Class-11 Education notes

 Class-11

 Education notes

Lesson-1


शिक्षा के विचार और उद्देश्य

 (Concept and aims of Education) 




GROUP - B

1 MARK QUESTIONS & ANSWERS

Q-1. शिक्षा के लक्ष्य का मुख्य उद्देश्य निर्माण क्या है? (What are the main basic of determination of the aims of education?)

Ans.शिक्षा के उद्देश्य को निर्माण के आधार पर दो भागों में बांटा गया है। (i) व्यक्तिगत (Individual), (ii) सामाजिक (Social)

Q-2.शिक्षा में चरित्र निर्माण विकास का उल्लेख करे (State the character development in education.)

Ans. शिक्षा में चरित्र का निर्माण श्रेष्ठ उद्देश्य होता है|चरित्र व्यक्ति की कसौटी होती है। इस प्रकार शिक्षा प्राप्ति के दौरान चरित्र का निर्माण करना मनुष्य का प्रमुख उद्देश्य है। 

Q-3.प्रयोगवादी शिक्षा को परिभाषित करें। (Define Pragmatism Education.)
Ans. प्रयोगवादी शिक्षा में शिक्षक का महत्व सबसे अधिक है क्योंकि शिक्षक बालकों के पथ-प्रदर्शक के कार्यरत होते हैं। इसलिए प्रयोगवादी में शिक्षक को मित्र दार्शनिक एक पथ प्रदर्शक माना गया है। 

Q-4.दो प्राकृतिक विचारक का नाम लिखो|
(Name the two Naturalism thinkers.)
Ans-रूसो (Rousseau) और जॉन ड्यूवी (John Dewey)

Q-5.व्यापक अर्थ में शिक्षा का अर्थ क्या है? (What is the broader meaning of education) 
Ans.व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन की एक विशिष्ट प्रक्रिया की भाँति जीवन भर अपना कार्य करती रहती है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त व्यक्ति अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थितियों, अनुभवों और विचारों के सम्पर्क में आता है और सभी उसके जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव स्थापित करते हैं। इसके फलस्वरूप वह कुछ न कुछ नये अनुभव प्राप्त करता है और शिक्षा ग्रहण करता रहता है।

Q-6.विद्या शब्द की उत्पत्ति का अर्थ क्या है ? (What is the derivative meaning of the word Vidya?)
Ans- हिन्दी में शिक्षा शब्द के समानार्थक अर्थ में 'विद्या' शब्द का प्रयोग होता हैं। विद्या शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के विद् धातु से हुई है। विद् धातु का अर्थ 'ज्ञान' है।

Q-7.विस्तृत या व्यापक अर्थ में शिक्षा की एक विशेषता बतायें (State one feature of education in broader sense.) 
Ans-व्यापक अर्थ में शिक्षा की विशेषता यह जीवन पर्यन्त और विविध विषयों से सम्बन्धित होती है।

Q.8. शिक्षा के क्या लक्षण है? (What is the characteristics of education ?)

Ans.Characteristics of Education:
 1. शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है।
 2. शिक्षा एक द्विमुखी एवं त्रिमुखी प्रक्रिया है।

Q.9.आधुनिक शिक्षा की अवधारणा का उल्लेख करो। (State the modern concept of education system.)
Ans.पेस्टालॉजी के अनुसार आधुनिक शिक्षा की अवधारणा में शिक्षा, मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है।
Q.10.जीवन पर्यन्त चलने वाली शिक्षा का उल्लेख करे। (Define Life long process of education.) 

Ans.शिक्षा प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है, व्यक्ति हमेशा कुछ न कुछ अनुभव प्राप्त करता रहता है और उसी अनुभवों से कुछ न कुछ सीखता रहता है। इसलिए शिक्षा को एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया कहा जाता है।

Q.11.जीवन पर्यन्त चलने वाली शिक्षा के मौलिक अंश का उल्लेख करें। (State the constituents of Life Long education.)

Ans.1. आजीवन शिक्षा सूचना प्रदान करती है। 2. आजीवन शिक्षा शास्त्रीय, व्यावसायिक तथा सांस्कृतिक शिक्षा है|


Q.12.स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रस्तावित शिक्षा की परिभाषा दीजिए। (Give the definition of education as proposed by Swami Vivekananda.)

Ans.स्वामी विवेकानन्द के अनुसार "शिक्षा मानव में स्वतः प्राप्त आध्यात्मिक गुणों की पूर्णता की ओर ले जाने वाली एक महान विभूति है।"

Q-13.शिक्षा का व्यापक अर्थ का एक विशेषता बतायें। (State one chracteristics in the broader meaning of education.)

Ans.व्यापक अर्थ में शिक्षा का विशेषता :
 शिक्षा का व्यापक अर्थ : यह जीवन पर्यन्त एवं विविध विषयों से सम्बन्धित होती है।
Q-14.राष्ट्रीय विकास की सहायता में शिक्षा का एक ध्येय का वर्णन करे। (State one aim of education that helps in national development.)

Ans-राष्ट्रीय विकास की सहायता में शिक्षा का एक ध्येय है सामाजिक एकता की स्थापना और आर्थिक विषमता को दूर करना|

Q-15.शिक्षा का एक लक्ष्य बतावे जो सामाजिक विकास का पालक है। (State any one aim of education that fosters social development.)

Ans-सामाजिक विकास के क्षेत्र में शिक्षा का ध्येय है - सामाजिक समस्या को चिह्नित कर उसे समाप्त करना ।

GROUP - C


8 MARKS QUESTIONS & ANSWERS


Q-1. शिक्षा की अवधारणा क्या है ? शिक्षा के कार्य, महत्व, या उपयोगिता की विवेचना की जाए। (What is the concept of Education ? Discuss the Function, Role or Utility of Education.) 3+5=8

Ans. शिक्षा की अवधारणा (Concept of Education) : शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा के 'शिक्ष' धातु से बना है। 'शिक्ष' का अर्थ होता है, -सीखना और सिखलाना। अतः शिक्षा शब्द का अर्थ होता है - सीखने-सिखलाने की प्रक्रिया।Education शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के एडुकेटम (Educatum) शब्द से हुई है। Education शब्द का निर्माण 'E' और Catum दो शब्दों से बना हुआ है जिसमें 'E' का अर्थ है 'अन्दर से' और 'Catum' का अर्थ है अग्रगति देना या आगे बढ़ना। आधुनिक अवधारणा में शिक्षा को शिक्षा शास्त्रियों ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि “शिक्षा के द्वारा मनुष्य और समाज का निर्माण करना चाहिए"।

M.K. Gandhiji के अनुसार शिक्षा का अर्थ है "मैं बालक अथवा मनुष्य में आत्मा, शरीर और बुद्धि के सर्वागीण और सबसे अच्छे विकास से समझता हूँ।"

भौतिकवादियों के अनुसार सुखपूर्वक जीना ही मनुष्य के जीवन का अन्तिम उद्देश्य है "शिक्षा वह शक्ति है जो मनुष्य को सुखी जीवन व्यतीत करने योग्य बनाती है।" '

शिक्षा का कार्य महत्व या उपयोगिता (Function, Role or utility of Education) :- शिक्षा मानव जीनव के विकास का मूल आधार है। यह व्यक्ति को परिपूर्ण बनाती है एवं उसे समाज के साथ मिल-जुल कर रहने का राह दिखाती है। भारतीय दृष्टि से शिक्षा का कार्य आध्यात्मिक जीवन का विकास माना गया है। कहा गया है कि विद्या वही है जो मुक्ति दिलावे (सा विद्या या विमुक्तये) । शिक्षा के अनेक कार्य है परन्तु मनुष्य के आन्तरिक दोषों को दूर करना एवं उसे सुमार्ग पर ले जाना उसका प्रमुख कार्य है। शिक्षा के प्रमुख कार्यों को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं:-

 (1) व्यक्तित्व का विकास:- शिक्षा का प्रमुख कार्य बालक के व्यक्तित्व का विकास करना है। शिक्षा के द्वारा बालक में सहनशीलता, सहानुभूति, सेवा, सहिष्णुता, स्वार्थ त्याग इत्यादि गुणों का प्रादुर्भाव होता है। शिक्षा से नैतिकता, विश्व बन्धुत्व की भावना एवं उदार दृष्टिकोण का विकास होता है। शिक्षा के अभाव में बालक का पूर्ण विकास नहीं हो पाता एवं उसके व्यक्तित्व का संतुलन बिगड़ जाता है। शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार शिक्षा के माध्यम से बालक का सम्यक् विकास होता है ।

(2) सामाजिक भावना का विकास : शिक्षा के माध्यम से सामाजिक भावना एवं चैतना का विकास होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जन्म लेता है, समाज में पलता एवं बड़ा होता है। सामाजिक वातावरण के अनुकूल बनने के बाद ही मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है। शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक वातावरण के अनुकूल बनने में सहायता प्रदान करती है। समाज विभिन्नताओं से युक्त है। विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ एवं समस्याएँ तथा संघर्षों का जन्म समाज में होता है। शिक्षा व्यक्ति को उनसे समायोजना (adjustment) करने का मार्ग दिखलाती है ।

(3) चारित्रिक विकास :- धन और स्वास्थ्य की क्षति पूर्ति की जा सकती है, परन्तु चरित्र की समाप्ति से व्यक्ति का सर्वनाश अटल है। उत्तम चरित्र से व्यक्ति ही नहीं अपितु राष्ट्र भी सबल होता है। शिक्षा का एक प्रमुख कार्य चरित्र का विकास करना है। शिक्षा से बालक में सत्यता, उदारता जैसी भावनाओं का विकास होता है ।

(4) सांस्कृतिक विकास :- शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य संस्कृति एवं सभ्यता की रक्षा करना है। शिक्षा के माध्यम से हम अपने देश की प्राचीन परम्पराओं, प्रथाओं, धर्म कला इत्यादि से परिचित होते हैं। जिस देश में शिक्षा का अभाव है, उस देश की संस्कृति खतरे में है । हमें भ्रम नहीं रखना है कि संस्कृति परम्परा का अन्ध-विश्वास है, वरन् संस्कृति मानव की श्रेष्ठ उपलब्धि है और उसके विकास में शिक्षा का अन्यतम योगदान है ।

(5) राष्ट्रीय विकास :- किसी राष्ट्र का विकास उस देश के कुशल नागरिकों एवं कार्यकर्ताओं पर निर्भर करता है । राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुये, शिक्षा देश के अन्तर्गत कुशल कार्य कर्ताओं एवं विशेषज्ञों को तैयार करती है जो राजनीति, व्यापार, उद्योग-धन्धे एवं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जाकर देश की प्रगति में हाथ बँटा सके शिक्षा व्यक्तिगत हितों एवं सामाजिक हितों के बीच समझौता कराती है । शिक्षा राष्ट्र के हित में व्यक्तिगत एवं सामाजिक हितों का त्याग करना सिखलाती है ।

(6)विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति :- शिक्षा व्यक्ति को भोजन, वस्त्र एवं घर इत्यादि के लिये तैयार करती है। शिक्षा मानव में ऐसी क्षमता पैदा करती है कि वह अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। प्राचीन भारत में शिक्षा के इस कार्य को निकृष्ट समझा जाता था । परन्तु आधुनिक युग में शिक्षा का यह कार्य प्रमुख हो गया है। यदि शिक्षा व्यक्ति को भोजन दिलाने में असमर्थ है तो उसकी उपयोगिता नहीं के बराबर है ।

(7) भावी जीवन की तैयारी में योगदान :- शिक्षा बालक को भावी जीवन के लिये तैयारी करती है। शिक्षा बालक के विभिन्न अधिकारों, कर्तव्यों एवं दायित्वों का ज्ञान कराती है। शिक्षा व्यक्ति में साहस उत्पन्न करती है जिससे वह जीवन के संघर्ष को झेल सके । शिक्षा द्वारा व्यक्ति प्राप्त अनुभवों का प्रयोग करना सीखता है। शिक्षा वर्तमान को सुधारते हुये भविष्य का सुमार्ग दर्शाती है ।

(8) भावात्मक एकता में वृद्धि :- प्रत्येक देश में विभिन्न जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग निवास करते हैं । अतः वहाँ के निवासियों में भावात्मक एकता को कायम रखना अत्यन्त आवश्यक है। प्रान्त, जाति, धर्म एवं भाषा सम्बन्धी विवाद एवं समस्याएँ भावात्मक एकता में बाधाएँ उपस्थित करती है। शिक्षा इन भयंकर विवादों एवं समस्याओं को दूर करती है और जीवन में समरसता लाती है ।

(9) श्रेष्ठ नागरिक तैयार करना:- किसी देश की प्रगति वहाँ के नागरिकों के विकास पर निर्भर है। शिक्षा से अनुशासन, सहन शक्ति, देश भक्ति, व्यापक दृष्टिकोण इत्यादि नागरिक गुणों का विकास होता है। प्रजातांत्रिक देशों में शिक्षा भावी नागरिकों को प्रशिक्षित करती है एवं उत्तम नागरिकों का विकास करती है। अतः नागरिकों के प्रशिक्षण द्वारा राष्ट्र के अभ्युत्थान में पूर्ण मदद मिलती है ।

(10) मूल प्रवृत्तियों एवं जन्मजात शक्तियों का विकास :- शिक्षा मूल प्रवृत्तियों को शिक्षित करती है। शिक्षा के द्वारा हानिकारक प्रवृत्तियों को नियंत्रित किया जाता है एवं अच्छी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित किया जाता है। शिक्षा, प्रेम, जिज्ञासा, कल्पना इत्यादि जैसी जन्मजात शक्ति का भी विकास करती है ।

निष्कर्ष : इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उपरोक्त शिक्षा के जिन कार्यों की चर्चा हो चुकी है उनमें आपस में कोई भेद या टकराव नहीं है एवं शिक्षा एक दूसरे के पूरक एवं पोषक हैं जैसे - व्यक्तित्व का विकास, सामाजिक भावना का विकास शिक्षा द्वारा ही होता है ।

VI.Q.2

"शिक्षा के ध्येय को समाज के सभी किस्म के व्यक्तित्व तथा विकास को आश्वस्त करना चाहिए- इस कथन का विश्लेषण करें।” (“The aim of education should be ensuring all round development of Personally and development of Society" - Analyse the Statement.)

