रीम का नाम दिया गया है। इसकी तीन प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है-

1- जेट धारा क्षोभ मण्डल के ऊपरी भाग में पूर्वी व्यापारिक पवनों के विरूद्ध तीव्र गति से निश्चित दिशा में स्थायी रूप से बहती हैं। 
2. जेट धारा विश्व जलवायु को प्रभावित करती है। इसके कारण कभी अधिक वर्षा, तो कभी कम वर्षा होने से बाढ़ एवं सुखा की स्थिति बनी रहती है।
3. जेट धारा का मानूसनी हवाओं की उत्पति पर भी प्रभाव पड़ता है। भारत में वर्षा ऋतु में मूसलाधार वर्षा के लिए पूर्वी जेट धारा उत्तरदायी है। पश्चिमी जेट धारा शीत काल में शुष्कता के लिए उत्तरदायी है।

Vvi.**उष्ण वाताग्र और शीत बताग्र क्या है? उष्ण चक्रवात और शीतोष्ण चक्रवात की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (What is worm front and cold front? Describe the characteristics of Tropical cyclone and Temperate cyclone.)(3+4)

Ans. (i) उष्ण वाताग्र (Warm Front) :- जब उष्ण वायु-राशि आक्रामक होकर ठण्डी वायु राशि के ऊपर चढ़ जाती है तो उसे उष्ण वाताग्र कहते हैं। यह वाताग्र हमेशा उष्ण से शीतल वायु की ओर बढ़ता है। इनका ढाल 1:100 से 1:400 तक होता है। ये वाताग्र मध्य अक्षांशों में पश्चिम से पूर्व की ओर चलते हैं। इनकी गति धीमी तथा वर्षा एक क्रम से होती है।

(ii) शीत वाताग्र (Cold Front) :- जब ठण्डी वायु-राशि आक्रामक होकर पीछे से धक्का देकर गर्म वायु राशि को ऊपर की ओर उठा देती है तो उसे शीत वाताग्र कहते हैं। यह वाताग्र हमेशा शीतल से उष्ण वायु की ओर बढ़ता है। इनका 1:25 से 1:100 तक होता है। इस प्रकार इनका ढाल उष्ण वाताग्र से 4 गुना अधिक तीव्र होता है। मध्य अक्षांशों में इनकी प्रवाह दिशा उत्तर से दक्षिण की ओर होती है। इसमें हवा की गति तीव्र तथा वर्षा तीव्र बौछार के रूप में होती है।




उपर्युक्त विभिन्नताओं से स्पष्ट हो जाता है कि दोनों वायुमण्डल में आकस्मिक रूप से उत्पन्न होने वाले अस्थिर हवाएँ हैं जो गुण, धर्म, आकार, आदि की दृष्टि से एक दूसरे के ठीक विपरीत हैं।

Lesson-5. 

आर्थिक क्रियाकलाप,

 प्राथमिक क्रिया; कृषि

(Economic Activities,

 Primary Activity ;

 Agriculture)


Long question 


*1. जीवन निर्वाहन कृषि से क्या समझते हो ? इसके क्या-क्या विशेषताएँ हैं ? (What do you mean by subsistence Farming? What are its characteristics?)

Ans. जीवन निर्वाहन कृषि (Subsistence Farming) - अधिक जनसंख्या वाले प्रदेशों में सीमित भूमि पर किसानों द्वारा अपनी निजी उपयोग के लिए की जाने वाली कृषि को जीवन निर्वहण कृषि कहते हैं। इस कृषि को किसान अपने उपयोग के लिए फसलों का उपयोग करता है। उपयोग के बाद जो अनाज बचता है, उसे बाजार में बेचकर अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

इस कृषि में मुख्य रूप से धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, चना, मटर, साग, सब्जी आदि अन्य फसलें उगायी जाती है। जिसमें खाद्यान्न फसलों की प्रधानता होती है। इसमें कृषि कार्य हेतू गाय, बैल, घोड़े, ऊँट, खच्चर आदि पशु पाले जाते हैं। पशुओं को मुख्य रूप से फसलों के अवशिष्ट पदार्थ, डण्ठल, भूसा, भूसी आदि खिलाया जाता है। कहीं-कही थोड़ा बहुत इनके लिए चारा उत्पादन किया जाता है।

संचार में यह कृषि मुख्य रूप से घनी जनसंख्या वाले देश भारत, पाकिस्तान, चीन, जापान, इण्डोनेशिया, पश्चिमी यूरोपीय, श्रीलंका, बंगलादेश आदि देशों में पाया जाता है।

विशेषताएँ (Characteristics) :- किसानों द्वारा अपनी निजी उपयोग के लिए की जाने वाली जीवन निर्वहन कृषि की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :

1. कृषि में भूमि पर जनसंख्या का भार या दबाव अधिक होता है। अर्थात् खेतों के आकार छोटे-2 होते हैं।

2. इसमें किसान फसलों का उत्पादन अपने उपयोग के लिए करता है। अतः बिक्रि योग्य बचत बहुत कम होती है। 
3. इस कृषि को करने वाले किसान अशिक्षित और परंपरावादी होते हैं। इस कारण कृषि में नवीन तकनीकि का उपयोग करने से डरते हैं। फलस्वरूप उत्पादन बहुत कम होता है।
4. इस कृषि में सभी काम मानव आम द्वारा किये जाते हैं। प्रायः घर के सदस्य ही कृषक का कार्य करते हैं। 
5. इस कृषि में खाधान्न फसलों का उपयोग करने से बचत व लाभ कम होता है। इस कारण किसान निर्धन होते हैं।
6. इस कृषि में पशुपालन केवल कृषि कार्य हेतू किए जाते हैं।


2.मिश्रित कृषि से आप क्या समझते हैं? शुष्क कृषि से आप क्या समझते हैं ? (What do you mean by Mixed Farming? What is Dry Farming?)

Ans. वह आधुनिक कृषि पद्धति जो एक क्षेत्र में कृषि फसलों के उत्पादन के साथ-साथ व्यापारिक दृष्टिकोण से पशुपालन किया जाता है, उसे मिश्रित कृषि कहते हैं। वास्तव में विस्तृत भूमि, मानव आय, पूँजी, तकनीकि, बाजार एवं यातायात की सुविधा पर आधारित यह एक आधुनिक ढंग की व्यापारिक कृषि है। इस कृषि में दोहरा लाभ होता है तथा एक के नुकसान होने पर इसकी भरपाई दूसरे से हो जाती है। इस कृषि में फसल चक्र की विधि अपनाई जाती है। इसमें रासायनिक खाद्य की जगह पशुओं के गोबर की खाद प्रयोग की जाती है। इस कारण उत्पादन अधिक तो होता ही है, भूमि की उर्वरा शक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है। इस कृषि में अनाजों का उत्पादन गौण तथा पशुपालन प्रधान होता है। पशुओं को अनाज व चारा खिलाकर मांसल बनाया जाता है। ताकि अधिक से अधिक मांस प्राप्त किया जा सके।

इस कृषि में मुख्य रूप से गेहूँ, जौ, जई, मक्का, चुकन्दर, गाजर तथा पशुओं के चारे उगाए जाते हैं। पालतू पशुओं में गाय बैल, भैंस, बकरियाँ, सुअर, मुर्गी इत्यादि पाले जाते हैं।

संसार में इस प्रकार की कृषि कम जनसंख्या वाले कुछ देशों में USA, Aurgentina, Australia, Newzealand, Russia, Ukraine, South Africa आदि देशों में की जाती है। इस कृषि के लिए विस्तृत भूमि, पशुपालन का ज्ञान, अधिक पूँजी जरूरी है।

शुष्क कृषि :- 50 cm. से कम वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बाहरी भूमि की जोताई कर साल में एक बार उगायी जाने वाली शुष्क फसलों की कृषि को शुष्क कृषि कहते हैं। इस कृषि का प्राकृतिक वातावरण के साथ अन्तर सम्बन्ध होता है। यह प्राकृतिक वर्षा पर आधारित एक फसली कृषि है। जल के अभाव में भूमि की गहरी जोताई कर फसलें उगाई जाती है। इसमें श्रम, पूँजी, रासायनिक खाद्य, तकनीकि आदि का प्रयोग बहुत कम होता है। इस कारण इस कृषि से जुड़े किसानों की वार्षिक स्थिति बहुत खराब होती है। इस कृषि के अंतर्गत कम पूँजी में उत्पादन करने वाले ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, मणुआ, जौ, खरबूज, तरबूज, मतिरा तथा कुछ सब्जियों की खेती की जाती है

संसार में मूल रूप से शुष्क कृषि मरूस्थलीय प्रदेशों जैसे Western USA, Southern-Western Australia, Iran, Iran, Saudi arab, Western Aurgentina, South Africa and Sahara के मरूस्थल भागों में की जाती है। 

Vvi.3. विस्तृत कृषि निर्यातोन्मुख कृषि है। क्यों? फसल चक्र या रस्यावर्तन के दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।भारत में दालों की कृषि की समस्याओं का उल्लेख कीजिए।(Why is the ‘Extensive farming' mainly export oriented? Mention two significant characteristics of 'crop rotation'. What are the problems of cultivations of pulses in India?)[H.S. 2017, 2018 ]

Ans. विस्तृत कृषि निर्यातोन्मुख कृषि :- विस्तृत भूमि पर यन्त्रों व मशीनों की सहायता से की जानेवाली कृषि को विस्तृत कृषि कहते हैं यह कृषि मूलत: निर्यात उन्मुख एक प्रकार की व्यापारिक कृषि है। इसे निर्यातोन्मुख कृषि कहे जाने के पीछे निम्नलिखित कारण है।

1. यह कृषि कम जनसंख्या वाले देशों में मानव श्रम के अभाव में मशीनों द्वारा की जाती है।

2. यह कृषि उत्तम बीज, रासायनिक खाद, कीट नाशक, घास नाशक रसायन सिंचाई, यन्त्र आदि आधुनिक सुविधाओं की सहायता से की जाती है। इसलिए प्रति हेक्टेयर खाद्यान्नों (गेहूँ) की उपज भी अधिक होती है।