Ans. शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) ज्ञानार्जन का उद्देश्य - शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति है । हम जो कुछ संपर्क एवं अनुभव के आधार पर सीखते हैं ज्ञान है । वातावरण का ज्ञान तो वातावरण के साथ संतुलन बनाये रखने के लिये जरूरी है। समाज का ज्ञान सामाजिक प्रगति का मूल्यांकन करने के लिये जरूरी होता है ।

(2) अवकाश के उपयोग के लिये शिक्षा - शिक्षा का उद्देश्य उन विधियों का ज्ञान है जिससे हम अपनी अवकाश के समय का उचित उपयोग कर सके । अवकाश काल के सदुपयोग से विवेक आता है । अवकाश काल का उपयोग वरदान होता है ।

(3) जीविका उपार्जन का उद्देश्य- शिक्षा का उद्देश्य जीविका उपार्जन का साधन होना चाहिए। आजकल आर्थिक समस्या बहुत विकट हो गयी है । शिक्षा का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जिससे व्यक्ति में अपनी आर्थिक कठिनाइयों को सुलझाने के लिये शक्ति आ जाए । मनुष्य के लिये शारीरिक विकास के साथ ही मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी बहुत जरूरी हो गया है।

(4) बालकों का सर्वांगीण विकास - शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है । इसके लिये संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण करना है। समाज का विकास व्यक्ति के मानसिक, नैतिक एवं शारीरिक विकास पर निर्भर करता है । अतः शिक्षा इसी के अनुरूप होनी चाहिए ।

(5) नागरिकता का विकास करना - शिक्षा के द्वारा ही बालक को अपने अधिकार एवं कर्तव्य का ज्ञान होता है। सरकार के कार्य एवं शासन के संपूर्ण प्रणाली का ज्ञान शिक्षा के कारण ही होता है। नागरिकता की शिक्षा के लिये उचित वातावरण का होना जरूरी है। रंग-रूप, जाति-धर्म आदि का भेद-भाव नहीं होना चाहिए । लोगों के विचार में संकीर्णता की भावना नहीं होनी चाहिए। यह शिक्षा से ही संभव है।

(6) चरित्र निर्माण का उद्देश्य-शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना है। चरित्र ही सब कुछ है। उत्तम चरित्र से ही समाज का कल्याण हो सकता है। चरित्र व्यक्तित्व की कसौटी है। शिक्षा का उद्देश्य चारित्रिक बल एवं शुद्धता की अभिवृद्धि करना है। बालक के विचार को सुधारना बहुत जरूरी है। बालक के अन्दर उच्च विचारों का बीज बोना चाहिए । बालक के नैतिक विकास में अनुकरण, निर्देश एवं सहानुभूति जैसी प्रवृत्ति की सहायता ली जा सकती है । चरित्र निर्माण के लिये पौरूष, साहस, संवेदनशील तथा बुद्धि का होना जरूरी है। कठोर श्रम की शक्ति पौरूष देता है। भय समाप्त कर देने में साहस का योग रहता है । संवेदनशीलता के द्वारा व्यक्ति भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करता है। जीवन की समस्याओं का समाधान बुद्धि के बल पर ही होता है ।



(7) व्यक्ति एवं शिक्षा के उद्देश्य -व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं ।
(i)  व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास - शिक्षा को ऐसी उपयुक्त स्थितियाँ पैदा करनी चाहिए, जिनसे कि व्यक्तित्व का पूरा-पूरा विकास हो सके और व्यक्ति मानव जीवन में अपना मौलिक योगदान कर सके । 

(ii) आत्म-अभिव्यक्ति का उद्देश्य - व्यक्ति को इस बात की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह जैसा चाहे, अपने आप को अभिव्यक्त कर सके । डीली एवं वार्ड व्यक्ति को सामाजिक प्राणी नहीं मानते । उनका कहना है कि प्राकृतिक दृष्टि से व्यक्ति सामाजिक प्राणी नहीं है । अपने शुद्ध रूप में मानव समाज व्यक्ति के विवेक और मस्तिष्क के विकास का प्रतिफल है।

(iii) आत्मानुभूति का उद्देश्य - आत्मानुभूति का संबंध व्यक्ति के स्व के साथ है।आत्मनुभूति में व्यक्ति का स्व उसका आदर्श होता है। आत्म अभिव्यक्ति और आत्मानुभूति में प्रमुख अन्तर यह है कि अभिव्यक्ति का स्व मूर्त-स्व होता है, परन्तु आत्मानुभूति का स्व अमूर्त स्व अथवा अरूप स्व होता है । इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। आत्म-अभिव्यक्ति के समान आत्मानुभूति में आत्म प्रकाशन होता है । आत्म-अभिव्यक्ति में जो आत्म-प्रकाशन होता है, उसमें इस  बात का चुनाव नहीं रखा जाता कि इससे समाज को लाभ होगा या हानि, परन्तु आत्मानुभूति में स्व का आत्म-प्रकाशन समाज विरोधी नहीं होता । आत्म-अनुभूति में समाज और सामाजिक परिवेश के महत्व को अंगीकार किया गया है ।

(8) समाज और शिक्षा के उद्देश्य - व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है । व्यक्ति समाज में रहते हैं, एक दूसरे से हिलमिल कर काम करते और एक दूसरे पर अपना असर डालते हैं । इन सब बातों से सामाजिक संबंधों में जटिलता आती है। व्यक्ति को समाज में रहना है। इसलिये व्यक्ति को समाज के साथ ताल-मेल बैठाना पड़ता है । इस अनुकूलन या तालमेल बैठाने में शिक्षा व्यक्ति की मदद करती है।

   इसी बात को सामने रखते हुए शिक्षा का यह उद्देश्य निर्धारित किया गया है -
(i) व्यक्ति में सामाजिक कुशलता का निर्माण करना ।
 (ii) उसमें ऐसी योग्यता का निर्माण करना कि वह सामाजिक परिवेश के साथ समायोजन कर सके । 
   व्यक्ति जिस प्रकार के समाज में रहता है, वह निर्धारित करता है कि व्यक्ति को किस प्रकार की शिक्षा दी जाय जिससे वह अपनी और अपने समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके ।


Q.3
राष्ट्रीय एकता के लिये शिक्षा के बारे में तुम क्या जानते हो ? शिक्षा के गुण तथा अवगुण क्या है ? (What do you mean by "Education for National Integration"? 
What are its merits and demerits ?)

Ans. अर्थ या अवधारणा (Meaning or concept) :- राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य राष्ट्र की सभी इकाईयों या नागरिकों का एकसाथ मिलकर राष्ट्रहित में कार्य करने से है। राष्ट्रीय एकता की स्थिति में प्रान्त, धर्म, जाति, सम्प्रदाय या भाषा की अपेक्षा राष्ट्र अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसमें व्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए अपने हित का बलिदान करने के लिए तैयार रहता है। राष्ट्रीय एकता में एक भाषा, एक धर्म, एक सम्प्रदाय या एक जाति लाने का भी कोई प्रस्ताव नहीं होता है बल्कि इसमें साम्प्रदायिकता, धार्मिकता, जातीयता इत्यादि से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से कार्य करने की भावना को बल मिलता है। जब राष्ट्र के सभी नागरिक अपने हितों को त्यागकर संपूर्ण राष्ट्र के हितों को ध्यान में रखते हुए चिंतन करते हैं और कार्य करते हैं तब राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता की स्थिति का निर्माण होता है ।

बी० एस० माथुर के अनुसार : "राष्ट्रीय एकता एक मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक पद्धति है जिसमें मनुष्य के मन में एकता को भावना, रुचियों की घनिष्ठता तथा लगाव और राष्ट्र के प्रति सामान्य नागरिकता तथा देश के प्रति सम्मान का भाव रहता है।"

आर० के० मुखर्जी के शब्दों में "राष्ट्र शब्द की भाववाचक संज्ञा ही राष्ट्रीयता है, जिसका अर्थ जनसमुदाय को - समूह चेतना है । यह एक मनोवैज्ञानिक मनोविचार है जो किसी जनसमूह के मानस में सामूहिक नेतृत्व के रूप में विद्यमान रहता है और जिसमें एकता तथा विचार साम्य के तत्वों का अस्तित्व रहता है ।"


राष्ट्रीय एकता हेतु शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
:


1. किसी भी जनतांत्रिक देश के निवासियों में जनतंत्र के आधारभूत मूल्यों, संविधान के सिद्धान्तों, न्यायिक प्रक्रिया, स्वतंत्रता, समानता, मित्रता, धर्म निरपेक्षता तथा मानवतावादी मूल्यों के प्रति श्रद्धा एवं निष्ठा जाग्रत करना।
2. राष्ट्र की सम्पर्क भाषा अथवा राष्ट्रभाषा के प्रचार माध्यम से राष्ट्रीय सम्पर्क सूत्र को अधिकाधिक सुदृढ़ करना । 
3. बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक, सम्प्रदायगत, जाति अथवा धर्मगत भेदभाव का उन्मूलन करना ।
4. शिक्षार्थियों मुख्यतः शिशुओं तथा युवाओं की न्याय एवं तर्कसंगत सोच की क्षमता वृद्धि करते हुये उनके बौद्धिक विकास का प्रयत्न करना ।
5. शिक्षार्थियों में यह विश्वास जगाना कि "राष्ट्र के लिए प्रान्त का स्वार्थ त्यागना, प्रान्त के हित के लिए जिले का स्वार्थ का त्याग करना, जिले के लिए ग्राम-हित का त्याग करना किसी भी नागरिक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है ।" 
6. शिक्षार्थियों के सैद्धान्तिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावहारिक एवं आवरणगत प्रशिक्षण के अवसर प्रदान करना।

इस प्रकार विभिन्न परिभाषाओं को देखते हुए राष्ट्रीयता के लिए दी जाने वाली शिक्षा के गुण भी हैं और अवगुण भी हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

गुण (Merits) :- 1. राष्ट्रीयता की शिक्षा राष्ट्र के निवासियों में उन्नति करने की भावना जागृत करती है 
2. राष्ट्र के निवासियों को बाह्य बन्धन से मुक्त होने और रहने की प्रेरणा देती है।

3. देश भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य का सृजन करती है और राष्ट्रीय संस्कृति के विकास में योगदान करती है। 
4. विभिन्न धर्मों, जातियों और भावनाओं के लोगों में पारस्परिक सहिष्णुता की भावना को जन्म देती है।

5. बालक-बालिकाओं में देश-प्रेम की भावना उत्पन्न करती है। देश-प्रेम के कारण व्यक्ति सिर्फ अपने हित का ध्यान न रखकर, राष्ट्र के हित की ओर ध्यान देता है। इतना ही नहीं, वह राष्ट्र के लिए हर प्रकार का बलिदान करने के लिए भी तैयार रहता है ।

दोष (Demerits) :- 1. संकुचित राष्ट्रीयता की भावना अन्तर्राष्ट्रीय विचारधारा के प्रतिकूल है और मानव हित के लिए घातक है ।

2. संकुचित राष्ट्रीयता की भावना विभिन्न देशों में पारस्परिक सम्बन्धों को अच्छा नहीं बनने देती है। इसके फलस्वरूप विश्व की शान्ति सदैव खतरे में रहती है ।

3. जो राष्ट्र संकुचित राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर राष्ट्र का विकास करना चाहता है, वह अन्य राष्ट्रों के हितो की चिन्ता नहीं करता है। चीन और पाकिस्तान इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं ।

4. जो देश राष्ट्रीयता की विचारधारा में विश्वास रखता है, वह अपने नीतिगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उसका अनुचित प्रयोग कर सकता है । आजकल साम्यवादी देशों में यही किया जा रहा है ।

5. मात्र अपने देश के प्रति प्रेम की भावना दूसरे देशों के प्रति घृणा उत्पन्न करती है। अतः संकुचित राष्ट्रीयता की भावना युद्ध का कारण बनती है । द्वितीय विश्व युद्धहोने का एक कारण यह भी था । जर्मनी के लोग राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर अन्य देशों के निवासियों को अपने से तुच्छ समझने लगे थे ।

निष्कर्ष :- राष्ट्रीयता के गुण-दोष के विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि शुद्ध राष्ट्रीयता की भावना बहुत अच्छी चीज है, पर जब इसका रूप संकुचित हो जाय, तब इससे हानि के अलावा लाभ की आशा करना व्यर्थ है । संकुचित राष्ट्रीयता अन्य राष्ट्रों और मानव हितों की अवहेलना करती है। इस प्रकार की भावना संसार को सुख और शान्ति की साँस नहीं लेने देती है।

VV.I.Q.शिक्षा के वैयक्तिक ध्येय से तुम क्या समझते हो ? इसके लाभ और हानि को लिखो (What do you mean by individualistic aim of education ? Write down its advantages and disadvantages.

Ans. व्यक्तितांत्रिक शिक्षा का उद्देश्य मूलतः व्यक्ति के जीवन का विकास है । इसकी सार्थकता इस बात में है कि एक शिक्षित व्यक्ति अपनी योग्यता और क्षमता का श्रेष्ठतम उपलब्धि कर सके एवं अपने सम्पूर्ण सामाजिक कर्त्तव्य तथा दायित्व का पालन कर सके । अतः इस उद्देश्य के समर्थक विद्वान मानते हैं कि शिक्षा का प्रधान उद्देश्य है परिवेश एवं समाज-निरपेक्ष भाव से व्यक्ति के शरीरिक, मानसिक एवं नैतिक क्षमताओं की उपलब्धि में व्यक्ति की सहायता करना । इस मतवाद के कट्टरपंथी विचारकों का कहना है कि व्यक्ति की आवश्यकताएँ समाज की आवश्यकताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । 'नन' के अनुसार विशेष व्यक्तित्व का विकास ही उन्नति का सार है । यद्यपि शिक्षा का सामान्य स्तर सबके लिए एक ही तरह का अपेक्षित है जिससे विभिन्न जीवन शैलियों का सम्मिश्रण उपयोगी और ग्राह्य बन सके, तथापि इस सामान्य स्तर को पाने के बाद विशिष्ट योग्यता तो आवश्यक है ही। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह प्रत्येक बालक की जन्मजात रुचियों एवं प्रतिभाओं का पता लगाये और उनके अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था करे जिससे प्रत्येक बालक का विशेष व्यक्तित्व विकसित हो सके । शिक्षा का यही एकमात्र उद्देश्य है । शिक्षा शास्त्री नन के मतानुसार "शिक्षक को ऐसी दशाएँ उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे वैयक्तिकता का पूर्ण एवं समग्र विकास संभव हो सके और व्यक्ति अपनी जन्मजात शक्तियों का पूर्ण विकास करके मानव जाति को अपना मौलिक योग दे सके।

व्यक्तिवादी शिक्षा के महत्व के पक्षधरों ने इसकी विभिन्न सुविधाओं और लाभों की ओर संकेत किया है यथा :

1. जीव विज्ञानी, चिन्तक एवं दार्शनिकों का कहना है कि शिशु अनेक जैविक विशेषताएँ लेकर पैदा होता है जिनमें कुछ साधारण और कुछ विशेष होते हैं। ये असाधारण विशिष्टताएँ ही उसके व्यक्तित्व को अन्य व्यक्तियों से भिन्न बनाती है। शिशु के इस निजी व्यक्तित्व का संपोषण एवं संरक्षण ही शिक्षा का उद्देश्य है।
2. रूसो जैसे महान् दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्री के मतानुसार- "Everything is good as it comes from the hands of Author of Nature but everything degenerate in the hands of man". अर्थात् जन्म की अवस्था में शिशु पूर्ण निर्मल एवं निष्कलुष रहता है किन्तु समाज उसे कलुषित कर देता है।अतः यदि हम उसे सामाजिक कलुषता एवं दुष्प्रभाव से बचाकर उसके आदर्श व्यक्तित्व को विकसित करना चाहते हैं तब हमें उसके लिए व्यक्तितांत्रिक शिक्षा व्यवस्था ही अपनानी पड़ेगी क्योंकि व्यक्तितांत्रिक पद्धति ही शिक्षा की आदर्श प्रक्रिया को सम्भव बना सकती है।

3. ब्रह्मवादी भी व्यक्तितांत्रिक शिक्षा को गुणकारी मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति में ब्रह्म की सत्ता विद्यमान । कुछ का मत है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति में अध्यात्म बोध को जगाया जा सकता है। ब्रह्मतत्व की उपलब्धि मानव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है।

4. चिन्तकों का एक वर्ग सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की दृष्टि से व्यक्तिवादी शिक्षा सिद्धान्त को उपयोगी मानता है। व्यक्तिवादी सिद्धान्त परोक्ष भाव से सामाजिक उत्कर्ष में सहायता करता है । प्रयोगवादी वर्ग (Pragmatic Group) मानता कि विशेष गुण सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा ही सभ्यता का विकास होता है। व्यक्तितांत्रिक शिक्षा ही मनीषियों के व्यक्तित्व को पुष्पित पल्लवित कर सकती है।

उपर्युक्त गुणों से युक्त व्यक्तितांत्रिक शिक्षा किन्हीं अर्थों में दोषमूलक भी समझी जाती है। उन दोषों की व्याख्या निम्न रूप में उल्लेखित की गयी है -

1. शिक्षा यदि पूर्णतः व्यक्तितांत्रिक होती है तो शिक्षार्थी सम्पूर्ण रूप से आत्म-केन्द्रित एवं स्वार्थी होगा। ऐसा जीवन स्वभावतः शिक्षार्थी के लिए बोझ बन जायेगा । साथ ही व्यक्ति चरित्र के कई पक्ष ऐसे हैं, जो सामाजिक धरातल पर ही विकसित हो सकते हैं । अतः व्यक्तिवादी सिद्धान्त एकांगी है।

2. परिवेश-निरपेक्ष शिक्षा व्यक्ति के जैविक विकास को पूर्णता प्रदान नहीं कर पायेगी क्योंकि ऐसा जीवन विकसित होने पर भी सामाजिक तथा प्राकृतिक परिवेश के साथ स्वयं को अभियोजित नहीं कर पायेगा और सारी क्षमता एवं कुशलता के होते हुए भी उसे अपना जीवन अर्थहीन प्रतीत होगा ।

3. मनोवैज्ञानिकों का 'व्यक्ति स्वातंत्र्य सिद्धान्त' समाजोपयोगी व्यक्ति की रचनायें सफल नहीं हो सकती और शिक्षा का उद्देश्य अति विकसित एवं समृद्ध व्यक्तित्व को भी समाजोपयोगी बनाता है। सर्वथा समाज-विच्छिन्न व्यक्ति किसी की भी सहानुभूति का पात्र नहीं बन सकता । प्रयत्न तो यही मान्य होगा जो व्यक्ति को अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की रक्षा के साथ-साथ
उसमें सामाजिक दायित्व के निर्वाह की कुशलता भी हो । 

4. व्यक्तितांत्रिक शिक्षा को व्यावहारिक रूप देना कठिन है। यह संभव नहीं कि प्रत्येक बालक के वैयक्तिक विकास के लिए शिक्षा का एक पृथक उद्देश्य, विशेष पाठ्यक्रम, समय विभाग चक्र, विद्यालय आदि की व्यवस्था की जाय ।
























शिक्षा के महत्वपूर्ण कारक (Significant factors of Education)

V.V.i.Q.1)सह-पाठ्यक्रम क्रियाओं के प्रकार का वर्णन करें। (Discuss various types of co- curricular activities.)(8 marks)******

Ans. सह-पाठ्यक्रम क्रियाओं के प्रकार: पाठ्य सहगामी क्रियाएं मुख्यत तीन प्रकार की होती हैं

(1) शारीरिक विकासात्मक कार्यावली (Physical development activities) : स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है । अतः बालक का स्वस्थ होना मात्र उसकी शिक्षा के लिए ही नहीं अपितु उसके भावी जीवन के लिए भी आवश्यक है। यही कारण है कि प्रत्येक शिक्षा व्यवस्था में शारीरिक स्वास्थ्य के विकास के लिए निम्नलिखित कार्यों को प्रोत्साहित किया जाता है

शारीरिक व्यायाम एवं खेलकूद - यद्यपि स्वस्थ मस्तिष्क शिक्षा एवं ज्ञानार्जन की बुनियादी जरूरत है एवं स्वस्थ मस्तिष्क के निर्माण के लिए शरीरिक व्यायाम तथा खेलकूद आवश्यक है क्योंकि एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। व्यायाम एवं खेलकूदों के द्वारा शिक्षार्थी में अनुशासन, नियमितता, चरित्रगठन, क्रियाशीलता, सामुहिकता जैसे विशिष्ट गुणों का विकास होता है ।

(2) विशेष शिक्षामूलक कार्यावली (Special educational activities) -- इस प्रकार की कार्यावली के अन्तर्गत चित्रांकन, संगीत, साहित्य गोष्ठी, वाद-विवाद प्रतियोगिता, कहानी-कविता-लेखन आदि कार्यावली आती हैं। इन कार्यों को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है - -

(a) रचनात्मक कार्यावली - कुछ बालकों में जन्मजात सृजनात्मक प्रवृत्ति पायी जाती है । इस कार्यवली के विकास के लिए विशेष योग्यता प्राप्ति शिक्षक की आवश्यकता होती है।

(b) आत्माभिव्यक्ति मूलक कार्यावली - इस प्रकार की कार्यावली के लिए विद्यालय में विभिन्न प्रकार के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन कार्यों में विद्यार्थी स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेते हैं। इस प्रकार
का कार्यक्रमों से छात्रों का मनोरंजन और आत्माभिव्यक्ति दोनों होती है।

(c) प्रशासनमूलक कार्यावली - बहुत से कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिनसे छात्रों में प्रशासन एवं नेतृत्व की भावना विकसित होती है जैसे कक्षा प्रतिनिधि का चुनाव, छात्र संघ में पदाधिकारी होना, अन्य कार्यक्रम में भाग लेना आदि।

 (3) सामाजिक कार्यावली (Social activities) : इसके अन्तर्गत सामाजिक प्रशासनमूलक तथा सेवामूलक दोनों कार्य आते हैं । ये दोनों कार्य एक दूसरे में सहायक होते हैं|

(a) सामाजिक प्रशासनमूलक कार्यावली - विद्यालय में विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यों के लिए सहकारी समिति, समवाय समिति, छात्र आदि विभिन्न संस्थाएं स्थापित की जाती हैं और इन संस्थाओं के माध्यम से छात्रों को प्रशासन सम्बन्धी ज्ञान प्रदान किया जाता है।

(b) सामाजिक सेवामूलक कार्यावली - छात्रों के सामाजिक मनोभावों का विकास करने के लिए विद्यालय में विभिन्न प्रकार के कार्यों का आयोजन किया जाता है, जैसे- स्काउट एवं गर्ल्सगाइड, एन.सी.सी स्वास्थ्य सप्ताह पालन, क्षेत्रीय सफाई कार्यक्रम, शहरों में ट्राफिक कार्य आदि । इन कार्यक्रमों से समाज कल्याण होने के साथ-साथ छात्रों का मनोरंजन होता है तथा उन्हें भावी जीवन के लिए सिख मिलती है।

Q.2.पर्यावरण से तुम क्या समझते हो ? किस प्रकार से सामाजिक पर्यावरण बच्चों के विकास को प्रभावित करता है ? (What do you mean by environment ? How social environment influence the child's development ?)

Ans. पर्यावरण (Environment): वे सब बाह्य प्रभाव और परिस्थितियाँ वातावरण में आ जाती हैं, जो जीवों के व्यवहार, शारीरिक और बौद्धिक विकास को प्रभावित करती हैं। सामान्य रूप से वातावरण या परिवेश का अर्थ बाह्य अथवा सामाजिक वातावरण से किया जाता है। ऐसा समझा जाता है कि वंश परम्परा से प्राप्त शारीरिक गुण, सामाजिक परिवेश में ही भली-भाँति विकसित हो सकते हैं। सामाजिक परिवेश या वातावरण का अर्थ उस बाह्य वातावरण से है, जिसमें बालकों का पालन-पोषण होता है। अर्थात् वह सामाजिक जीवन, जिसमें बालक पलता है, विकसित होता है तथा शिक्षा प्राप्त करता है |

"परिवेश वह बाह्य शक्ति है, जो हमें प्रभावित करती है ।"- जेम्स रास 

"वातावरण में वे सब गहरे तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के समय से प्रभावित किया है।”-वुडवर्थ

"वातावरण या परिवेश शब्द का प्रयोग उन सब बाह्य शक्तियों, प्रभावों और दशाओं का सामूहिक प्रयोग करने के लिये किया जाता है, जो जीवित प्राणियों के जीवन, स्वभाव, बुद्धि, विकास और परिपक्वता पर प्रभाव डालते हैं।"-डगलैस तथा हालैंड।

"परिवेश वह हर वस्तु है, जिसने किसी अन्य वस्तु को घेरा हुआ है और उस पर सीधा अपना प्रभाव डालती है।"- जिस्बर्ट ।

सामाजिक वातावरण का बालक के विकास पर प्रभाव मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अपने बोलने, - सुनने एवं बातचीत करने की शक्ति से अपने लिये एक सामाजिक वातावरण उत्पन्न करता है। व्यक्ति का यह वातावरण प्राचीन है। इस वातावरण के अन्तर्गत वर्त्तमान मानव समाज तथा पूर्वजों द्वारा दी हुई सारी सभ्यता का मिश्रण है। बालक जब पैदा होता है उस समय वह असहाय अवस्था में रहता है। उठना, बैठना, बोलना, चलना उसे कुछ भी नहीं आता। वह दूसरों पर आश्रित रहता है। उसका कोई आदर्श एवं व्यवहार नहीं होता। धीरे-धीरे समाज में रहते-रहते उसमें अनेक परिवर्तन आने लगते हैं। उसे अपनी भाषा, धार्मिक तथा नैतिक विचार, रहन-सहन के ढंग, व्यवहार आदि बातें समाज से सीखना पड़ता है। उसके माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, पड़ोसी सभी उस पर प्रभाव डालते हैं। परिवार उसके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होता है। परिवार में प्रेम, सुरक्षा आदि का वातावरण मिलने से बालक साहसी तथा आत्म निर्भर बनता है। परिवार की आर्थिक स्थिति से बालक प्रभावित होता है । बालक में हीनता एवं असुरक्षा की भावना का विकास तब होता है जब वह निर्धन परिवार में होता है। धनी परिवार के बालक विकसित एवं अच्छे व्यक्तित्व वाले होते हैं। सामाजिक संस्थायें भी बालक के विकास को प्रभावित करती हैं। इन सामाजिक संस्थाओं में विद्यालय, मेला, प्रदर्शनी, मंदिर, सिनेमा, टेलीविजन आदि आते हैं।

Q.3.आधुनिक पाठ्यक्रम की विशेषता का उल्लेख करो। (State the characteristics of modern curriculum.) 2+6

Ans. आधुनिक पाठ्यक्रम की विशेषताएँ (Characteristics) :- शिक्षाशास्त्रियों द्वारा विवेचित पाठ्यक्रम सम्बन्धी परिभाषा के आधार पर जिन विशेषताओं का परिचय मिलता है वे निम्नलिखित हैं -
1. पाठ्यक्रम निर्वाचन सापेक्ष है अर्थात् पाठ्यक्रम का निर्धारण निर्वाचित विषयों के आधार पर होता है । इसकी रूपरेखा निर्वाचक व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है ।

2. पाठ्यक्रम में विभिन्न क्रियाओं तथा अभिज्ञताओं का समन्वय होता है जो शिक्षार्थी के जीवन को बहुमुखी उन्नति का साधन समझा जाता है ।

3. पाठ्यक्रम व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि क्षमताओं के विकास के साथ-साथ उसकी जीविका के उपार्जन में सहायक होता है

4. पाठ्यक्रम केवल विद्यालय की कक्षा के भीतरी वातावरण से ही नहीं जुड़ा होता है बल्कि उसके क्रियाकलाप कक्षा के बाहरी, किन्तु विद्यालय के नियंत्रण क्षेत्र के अधीन, परिवेश से भी जुड़ा होता है । ऐसे क्रियाकलाप सह-पाठ्य क्रमिक कार्यावली के अन्तर्गत आते हैं ।

5. पाठ्यक्रम की प्रवृत्ति सदा परिवर्तनशील होती है अर्थात् जीवन के बदलते मूल्यों एवं आदर्शों के अनुसार पाठ्यक्रम का स्वरूप भी बदलता रहता है । पाठ्यक्रम में जड़ता का पैदा होना उसकी उपयोगिता को समाप्त कर देता है।

6. पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षण प्रक्रिया पंगु हो जाती है । सुनिश्चित लक्ष्य की प्राप्ति में शिक्षा की भूमिका तभी सार्थक एवं सफल होता है जब उसका आधार सुनिश्चित पाठ्यक्रम हो । पाठ्यक्रम शिक्षा प्रक्रिया का संरक्षक, नियंत्रक एवं पथदर्शक है।

इस तरह हम देखते हैं कि पाठ्यक्रम की शिक्षा प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा अपने आप में एक जटिल परिवर्तनशील उद्देश्यमुखी प्रक्रिया है । इसके मौलिक उपादानों में शिक्षार्थी, शिक्षक, शिक्षा प्रतिष्ठान एवं पाठ्यक्रम हैं । इनमें किसी एक के अभाव में शिक्षा कार्य नहीं चल सकता । पाठ्यक्रम उस प्रक्रिया का परिवर्तन सापेक्ष, लचीला, समन्वयवादी,सुनिर्वाचित अभिज्ञताओं का अनुप्रेरणा-मूलक समष्टि रूप है। 