3. कम जनसंख्या होने के कारण अनाजों की खपत कम तथा उत्पादन बहुत अधिक होता है। इस कारण लाभ कमाने के उद्देश्य से उत्पादित अनाजों को दूसरे देशों में निर्यात कर दिया जाता है।

इस प्रकार खपत की तुलना में अनाजों का उत्पादन एवं बचत अधिक होता है। इस कारण खाद्यान्नों को निर्यात कर दिया जाता है। इसलिए विस्तृत कृषि को निर्यातोन्मुख कृषि कहा जाता है।

फसल चक्र की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ (Two significant characteristics) :- एक ही भूमि पर समयानुसार कृषि फसलों को अदल-बदल कर बोने की क्रिया को फसल चक्र या रस्यावर्तन कहते हैं जिसकी दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) फसल चक्र से मिट्टी में कार्बन, नाइट्रोजन के अनुपात में वृद्धि होने से उसकी उर्वरता में वृद्धि होती है। साथ-ही साथ मिट्टी के पी० एच० (P.H.) मान तथा क्षारीयता में सुधार होता है।

(2) फसल चक्र से भूमि की संरचना में सुधार होता है। फसलों का बीमारियों, कीट-पतंगों तथा खरपतवारों के बचाव व नियन्त्रण होने से प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी अधिक होता है। इस प्रकार फसल चक्र प्रत्येक दृष्टि से लाभकारी होता है।

VVI● भारत में दालों की कृषि की समस्याएँ (Problems of cultivation of Pulses of India) :- भारतीय कृषि और भोजन दोनों में दाल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विगत कुछ वर्षों में भारत में दलहनों के उत्पादन में वृद्धि की जगह कमी आयी है। इसका प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं -
1. भारत में अनुकूल जलवायु न होने से दलहन फसलों पाला, सूखा, उच्च तापमान, जलमग्नता आदि के कारण उत्पादन कम हो जाता है।

2. भारत में उन्नत उपज वाली दाल, बीजों के किस्मों की कमी है।

3. भारत की दलहन फसलें प्राय: कीट एवं रोगों से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। 
4. अवैज्ञानिक ढंग से कृषि तथा उत्पादित दालों का उचित ढंग से रख-रखाव न होने से दालें नष्ट हो जाती हैं।

5. दलहन कृषि भूमि का अन्य कृषि क्षेत्रों में बदलते जाना। इन्हीं सब उपर्युक्त समस्याओं के कारण भारत में दाल का उत्पादन घटता जा रहा है।


Q.4. फसल चक्र से आप क्या समझते हैं? फसल चक्र को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए। (What do you understand by crop rotation? Describe the factors which affect the crop rotation.)

Ans. फसल चक्र (Crop Rotation ) :- किसी निश्चित क्षेत्र में एक नियत अवधि में फसलों का इस अनुक्रम में उगाया जाना कि उर्वरक शक्ति कम से कम ह्रास हो और अधिक से अधिक उपज मिलें, फसल चक्र, फसलों का हेर फेर अथवा शस्य चक्र कहलाता है।

फसल चक्र को प्रभावित करने वाले कारक :- फसल चक्र की आयोजना बनाने से पूर्व निम्नलिखित कारकों पर विचार करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इन कारकों का फसल चक्र पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है
 (i) जलवायु (Climate) :- तापक्रम, आर्द्रता (वर्षा)
खरीफ, रबी एवं जायद की फसलें अपनी उचित मौसमी दशाओं के आधार पर ही उगाई जाती हैं।

(ii) भूमि (Soil) :- भूमि की आवश्यकता - फसलों की जाति और स्वभाव, जैसे मटियार मिट्टी में धान की फसल प्रमुख रूप से बोते हैं, भूमि की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।
इसी प्रकार बलुअर दोमट= मूँगफली, बाजरा, तरकारियाँ एवं दोमट= गेहूँ, गन्ना, जौ, तरकारियाँ मुख्य उपजें हैं। 
 (iii) सिंचाई (Irrigation) :- सिंचाई से गहन कृषि गन्ना, आलू को जल की माँग (requirement of water) जबकि असिंचित क्षेत्र में बाजरा, ज्वार, कपास, साँवा, कोदो जैसी फसलें उगाई जाती हैं।

(iv) मानव तथा पशु-शक्ति की उपलब्धता (Availability of man and animal power) :- मक्का एवं गन्ना की खेती की रखवाली एवं अन्तिम फल (End products) प्राप्तिं ।

(v) घरेलू आवश्यकता (House hold Necessity) :- बहुत सी फसलों जैसे गेहूँ, चावल, सब्जियों, दालों, तिलहन, मसालों आदि की भोजन हेतु कपास आदि की वस्त्र हेतु तथा बरसीम आदि की पशु चारा हेतु आवश्यकता पड़ती है, जिनकी मांग प्रत्येक कृषक परिवार में होती है।

(vi) बाजार की माँग एवं शहर से दूरी (Market demand and distance from town) :- शहर के समीप तरकारी (फल, फूल, हरी साग-सब्जियाँ इत्यादि) अधिक उगाई जाती है। 

(vii) बाजार भेजने की उचित सुविधाएँ (Proper marketing facilities) :- चीनी मिल हेतु गन्ना एवं सूती मिल हेतु कपास, जूट मिल हेतु जूट की आवश्यकता की पूर्ति में विकसित परिवहन प्रणाली का प्रधान योगदान माना जाता है।

(viii) खेती के प्रकार (Type of farming) :- डेरी फार्मों (Dairy farms) में चारे की फसलें अधिक उगाई जाती हैं।
 (ix) सामाजिक रीति-रिवाज (Social Customs) :- पंजाब में तम्बाकू की खेती या कश्मीर में अफीम की खेती सामाजिक रीति-रिवाज से प्रभावित होती है।
(x) कृषि की फसल उगाने की क्षमता (Capacity of the farmer to grow crops ) :- कोइरी जाति के लोग चतुर कृषक होते हैं जो सब्जियों की कृषि में बड़े दक्ष होते हैं।

5. गहन कृषि और विस्तृत कृषि में अन्तर स्पष्ट कीजिए। स्थानान्तरण कृषि को अवैज्ञानिक कृषि कहते हैं, क्यों? भारत में इन्द्रधनुष क्रान्ति से आप क्या समझते हैं ? (Distinguish between Intensive agriculture and Extensive agriculture. Why the shifting agriculture is called unscientific agriculture? What is meant by Rainbow Revolution in India?)


स्थानान्तरित कृषि एक अवैज्ञानिक कृषि (Shifting agriculture as a unscientific agriculture) : स्थानान्तरित कृषि में वनों को काटकर एवं जलाकर भूमि को साफ करके उस भूमि पर कुछ वर्षों तक खेती करते हैं तथा बाद में इसे कुछ वर्षों के लिए परती (खाली) छोड़ देते हैं। इस प्रकार पुनः नई भूमि को प्राप्त करने के पुनः जंगलों को काटा व जलाया जाता है। अत: इस प्रकार की कृषि से वन एवं वन सम्पदा का भारी विनाश होता है, मिट्टी की ऊपरी परत आला जाने से मिट्टी अन उपजाऊ हो जाती है, मिट्टी में निवास करने वाले सूक्ष्म जीव-जन्तु नष्ट हो जाते हैं। जंगलों के जलाने से वायु प्रदूषण फैलता है। भूमि प्रबन्धन के अभाव में वन का विनाश तथा मिट्टी का अपरदन होता है। इतनी क्षति के बावजूद भी इतना उत्पादन नहीं हो पाता कि किसान अपने परिवार का वर्ष भर भरण-पोषण कर सके। अतः इस कृषि से वन-पर्यावरण को व्यापक क्षति पहुँचती है, इसलिए स्थानान्तरित कृषि को अवैज्ञानिक कृषि कहा जाता है।

इन्द्रधनुषी क्रान्ति (Rainbow Revolution) :- वायुमण्डल में सात रंगों के समूह से निर्मित धनुषाकार आकृति को इन्द्रधनुष कहा जाता है। ठीक उसी प्रकार भारत में जलवायु, वर्षा के वितरण में असमानता, मिट्टी की विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न फसलें उगाई जाती हैं। अतः भारत सरकार ने देश के विभिन्न कृषि फसलों के उत्पादन में वृद्धि तथा तकनीकी सुधार के लिए जो रणनीति एवं कार्यक्रम लागू किया है, उसे इन्द्रधनुषी क्रान्ति नाम दिया गया है। खाद्यानों के लिए Green Revolution, तिलहन के लिए Yellow Revolution, टमाटर और मिर्च के लिए Red Revolution मत्स्य एवं जलकृषि के लिए Blue Revolution, मांस के लिए Pink Revolution तथा दुग्ध उत्पादन में वृद्धि के लिए White Revolution नाम दिया गया है। उक्त सभी क्रान्तियों मिलकर सातों रंग तैयार करती हैं। उक्त सभी क्रान्तियों का इन्द्रधनुष के रंग के आधार पर नाम दिया गया है। इस प्रकार भारत में सभी कृषि फसलों के उत्पादन में वृद्धि व तकनीकी सुधार का परिचायक है इन्द्रधनुषी क्रान्ति।

6.चावल की कृषि के लिए किन भौगोलिक दशाओं की आवश्यकता होती है ? बाढ़ पर नियन्त्रण के कुछ उपाय सुझाइए। (What Geographical conditions are required for the cultivation of rice ? Suggest some measures to check the flood.)