V.V.I.Q.4.पाठ्यक्रम सहगमी क्रिया का क्या अभिप्राय है ? शिक्षा में पाठ्य सहगमी क्रिया की क्या जरूरत या महत्व है ? विस्तृत रूप से पाठ्य सहगामी क्रिया के सिद्धान्तों का उल्लेख करों। (What is meant by Co-curricular Activities? What is need or importance of co-curricular activity in Education ? Discuss in brief the principle of co-curricular Activities.)(2+4+2=8)*****

Ans. पाठ्य सहगामी क्रिया (Co-curricular Activity): आधुनिक काल में शिक्षा का अर्थ बालक का सर्वागीण विकास है। प्राचीन काल के शिक्षा पद्धति में हमारे गुरू भी मानते थे कि एक शिक्षित व्यक्ति वह है जो शारीरिक, बौद्धिक, हार्दिक एवं सामाजिक रूप से विकसित हो । गुरुकुल की शिक्षा के बाद विद्यालयी शिक्षा का एहसास हुआ और उस समय विद्यालय में छात्रों को मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा जाता था, शिक्षक भी उन्हें पुस्तकीय ज्ञान देते थे तथा बच्चे भी पुस्तकीय ज्ञान में ही रूचि भी लेते थे। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन था। उन दिनों खेल-कूद, संगीत, चित्रकला आदि कार्य करने के लिए विद्यार्थियों को वर्जित था। अध्ययन को एक कठोर तपस्या तथा विद्यार्थी कुशल तपस्वी के रूप में पूर्ण रूप से शिक्षा ग्रहण करते थे, किन्तु आधुनिक युग में शिक्षा शास्त्रियों ने पढ़ने-लखने के अलावा अतिरिक्त क्रियाओं (Extra Curricular) को महत्व देना उचित समझा। इस प्रकार के कार्यक्रम को बालकों के व्यक्तित्व के विकास में सहायक वस्तु समझा गया। अतः शिक्षा शास्त्रियों ने अतिरिक्त क्रियाओं को ही सह-पाठ्य सहगामी क्रियाओं (Co curricular Activity) के रूप में स्वीकार कर लिया है और उसी प्रकार आज सह-पाठ्य सहगामी क्रियाओं के अन्तर्गत वाद-विवाद, साहित्यिक कार्यक्रम, खेलकूद, विद्यालय उत्सव आदि को शिक्षा का अंग मान कर सह-पाठ्य क्रियाएँ (Co curricular Activity) रखा गया है।

शिक्षा में पाठ्य सहगामी क्रिया का महत्व (Need or Importance of Co-curricular Activity in Education) : पाठ्य सहगामी क्रियाएँ छात्रों को व्यवहारिक एवं व्यावसायिक ज्ञान प्राप्त कराती है। उसके द्वारा छात्रों का मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक एवं नैतिक विकास होता है। यही कारण है कि आजकल सभी विद्यालय में इन क्रियाओं को उचित स्थान, देकर इनके महत्व को समझा गया है। पाठ्य सहगामी क्रिया के आवश्यकता एवं महत्व को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं।

1. नागरिक भावना का विकास : पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ छात्रों में त्याग एवं सहयोग की भावना उत्पन्न करती है। छात्र स्वशासन के द्वारा प्रजातंत्र की शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे विभिन्न समितियों का स्वयं चुनाव करते हैं। इससे वे चुनावों के नियमों का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह ज्ञान उनके भविष्य में सहायक होता है।

2. सामाजिक भावना का विकास: पाठ्य सहगामी क्रिया में त्याग एवं बलिदान की भावना उत्पन्न होती है। खेल के मैदान में प्रत्येक खिलाड़ी व्यक्तिगत जीत के लिए प्रयत्न नहीं करता बल्कि सभी खिलाड़ी मिलकर अपनी टोली की जीत के लिए प्रत्यन करते हैं। इस प्रकार की भावना दैनिक जीवन में काम आती है। इस प्रकार छात्र अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ जाता है और वह समान के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागने के लिए तत्पर रहता है।

3. शारीरिक विकास : विभिन्न प्रकार के खेलों में भाग लेने से छात्रों का शारीरिक विकास होता रहता है। खेल के सयम वे अपनी चिन्ता को भूल जाते हैं। खुले वातावरण में उन्हें वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त होती है, वास्तविक प्रसत्रता से अच्छे स्वास्थ्य का तात्पर्य है, खेल कूद में भाग दौड़, उछल-कूद करने से उनका अंग प्रत्यंग भी ठीक रहता है।

4. बौद्धिक विकास : पाठ्य सहगामी क्रियाओं के अन्तर्गत नाटक, प्रहसन, कवि सम्मेलन, भाषण, वाद-विवाद आदि का आयोजन बालको के बौद्धिक विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में कार्य द्वारा शिक्षा, खेल द्वारा शिक्षा, रचनात्मक कार्यों के माध्यम से शिक्षा आदि शब्दावली इस तथ्य को पुष्ट करती है। इस पद्धति के माध्यम से ही इतिहास, काव्य, भूगोल, वाणिज्य आदि जैसी शिक्षा सरल हो जाती हैं।

5. चरित्र का विकास : चरित्र के सम्बन्ध में और उनकी मान्यताओं में विद्वानों में बड़ा ही मतभेद है। सभी इस बात से सहमत हैं कि बालक के चरित्र का पूर्ण एवं स्वाभाविक विकास होना चाहिए। पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा छात्रों के चरित्र विकास में बहुत अधिक मदद मिलती है, भिन्न-भिन्न प्रकारों एवं क्रियाओं में भाग लेने से बच्चों की इमानदारी, सच्चाई, सहनशीलता, न्यायप्रियता आदि की परीक्षा हो जाती है। इस प्रकार पाठ्य सहगामी सामग्री के अन्तगर्त चरित्र का मूल स्थान होता है।

6. नेतृत्व का विकास: पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से बच्चों को समूहों में भाग लेने का अवसर मिलता है। यदि वे सावधानी से अपने समूहों के सन्दर्भ में ठीक ढंग से चलते हैं तो उनमें नेतृत्व करने का गुण पनपता है। शिक्षा का भी यह दायित्व होता है कि बच्चों को नेता बनाने में अथवा नेता की बात मानने के लिए योग्य बनाया जाय।

7. आनन्द प्राप्ति का विकास: सहगामी क्रिया यदि ठीक ढंग से आयोजन की जाय तो वह बच्चों पर भार नहीं बनती। उदाहरणस्वरूप कविता याद करने का कार्य यदि परीक्षा के भय से किया जाय तो बच्चों को उसमें आनन्द नहीं आयेगा किन्तु यही कविता को यदि 'गाना' के रूप में बताया जाय तो कविता में उत्साह लगने लगता है। जैसे गुरू गोविन्द दोउ खड़े काके लागू· पाय.. अर्थात् कविता को गाना गाकर सुनाया जाता है तो बच्चों के अन्दर उत्साह एवं आनन्द मिलेगा। इस प्रकार छात्रों के जीवन को अति ही सुक्ष्म एवं लचीला बनाने के लिए मूल पाठ्यक्रम के साथ सह-पाठ्यक्रम को भी जोड़ना अति आवश्यक है।

पाठ्य सहगामी क्रियाओं के सिद्धांत (Principle of Co-Curriculum Activities) : सहगामी पाठ्यक्रम क्रियाओं के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं : -

1. विद्यालय में जिस क्रिया का आयोजन किया जाता है वह विद्यालय के आदर्श एवं उद्देश्यों को ध्यान में रख कर किया जाता है।

2. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संगठन में विभिन्नता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है जिससे छात्रों की रूचि की पूर्ति हो सके।

3. सह-पाठ्यक्रम में बालकों के आयु, मानसिक दशा एवं शारीरिक क्षमता का ध्यान रखा जाय। 

4. बालकों के रूचि, परम्परा, या कठोरता का पालन न किया जाय जो उचित हो उसी को अपनाया जाय।

5. सहगामी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक एवं चारित्रिक विकास में मदद मिलनी चाहिए ताकि बालक का उस पाठ्यक्रम से लगाव रह सके।

अन्त में ध्यान देने योग्य बात यह है कि सारी सम्पादित क्रियायें होने के समय में साध्य होने पर भी आन्तरिक साधन की भावना होना चाहिए ताकि उस पाठ्यक्रम को क्रियान्वित करने में सहायता मिल सके।


Q.5.शिक्षा मनोविज्ञान की दो परिभाषा बताइये मनोविज्ञान तथा शिक्षा मनोविज्ञान में क्या अन्तर है अच्छा शिक्षक शिक्षा मनोविज्ञान की मदद लेता है। (Define any two definition of Education Psychology. What are the differences between Phychology and Education Psychology? Why a Good Teacher take help from Education Psychology.)
(2+3+3=8)

Ans. शिक्षा मनोविज्ञान (Education Psychology): शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ शिक्षा से है, जो एक सामाजिक प्रकिया है और मनोविज्ञान में जो कि व्यवहार सम्बन्धी विज्ञान है, ग्रहण करता है।
 (Crow & Crow) के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान व्यक्ति के जन्म से वृद्धावस्था तक सीखने के अनुभवों का वर्णन और व्याख्या करता है ।" मनोविज्ञान (Psychology) एवं शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Physchology) में अन्तर : मनोविज्ञान (Psychology): मनोविज्ञान एक विज्ञान है जो प्राणियों के व्यवहार एवं मानसिक तथा दैहिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। व्यवहार में मानव व्यवहार के साथ-साथ पशु-पक्षियों के व्यवहार भी सम्मिलित रहते हैं। मानसिक तथा दैहिक प्रक्रियाओं में चिंतन, भाव, संवेदन आदि कई प्रकार की अनुभूतियाँ सम्मिलित रहती हैं। मनोविज्ञान के अर्थ तथा प्रकृति को समझने के लिए मनोविज्ञान के शाब्दिक अर्थ एवं मनोविज्ञान की परिभाषा को ऐतिहासिक विकासक्रम में समझना होगा। इस प्रकार मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान, चेतना का विज्ञान, मस्तिष्क का विज्ञान और व्यवहार का विज्ञान है।

शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology) : शिक्षा एवं मनोविज्ञान को जोड़ने वाली कड़ी है मानव व्यवहार शिक्षा, मानव व्यवहार में परिवर्तन करके उसे उत्तम बनाती है। मनोविज्ञान, मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। इस प्रकार शिक्षा एवं मनोविज्ञान में सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। शिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षा का मनोवैज्ञानिक रूप से अध्ययन करता है। शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा शिक्षार्थी को इस प्रकार ग्रहण करने की प्रक्रिया एवं शिक्षक के शिक्षा देने की प्रक्रिया का मनोवैज्ञानिक रूप से अध्ययन करता है।

अच्छे शिक्षक के लिए शिक्षा मनोविज्ञान की आवश्यकता (Needs of educational psychology for a good teacher) : वर्तमान युग में शिक्षा की प्राचीन अवधारणा परिवर्तित हो गई है। शिक्षा का अर्थ केवल बालक को शिक्षा देना ही नहीं, बल्कि उसका सर्वांगीण विकास करना है और यह तभी संभव है जबकि शिक्षक को इस संबंध में पूर्ण रूप से ज्ञान हो । शिक्षा मानेविज्ञान बालक को समझने में शिक्षक की सहायता करता है क्योंकि मनोविज्ञान में शिक्षण और सोखने की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।

VVi
एक शिक्षक के लिए **शिक्षा मानेविज्ञान की आवश्यकता एवं उपयोगिता को** हम निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट करते हैं:
 1. स्वयं का ज्ञान एवं तैयारी: व्यक्ति किसी कार्य को करने में तभी सफल होता है जब उसमें उस कार्य को करने की योग्यता होती है। शिक्षा मनोविज्ञान की सहायता से अध्यापक या शिक्षक अपने स्वभाव, बुद्धि स्तर, व्यवहार, योग्यता आदि का ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान उसे अपने शिक्षण कार्य में सफल बनाने में सहायता देता है और सभी प्रकार को उसकी व्यावसायिक तैयारी में अतिशय योग देता है ।

2. बाल विकास का ज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन से शिक्षक को बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान हो जाता है। वह इन अवस्थाओं में बालकों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि विशेषताओं से परिचित हो जाता है। वह इन विशेषताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न अवस्थाओं के बालकों के लिए पाठ्यक्रम का चुनाव करने में सफलता प्राप्त करता है।

3. बालकों के चरित्र का निर्माण : शिक्षा मनोविज्ञान, बालकों के चरित्र निर्माण में सहायता देता है। यह शिक्षक को उन विधियों को बताता है जिनका प्रयोग करके वह अपने छात्रों में नैतिक गुण एवं चरित्र का विकास कर सकता है। 
4. बालकों का ज्ञान शिक्षक अपने छात्रों का विकास तभी सार्थक कर सकता है जब उनके बारे में उसे पूर्ण ज्ञान हो, वह भले ही अपने विषय एवं शिक्षण में अद्वितीय स्थान रखता हो, पर यदि उनमें छात्रों का ज्ञान नहीं है तो उसे पग-पग पर निराशा को अपनी सहचरी बनाना पड़ता है।

5. बालकों की आवश्यकताओं का ज्ञान : विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने वाले बालकों की कुछ आवश्यकताएँ होती है, जैसे - प्रेम, आत्म-सम्मान, स्वतंत्रता और किये जाने वाले कार्यों की स्वीकृति की आवश्यकता । यदि उनको ये आवश्यकताएँ पूर्ण कर दी जाती हैं तो छात्र संतुष्ट हो जाते हैं, फलस्वरूप उनका शिक्षा के प्रति विकास स्वाभाविक ढंग से हो जाता है। मनोविज्ञान शिक्षक को बालकों की इन आवश्यकताओं से अवगत कराता है ।

6. कक्षा में समस्याओं का समाधान : कक्षा-कक्ष की मुख्य समस्याएं अनुशासनहीनता, बाल-अपराध, समस्या बालक, छात्रों का पिछड़ापन आदि है। मनोविज्ञान, शिक्षक को इन समस्याओं के कारणों को खोजने और इनको दूर करने में सहायता करता है।

7. अनुशासन में सहायता शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापक को अनुशासन स्थापित करने और रखने में सहायक अनेक 569 विधियाँ बताता है जो शिक्षक अपने छात्रों के रूचि के अनुसार शिक्षा देते हैं उनके सामने अनुशासन की कठिनाइयाँ बहुत कम हो जाती हैं। जब हम पाठ्यक्रम में शिक्षण विधियों और शिक्षण सामग्री का सुधार करते हैं तब हम अनुशासन की समस्याओं का पर्याप्त समाधान कर देते हैं या उनका अन्त कर देते हैं।

8. उपयोगी पाठ्यक्रम :- 1 - विकास की विभिन्न अवस्थाओं में बालकों की रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ और आवश्यकताएँ विभिन्न होती हैं। मनोविज्ञान शिक्षा इन बातों का ज्ञान प्रदान करके अध्यापक को विभिन्न अवस्थाओं के बालकों के लिए उपयोगी पाठ्यक्रम का निर्माण करने में सहायता देता है।

9. मूल्यांकन की विधि मूल्यांकन छात्र एवं अध्यापक दोनों के लिए आवश्यक है। छात्र यह जानना चाहता है कि उसने कितना ज्ञान प्राप्त किया, शिक्षक यह जानना चाहता है कि वह छात्र को ज्ञान प्रदान करने में किस सीमा तक सफल हुआ है। शिक्षा मनोविज्ञान मूल्यांकन ऐसी विधियाँ है जिनका प्रयोग करने से छात्र अपनी प्रगति का और शिक्षक छात्र के प्रगति का अनुमान लगा सकता है।


शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology)


Q.1शिक्षा मनोविज्ञान में किन्डरगार्टेन पद्धति का क्या महत्व है ? (State the importance of Kindergarten in Educational Psychology.)