Ans. चावल उत्पादन के लिए भौगोलिक दशाएँ (Geographical Condition for Rice Cultivation) :

चावल उत्पादन हेतु निम्नांकित भौगोलिक दशाओं का होना आवश्यक है -
(1) तापक्रम (Temperature) :- चावल एक ऐसी फसल है, जिसका उत्पादन उष्ण कटिबन्धीय मानसूनी जलवायु में होता है। अतः चावल की फसल को विकसित होने के लिए उच्चतम तापमान की आवश्यकता होती है। सामान्यतया खेतों में चावल बोते समय तापमान 20° से 21°C एवं प्रारम्भिक विकास के समय 23° से 24°C तथा फसल के पूर्णतया पकते समय उच्चतम तापमान लगभग 25° से 26° सेल्सियस की आवश्यकता होती है। अत: उच्च तापमान की आवश्यकता के कारण ही चावल का उत्पादन 20° उत्तरी से 20° दक्षिण अक्षांशों के मध्य वर्ष भर किया जाता है। इन अक्षांशों के बाहर केवल ग्रीष्मकाल में ही चावल का उत्पादन किया जाता है।

(2) वर्षा (Rainfall) :- चावल के बीज खेतों में बोते समय अधिकतर 30 से 40 दिनों तक पानी खेत में भरा रहना चाहिए। अतः चावल उत्पादन हेतु पर्याप्त वर्षा जल की प्राप्ति आवश्यक है। इसी कारण चावल का उत्पादन मानसूनी जलवायु वाले प्रदेश में अधिक होता है। चावल उत्पादन हेतु औसत वार्षिक वर्षा 120 से 150 से.मी. तक होनी चाहिए। 100 से.मी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई द्वारा चावल उत्पादन किया जाता है।

(3) समतल धरातल (Isotropic Surface) :- चावल उत्पादन हेतु खेत में पानी भरा रहना चाहिए। अत: अगर ऊबड़-खाबड़ धरातल होगा, तो खेत में पानी नहीं रुक सकता। अतः समतल धरातल जल के रुकावट हेतु, ट्रैक्टरों द्वारा बुवाई आदि हेतु धरातल सामान्य ढालयुक्त समतल होना चाहिए।

(4) मिट्टी (Soil) :- नदियों के डेल्टाई क्षेत्र एवं बाढ़ के मैदान में नदियों द्वारा लाई गई काँप मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है। काँपयुक्त चीका प्रधान दोमट मिट्टी सबसे अधिक अनुकूल है क्योंकि इस मिट्टी में पानी अधिक समय तक रुक सकता है।

(5) श्रमिक (Labour ) :- चावल के उत्पादन में मशीनों का उपयोग केवल खेतों को तैयार करने में ही किया जाता है। शेष कार्य मानवीय श्रम द्वारा किया जाता है। बीज बोने, पौधे लगाने, खेतों की निराई एवं गुड़ाई करने तथा फसल पकने के बाद उसकी कटाई का कार्य, ये सभी मानव द्वारा ही किया जाता है। अतः चावल उत्पादन हेतु सस्ता एवं अधिक मानवीय श्रम अति आवश्यक है। इसी कारण चावल का उत्पादन अधिक जनसंख्या वाले प्रदेशों में किया जाता है। 


बाढ़ पर नियन्त्रण के कुछ उपाय :- बाढ़ नियंत्रण के लिए कई उपाय सुझाए गए हैं। प्रत्येक उपाय के कुछ लाभ एवं कुछ हानियों को इसमें सम्मिलित किया गया है। ये निम्न हैं: -

• बाँधों का निर्माण। • कृत्रिम सतहों या किनारों का विकास। बड़े-बड़े जलाशयों का निर्माण। • नदियों की खुदाई एवं साफ-सफाई। छोटे नालों एवं नहरों को सुचारु करना एवं उनका विकास करना। नदियों को जोडना । • वनों के काटने पर प्रतिबंध ।

7. चाय की कृषि के लिए किन भौतिक दशाओं की आवश्यकता होती है ? फसल चक्र के लाभ लिखिए ? (Which Physical conditions are required for the cultivation of Tea? Write the advantages of crop rotation?) Ans. चाय उत्पादक की भौगोलिक दशाएँ (Geographical Conditions for Tea Cultivation) :

(1) तापमान (Temperature) :- चाय के उत्पादन हेतु 24°से 30° से. वार्षिक तापमान की आवश्यकता होती है। लम्बे समय तक तीव्र गर्मी का मौसम चाय के विकास हेतु अधिक उपयुक्त माना जाता है। ओले और ठण्डी हवा के चलने से चाय का उत्पादन बहुत कम होता है। 
(2) वर्षा (Rainfall) :- उच्च तापमान एवं तीव्र वर्षा वाले क्षेत्रों में चाय का तीव्र विकास होता है। सामान्यतया चाय के लिए वार्षिक वर्षा की औसत 150 से 250 सें.मी. तक होना चाहिए। अधिक आर्द्रता, ओस एवं प्रात: काल में होने वाला कोहरा (Fog) चाय की पत्तियों के विकास हेतु उपयुक्त रहता है।

(3) धरातल (Topography) :- चाय के उत्पादन हेतु धरातल ढालयुक्त होना चाहिए। पानी के रुक जाने से चाय की जड़ें गलने लग जाती हैं। अतः इसी कारण चाय के अधिकांश बागान पहाड़ी ढालों पर लगाए जाते हैं।

(4) मिट्टी (Soil) :- चाय उत्पादन हेतु अधिक उपजाऊ, ह्यूमस युक्त एवं आर्द्रता रखने वाली मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है। अत: दोमट एवं चिकनी मिट्टी चाय उत्पादन हेतु अनुकूल मानी जाती है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने हेतु चाय के लिए अधिकतम खाद की आवश्यकता होती है। इसके लिए सामान्यतः कैल्सियम रहित अल्प मात्रा में अम्लीय मृदा सर्वाधिक उपयुक्त होती है।

(5) श्रमिक (Labour) :- चाय उत्पादन की लगभग सभी क्रियाएँ श्रमिकों द्वारा ही की जाती हैं। मशीनों का उपयोग नगण्य होता है। चाय पौधों को उगाने, पत्तियाँ चुनने, सुखाने, दलने एवं डिब्बों में बन्द करने की सभी क्रियाएँ श्रमिकों द्वारा ही पूर्ण की जाती हैं।

(6) छाया (Shade) :- तीव्र सूर्य ताप तथा पवनों से बचाव के लिए छाया आवश्यक है। फसल चक्र के लाभ (Advantages of crop-rotation) :- फसल चक्र के निम्नलिखित लाभ हैं:

(i) भू-परिष्करण (Tillage) तथा फसलें उगाने सम्बन्धी खेत की तैयारी समुचित ढंग से हो जाती है।
 (ii) भूमि की उर्वराशक्ति, फसलीदार फसलें, हरीखाद, फसल चक्र में सम्मिलित करके प्रमुख मात्रा में सुधर जाती है।
 (iii) व्यवस्थित फसल चक्र प्रणाली द्वारा उर्वराशक्ति में स्थिरता लाई जा सकती है। 
(iv) भूमि की विषाक्तता (Toxicity) को दूर किया जा सकता है।
 (v) भूमि में जीवाणु (Soil micro organism) अपना कार्य सुचारु रूप से संपादित करते हैं।

8. कपास उत्पादन के लिए आवश्यक भौतिक दशाओं का वर्णन कीजिए। चावल की कृषि श्रम गहन क्यों है? (Describe the required physical conditions for the production of cotton. Why cultivation of rice is labour intensive?)

Ans. आवश्यक भौगोलिक दशाएँ (Necessary Geographical Conditions) :- कपास की कृषि के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं की आवश्यकता होती है:-

(1) तापमान :- कपास उष्ण एवं शीतोष्ण दोनों ही प्रकार की जलवायु में उगाई जाती है, परन्तु मुख्य रूप से यह उपोष्ण जलवायु का पौधा है। कपास की उपज के लिए सामान्यतः 20° से 30° सेल्सियस तक तापमान की आवश्यकता होती है। पाला कपास की खेती को बहुत हानि पहुँचाता है। कपास के पौधे की वृद्धि के लिए कम-से-कम 200 दिन पालारहित होना अति आवश्यक है। कपास के रेशे की वृद्धि के लिए समुद्रतटीय पवनें बहुत ही लाभदायक होती हैं। इससे कपास के रेशे में स्वच्छता तथा लम्बाई में वृद्धि हो जाती है।

(2) वर्षा :- कपास के पौधों को पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। इसकी कृषि सामान्यतः 75 से 100 सें.मी. वर्षा वाले प्रदेशों में की जाती है। वर्षा मन्द गति से थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल पर होती रहनी चाहिए। कलियों के खिलते समय वर्षा हानिकारक होती है। वर्षा का जल पौधों की जड़ों में रुकना हानिप्रद होता है। जिन क्षेत्रों में 50 सें.मी. से कम वर्षा होती है, वहाँ सिंचाई द्वारा जल की आपूर्ति कर कपास की कृषि की जाती है; जैसे पाकिस्तान में।

(3) मिट्टी :- कपास की कृषि के लिए उचित मिट्टी का चुनाव करना अति आवश्यक होता है। कपास की खेती विविध प्रकार की मिट्टियों में की जा सकती है। कपास के लिए लावा-निर्मित उपजाऊ काली मिट्टी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि इस मिट्टी में नमी धारण करने की पर्याप्त क्षमता होती है। चीका प्रधान दोमट मिट्टी भी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त रहती है। कैल्सियम, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, मैग्नीशियम आदि लवणों से युक्त मिट्टी कपास की पैदावार के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है, क्योंकि कपास का पौधा मिट्टी की उर्वरा शक्ति को शीघ्र ही नष्ट कर देता है।

(4) मानवीय श्रम :- कपास की खेती के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। कपास को बोने, उसकी निराई-गुड़ाई करने तथा चुनने आदि के लिए अधिक संख्या में सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता होती है। कपास चुनने का कार्य स्त्रियों और बाल-श्रमिकों द्वारा अधिक किया जाता है। परन्तु रूस एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में चुनाई का कार्य मशीनों द्वारा किया जाने लगा है।