Ans.फ्रोबेल के किन्डर गार्टेन पद्धति में बच्चों को गिनती सिखाने, अक्षर पहचानने की आरम्भिक शिक्षा खिलौने के माध्यम से दिया जाता है ।

Q.2.शिक्षा मनोविज्ञान की दो पद्धति को लिखिये। (Write the two methods of Educational Psychology.)

Ans. (i) विषय सम्बन्धी पद्धति (Subjective Method) (ii) वस्तुनिष्ठ पद्धति (Obejective Method)

Q.3.किस ग्रीक शब्द से मनोविज्ञान लिया गया है ? (From which Greek word is "Psychology" derived ?)(SAMPLE QUESTION)

Ans.वैसे भी मनोविज्ञान शब्द लैटिन भाषा के "साइकी-लॉगस' का पर्यायवाची है। 'साइकी' का अर्थ आत्मा है और 'लॉगस' का अर्थ शास्त्र' अथवा 'विज्ञान', जिसका विस्तृत अर्थ हुआ 'आत्मा का विज्ञान' । 
Q.4 शिक्षा मनोविज्ञान का एक परिभाषा दें। (Give one definition of educational psychology.)
Ans.शिक्षा प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए प्राणी अथवा व्यक्ति का अध्ययन शिक्षा सम्बन्धी वातावरण में करना ही शिक्षा मनोविज्ञान है।

Q.5. शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषा बतायें। (Define Educational Psychology.)
Ans.
शिक्षा मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो कि शिक्षा प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए प्राणी अथवा व्यक्ति का अध्ययन शिक्षा सम्बन्धी वातावरण में करता है। इसके अलावा मनोविज्ञान व्यवहार तथा अनुभव का ज्ञान है।

Q.6शिक्षा मनोविज्ञान की दो प्रकृति की चर्चा करें। (State the two nature of Education Psychology.)

Ans. शिक्षा मनोविज्ञान की दो प्रमुख प्रकृति है :
1.• शैक्षिक व्यवहार (Educational Behaviour)  
2. तकनीकी परामर्श (Technical Advice)

Q.7.मनोविज्ञान के दो महत्व बताइयें (State the two importance of Psychology.) 
Ans. 1. बालक का विकास करना।
2. मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना।

Q.8.शिक्षा मनोविज्ञान की परीक्षण पद्धति की परिभाषा दो (Define Test Method of Educational Psychology.)
Ans.व्यक्तियों के विभिन्न योग्यताओं को ज्ञात करने के लिए परीक्षण पद्धति का प्रयोग किया जाता है। 

Q.9. मनोविज्ञान शब्द की उत्पत्ति का क्या अर्थ है ? (What is the etymological meaning of 'psychology'?)

Ans. 'Psychology' में Psyche का अर्थ आत्मा है और logos का अर्थ विज्ञान है। अतः संयुक्त रूप में 'Psychology' शब्द का अर्थ हुआ आत्मा का विज्ञान

Q.10. Textbook of Psychology' के लेखक कौन थे ? (Who is the author of the book "Textbook of Psychology'?)

Ans. Text Book of Psychology के लेखक हैं -Donald O, Hebb 'डोनाल्ड, ओ हेव्व' ।


वृद्धि और विकास (Growth and development)

Q.1.किशोरावस्था की माँग की चर्चा करें। स्कूल किस प्रकार इन मांगों को पूरा करने में मदद करता है। (Discuss the needs of Adolescence. How does the school help to fulfill these needs ?)

Ans. किशोरावस्था में विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं का उदगम् होता है । किशोरों की प्रमुख आवश्यकताएँ निम्न हैं: 
(i) आवश्यक वस्तुओं के अन्तर्गत भोजन, वस्त्र एवं निवास स्थान की आवश्यकताओं को सम्मिलित किया जाता है। किशोरावस्था में इन आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है ।

(ii) किशोर जीवन में संवेगों की अधिकतम तीव्रता होती है। इसी कारण किशोर कभी-कभी वे कार्य कर डालते हैं जो असाधारण कहे जाते हैं ।
(iii) किशोर अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र जीवन यापन करना चाहते हैं। वे अभिभावकों एवं समाज के रीति-रिवाजों, अंधविश्वासों और रूढ़िवादी दृष्टिकोण में बँधना नहीं चाहते हैं।

(iv) किशोर सदा नये-नये ज्ञान को ग्रहण करना चाहते हैं। उनके मन में नयी वस्तु के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है।

(v) किशोर समाज में मान्यता प्राप्त करना चाहते हैं। उन्हें आत्म-सम्मान (Self-respect) का बोध होता है। वे संसार में अपना स्वतंत्र स्थान बनाकर आत्मनिर्भर होना चाहते हैं ।

(vi) वास्तविक जीवन में किशोर न तो पूर्ण वाल्यवस्था में रहते हैं और न पूर्ण प्रौढ़ावस्था में अतः बालकों की तरह उन्हें माता पिता या अभिभावक से स्नेह प्राप्त नहीं हो पाता है। प्रौढ़ों की तरह उन्हें दायित्वपूर्ण कार्य भी नहीं सौंपा जाता है। किशोर अपने आपको तिरस्कृत समझते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें माता-पिता या अभिभावकों से सुरक्षा की आवश्यकता होती है। 

(vii) किशोरों में यौन तृप्ति की आवश्यकता एक प्रमुख आवश्यकता है। किशोरावस्था में विपरीत लिंगी से मिलने, बात करने और साहचर्ययुक्त जीवन बिताने की प्रबल इच्छा होती है। इस प्रकार शैक्षिक दृष्टिकोण में किशोरावस्था का अधिक महत्व है । उचित शिक्षा के अभाव में किशोरों के उत्सुक जीवन का निर्माण संभव नहीं है। किशोरावस्था की शिक्षा के संबंध में हैडो का मत है कि ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना प्रारम्भ होता है। इसको किशोरावस्था के नाम से पुकारते हैं। यदि इस ज्वार के बाढ़ के समय से ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति एवं धारा के साथ-साथ नयी यात्रा आरम्भ कर दी जाये तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।

किशोरावस्था में शारीरिक एवं गतिविकास के लिए खेलों की सुव्यवस्था आवश्यक है। संवेगों के शोधन तथा प्रशिक्षण को रखना चाहिए। विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता, नाटक, संगीतों का भी आयोजन होना चाहिए। इस अवस्था में व्यावसायिक निर्देशन का भी प्रबंध होना चाहिए।

Q.2. What do you mean by Adolescence. Discuss the features of Mental Intellectual development during Adolescence.

Ans. किशोरावस्था (Adolescence): किशोरावस्था को अंग्रेजी में 'Adolescence' कहते है एडोलेसेन्स शब्द लेटिन भाषा के 'ऐडोलिसियर' (Adolescere) से बना है जिसका अर्थ है परिपक्वता की ओर बढ़ना (To grow to maturity), अत: किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमे बालक परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है तथा जिसको समाप्ति पर वह पूर्ण परिपक्व व्यक्ति बन जाता है।

स्टेनले हाल के अनुसार "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान, और विरोध की अवस्था है" (Adolescence is a period of great stress, and strain, storm and strike).

Features of Mental Intellectual development : सामान्यतः किशोरावस्था की मानसिक विशिष्टताओं का उल्लेख निम्न रूप में किया जा सकता है:
मानसिक बौद्धिक विकास (Mental Intellectual Development) : किशोरावस्था में मानसिक क्षमता का भी विकास होता है। स्मृति, कल्पना, तर्क, निर्णय आदि की शक्तियाँ बढ़ती हैं तथा दिवा स्वप्न, विरोधी मानसिक स्थितियाँ आदि में भी वृद्धि होने लगती है। बौद्धिक विकास भी चरम सीमा छूने लगता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 16 वर्ष की अवस्था तक सामान्यत: मानसिक आयु बढ़ती रहती है।
 बौद्धिक विकास के कारण एक किशोर में निम्न बौद्धिक कार्य करने की क्षमता आ जाती है -

(i) अमूर्त चिंतन, (ii) तर्क तथा निर्णय, (iii) ध्यान केन्द्रीकरण, (iv) स्मृति विस्तार, (v) रचनात्मक कल्पना आदि। किशोरावस्था तक बालक माता-पिता पर आश्रित रहते हैं। परन्तु, किशोरावस्था में वे स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करना पसन्द करते हैं। यदि उन्हें इस क्षेत्र में उत्साह नहीं मिलता अथवा यदि किसी प्रकार की बाधा आती है तो उनमें हीन भावना का सृजन होने लगता है। विभिन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए किशोरों में विभिन्न प्रकार की चिन्ताएं देखी जाती है। बड़ों से तिरस्कार पाने पर उनमें असुरक्षा की भावना बढ़ती है। अतः, माता पिता एवं शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे किशोरों के प्रति सहानुभूति का बर्ताव करें। किशोर विभिन्न प्रकार की नई-नई वस्तुओं के संबंध में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं। किशोर की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने और उसकी निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए उन्हें प्राकृतिक, एवं एतिहासिक स्थानों को देखने के अवसर देना चाहिए। शिक्षा के दृष्टिकोण से किशोर बालकों का भ्रमण करना बहुत लाभदायक है। किशोर विभिन्न प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता हुआ अपने जीवन के दिनों को व्यतीत करता है। उसके संवेगों के शोधन तथा प्रशिक्षण के लिए साहित्य, कला एवं संगीत की शिक्षा की व्यवस्था आवश्यक है।

Q.3.पूर्व प्राथमिक शिक्षा से तुम क्या समझते हो ? इसके ध्येय को लिखिये। (What do you mean by pre-primary education ? Write down its aim.)

Ans. पूर्व प्राथमिक शिक्षा पूर्व प्राथमिक शिक्षा वह शिक्षा है जो 6 वर्ष की आयु से पूर्व दी जाती है । यह वह शिक्षा है जिसमें बच्चे को प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश लेने से पूर्व की आयु में दी जाती है । 2 वर्ष से 6 वर्ष की अवस्था के लिये शिक्षा पूर्व प्राथमिक शिक्षा कहलाता है । डा० मैरिया मान्टेसरी के अनुसार 2 वर्ष से 6 वर्ष तक शिशुओं की शिक्षा इस योजना के अन्तर्गत आता है ।

बालक के विकास में सबसे अधिक महत्व उसके प्रथम पाँच वर्ष का है । शिशु काल में शिशु सबसे अधिक सीखता है इस अवधि में उसका सर्वाधिक बहुमुखी विकास होता है । यह अवस्था शिक्षा की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण होती है।

मानव जीवन के 6 वर्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । इस काल में जो संस्कार बालक में डाल दिये जाते हैं, वे बाद में सुदृढ़ होकर उसके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं । अतः प्रारम्भ से ही शिशु संवेगों तथा स्थायी भाव को सुचारू रूप से निर्मित करके भावी जीवन को उज्जवल बनाना चाहिये ।

मनोविज्ञान ने भी बालक के इस काल की शिक्षा पर बल दिया है। बालक को आरम्भ से ही उसके सर्वांगीण विकास के लिये शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य :

पूर्व–प्राथमिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शिशु का बहुमुखी विकास करना है । कोठारी आयोग ने पूर्व प्राथमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किए

(i) स्वस्थ आदतों का विकास करना ।
(ii) शिशु में वस्त्र पहनने, धोने, भोजन करने, स्वच्छ रहने की योग्यताओं का विकास करना। 
(iii) शिशु में वांछनीय सामाजिक अभिवृत्तियाँ एवं व्यवहार के प्रतिमानों का विकास करना ।

(iv) उसमें सौन्दर्यात्मक बोध का विकास करना ।

(v) बौद्धिक जिज्ञासा को विकसित करना ।

(vi) शिक्षा में आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान कर उसे स्वतंत्रता तथा सृजनात्मकता हेतु प्रोत्साहित करना । 
(vii) शारीरिक, मानसिक एवं इन्द्रियों के विकास का अवसर प्रदान करना ।

(viii) शिशु में अपने भावों एवं विचारों को शुद्ध, स्पष्ट एवं प्रवाहपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति करने का कौशल विकसित करना।
 (ix) शिशु का संवेगात्मक विकास करना ।
 (x) शिशु को अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति सजग बनाते हुए उनमें स्वस्थ सामूहिक साझेदारी की भावना का विकास करना ।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के जनक जर्मन शिक्षाशास्त्री फोबेल को माना जाता है । उसने सन् 1837 ई० में ब्लैकनवर्ग में प्रथम पूर्व प्राथमिक (किण्डर गार्टन) विद्यालय खोला । इसके बाद 19वीं शताब्दी के अन्त में कुमारी मारग्रेट मैकमिलन ने इंगलैंड में नर्सरी स्कूल की आयोजन की 20वीं शताब्दी में इटली की मेरिया मॉण्टेसरी ने मॉण्टेसरी स्कूलों का प्रारम्भ किया।

भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा विकास के लिये मिशनरियों द्वारा कदम उठाये गये । शुरू में मिशनरियों ने अपने द्वारा खोले गये विद्यालयों के साथ पूर्व प्राथमिक कक्षा सम्बद्ध कर दी थी। नूतन बाल शिक्षण संघ ने भी इस क्षेत्र में अपना कदम आगे बढ़ाया । सन् 1939 ई० में डा० मेरिया मॉण्टेसरी भारत आयी और पूर्व प्राथमिक शिक्षा को प्रेरणा दी।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये निश्चित पाठ्यक्रम का होना जरूरी माना गया है । सेन्ट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड ने इस प्रकार की शिक्षा के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये हैं:

(i) विभिन्न प्रकार के खेल-कूद की शिक्षा तथा स्वास्थ्यप्रद क्रिया-कलाप ।

(ii) सरल व्यायाम, नृत्य, लययुक्त खेल ।

(iii) शारीरिक क्रम और खेल ।

(iv) प्राकृतिक पदार्थों तथा अन्य उपकरणों के प्रयोग द्वारा इन्द्रिय ज्ञान की शिक्षा ।

(v) अंगुलियों की प्रवीणता तथा औजारों के प्रयोग वाले हस्तकार्य और ड्राइंग, चित्रकला, गीत, नृत्य, आदि क्रियाकलाप|

(vi) अपना काम स्वयं करने की आदत ।

इनके अलावा प्रशिक्षित अध्यापक-अध्यापिकाओं की आवश्यकता होगी जो उक्त कार्यक्रम के आधार पर स्वयं योजनाएँ बना सकते हों तथा उनका सफल संपादन भी कर सकते हों। पूर्व प्राथमिक शिक्षा का निःशुल्क होना जरूरी है। ऐसा होने से ही शिक्षा के उद्देश्य पूरे होंगे और भारत का सामान्य नागरिक इससे लाभान्वित हो सकेगा ।


VI.Q.4. बाल्यावस्था के चरण क्या है ? प्रत्येक बाल्यावस्था के दो शरीरिक मांग, मानसिक मांग और सामजिक मांग की चर्चा करें। (What is the stage of childhood ? Mention two physical needs, mental needs and social needs each of childhood.) (2+6=8)

Ans. बाल्यावस्था मानव जीवन के लगभग छः वर्ष से बारह वर्ष के बीच की आयु का वह काल है जिसमें बालक के जोवन में स्थायित्व आने लगता है और वह आगे आने वाले जीवन की तैयारी करता है। बाल्यावस्था की यह आयु शिक्षा आरंभ करने के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने बाल्यावस्था को 'समूह की आयु' (Gang Age) भी कहा हैं। उसे शिक्षा शास्त्री ने प्रारम्भिक विद्यालय की आयु Elementary School Age भी कहते हैं। 
बालक की शारीरिक मानसिक एवं सामाजिक आवश्यकताएँ (Physical, Mental and Social needs of childhood) :

(i) बाल्यावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Childhood) : छ: वर्ष की आयु तक की अवधि बाल्यावस्था कहलाती है। बाल्यावस्था के प्रथम तीन वर्षों के दौरान शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है, परन्तु बाद के तीन वर्षों में यह विकास दृढ़ता की ओर उन्मुख होता है। इसी कारणवश नौ से बारह वर्ष की अवधि को परिपक्व काल भी कहते हैं। बाल्यावस्था में होने वाले मुख्य शारीरिक परिवर्तन इस प्रकार हैं:

1. बाल्यावस्था के प्रारम्भ में बालकों की लम्बाई बालिकाओं की लम्बाई से लगभग एक सेमी अधिक होती है, वहीं इस अवधि की समाप्ति पर बालिकाओं की औसत लम्बाई बालकों की औसत लम्बाई से लगभग एक सेमी अधिक हो जाती हैं। छ: वर्ष से बारह वर्ष की आयु तक चलने वाली बाल्यावस्था में शरीर की लम्बाई पाँच से सात सेमी प्रतिवर्ष की गति से बढ़ती है। 
2. बाल्यावस्था के दौरान बालकों के भार में काफी वृद्धि होती है। नौ-दस वर्ष की आयु तक बालकों का भार बालिकाओं के भार से अधिक होता है, परन्तु इसके उपरान्त बालिकाओं का भार बालकों के भार से अधिक होना प्रारम्भ हो जाता है।
3. बाल्यावस्था में सिर के आकार में धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहता है, परन्तु शरीर के अन्य अंगों की तुलना में यह अपेक्षाकृत बड़ा होता है। शरीर के विभिन्न अंगों की अनुपातहीनता धीरे-धीरे कम हो जाती है। बाल्यावस्था के अन्त तक सिर का आकार प्रौढ़ावस्था के सिर के आकार का लगभग 95 प्रतिशत हो जाता है। बाल्यावस्था में मस्तिष्क का आकार तथा भार दोनों ही दृष्टि से लगभग पूरी तरह विकसित हो जाता है।

(ii) बाल्यावस्था में मानसिक विकास (Mental Developmet During Childhood): मानसिक विकास तात्पर्य मानसिक शक्ति का उदय होना, पुष्ट होना, चरम सीमा पर पहुँचने के साथ-साथ व्यक्ति में उस योग्यता का विकास होता है जिसके द्वारा वह वातावरण की परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार करता है। मानसिक विकास के अन्तर्गत संवेदनशीलता, प्रत्यक्षीकरण, प्रत्यय निर्माण, अवलोकन, ध्यान, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, तर्क-निर्णय, बुद्धि, भाषा अधिगम  क्षमता आदि संज्ञानात्मक शक्तियाँ आती हैं। परिपक्वता तथा अधिगम के फलस्वरूप बालक का मानसिक विकास होता है।

शारीरिक विकास व अभिवृद्धि तथा मानसिक विकास की सम्बद्धता एवं अन्तर को स्पष्ट करते हुए स्किनर (Skinner) ने कहा है, "साधारण नियम के अनुसार मानसिक क्रियाओं के विकास का सर्वश्रेष्ठ अभिसूचक शारीरिक प्रगति की मात्रा है। फिर भी शारीरिक और मानसिक विकास में एक बहुत बड़ा अन्तर है। जहाँ शारीरिक विकास में जैव कारक मुख्य निर्धारक है वहाँ मानसिक विकास में पर्यावरण बहुत अंशों में प्रधान कार्य करता है।" मानसिक विकास शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का आधार होता है। बाल्यावस्था के विभिन्न वर्षों में बालक का मानसिक विकास निम्न प्रकार से होता है-

1. छठे वर्ष में बालक बिना हिचके 15 तक गिनती सुनाने लगता है, सरल प्रश्नों के उत्तर देने लगता है, शरीर के विभिन्न अंगों के नाम बता देता है, चित्रों को पहचानना सीख लेता है और उनकी वस्तुओं के बारे में भी बता देता है।
 2. सातवें वर्ष के दौरान बालक छोटी-छोटी घटनाओं का वर्णन कर लेता है। वस्तुओं में समानताएँ तथा अन्तर बताता है।संयुक्त तथा जटिल वाक्यों का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करता है।
3. आठवें वर्ष में बालक में छोटी कहानियों और कविताओं को याद करके, उन्हें सुनाने की क्षमता का विकास हो जाता कहानी से संबन्धित उत्तर भी देने लगता है। वह 16-17 शब्दों के वाक्य को दोहराने लगता है तथा प्रतिदिन की साधारण समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास हो जाता है।

(ii) बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Soceial Development During Childhood): बाल्यावस्था वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड (Ferend) के अनुसार, "बालक का विकास वर्ष की आयु तक हो जाता है, बाल्यावस्था विकास की वह सम्पूर्ण गति प्राप्त करती है और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है। शैशवास्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों की निर्माण होता है।"

बाल्यावस्था में, सामाजिक व्यवहार में काफी मात्रा में वृद्धि हो जाती है। बालक प्राय: किसी न किसी समूह के सदस्य होकर भिन्न-भिन्न प्रकार की योजनाएँ बनाते हैं, खेलते हैं, आपस में वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं। कोई बालक, यदि समाज विरोधी व्यवहार करता है तो समूह के सभी सदस्य उसे ऐसा करने से रोकते हैं। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार बाल्यावस्था में सामाजिक विकास निम्नलिखित रूप से होता है।

1. छ: या सात वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों में दृढ़ता उत्पन्न करती है। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व और वह स्वयं वयस्क जैसे लगता है। रॉस (Ross) के अनुसार, "शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।"

2. बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। वह साधारण बातों पर अधिक देर तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है। उसमें अपने पूर्व अनुभवों को समान रखने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है।



वृद्धि और विकास (Growth and development)


Q.1.सीखने की परिभाषा दीजिए। (Define learning.)

Ans. सीखने का अभिप्राय है - व्यक्ति के अनुभव में नए अनुभवों की वृद्धि होना। सीखने की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहती है। यह व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया है।

Q.2. एक बच्चे के विकास के लिये दो कारक क्या है ? (What are the two factor for development of a child ?) 
Ans.
(i) पौष्टिक भोजन (Nutrition) : शारीरिक स्वास्थ्य एवं आकार में वृद्धि के लिए शुद्ध वातावरण एवं संतुलित भोजन अति आवश्यक है। यदि बालक को उचित समय पर पौष्टिक एवं संतुलित भोजन नहीं मिलता है तो उसका शारीरिक विकास रुक जाता है। बचपन से दूध और फल के स्थान पर रोटी, चावल खाने वाले बालकों का शारीरिक विकास अच्छा नहीं होता है।
 (ii) स्वास्थ्य (Health) : बालक का विकास उसके स्वास्थ्य से सम्बन्धित हैं। जिन बालकों का स्वास्थ्य अच्छा नहीं होता, उनके संवेगात्मक विकास में अस्थिरता पाई जाती है। वे सामान्य बातों पर क्रोध व्यक्त करते हैं और चिडचिड़े स्वभाव के बन जाते हैं। बाल्यकाल में रोगी होने के कारण बालक का विकास मंद पड़ जाता है। रोग के फलस्वरूप अनेक गुण अविकसित रह जाते हैं। किसी भी प्रकार को शारीरिक या मानसिक चोट भी विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। 

Q.3.वृद्धि और विकास का एक अन्तर लिखो ? (Write a difference between growth and development ?)



Q.4.'बाल्य केन्द्रीक शिक्षा के सिद्धान्त को किसने लागु किया ? (Who introduced the theory of the 'Child-centric' education ?) 
Ans-अरस्तू (Aristotle)

Q.5.प्रयोग मनोविज्ञान के संस्थापक कौन है ? (Who is the founder of Applied Psychology ?) 

Ans.-Hugo Munsterberg.

[Q.6. किशोरावस्था के दो सामंजिक मांग का उल्लेख करें। (State two social needs of adolescence)

Ans. (i) विपरीत लिंगी के साथ मिलने-जुलने की इच्छा 
(ii) क्लब या संघ बनाने की इच्छा|
Q.7. बाल्यकाल की एक माँग का उल्लेख करें। (Mention one need of childhood.)

Ans.बाल्य काल की एक मांग है- खाद्य की मांग।

Q.8.किशोरावस्था की एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता का उल्लेख करो (Mention one psychological need of adolescence.)

Ans.किशोरावस्था की एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है -आत्म प्रकाश की मांग|

Q.9. वृद्धि और विकास का एक अन्तर उल्लेख करें। (State one difference between growth and development.)
Ans.वृद्धि को मापा जा सकता है, पर विकास को देखा जा सकता है।

Q.10. उच्च माध्यमिक शिक्षा किस प्रकार से किशोरावस्था के मांग को संतुष्ट करती है,एक उदाहरण दें (Give one example of how secondary education satisfies the needs of adolescence.)

Ans. माध्यमिक शिक्षा किशोरों को ज्ञान प्राप्ति की मांग को पूरा करने में सहायता करती है।

Q.11. कासा देई बाम्बिनी क्या है ? (What is Casa Dei Bambini?) Ans. कासा देई बाम्बिनी शब्द का अर्थ है बच्चों के लिए घर |
मांटेसरी विद्यालय द्वारा प्रवर्तित शिक्षा नीति को वास्तविक रूप प्रदान करने के लिए विशेष विद्यालयों को कासा देई बाम्बिनी कहा जाता है।

Q.12. समाजीकरण के बारे में तुम क्या जानते हो ? (What do you mean by Socialization ?) 
Ans:समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समाज के समस्त परम्पराओं, मान्यताओं एवं आदेशों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है।

Q.13. अभिवृद्धि का विकास से कैसे अन्तर होता है ? (How is Growth differ from Development?)
 Ans. शिक्षा के क्षेत्र में अभिवृद्धि -आकार में परिवर्तन है जबकि विकास -कार्य क्षमता में परिवर्तन है।

Q.14. समूह आयु से तुम क्या समझते हो ? (What do you mean by Gang Age ?) 
समूह आयु (Gang Age) : बाल्यावस्था के बालक-बालिका में सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने को भावना भी काफी प्रबल होती है। वे आपस में मिलकर अलग-अलग समूह बनाते हैं इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने इस बाल्यवास्था को Gang Age कहा है।

Q.15.बुद्धि की परिभाषा बताइये। (Define Intelligence.)

Ans.बुद्धि (Intelligence) : बुद्धि का अर्थ निश्चित रूप से वह शक्ति है जो हमारे व्यवहार प्रतिमानों को नवीन परिस्थितियों में अच्छी प्रकार कार्य करने हेतु संगठित करती है। 

Q.16.प्रतिभाशाली बालक से क्या तात्पर्य है ? (What is meant by Gifted Children ?)
Ans. प्रतिभाशाली बालक (Gifted Children) प्रतिभाशाली बालक वह है जो सामान्य बुद्धि के दृष्टिकोण से श्रेष्ठ प्रतीत हो अथवा वह जो उन क्षेत्रों में जिनका अधिक बुद्धि-लब्धि से सम्बन्धित होना आवश्यक नही है बल्कि उच्च कोटि की विशिष्ट योग्यताएँ रखता है।

Q.17.किशोरावस्था को परिभाषित करें (Define Adolescence ?) 

Ans.किशोरवस्था (Adolescence) : Adolescence शब्द लैटिन भाषा के ऐडोलिसियर से बना है जिसका अर्थ परिपक्वता की ओर बढ़ना (Growth to Maturity) । किशोरावस्था वह अवधि है जिसमें किशोर एवं किशोरियाँ बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था की ओर मानसिक, संवेदनात्मक, सामाजिक एवं शारीरिक रूप से अग्रसर होते हैं जिनकी आयु 12-18 वर्ष तक होती है। इस अवस्था को क्रान्ति काल (Revolutionany Stage) भी कहा जाता है।

Q.18. बाल्यावस्था का क्या अर्थ है ? (What is meant by Childhood or Boyhood ?) 
Ans.बाल्यावस्था (Childhood or Boyhood): शैशवावस्था के बाद बाल्यकाल शुरू होता है। यह शैशवकाल के बाद तथा किशारोवस्था के पहले की अवस्था है बाल्यावस्था में आयु 6 से 12 वर्ष तक होती है। मनोवैज्ञानिक ने बाल्यकाल को जीवन का अनोखा काल (Unique Period of Life) भी कहा है।

Q.19.बाल्यावस्था के शारीरिक विकास के दो कारक लिखीये। (Write the two factors of physical development of childhood.)
Ans.(i) वंशानुक्रम (Heridity) (ii) वातावरण (Environment)

Q.20. किशोरावस्था के समयकाल के दो मानसिक विकास का उल्लेख (State the two mental development during Adolescence.)

Ans.(i) मानसिक स्वतंत्रता (ii) सीखने की क्षमता।

Q.21.क्रेश क्या है ? (What is Creche ?)
Ans.क्रेश (Creche) : क्रेश शब्द जर्मन भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है "दिन में बच्चों की देखभाल करने के स्थान”। इसे दिवस परिचर्या केन्द्र (Day Care Centre) भी कहा जाता है।

Q.22.ICDS कार्यक्रम कहाँ लागू और विकसित हुआ ? (Where is the ICDS (Integrated Child Development Scheme) programme implemented and developed ?)

Ans.भारत सरकार ने 1975 ई० में प्रथम ICDS कार्यसूची स्वीकार की। माता एवं 6 वर्ष तक शिशु के स्वास्थ्य एवं पोषण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पूरक खाद्य आपूर्ति एवं विद्यालय में शिक्षा के क्षेत्र में ICDS सूची को लिया गया है। 

Q.23.किस समय को मध्य बाल्यावस्था कहा जाता ? (What period is called the period of middle childhood ?)

Ans.पाँच वर्ष से आठ वर्ष उम्र को मध्य बाल्यावस्था कहा जाता है।



Q.24.किंडरगार्टन में पौधे और माली क्या है ? (Who are the plant and the gardener in kindergarten ?)
Ans.
 किंडरगार्टेन में, 'बच्चे पौधे होते है, और शिक्षक माली हैं।


भारत में संस्थागत प्रतिस्थापित शिक्षा का विशेष विकास (Special features of development alized education in India)


Q.1.गुरु-शिष्य के सम्बन्ध के बारे में और गुरुकूल शिक्षा पद्धति द्वारा पढ़ाने का वर्णन कीजिए।

(Discuss about the teacher-pupil relation and the method of teaching in Gurukul System of education.)

Ans. गुरु-शिष्य सम्बन्ध :- माता-पिता ही बच्चों के प्रथम शिक्षक माने जाते हैं, किन्तु वैदिक काल में पिता का स्थान शिक्षक को प्राप्त था। ऋगवेद में गुरु को वाचस्पति अर्थात् सर्वज्ञान सम्पन्न कहा गया है। अन्य वेदों में उसे गुरु अथवा आचार्य कहा गया है। आचार्य से तात्पर्य शुद्ध आचरण युक्त। इस तरह गुरु के व्यक्तित्व में ज्ञान की अपेक्षा आचरण को अधिक महत्व दिया गया है। वैदिक काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र का सम्बन्ध समझा जाता था। गुरु छात्रों का मानसिक तथा आध्यात्मिक पिता होता था, अतः वह छात्रों की न्यूनताओं के लिए भी उत्तरदायी होता था। छात्रों के आचरण हेतु गुरु ही उत्तरदायी था। गरीब छात्रों के लिए भोजन, चिकित्सा तथा छात्रवृत्तियों की व्यवस्था गुरु ही करते थे। विद्यार्थी को क्षमताओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना तथा उसके अनुरूप शिक्षा सामग्री एवं शिक्षण विधि का प्रयोग करना गुरु का कर्तव्य था।

छात्र गुरु को पिता, राजा एवं ईश्वर की तरह मानकर उनका आदर करते थे। गुरु की आज्ञा का पालन, गुरु गृह की अग्नि को प्रज्वलित बनाये रखना, गुरु की गायों को चराना, ईंधन इकट्ठा करना, गुरु-गृह की सफाई करना तथा बरतन आदि की सफाई करना विद्यार्थी के कर्त्तव्य थे। विद्यार्थी का सबसे महान कर्त्तव्य था विद्याध्ययन गुरु के शरण में वह निश्चल भाव से विद्याध्ययन करता था ।

पाठ्यक्रम : वैदिककालीन शिक्षा में ब्रह्मचारियों को वेदों की शिक्षा के साथ-साथ पौराणिक कथाओं, भौतिक शास्त्र, ब्रह्मविद्या, इतिहास, नक्षत्र विद्या, ज्योतिष, व्याकरण, तर्क शास्त्र आदि का ज्ञान कराया जाता था ।

शिक्षा प्रणाली :- शिक्षण पद्धति मौखिक थी। उस समय तक मुद्रणयंत्रों का आविष्कार नहीं हुआ था, अतः पुस्तकें उपलब्ध नहीं थी । शिक्षण पद्धति की प्रमुख विधियाँ निम्न थीं

(i) प्रश्नोत्तर विधि, (ii) भाषा विधि, (iii) सूक्ति विधि, (iv) अन्योक्ति विधि, (v) सेमिनार विधि । अध्यापन विधि का आधार मनोवैज्ञानिक था और ऋग्वैदिक मंत्रों के संरक्षण हेतु एक विशेष पद्धति अपनाई जाती थी जिसके फलस्वरूप वे मंत्र शताब्दियों तक श्रुति रूप में ज्यों के त्यों संरक्षित चले आ रहे हैं ।

1. रटने की पद्धति :- आचार्य स्वयं मंत्र पाठ करते थे और विद्यार्थी उसकी आवृत्ति प्रस्तुत करते थे। आचार्य उसकी अशुद्धियों को दूर कर शुद्ध पाठ सुनिश्चित करते थे। इसे कंठाग्र करने की पद्धति भी कहते हैं 1

2. मनन करने की पद्धति :- कंठाग्र विधि के साथ-साथ चिन्तन-मनन की विधि भी चलती रहती थी। मंत्रों के आन्तरिक मर्म को ग्रहण करने के लिए छात्र मनन-पद्धति अपनाकर मंत्र का तात्पर्य समझने की चेष्टा करता और आचार्य की सहायता से उसमें ध्वनित आध्यात्मिक तत्वों की अनुभूति को प्राप्त करता था ।

3. स्वाध्याय की पद्धति :- गुरु की प्रेरणा से छात्र स्वाध्याय का अभ्यास करते थे तथा कठोर साधना में प्रवृत्त हो अपनी में समस्त चित्तवृत्तियों को बाह्य जगत से दूर कर परम ज्ञान की ओर केन्द्रस्थ हो जाते थे। मनन विधि से शिष्य गुरु-ऋण से उऋण होता था तथा स्वाध्याय से आत्मानुभूति प्रात करता था।

4. ब्राह्मण संघ :- वैदिक काल में ब्राह्मण संघ नामक एक संस्था थी जिसमें मेधावी छात्रों को विचार-विनिमय एवं गूढ़ातिगूढ़ तत्वों को समझने का सुयोग प्राप्त होता था। यह संस्था आधुनिक सेमिनार का रूप थी।

5. अन्य विशेषताएँ:-गुरु अपने छात्रों में अन्वेषण की वृत्ति जाग्रत करने का प्रयत्न करते थे। विषय का सामान्य ज्ञान देकर विद्यार्थी को स्वयं आगे बढ़ने की प्रेरणा दिया जाता था। गुरु की सहायता से मेधावी छात्र इस कार्य में अपनी प्रतिभा का विलक्षण परिचय देते थे। गुरु के आश्रम में रहने वाले छात्रों को अपने दैनिक कार्यक्रम में (1) व्यावहारिक, (ii) मानसिक एवं (iii) नैतिक तीन प्रकार की शिक्षाएँ सम्मिलित थे।

(i) व्यावहारिक शिक्षा : इस प्रकार की शिक्षा में गुरु की आज्ञा से विद्यार्थी भिक्षाटन, होम की अग्नि को प्रज्वलित रखने एवं पशुचारण का कार्य करते थे। भिक्षाटन से उनमें विनम्रता का भाव पैदा होता था और होम की अग्नि निरन्तर प्रज्वलित बनाये रखने से उनके मस्तिष्क में आध्यात्मिक तेज उत्पन्न होता था तथा पशु परिचर्या व भूमि सम्बन्धी कार्यों से उनका शरीर स्वस्थ एवं आचरण पवित्र बनता था। 

(ii) मानसिक शिक्षा : इस शिक्षा के अंग थे भ्रमण, मनन एवं निदिध्यासन। मानसिक शिक्षा मुख्यतः अनुभावनात्मक थी। इससे गुरु-शिष्य एकाग्र चित्त होकर कुश के आसन पर बैठकर शिक्षण क्रिया पूर्ण करते थे।

(iii) नैतिक शिक्षा यह अभ्यासात्मक तथा व्यावहारिक शिक्षा थी। इसमें केवल आचरण सम्बन्धी व्याख्यान तथा : उपदेश ही नहीं दिये जाते थे, बल्कि उनका अभ्यास भी कराया जाता था। ब्रह्मचर्य के कठोर अनुशासन के साथ ही उत्तेजक भोजन वर्जित था। विद्यार्थी को जटाधारी बनकर अथवा मस्तक मुड़ाकर रहना पड़ता था। शारीरिक सौन्दर्य प्रसाधनों से वह विरक्त रहता था।
भ्रमण, मनन तथा निदिध्यासन में श्रवण द्वारा छात्र गुरु के वचन को ध्यानपूर्वक सुनता था, मनन द्वारा वचन को बौद्धिक परिग्रह करता था तथा निदिध्यासन द्वारा विचारे गये अर्थ की अनुभूति करता था।

Q.2.वैदिक युग में पढ़ाने की पद्धति का परिचय दीजिए। (Show your acquaintance with the method of teaching in the Vedic age.) 
Ans. प्राचीनकाल में शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं उन्नत बनाने की प्रक्रिया से था। इसे आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया माना जाता था। विद्या को ही हमारे मन में बुद्धि और आत्मा को आलोकित करने का साधन समझा जाता था। शिक्षा ही मोक्ष की माध्यम और सांसारिक सुख, समृद्धि एवं यश प्रदान करने वाली समझी जाती थी। उस समय यह न तो पुस्तकोय ज्ञान की पदार्थदायी थी और न ही व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रधान थी। 
विशेषताएँ:-
 (1) गुरुकुल प्रणाली-प्राचीन भारत में शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली का प्रचलन था। छात्र बाल्यावस्था में ही अपने माता-पिता से दूर गुरू-गृह में प्रवेश करता था संपूर्ण अध्ययन काल तक वह वहीं रहकर ज्ञान अर्जन करता था। गुरू पर छात्र की देखरेख का उत्तरदायित्व रहता था। छात्र गृहस्थ जीवन का उत्तरदायित्व सीखता था।

(2) उपनयन संस्कार -8 से 12 वर्ष की आयु के बालकों का उपनयन संस्कार होता था। इसमें बालक का मुण्डन होता था तथा वह स्नान कर कोपीन धारण करता था। हवन करने के बाद उसे गुरू के पास अध्ययन के लिये भेज दिया जाता था। 
(3) आचरण के आधार पर प्रवेश- गुरू-गृह में उच्च चरित्र वाले छात्र ही प्रवेश पा सकते थे। निम्न आचरण के छात्रों का कोई स्थान नहीं था।

(4) ब्रह्मचर्य की प्रमुखता- प्रत्येक छात्र अध्ययन काल में ब्रह्मचर्य जीवन का पालन करता था। गुरू के आश्रम में विवाहित छात्र के लिये कोई स्थान न था।

(5) अनिवार्य गुरू सेवा- प्रत्येक छात्र अपने अध्ययन काल में गुरू की सेवा तन, मन एवं धन से करता था। आश्रम के सभी कार्य छात्र ही करते थे। गुरू की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले छात्र को कठोर दण्ड दिया जाता था। गुरू को ईश्वर का रूप माना जाता था।

(6) शिक्षा में भौतिकता- शिक्षा धर्म प्रधान थी साहित्य तथा दर्शन के अलावा चिकित्सा, कृषि, युद्धकला, शस्त्र विद्या आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। जन साधारण को लौकिक शिक्षा दी जाती थी। 
(7) भिक्षा वृत्ति-छात्र अपना तथा गुरू का भरण-पोषण भिक्षा द्वारा करते थे। भिक्षा प्रत्येक छात्र मांगता था। इसको बुरा नहीं समझा जाता था। गृहस्थ सहर्ष भिक्षा देते थे। इससे छात्रों में विनय एवं सामाजिकता की भावना उत्पन्न होती थी।
 (8) शिक्षा व्यक्ति के लिये- शिक्षा में उन सिद्धान्तों पर बल दिया जाता था जिनको अपनाकर व्यक्ति अपनी मानसिक और आध्यात्मिक विकास कर जीवन के परम लक्ष्य "मोक्ष" को प्राप्त कर सके। उस समय सामूहिक शिक्षा को अपेक्षा व्यक्ति शिक्षा को अधिक महत्व दिया जाता था ।

(9) शिक्षण प्रणाली- गुरू अपने शिष्य के सम्मुख मौखिक रूप से ज्ञान प्रस्तुत किया करते थे। शिष्य ध्यानपूर्वक सुनकर, एकान्त में बैठकर एकाग्रचित हो, उन पर चिन्तन करता था। उच्चारण पर विशेष बल दिया जाता था। शिक्षा प्रणाली में वाद-विवाद को भी विशेष स्थान दिया गया था। छात्रों को बोलने की पूर्ण स्वतंत्रता थी । जटिल समस्याओं का समाधान प्रश्न और उत्तर द्वारा किया जाता था।

Short question

Q.1समावर्तन किसे कहते हैं ? (What is Samabaratan ?)
Ans.समावर्तन परवर्ती वैदिक काल में जिस अनुष्ठान के माध्यम से शिक्षाक्रम का अन्त किया जाता था, उसे समावर्तन कहा जाता है। 

Q.2. ब्राह्मण शिक्षा का एक लक्ष्य उल्लेख करें। (Mention one aim of Brahmanic education.)
Ans.ब्राह्मण शिक्षा का एक उद्देश्य ज्ञान पाना था।

Q.3. प्राचीन भारत के एक ब्राह्मण कालीन और एक बौद्धकालीन विश्वविद्यालय का उल्लेख करें। (Mention one Brahmanic and one Buddhist University of ancient India.) 
Ans-प्राचीन भारत में ब्राह्मणिक शिक्षा का केन्द्र हरिद्वार के निकट गंगा के तट पर 'गुरुकुल' था और बौद्ध शिक्षा का केन्द्र बिहार के राजगृह के निकट 'नालंदा विश्वविद्यालय' था।

Q.4.What was the terminating ceremony of Brahmanic Educational System called ? (ब्राह्मणिक शिक्षण व्यवस्था में समावर्तन संस्कार किसे कहते हैं ? )
(SAMPLE QUESTION)
Ans.ब्राह्मणिक शिक्षण व्यवस्था में विद्यार्थियों का अध्ययन समाप्त होने पर समावर्तन संस्कार किया जाता था जो कि आधुनिक विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त भाषण समारोह के अनुरूप ही था। इस समावर्तन संस्कार में आचार्य विद्यार्थियों को समावर्तन का उपदेश भी देते थे।

Q.5. परा विद्या क्या है ? (What is 'Para Vidya' ?)