चावल की कृषि श्रम गहन होने के कारण :- चावल के उत्पादन में मशीनों का उपयोग केवल खेतों को तैयार करने में ही किया जाता है। शेष कार्य मानवीय श्रम द्वारा किया जाता है। बीज बोने, पौधे लगाने, खेतों की निराई एवं गुड़ाई करने तथा फसल पकने के बाद उसकी कटाई का कार्य, ये सभी मानव द्वारा ही किया जाता है। अतः चावल उत्पादन हेतु सस्ता एवं अधिक मानवीय श्रम अति आवश्यक है। इसी कारण चावल का उत्पादन अधिक जनसंख्या वाले प्रदेशों में किया जाता है।

9.भारत में दुग्ध क्रान्ति से सम्बन्धित समस्याएं क्या है ? भारत में गोधन की संख्या विशाल होने के बावजूद दूध उद्योग का विकास नहीं हुआ है क्यों ? (What are the problems associated with the White Revolution in India? Why is dairy industry not developed in India in spite of having large number of cattle population in this country?)(4+3)

Ans. भारत में श्वेत क्रान्ति से सम्बन्धित समस्याएँ (Probelms associated with White Revolution in India) :- भारत में सन् 1970 के दशक में दुधारू पशुओं के नस्ल में सुधार तथा दुग्ध उत्पादन में वृद्धि के लिए शुरू की गई श्वेत क्रान्ति से सम्बन्धित प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित है-

(i) भारत के दुग्ध उत्पादक क्षेत्र बिखरे हुए हैं। ऐसे में दुग्ध को एकत्रित कर बाजार तथा उपभोग केन्द्र तक पहुंचाना बड़ी समस्या है। (ii) भारत में उत्तम नस्ल वाले दुधारू पशुओं की कमी है। (iii) भारत में पशुओं से दूध निकालने, उन्हें सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक तकनीकी एवं सुविधाओं का अभाव है। इस कारण बहुत सा दूध बाजार पहुँचने से पहले खराब हो जाता है। (iv) भारत में दुधारू पशुओं के उचित भोजन, रख-रखाव, चिकित्सा सुविधा का अभाव है। इस कारण बहुत से दुधारू पशु समय से पहले मर जाते हैं। (v) भारत में दुग्ध प्रसंस्करण तथा दुग्ध पर आधारित उद्योगों का अभाव है। इस कारण न तो उत्पादित दूध का सही उपयोग हो पाता है, और न ही दूध उत्पादन को बढ़ावा मिलता है। (vi) भारत में दूध का उत्पादन व्यावसायिक व संगठित तौर पर न होने के कारण दूध उत्पादकों को उचित मूल्य नहीं मिलता और न समय से उन्हें भुगतान दिया जाता है।

भारत में दुग्ध उद्योग के विकसित न होने का कारण (Causes of Non-development of Dairy industry in India ) :- भारत में गाय और भैंस दोनों मिलकर विश्व में सबसे ज्यादा दुधारू पशु रहते हैं फिर भी उस अनुपात में यहाँ दुग्ध उद्योग का विकास नही हुआ है। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी है-
1. उत्तम नस्ल के दुधारू गाय एवं भैसों की कमी।
2. दुग्ध उत्पादक क्षेत्रों का बिखरा होना। इस कारण समय से दुग्ध का एकत्रीकरण न होने से दूधों का नष्ट हो जाना। 
3. प्रशिक्षण के अभाव में पशुओं का ठीक ढंग से रख-रखाव न होने से उनका रोगग्रस्त हो जाना तथा पशु चिकित्सालयों की कमी।
4. उत्तम तीव्रगामी यातायात व वातानुकूलित वाहनों की कमी, दुग्ध उद्योगों का नगरों तक सीमित होना, उचित प्रबन्धन का अभाव, दुग्ध उद्योग का व्यवसायीकरण न होना, पशुपालकों का अशिक्षित होना। इन्हीं सब कारणों से भारी संख्या में दुग्ध वाले पशु होने के बावजूद देश में दुग्ध व्यवसाय का पर्याप्त विकास नहीं हो सका है।


10. भारतीय कृषि पर हरित क्रान्ति के अभावों की विवेचना कीजिए। गहन निर्वाहन कृषि में प्रति व्यक्ति उत्पादन में कमी क्यों है? फसल संयोजन की परिभाषा दीजिए। (Discuss the impact of Green revalution on Indian agriculture. Why is the per capita production less in intensiv subsitance agriculture? Define crop.combination)[H.S.2018]

Ans. भारतीय कृषि पर हरित क्रान्ति के प्रभाव (Impact of Green Revolution on India agriculture) : 1060 के दशक के बाद आधुनिक तकनीक एवं उच्च उत्पादकता वाले बीजों आदि के प्रयोग के परिणामस्वरूप खाद्यान फसलों के उत्पादन में अधिक वृद्धि हुई जिसे हरित क्रान्ति कहा जाता है। इसका भारतीय कृषि पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा-

(1) हरित क्रान्ति से खद्यानों के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई और भारत इस मामले में आत्मनिर्भर बन गया।

(2) हरित क्रान्ति के कारण पशुओं के चारे में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जिसके कारण श्वेत क्रान्ति का जन्म हुआ। 
(3) हरित क्रान्ति के कारण भारत खाद्यान्नों का आयतक से निर्यातक बन गया। इस कारण भारतीय कृषि बाजार का देश-दुनिया में विस्तार हुआ।

(4) हरित क्रान्ति के कारण ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में छोटे-छोटे लघु एवं नये कुटीर उद्योगों का विकास हुआ, जिसमें रोजगार के नये अवसर का विकास हुआ।

(5) ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार विकसीत होने से ग्रामीण जनसंख्या का नगरीय क्षेत्र में स्थानांतरण में कमी आयी। 
(6) हरित क्रान्ति का लाभ केवल गेहूँ, चावल, मक्का जैसे कुछ फसलों तक सीमित रहा। दलहन, तिलहन एवं अन्य व्यापारिक फसलों के उत्पादन में कोई प्रगति नहीं हुई।

(7) हरित क्रान्ति के कारण बनों के विनास में वृद्धि हुईङ भूमिगत जल के उपयोग में वृद्धि हुई। मिट्टी में रसायनों व उर्वरकों के प्रयोग से उसकी उत्पादकता में कमी आयी। रोग प्रकोप में वृद्धि हुई। इस तरह पारिस्थितिक तन्त्र पर हरित क्रान्ति का प्रभाव नकरात्मक रहा।

इस प्रकार हरित क्रान्ति का प्रभाव कुछ अच्छा तथा कुछ बुरा पड़ा।

• गहन निर्वाहन कृषि में प्रति व्यक्ति उत्पादन में कमी :- गहन निर्वाहन कृषि में किसान पूँजी, तकनीकी, एवं शिक्षा के अभाव में परम्परागत ढंग से कृषि करता है। इस कारण कृषि की उत्पादकता प्रति व्यक्ति कम होता है। अतः किसानों की गरीबी, अशिक्षा एवं रुढ़ीवादिता गहन कृषि में प्रति व्यक्ति उत्पादकता में कमी होने का मुख्य कारण है। 
• फसल संयोजन की परिभाषा (Definition of Crop Combination) :- किसी क्षेत्र इकाई (खेत) में एक वर्ष में उत्पादन की जाने वाली फसलों के समूह को फसल संयोजन कहते हैं। अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक जे० सी० विवर, इस कृषि पद्धति के आविष्कारक हैं। इस कृषि में भौतिक, समाजिक एवं पर्यावरण का साहचर्य देखने को मिलता है।

पाठ-6. द्वितीय क्रिया उद्योग

 (Secondary Activity-

Industry)


1 . पश्चिम भारत में पेट्रो रसायन उद्योग के विकास के लिए उत्तरदायी कारकों का विश्लेषण कीजिए। कनाडा में कागज उद्योग विकसित है, क्यों ? आइसोडापान क्या है ? (Analyse the factors responsible for the development of Petro-chemical industry in Western India. Why Canada is developed in Paper Industry? What is isodapane?)[H.S. 2015]

Ans. पश्चिम भारत में पेट्रो रसायन उद्योग के विकास के लिए उत्तरदायी कारक (Factors responsible for the development of Petro chemical industry in Western India.) :- पश्चिम भारत के महाराष्ट्र और गुजरात राज्य में अनेकों पेट्रो रसायन उद्योग केन्द्र स्थित हैं जिनमें मुम्बई, थाने, ट्राम्बे (महाराष्ट्र) बड़ोदरा, कोयली, हजीरा एवं जामनगर (गुजरात) प्रमुख हैं। भारत में सबसे अधिक पेट्रो रसायन उद्योग का विकास एवं केन्द्रीकरण इसी क्षेत्र में हुआ है। जिसके लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं :

1. पश्चिम भारत में अनेकों खनिज तेल की खान तथा पेट्रोलियम शोधन शालाएँ स्थित हैं, जिनसे पेट्रो रसायन उद्योग के लिए नेप्था, बुटाडिन आदि कच्चामाल प्राप्त हो जाता है।

2. पश्चिमी तट पर मुम्बई, नोवा-सेवा, काण्डला बन्दरगाह स्थित हैं। इन बन्दरगाहों से खाड़ी देशों से पेट्रोलियम तथा मशीने, आदि मँगाने की सुविधा है।

 3. इस क्षेत्र में उकाई कोयना जलविद्युत तथा तारापुर और काकरापाड़ा अणु शक्ति केन्द्र स्थित हैं। इन केन्द्रों से पेट्रो रसायन उद्योगों को आवश्यक विद्युत प्राप्त हो जाता है। 

4. इस क्षेत्र में पहले से ही औद्योगिक अधारभूत संरचनाएँ सड़क, रेल, संचार, जल, विद्युत विकसित हैं जो पेट्रो-रसायन उद्योग के लिए आदर्श दशाएँ प्रदान करते हैं।

5. पेट्रो-रसायन उत्पाद सस्ते और प्रचलित हैं, देश एवं देश के बाहर भारी माँग है। अतः विस्तृत बाजार की सुविधा प्राप्त है। 

6. भारत घनी जनसंख्या वाला देश है, इस वजह से इस उद्योग के लिए सस्ते और आसानी से श्रमिक उपलब्ध हो जाते हैं।

7. गुजरात एवं महाराष्ट्र में रिलायन्स एवं मफतलाल जैसे अनेकों पूँजीपति एवं व्यापारियों के समूह हैं, जिनकी पूँजी इस उद्योग के विकास में सहायक है।

उपरोक्त भौगोलिक एवं आर्थिक सुविधाओं के कारण पश्चिम भारत में पेट्रो रसायन उद्योग का विकास हुआ है। 

कनाडा में कागज उद्योग के विकास के कारण (Causes of the development of paper industry in Canada) :- कनाडा विश्व का सबसे बड़ा अखबारी कागज उत्पादक देश है। यहाँ कागज उद्योग का अधिक विकास हुआ है जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
 1. कनाडा के 60 प्रतिशत भाग पर मुलायम लकड़ी वाले नुकीली पत्ती के वन फैले हुए हैं, जहाँ से कागज उद्योग को कच्चा माल प्राप्त हो जाता है।
2. कनाडा में सस्ती जल विद्युत शक्ति का अधिक विकास हुआ, जो यहाँ के कागज उद्योग के विकास में सहायक है। 
3. कनाडा का आन्तरिक सस्ता जल यातायात तथा नदियों के स्वच्छ जल की सुविधा इस उद्योग की उन्नति में सहायक है।
4. यहाँ की कागज की माँग पूरे विश्व में है। अतः विस्तृत बाजार इसके विकास में सहायक है। 
5. उच्च तकनीकी, पूँजी, उत्तम शीतोष्ण जलवायु, सस्ते कुशल श्रमिक, सरकारी संरक्षण आदि सुविधाएँ यहाँ के कागज उद्योग के विकास में सहायक हैं।

उपरोक्त भौगोलिक एवं आर्थिक सुविधाओं के कारण कनाडा में कागज उद्योग का विकास हुआ है।

 आइसोडापान (Isodapane) :- अल्फ्रेड वेवर के अनुसार-निम्न परिवहन लागत बिन्दु से हटने पर जिन-जिन विन्दुओं पर परिवहन खर्च में अतिरिक्त वृद्धि होती है, उन समान परिवहन लागत विन्दुओं को मिलाने वाली रेखा 'आइसोडापान' कहलाती है। यह रेखा समान परिवहन लागत को दर्शाती है। इसकी आकृति अण्डाकार (Oval shaped) होती है।

2. भारत में रेडिमेड वस्त्र उद्योग के विकास के कारणों का उल्लेख कीजिए। दुर्गापुर इस्पात संयन्त्र की स्थापना किस देश के सहयोग से हुई है ? यहाँ इस उद्योग के विकास के क्या कारण हैं? (Discuss the factors of the development of Redymade Garment industry in India. With the help of which country Durgapur Steel Plant established? What are the reasons behind development of this indus try here?) [H.S.2018]

Ans. भारत में रेडीमेड वस्त्र उद्योग के विकास के कारक (Factors of development of Redymade Garment indsutry in India) :- विभिन्न वर्ग के लोगों की आवश्यकता, रूचि, फैशन तथा विभिन्न उपयोग को
ध्यान में रखकर भिन्न-भिन्न तरह के सीले सिलाए वस्त्र तैयार करना रेडीमेड वस्त्र उद्योग कहलाता है। यह अनेको रोजगार पैदा करने वाला समेकित (Integrated) उद्योग है। 1990 के दशक के बाद भारत के लोगों में फैशन के प्रति बढ़ती रूची तथा परिवर्तन के कारण इस का तेजी से विकास हुआ है। आज चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा बृहत्तम रेडीमेड वस्त्र उत्पादन करने वाला देश है। अत: भारत में रेडीमेड वस्त्र उद्योग के विकास के निम्नलिखित कारण है।

(1) कच्चे माल की उपलब्धता (Availability of raw materials) :- रेडीमेड वस्त्र उद्योग का कच्चामाल विभिनन प्रकार के सूती, रेशमी, ऊनी, कृत्रिम रेशमी, लिनेन, मसलीन, प्रोपलिन, पालिस्टर, जीन्स आदि अन्य कपड़े, विभिन्न प्रकार के धागे, बटन, चेन, इलास्टिक, इत्यादि है। ये सभी आवश्यक वस्तुएँ भारत के प्रमुख नगरों से आसानी से प्राप्त हो जाते हैं।

(2) मशीन एवं उपकरण की उपलबता (Availability of machine and instruments) :- रेडीमेड वस्त्र तैयार करने के लिए सिलाई मशीन, इमब्रोडरी मशीन, बुनाई मशीन, कढ़ाई मशीन तथा उनके उपकरण की जरूरत पड़ती है। भारत में इंजीनियरिंग उद्योग का काफी विकास हुआ है। अतः देशी बाजार में सभी प्रकार की मशीनें एवं उपकरण प्राप्त हो जाते हैं।

(3) विद्युत की सुविधा (Facilities of Powr) :- भारत में सस्ती विद्युत के अलावा तापविद्युत, अणुशक्ति के अनेकों केन्द्र स्थापित है। अतः विद्युत की सुविधा इस उद्योग के तीव्र विकास में सहायक है।

(4) बाजार एवं मांग की सुविधा (Facilities of demand and market ) :- रेडीमेड वस्त्र उद्योग के विकास में बाजार और मांग का बड़ा योगदान होता है। भारत में विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे, फैशन एवं डिजाइन के वस्त्र तैयार किए जाते है। इस कारण देशी बाजार में इनकी भारी माँग व खपत है। इसके अलावा अमेरिका, इंग्लैंण्ड, सिंगापुर, अरब देश में यहाँ के रेडीमेड वस्त्रों की भारी माँग है। अतः देशी एवं विदेशी बाजार की सुविधा इस उद्योग के विकास में सहायक है।

(5) यातायात एवं सस्ता श्रम (Transport and chepa labour) :- भारत में सड़क, रेल एवं जल यातायात का पर्याप्त विकास हुआ है। अतः कच्चे माल, मशीन, उपकरण को उत्पादन केन्द्र तक तथा तैयार रेडीमेड वस्त्रों को देशी एवं विदेशी बाजार तक पहुँचाने की पर्याप्त सुविधा है।भारत में रेडीमेड वस्त्र उद्योग के लिए आसानी से सस्ते एवं कुशल श्रमिक प्राप्त हो जाते हैं। इस उद्योग के विकास में यातायात, सस्ता श्रम का बहुत बड़ा योगदान है।

6. अन्य सुविधाएँ (Other facilities) :- उपर्युक्त सुविधाओं के अतिरिक्त देशी एवं विदेशी पूँजी निवेश, तकनीकी ज्ञान, वैश्विक बाजार, आयात-निर्यात, सरकारी सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अन्य देशों की अपेक्षा भारतीय वस्त्र सुन्दर, सस्ता तथा टिकाऊ होना आदि सुविधाएँ भी इस उद्योग को सुलभ हैं।

इन्हीं सुविधाओं के कारण पिछले दो दशकों में भारत में रेडीमेड वस्त्र उद्योग का तेजी से विकास हुआ है। 
दुर्गापुर :- यह ब्रिटेन के सहयोग से पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान जिले में दुर्गापुर नामक स्थान पर बनाया गया है। यह स्थान दामोदर नदी के किनारे ग्रैण्ड ट्रंक रोड पर कोलकाता से 176 किलोमीटर दूर स्थित है। इस कारखाने को झारखण्ड व उड़ीसा की नोआमुण्डी की खान से लौह-अयस्क मिल जाता है। रानीगंज से राउरकेला इस्पात के कारखाने के लिए कोयला ले जाने वाले रेलवे के वैगन लौटते समय यहाँ के लिए खनिज लोहा लाते हैं। रानीगंज तथा झरिया की खानों से कोकिंग कोयला प्राप्त होता है। इसका अपना कोयला धोने का कारखाना है। हाथीबाड़ी तथा बीरमित्रपुर से चूना पत्थर, बीरमित्रपुर (संभलपुर) से डोलोमाइट, उड़ीसा के बोनाई क्षेत्र से मैंगनीज मिल जाता है। दामोदर नदी के दुर्गापुर बैरेज से आवश्यक जल तथा दामोदर घाटी योजना से जलविद्युत मिल जाती है। यहाँ रेलवे के पहिये, धूरियाँ, रेल की पटरियाँ, ब्लेड आदि तैयार होते हैं। यहाँ प्रति वर्ष 7.76 लाख मीट्रिक टन इस्पात पिण्ड एवं 6.41 लाख मीट्रिक टन विक्रय योग्य इस्पात का उत्पादन किया जाता है।


Vvvi.**चक्रवात और प्रतिचक्रवात में अंतर 

1- चक्रवात के केंद्र का वायुदाब कम होता है और प्रतिचक्रवात के केंद्र का वायुदाब उच्च होता है।
2-चक्रवात की परिधि पर वायुदाब अधिक होता है और प्रतिचक्रवात की परिधि पर वायुदाब कम होता है।
3-चक्रवात में वर्षा होती है और प्रतिचक्रवात में मौसम साफ रहता है।
4-चक्रवात और प्रतिचक्रवात दोनों एक दूसरे के विपरीत होते हैं।
5- उत्तरी गोलार्ध में चक्रीय एंटीक्लॉक दिखाई देता है और दक्षिण गोलार्ध में चक्रीय क्लॉक जैसा दिखता है। जबकि प्रतिचक्रवात में चक्रवात का ठीक उल्टा होता है।
6-चक्रवात में केंद्र पर वायुदाब कम होने के कारण वायुएं परिधि से केंद्र की ओर जाती हैं जबकि प्रतिचक्रवात में केंद्र पर वायुदाब अधिक होता है और परिधि पर कम जिसके कारण वायुएं केंद्र से परिधि की ओर प्रवाहित होने लगती हैं।


Vi.**. Write important characteristics of illuviation.
[H.S.2009, 2012] 
Ans. मृदा मण्डल के ऊपरी संस्तर में जैविक तत्व, खनिज, पाए जाते हैं। जल के साथ रिस कर ये पदार्थ A संस्तर से B संस्तर में जमा होने लगते है। इसे विनिक्षेपण (illuviation) कहते हैं|

Vi.**. Write important characteristics of elluviation. [H.S.2010] 
Ans. मृदा मण्डल के A संस्तर से B संस्तर से जैविक तत्वों, घुलनशील खनिजों के जल के साथ रिसकर जाने की क्रिया को अपवहन (elluviation) कहते हैं। इसमें चट्टानों के अपक्षय का प्रमुख योगदान होता है। जिससे चट्टानें विघटित होकर महीन कणों में बदल जाती है और जल में घुलकर B संस्तर की ओर अपवाहित होने लगती है ।

** अल्युविएशन(elluviation )और इल्यूविएशन (Illuviation)में अंतर
1-अल्युविएशन में सामग्री को हटाना और परिवहन करना शामिल है, जबकि इल्युविएशन में सामग्री का निक्षेपण शामिल है।
2-अल्युविएशन झरझरा परत बनाने के लिए प्रवृत्त होता है, जबकि इल्युविएशन सघन परतें बना सकता है।
3-अल्युविएशन पोषक तत्वों को धो सकता है, जबकि इल्युविएशन मिट्टी को पोषक तत्वों से समृद्ध कर सकता है।

***Aquifer : भूमिगत जल चट्टानों के जिस भाग से होकर भूमिगत होता रहता है जिसे जलभरा (Aquifer) कहते हैं । जलभरा के लिए मलवे का ढेर, बजरी, रेत आदि अनुकूल होते है ।












Vvvi.***



























Vvvi.**3.भारत में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के वितरण का विश्लेषण कीजिए। वेवर के अनुसार उद्योगों के स्थानीकरण में कच्चा माल के योगदान क्या हैं ? (Analyse the distribution of food processing industry of India. What is the role of raw material on the location of industries as per Weber?) 

Ans. भारत में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का वितरण (Distribution of Food processing industry of (India) :- खाद्य प्रासंस्करण उद्योग कृषि क्षेत्र से प्राप्त होने वाले कच्चे माल, फल, सब्जियों, दूध, अण्डे, मांस, मछली आदि पर आधारित देश के प्रायः सभी राज्यों में विकसित तेजी से विकसित होने वाला उद्योग है। भारत में इसका विकास बड़े और छोटे तथा कुटीर उद्योग के रूप में संगठित तथा असंगठित तौर पर देश के विभिन्न राज्यों में हुआ है। आने 443

विकास के आधार पर इसे तीन प्रमुख वितरण क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।

(i) विकसित क्षेत्र (Developed area) :- इसके अन्तर्गत वे राज्य आते हैं जहाँ पहले से ही खाद्य प्रसंस्करण के उद्योग विकसित थे। इसके अन्तर्गत महाराष्ट्र, गुजरात तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश पंजाब हरियाण गोवा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि राज्य हैं। इन राज्यों के प्रमुख नगरों दिल्ली, मुम्बई, पूना, अहमदाबाद, बड़ौदा कोलकाता, बंगलौर, हैदराबाद, गुडगाँव, चण्डीगढ़, पणजी, लखनऊ, कानपुर में खाद्य प्रसंस्करण के केन्द्र हैं।

2. सामान्य क्षेत्र (General area) :- इसके अन्तर्गत वे राज्य आते हैं जहाँ खाद्य प्रसंकरण उद्योग धीरे-धी विकसित हो रहे हैं। इस क्षेत्र के अन्तर्गत राजस्थान, उड़ीसा, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, केरल छत्तीसगढ़, हिमांचल प्रदेश के प्रमुख भाग आते हैं।

3. अविकसित क्षेत्र (Undeveloped area) :- इस क्षेत्र के अन्तर्गत वे राज्य आते हैं। जहाँ अभी खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के विकास की मूलभूत संरचनाओं का अभाव है। इसके अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर, असम, उत्तराखण्ड, सिक्किम, नागालैण्ड, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा इत्यादि राज्य के क्षेत्र आते हैं।

उद्योगों के स्थानीकरण पर कच्चा माल का योगदान (Role of raw material on the location of Industries) :- किसी उद्योग को स्थापित करने से पहले ऐसे स्थान के चयन की समस्या आती है, जहाँ कम से कम लागत में अधिकतम लाभ की प्राप्ति हो सके। जिसमें कच्चे माल का भी विशेष प्रभाव होता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर जर्मन अर्थशास्त्री अल्फ्रेड वेबर ने उद्योगों की स्थापना में कच्चा माल के योगदान या प्रभाव का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार है- (i) जिस उद्योग में प्रयोग होने वाला कच्चा माल का भार उत्पादन प्रक्रिया में घटता नहीं या लगभग समान रहता है। अर्थात् शुद्ध कच्चा माल पर आधारित होता है, ऐसे उद्योग कच्चे माल के स्रोत या बाजार क्षेत्र में कहीं भी स्थापित किया जा सकता है, जैसे सूती वस्त्र उद्योग, रेडीमेड वस्त्र उद्योग इन उद्योगों में रूई या वस्त्र के परिवहन लागत में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता है। (ii) जिस उद्योग में एक या एक से अधिक भारी भरकम कच्चे माल अर्थात् अशुद्ध कच्चा माल का प्रयोग होता है, जिनका वजन उत्पादन प्रक्रिया में काफी कम होता है, ऐसे उद्योग कच्चे माल के स्रोत के निकट स्थापित किये जाते हैं। इसी कारण एक से अधिक कच्चे माल का प्रयोग किया जाने वालों लौह-इस्पात उद्योग लौह-अयस्क व कोयला क्षेत्र में स्थापित होते हैं तथा चीनी उद्योग गन्ना उत्पादक क्षेत्र में स्थापित होता है। (iii) जिस उद्योग में एक से अधिक कच्चे माल का प्रयोग होता है तथा कच्चा माल शुद्ध तथा सर्वत्र सुलभ हैं तो ऐसे में उद्योग की स्थिति बाजार के निकट होगी या दो कच्चे मालों के बीच किसी उपयुक्त स्थल पर होगी जहाँ परिवहन लागत कम हो। (iv) यदि कच्चे माल मिश्रित और निश्चित स्थान पर ही सुलभ है तो उद्योग की स्थिति समस्यापूर्ण होगी। इस समस्या को सुलझाने के लिए वेबर ने स्थानीकरण का त्रिभुज सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। ऐसे में भार हानि वाले उद्योग कच्चे माल के निकट तथा जिसमें भार हानि नहीं होगी वह या तो बाजार के निकट या त्रिभुज के ठीक केन्द्र में स्थित होंगे।

 7. जनसंख्या और अधिवास (Population and Settlement)

Vvi.**1)कार्य के आधार पर नगरीय बस्तियों का सोदाहरण वर्गीकरण कीजिए। (Classify Urban settlement on the basis of its function and give examples.)
[H.S. 2015, 2018]

 Ans. नगरीय बस्तियों का वर्गीकरण (Classification of Urban settlement) :- कार्य एवं स्थिति के आधार पर नगरीय बस्तियों को निम्नलिखित वर्गों में बांटा गया है-

1. प्रशासनिक वस्ती (Administrative settlement) :- वे बस्तियाँ जो देश-प्रदेश के प्रशासन के केन्द्र-बिंदु होते हैं, जहाँ अनेकों प्रशासनिक कार्यालय होते हैं। देश-प्रदेश की राजधानियाँ तथा जिला मुख्यालय प्रशासनिक नगर के रूप में विकसित होते हैं। दिल्ली, कोलकाता मास्को, लन्दन प्रशासनिक नगर के उदाहरण है।

 2. औद्योगिक बस्ती (Industrial settlement) :- जिन बस्तियों का विकास उद्योग-धन्धों के कारण होता है। उन्हें औद्योगिक बस्ती कहते हैं। जमशेदपुर, दुर्गापुर, मानचेस्टर डेट्रायट औधोगिक बस्ती के सुन्दर उदाहरण है।

3. व्यापारिक बस्ती (Commercial settlement) :- वे बस्तिया जिनका विकास व्यापारिक एवं व्यवसायिक क्रिया-कलापों के कारण होता है, उसे व्यापारिक बस्ती कहते हैं। मुम्बई, कोलम्बो, लन्दन एमस्टरडम इस बस्ती के उदाहरण है।

4. सांस्कृतिक बस्ती (Cultural settlement) :- वे बस्तियाँ जिनका विकास धार्मिक एवं शैक्षणिक गतिविधियों के कारण होता है, उसे सांस्कृतिक बस्ती कहते हैं। मथुरा, काशी, मक्का, यरुशलम अमृतसर, प्रयाग इस बस्ती के उदाहरण है।

5. सैन्य व सुरक्षा बस्ती (Military and Defance :- वे वस्तिया जिनका विकास सैनिक क्रिया-कलापों तथा सैन्य सुरक्षा केन्द्र के रूप में होता है, उसे सैन्य बस्ती कहते हैं। मेरठ, अम्बाला पोर्टब्लेयर जिब्राल्टर, इस बस्ती के उदाहरण हैं।

Vvvi***(2) भारत में जनसंख्या के असमान वितरण के कारणों का उल्लेख कीजिए।  (Mention the causes of uneven distribution of population in India. 
Ans. जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले तत्व :- भारत में जनसंख्या का घनत्व सर्वत्र समान है। भारत की जनसंख्या के धनत्व पर निम्नलिखित बातों का प्रभाव पड़ता है.

(1) धरातल की बनावट :- पहाड़ों की अपेक्षा समतल मैदानों में कृषि, यातायात तथा उद्योगों का विकास अधिक सम्भव है। मैदानी भागों में कम मेहनत से व्यक्ति अपना भरण-पोषण कर सकता है। पहाड़ी भागों की अपेक्षा मैदानी भारत में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। यही कारण है कि उत्तरी मैदान में स्थित पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश आद राज्य घनी आबादी वाले हैं जबकि उत्तर एवं उत्तर-पूर्व के पर्वतीय भागों में स्थित मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड में आबादी का घनत्व कम है।

(2) वर्षा की मात्रा :- कृषि की सफलता वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है। इसी से भारत में अधिक वर्षा का अर्थ है अधिक जनसंख्या। इसी से भारत में सामान्यतः अधिक वर्षा वाले क्षेत्र घने आबाद हैं, जैसे- केरल व पश्चिम बंगाल। वर्षा की मात्रा घटने के कारण पश्चिम बंगाल से पश्चिम जाने पर जनसंख्या का घनत्व कम होता जाता है। कम वर्षा के कारण राजस्थान राज्य की जनसंख्या का घनत्व अत्यन्त कम है। परन्तु असम व मेघालय इसके अपवाद हैं जहाँ अधिक वर्षा होने पर भी सघन वन एवं अस्वास्थ्यकर जलवायु के कारण जनसंख्या का घनत्व कम है।

(3) तापक्रम :- अत्यधिक गर्म अथवा अत्यन्त ठण्डे भाग मानव निवास के योग्य नहीं होते हैं। यही कारण है कि राजस्थान के गर्म एवं हिमालय के हिमाच्छादित भाग कम घनी आबादी वाले हैं।

(4) भूमि की उर्वरा शक्ति :- उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल राज्यों में उपजाऊ भूमि मिलने के कारण फसलों का उत्पादन अधिक होता है जिससे वहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक है जबकि भूमि के अनुपजाऊ होने के कारण राजस्थान एवं मेघालय राज्यों की जनसंख्या का घनत्व अत्यन्त कम है।

(5) सिंचाई के साधनों की सुविधा :- शुष्क क्षेत्रों में भी सिंचाई की सुविधा होने से प्रति एकड़ उत्पादन अधिक होता है इससे वहाँ जनसंख्या अधिक मिलती है; जैसे- पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वर्षा कम होती है, परन्तु वह नहरों द्वारा सिंचाई की सुविधा होने से जनसंख्या का घनत्व अधिक है।

(6) धान की कृषि :- धान की प्रति एकड़ उपज अधिक होती है। साथ ही एक ही खेत से वर्ष में धान की दो-तीन फसलें उत्पन्न की जा सकती हैं। अत: अन्य फसलों की अपेक्षा धान की कृषि वाले क्षेत्रों में अधिक जनसंख्या का जीवन निर्वाह हो सकता है। इसी से धान की कृषि वाले पश्चिम बंगाल, केरल तथा तमिलनाडु आदि राज्यों में जनसंख्या का घनत्व अधिक है

(7) खनिज पदार्थों की प्राप्ति :- जहाँ खनिज पदार्थों की अधिकता है वहाँ लोग खानों में काम करने के लिए आ जाते हैं। ऐसे स्थानों पर खनिजों पर आधारित उद्योगों का भी विकास हो जाता है अतः खानों के समीप जनसंख्या जाती है, जैसे- रानीगंज, झरिया आदि।

8)यातायात के साधनों की सुविधा :- जिन भागों में रेल, सड़क आदि यातायात के साधनों की सुविधा है वहाँ व्यापार एवं उद्योगों की उन्नति होने से जनसंख्या बढ़ जाती है।

(9) उद्योगों का विकास :- जहाँ उद्योग-धन्धों की अधिकता होती है, वहाँ कल-कारखानों में काम करने तथा अन्य कार्यों के लिए दूर-दूर से लोग आ जाते हैं जिससे वहाँ जनसंख्या का घनत्व बढ़ जाता है। हुगली क्षेत्र, मुम्बई, कानपुर, दुर्गापुर तथा जमशेदपुर में औद्योगिक विकास के कारण ही अधिक जनसंख्या मिलती है। 
(10) व्यापारिक एवं धार्मिक केन्द्र :- कोलकाता, मुम्बई आदि व्यापारिक केन्द्र तथा बनारस (काशी), इलाहाबाद(प्रयाग) आदि धार्मिक केन्द्र भी घनी आबादी वाले हैं। 

(11) शान्ति एवं सुरक्षा :- मनुष्य वहीं रहना पसन्द करता है, जहाँ उसे जान-माल की सुरक्षा दिखाई पड़ती है। चम्बल की घाटी में लगातार डाकुओं का तथा जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों का भय बना रहता है। अतः वहाँ से लोग धीरे-धीरे दूसरे स्थानों को चले जा रहे हैं।


Vvi.*****स्टैलेक्टाइट्स    स्टैलेग्माइट्स में अंतर 

परिभाषा-
1- स्टैलेक्टाइट्स संरचनाएं हैं जो गुफाओं की छत से लटकती हैं|
1-स्टैलेग्माइट्स ऐसी संरचनाएं हैं जो गुफाओं के तल से उठती हैं|

आकार
2-स्टैलेक्टाइट्स कन्दरा के छत की ओर चौड़े नीचे की ओर संकरे होते जाते हैं|
2-स्टैलेग्माइट्स फर्श पर अधिक चौड़े किन्तु ऊपर की ओर संकरे होते जाते है।

मोटाई
3-स्टैलेक्टाइट्स में एक नुकीला किनारा होता है।
3-स्टैलेग्माइट्स की मोटी धार होती है।

निर्भर कारक
4-स्टैलेक्टाइट का निर्माण कैल्शियम कार्बोनेट के विघटन की दर और स्टैलेक्टाइट के किनारे पर कैल्शियम बाइकार्बोनेट के कैल्शियम कार्बोनेट में रूपांतरण की दर पर निर्भर करता है।
4-कैल्शियम कार्बोनेट के विघटन की दर और कैल्शियम बाइकार्बोनेट के कैल्शियम कार्बोनेट में रूपांतरण की दर के अलावा
 स्टैलेग्माइट का निर्माण पानी के ph और किनारे के सतह तनाव(surface tension) पर निर्भर करता है।

Vi.****क्वाटरनरी (Quarternary activities)गतिविधियों
और क्विनरी (Quinary activities)गतिविधियों के बीच अंतर लिखो|

Ans-क्वाटरनरी गतिविधियाँ 
i) क्वाटरनरी गतिविधियाँ उन गतिविधियों को संदर्भित करती हैं जहाँ कार्य सोचना, शोध करना और विचारों को विकसित करना है।
(ii)क्वाटरनरी गतिविधियाँ अनुसंधान, प्रशिक्षण और शिक्षा तक ही सीमित है।
(iii) सॉफ्टवेयर डेवलपर, सांख्यिकीविद्, अस्पताल के कर्मचारी, शिक्षक, वित्तीय योजनाकार कर सलाहकार, थिएटर में काम करने वाले लोग आदि क्वाटरनरी गतिविधियों के अंतर्गत आते हैं।
(iv)क्वाटरनरी गतिविधियाँ एक (white collar job) सफेदपोश नौकरी है|
(v) ये कानूनों के निर्माता नहीं हैं|
क्विनरी गतिविधियां 
(i) क्विनरी गतिविधियों में प्रशासन से संबंधित कार्य शामिल होते हैं।
(ii)क्विनरी गतिविधियां उच्चतम स्तर के निर्णय लेने और नीति निर्माण तक सीमित हैं।
(iii) वरिष्ठ व्यावसायिक अधिकारी, सरकारी अधिकारी, वैज्ञानिक, न्यायाधीश आदि क्विनरी गतिविधियों के अंतर्गत आते हैं।
(iv)क्विनरी गतिविधियां एक (Golden collar job)गोल्डन कॉलर जॉब है|
(v)ये कानूनों के निर्माता हैं|


Vvi.***वॉरेन थॉमसन के जनसंख्या विकास मॉडल के विभिन्न चरणों पर चर्चा करें।
Or,
जनसंख्या के विश्वव्यापी वितरण में प्रवासन के प्रभावों की चर्चा कीजिए। जनांकिकीय संक्रमण मॉडल की विभिन्न चरणों की विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए। (Discuss the impact of migration on world wide distribution of population. Mention the characteristics of different stages of Demographic Transition Model.).
[H.S. 2016, 2018]

Ans. जनसंख्या वितरण में प्रवास का योगदान (Role of migration in population distribution) :- जनसंख्या का एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर निवास करना जनसंख्या प्रवाह कहलाता है। जनसंख्या प्रवास दो प्रकार का होता है - अप्रवास और उत्प्रवास। यह प्रवास आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक आदि कई कारणों से होते हैं। किसी क्षेत्र की जनसंख्या के वितरण में जनसंख्या प्रवास का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

जनसंख्या प्रवास चाहे आन्तरिक हो या बाहरी, जनसंख्या के वितरण को प्रभावित करता है। जिस स्थान से जनसंख्या दूसरे स्थान पर जाती है, वहाँ की जनसंख्या कम हो जाती है तथा जिस स्थान पर जाकर बसती है वहाँ जनसंख्या का घनतत्व बढ़ जाता है। जहाँ की जनसंख्या अधिक होती है वहाँ मानव श्रम महँगा हो जाता है वहीं दूसरी तरफ जहाँ जनसंख्या जाकर बसती है, वहाँ जनसंख्या अधिक होने के कारण श्रम सस्ता होता है तथा श्रम का शोषण बढ़ जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों में आन्तरिक प्रवास के कारण जनघनत्व अधिक होता है। इसके साथ जहाँ जनसंख्या जाकर बसती हैं, वहाँ शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, आवास, यातायात के क्षेत्र में समस्याएँ बढ़ जाती हैं। इसके अलावा वे जहाँ जाते हैं, वह अपने पूर्व स्थान की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज को अपने साथ ले जाते हैं और उसका पोषण और संरक्षण करते हैं। इस प्रकार सभ्यता और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में प्रवास का महत्त्वपूर्ण योगदान हैं। भारत से मारीशस में बसे भारतीयों द्वारा वहाँ हिन्दी, भोजपुरी भाषा तथा धर्म और संस्कृति का प्रसार इसका उदाहरण है।

जनांकिकीय संक्रमण मॉडल (प्रतिरूप) की विभिन्न चरणों की विशेषताएँ (Characteristics of different stages of Demographic Transition Model) :- 1945 ई० में नोटेस्टीन ने जनसंख्या के जन्मदर एवं मृत्युदर के आधार पर जिस कालिक जनसंख्या परिवर्तन या संक्रमण चित्रात्मक नमूना प्रस्तुत किया उसे जनांकिकीय संक्रमण मॉडल कहा जाता है जिसकी व्याख्या चार चरणों में की गयी है, उन सबका चित्र सहित संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है -

1. प्रथम चरण (1st phase) :- यह जनांकिकीय संक्रमण की प्रथम अवस्था है जिसमें जन्मदर और मृत्यु दर दोनों उच्च होते हैं। इस कारण जनसंख्या अति मन्द गति से बढ़ती है। विज्ञान, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, व्यापार शिक्षा एवं तकनीकी विकास के अभाव में प्राकृतिक प्रकोपों, बीमारियों एवं महामारियों पर नियन्त्रण न होने से इस अवस्था में मृत्युदर उच्च होती है। इस अवस्था में जन्मदर लगभग स्थायी होती है किन्तु मृत्युदर घटती-बढ़ती रहती है। जीवन प्रत्याशा निम्न होती है। कृषि की होती है। द्वितीय एवं तृतीय आर्थिक क्रियायें विकास के प्रारम्भिक अवस्था में होते हैं। सम्भवतः इस समय विश्व का कोई देश संक्रमण की इस अवस्था में नही है।

2. द्वितीय चरण (2nd Phase) :- यह जनांकिकीय संक्रमण की द्वितीय चरण (अवस्था) है जिसमें जन्मदर उच्च एवं लगभग स्थिर रहती है किन्तु मृत्युदर में धीरे-धीरे कमी आने लगती है जिससे कुल जनसंख्या में वृद्धि होती जाती है।
मृत्युदर में कमी आने के प्रमुख कारण पोषण, सफाई, स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार, बीमारियों व महामारियों पर नियन्त्रण, , युद्धों में कमी, प्राकृतिक प्रकोपों से सुरक्षा आदि है। इस कारण इस अवस्था में तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ती है। विश्व के अधिकांश विकासशील देश जैसे- बंगलादेश ,म्यानमार, सूडान, मोरक्कों, नाइजीरिया आदि इसी अवस्था से गुजर रहे हैं।

3. तृतीय चरण (3rd Phase) :- यह जनांकिकीय संक्रमण की तृतीय अवस्था है, जिसमें जन्मदर में कमी तथा मृत्युदर में तीव्र ह्रास होने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप पहले की तुलना में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी आने लगती है। बच्चें के पालन-पोषण, शिक्षा, परिवार नियोजन के प्रति समाज में जागरूकता बढ़ने लगती है। औद्योगिक और नगरीय समाज विकसीत होने लगता है। लोग विभिन्न कृत्रिम उपायों से परिवार को सीमित करने का प्रयास करते हैं जिसके फलस्वरूप जन्मदर तथा कुल जनसंख्या वृद्धिदर में कमी आने लगती है। भारत, मिश्र अर्जेनटाइना, ब्राजील आदि अन्य अन्य अर्द्धविकासशील देश इसी अवस्था से गुजर रहे हैं।

4. चतुर्थ चरण (4th Phase) :- यह जनांकिकीय संक्रमण की चतुर्थ अवस्था है जिसमें जन्मदर और मृत्युदर दोनों निम्न स्तर पर पहुँच कर लगभग स्थिर हो जाती है और जनसंख्या वृद्धि दर लगभग रूक जाती है। जनसंख्या लगभग स्थायी हो जाती है। जनसंख्या वृद्धि और संसाधनों के उत्पादन, विकास एवं उपयोग में सन्तुलन स्थापित हो जाता है। अतः यह अवस्था जनसंख्या वृद्धि आदर्श स्थिति होती है। समाज बच्चों के उच्च जीवन स्तर के प्रति सजग होने लगता है। समाज पूर्णरूप से औद्योगिकृत एवं नगरीकृत में बदल जाता है। विश्व के अधिकांश विकसीत देश जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, जापान, फ्राँस इंग्लैण्ड, जर्मनी, इटली रूस आदि इसी अवस्था से गुजर रहे हैं।


Vvi ***
Compact settlement.     Fragmented settlement 





***अल्फा विविधता और बीटा विविधता के बीच अंतर लिखो |

उत्तर: 1. अल्फा विविधता: यह जैव विविधता और विशिष्ट सूक्ष्म जीवों की प्रजाति विविधता की सबसे छोटी इकाई है।

बीटा विविधता: यह दो अलग-अलग आवासों में दो अल्फा विविधता और प्रजातियों की विविधता के बीच की जैव विविधता है।

2. अल्फा विविधता: अल्फा विविधता एक ही वातावरण के जीवों का समूह है जो समान संसाधनों पर निर्भर करता है।

बीटा-विविधता: बीटा-विविधता पर्यावरण और आवास की जैविक विविधता है।

3. अल्फा विविधता उच्च अल्फा विविधता का अर्थ है उच्च प्रजाति बहुतायत।

बीटा विविधता: बीटा विविधता का तात्पर्य विभिन्न स्थानों में प्रजातियों के बीच पारंपरिक समानता में कमी से है।

4. अल्फा विविधता : अल्फा विविधता को इसमें रहने वाली प्रजातियों की संख्या की गणना करके मापा जाता है।

बीटा विविधता: विभिन्न आवासों में जीवों के विभिन्न समूहों के बीच समानता के सूचकांक के रूप में मापा जाता है।


Vvvi.प्रश्न: प्राकृतिक आपदा(Natural Hazard) और संकट(Disaster)में अंतर लिखिए। (3)

उत्तर: 1. संकल्पना:
प्राकृतिक आपदा(Natural Hazard)
जब कोई असामान्य स्थिति अचानक जीवन की सामान्य लय को बाधित कर देती है तो उसे आपदा कहते हैं।

संकट(Disaster)
संकट किसी आपदा के प्रभाव के कारण बड़े पैमाने पर जीवन की हानि, प्राकृतिक और सांस्कृतिक संसाधनों का विनाश है।

2. नियंत्रण:

आपदा प्रबंधन आधुनिक तकनीक और योजना की मदद से किया जाता है।

संकट(Disaster) को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। उचित निवारक उपायों से संक्षारण क्षति को कम किया जा सकता है।

संकट(Disaster) को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। उचित निवारक उपायों से संक्षारण क्षति को कम किया जा सकता है।



Most important 
एक्विफर और एक्विक्लूड के बीच अंतर 

1) परिभाषा
👉भूमि के नीचे जल धारण करने वाली परत जलभृत कहलाती है ।
👉 जमीन के नीचे की चट्टानें जो जल धारण करने में सक्षम हैं लेकिन इसे ले जाने में असमर्थ हैं, एक्वीक्लूड कहलाती हैं।

2) उदाहरण 
👉 एक्वीफर के उदाहरण बलुआ पत्थर और चूना पत्थर हैं। 
👉 मडस्टोन एक्वीक्लूड के उदाहरण हैं। 

3) प्रकृति
👉 जलभृत एक प्रकार की पारगम्य और झरझरा आधारशिला है।
👉 एक्वीक्लूड प्रकृति ऐतिहासिक रूप से अभेद्य चट्टान है लेकिन झरझरा है।

4) स्थान 
👉 जलभृत हमेशा अभेद्य चट्टान के नीचे होते हैं। 
👉 एक्वीक्लूड पारगम्य चट्टान की परत के नीचे पारगम्य चट्टान की परत को घेरता है। 

5) भूजल जलाशय
👉 जलभृत के चारों ओर भूजल जलाशय का निर्माण होता है ।
👉 चूंकि एक्वीक्लूड में बहुत कम पानी होता है, इसलिए भूजल नहीं बनता है और कम पारगम्यता के कारण यह भूजल बनाने में मदद नहीं करता है।

6) पानी की आपूर्ति
👉 एक्वीफर से हमें वर्ष भर कुओं और नलकूपों के माध्यम से पानी मिलता है। 
👉एक्विक्लूड कुओं और नलकूपों में पानी की आपूर्ति नहीं करता है ।


Most important
मानसूनी जलवायु और भूमध्यसागरीय जलवायु के बीच अंतर 

अक्षांशीय स्थिति:- मानसूनी जलवायु 10 डिग्री से 30 डिग्री उत्तरी अक्षांश के बीच के क्षेत्र में होती है। 
भूमध्यसागरीय जलवायु 30 डिग्री से 45 डिग्री उत्तरी अक्षांश के बीच होती है |
देश:- मानसूनी जलवायु भारत, बांग्लादेश और दक्षिण और पूर्व एशियाई देशों में पाई जाती है।
 भूमध्यसागरीय जलवायु सामान्यतः भूमध्य सागर की सीमा से लगे देशों में पाई जाती है। उदाहरण के लिए - इटली, स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस आदि। 

हवाएँ :-मानसूनी जलवायु क्षेत्र में, सर्दियों और गर्मियों के दौरान उत्तर-पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी मानसूनी हवाओं की विपरीत दिशा देखी जाती है। भूमध्यसागरीय जलवायु की विशेषता सर्दियों में नम पछुआ हवाओं के प्रवाह और गर्मियों में शुष्क उत्तरपूर्वी हवाओं के प्रवाह से होती है।

मौसम:- मानसूनी जलवायु क्षेत्र में चार प्रमुख मौसम देखे जा सकते हैं- शीत, ग्रीष्म, मानसून और शरद ऋतु|
 भूमध्यसागरीय प्रदेश में केवल दो ही ऋतुएँ पाई जाती हैं । अर्थात् - सर्दी और गर्मी 

ऋतुओं की प्रकृति:- मानसूनी जलवायु में आर्द्र ग्रीष्मकाल और शुष्क शीत ऋतु होती है। 
भूमध्यसागरीय जलवायु में शुष्क ग्रीष्मकाल और आर्द्र सर्दियाँ होती हैं। 

Most important
Ria coast & fiord coast के बीच अंतर









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