Ans.परा विद्या -प्राचीन काल में यह शिक्षा का पहला उद्देश्य था "विद्यार्थियों में भक्ति एवं धार्मिक भावना का विकास। उनमें धार्मिक भावनाओं को जागृत करने के लिए संस्कार, व्रत, दैनिक संध्या पूजन तथा धार्मिक उत्सवों का आयोजन किया जाता था। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को समाज का एक योग्य तथा धर्मनिष्ट सदस्य बनाना था।"

Q.6.प्राचीन भारत में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लिखें। (Write one of the main objectives of education in ancient India.)
(SAMPLE QUESTION)

Ans.प्राचीनकाल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं उन्नत बनाने की प्रक्रिया से था। इसे आजीवन ‘ चलनेवाली प्रक्रिया माना जाता था। शिक्षा ही मोक्ष की माध्यम और सांसारिक सुख, समृद्धि एवं यश प्रदान करने वाली समझी जाती थी।

Q.7.ब्राह्मण शिक्षा और बौद्ध शिक्षा पद्धति की एक महत्वपूर्ण विशेषता का उल्लेख करें। (Mention one difference between Brahmanic and Buddhistic system of education.) 

Ans.ब्राह्मण शिक्षा गुरुकुल केन्द्रित थी और बौद्ध शिक्षा विहार एवं संघ में केन्द्रित थी।

Q.8.वौदिक शिक्षा पद्धति की विशेषता का उल्लेख करें। (State the features of Vedic Education System.)

Ans.
(i) वैदिक काल में शिक्षा गुरुकुल में प्रचलित थी ।

(ii) शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। 

(iii) 8 से 12 आयु वर्ग के छात्र उपनयन संस्कार के लिए उचित माने जाते थे।

Q.9. Where was the first Gurukul established in Ancient Period ?
Ans. सर्वप्रथम गुरूकुल की स्थापना कागड़ी नामक ग्राम में 1902 ई० में हुई थी जो हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर है। 

Q.10. ब्राह्मण कालीन शिक्षा प्रणाली कैसे बौद्ध शिक्षा प्रणाली से अलग है ? (How was Brahmanic Education System differ from Buddhistic Education System ?)

Ans.ब्राह्मणकलीन शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी को कठोर जीवन बिताना पड़ता था जबकि बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी का सामान्य जीवन होता था। 
Q.11. बौद्ध शिक्षा का एक महत्वपूर्ण विशेषता को निदिष्ट करें। (Mention any one important features of Buddhistic education.)

Ans.बौद्ध शिक्षा की विशेषता: बौद्ध संघ में प्रवेश के पहले विद्यार्थी को पबज्जा प्रणाली से गुजरना पड़ता था। पबज्जा की उम्र 8 वर्ष निर्धारित थी।

Q.12.चतुराश्रम क्या है ? (What is 'Chaturashram' ?)

Ans.चतुराश्रम व्यवस्था से तात्पर्य जीवन के चार आश्रमों से हैं। ये आश्रम हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास।

Q.13.ब्राह्मण काल में संस्थागत शिक्षा का प्रारम्भ किस संस्कार के माध्यम से शुरू होता था ? (In से which ritual in Brahmanic period the institutional learning used to start through ?) 

Ans-ब्राह्मण काल में संस्थागत शिक्षा का प्रारम्भ उपनयन संस्कार के माध्यम से होता था।
Q.14.प्रब्रज्या क्या है ? (What is 'Prabrajja' ?)

Ans.प्रब्रज्या: पबज्जा की उम्र 8 वर्ष निर्धारित थी। बौद्ध व्यवस्था में जिस अनुष्ठान के माध्यम से विद्यार्थी की शिक्षा प्रारम्भ होती थी उसे प्रब्रज्या कहा जाता है। प्रब्रज्या के माध्यम से जो विद्यर्थी संघ में प्रवेश करता था उसे श्रमण कहा जाता था।

MCQ





वर्तमान शिक्षा का विकास (Development of Education in Modern periods)

VVi Q.1.. रवीन्द्रनाथ द्वारा शिक्षा के ध्येय तथा पद्धति के सम्बन्ध में दिये गये सुझावों का संक्षिप्त में चर्चा करें। 
(Discuss in brief the aims and methods of education as devised by Rabindranath.)*********

Ans. रवीन्द्रनाथ टैगोर (Rabindranth Tagore) :- रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 6 मई, 1881 को बंगाल के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था जो एक प्रसिद्ध समाज सुधारक एवं धार्मिक थे। संस्कृति, साहित्य और दर्शन उनके जीवन के आधार थे। इनके घर का वातावरण पूर्णरूप से धार्मिक और सांस्कृतिक था, जिसका प्रभाव रवीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन पर विशेष रूप से पड़ा और उनके अन्दर देशभक्ति, विद्वता,कला,दार्शनिकता तथा चिन्तन जैसे महान गुणों का विकास हुआ।

• शिक्षा के उद्देशय (Aims Of Education) :- यद्यपि टैगोर ने शिक्षा पर कोई पुस्तक अलग से नहीं लिखी है, फिर उनके लेखों से पता चलता है कि उन्होंने बालक की शिक्षा के लिए लगभग उन्ही उद्देश्यों का समर्थन किया है जिनका समर्थन भारत के प्राचीन शिक्षा शास्त्रियों ने किया था। टैगोर की शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. शारीरिक विकास का उद्देश्य (Aim of physical development)- टैगोर का विश्वास था कि स्वस्थ मन के लिए स्वस्थ शरीर को होना परम आवश्यक है। अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा का प्रथम उद्देश्य बालक के शरीर का विकास करना है। उस दृष्टि से शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसे प्राप्त करके बालक के शरीर का विकास पूर्णरूप से हो।

2. मानसिक विकास का उद्देश्य (Aim of mental development) :- टैगोर के अनुसार शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालक का मानसिक विकास करना है। उन्होंने रूसो की भाँति पुस्तकों का विरोध किया और बताया कि बालक को प्राकृतिक क्रियायें करने के लिए अधिक से अधिक अवसर मिलने चाहिए जिससे वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में रहते हुए वह ज्ञान को प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करता हो|

3. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य (Aim of moral and spiritual development) - आदर्शवादी होने के नाते टैगोर ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा का उद्देश्य नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। नैतिक शिक्षा के विषय में उन्होंने अपने लेखों में अनेक नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर प्रकाश डाला है तथा उनको प्राप्त करने के लिए आत्मानुशासन, शान्ति, धैर्य, नम्रता, आन्तरिक स्वतन्त्रता तथा आन्तरिक शक्ति एवं ज्ञान को परम आवश्यक बताया है।
 4. सामाजिक विकास का उद्देश्य (Aim of social development) - टैगोर ने बालक के सामाजिक विकास पर यथेष्ट बल दिया है। उनका कहना है कि बालकों में सामाजिक गुणों का विकास करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।अपने अन्दर सामाजिक गुणों को विकसित करके ही बालक अपनी और समाज की प्रगति में सहयोग कर सकता है |
5. सामंजस्य की क्षमता का विकास (Development of the capacity of adjustment)- टैगोर के अनुसार बालकों के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों, सामाजिक स्थितियों और वातावरण की जानकारी कराना तथा उनसे अनुकूलन कराना, शिक्षा का उद्देश्य हो ।

6. अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास (Development of international attitude) शिक्षा के द्वारा बालकों में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित किया जाये और उसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज के सम्बन्ध में बाँधा जाये।

• शिक्षण विधि (Teaching Methods) - पाठ्यक्रम की ही भाँति टैगोर ने तत्कालीन तथा निष्क्रिय शिक्षण विधि का विरोध किया। इस सन्दर्भ में टैगोर का विचार था कि बालक का विकास उसकी रुचियों तथा आवेगों के अनुसार होना चाहिए। इसके लिए उसे प्रत्यक्ष स्रोतों से स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को अर्जित करने के अवसर मिलना परम आवश्यक है। टैगोर ने निम्नलिखित प्रमुख शिक्षण विधियाँ बतायी हैं-

1. क्रिया विधि- टैगोर ने क्रिया विधि को सर्वोत्कृष्ट माना है, क्योंकि उनका मानना था कि इसमें शरीर और मस्तिष्क दोनो कार्य करते हैं। टैगोर क्रिया को इतना महत्व देते थे कि यदि कोई बालक शिक्षा प्राप्त करते समय भी उनसे पूछे- 'क्या मैं दौड़ आऊँ?' तो वे कहते थे- 'अवश्य'। उनका मानना था कि क्रिया द्वारा थकावट दूर होती है। 
2. प्रत्यक्ष विधि- टैगोर के अनुसार शिक्षण विधि को प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित होना चाहिए, क्योंकि इससे निरीक्षण और तर्कशक्ति का विकास होता है। प्राकृतिक विज्ञानो का अध्ययन, प्रकृति का निरीक्षण करके और सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन, सामाजिक समस्याओं, घटनाओं एवं संस्थाओं के निरीक्षण से किया जाना चाहिए।
 3. वाद-विवाद विधि- टैगोर का मानना था कि शिक्षा केवल पुस्तकों के रट लेने से पूर्ण नहीं होते, अपितु ज्ञान व समस्या समाधान के लिए विषय पर वाद-विवाद किया जाना चाहिए और उसी से समस्या का हल निकलता है।
4. प्रश्नोत्तर विधि- टैगोर का मानना था कि यदि बालकों को प्रश्नों तथा उत्तरों के द्वारा शिक्षा दी जाये तो ज्यादा कार्यकारी होगा, क्योंकि इससे बालकों को विषय को समझने व हल करने दोनों में मदद मिलती है।
5. भ्रमण के समय पढ़ाना -टैगोर का विश्वास था कि भ्रमण के समय बालकों की मानसिक शक्तियां सतर्क रहती है। अतः वे अनेक विषयों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर उनके विषय में सरलता से ज्ञान अर्जित कर लेते हैं।
 • शिक्षक (Teacher):- टेगोर का विश्वास था कि मनुष्य को केवल मनुष्य ही पढ़ा सकता है। अतः उन्होंने अपनी शिक्षा योजना में शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान दिया। दूसरे शब्दों में, टैगोर ने शिक्षक को मुख्य आधार माना। उन्होंने शिक्षक के निम्नलिखित कार्यों पर प्रकाश डाला है 
1. शिक्षक बालक की पवित्रता में विश्वास करते हुए उसके साथ प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें।
 2. शिक्षक सिर्फ पुस्तकोय ज्ञान पर ही बल न दे अपितु ऐसे वातावरण का निर्माण करें जिसमे क्रियाशील रहते हुए बालक अपने निजी अनुभवों द्वारा स्वयं ही सीखता हो।

3. शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों की रचनात्मक शक्तियों को उत्तेजित करता रहे जिससे वे रचनात्मक कार्यों में लगे रहे |

* अनुशासन (Discipline) - रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अनुशासन के महत्व को स्वीकार किया है, किन्तु उनके अनुसार अनुशासन आन्तरिक भावना के रूप में होना चाहिए। वे दण्ड व्यवस्था के विरोधी थे। उनका मानना था कि दण्ड से छात्र उद्दण्ड हो जाने है और उनमें विरोध की भावना पनपने लगती हैं। उनके मतानुसार आत्मानुशासन ही वास्तविक अनुशासन है। इसके सामाजिक वातावरण होना चाहिए। वे ऐसा मानते थे कि यदि विद्यालयों के शिक्षक ज्ञानी एवं चरित्रवान है तथा बालकों के साथ उनका व्यवहार प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण है तो बालक स्वयं अनुशासन का पालन करेंगे। विद्यालयों में खेलकूद , साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम अनुशासन में सहायक होते हैं।

VVI. Q.2.प्राथमिक शिक्षा तथा नारी शिक्षा को फैलाने में विद्यासागर की क्या भूमिका थी, चर्चा कीजिए।
 (Discuss the role of Vidyasagar in spreading primary education and women education.)*******

 Ans. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar): ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म सन् 1820 पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के वीरसिंह ग्राम में हुआ था। उनके पिता ठाकुर दास बन्योपाध्याय एक गरीब ब्राह्मण, उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। इसके बाद वे कलकत्ता आये और यहाँ के संस्कृत कॉलेज में 11 वर्ष अध्ययन किया। बीस वर्ष की आयु में ही उन्होंने संस्कृत में पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली तथा लोगों ने इन्हें 'विद्यासागर नाम से विभूषित किया।

सामाजिक सुधार एवं जन शिक्षा कार्य में भूमिका (Social educational contribution towards mass education) : राजा राममोहन राय के पश्चात् भारत में एक अन्य बड़े समाज सुधारक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हुए। संस्कृत के विद्वान थे फिर भी उन्होंने पश्चिमी सभ्यता की अच्छी बातों को स्वीकार किया। 1850 ई० में वे संस्कृत कालेज के प्रधानाचार्य बने। उन्होंने संस्कृत अध्ययन के लिए ब्राह्मणों के एकाधिकार को समाप्त किया तथा गैर-ब्राह्मणों को संस्कृत अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सुधार और मुख्यतया स्त्रियों की अवस्था में सुधार लाने के लिए लगा दिया। इन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में आवाज खड़ी की और इसके लिए अपने नेतृत्व में एक आन्दोलन को जन्म दिया। 1855 में भारत के सभी बड़े शहरों से सरकार के पास विधवा विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए एक प्रार्थना पत्र गया। इसका परिणाम, 1856 में विधवा विवाह कानून का स्वीकार किया जाना था। उन्होंने स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने हेतु अथक प्रयत्न किया। 1849 में स्थापित बेथुन स्कूल के सचिव के रूप में उन्होंने भारत में स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया।

विद्यालय संस्थापना (Establishment of shcools) : विद्यासागर ने शिक्षा जगत् में धार्मिक संकीर्णता को दूर करने के लिए संस्कृत कालेज में उन छात्रों को भी पढ़ने का अवसर दिया जो ब्राह्मण नहीं थे। उन्होंने देशी शिक्षा के प्रसार के लिए सरकार को सुझाव दिया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर भारतीय और पश्चिमी संस्कृत के विवेकपूर्ण संयोग का प्रतिनिधित्व करते थे। राजा राममोहन राय की भाँति उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति के प्रगतिशील तत्वों का भारतीय संस्कृति में समन्वय करने को पहल की। उन्होंने 25 बालिका स्कूलों की स्थापना की। विद्यासागर ने अंग्रेजी के महत्व को समझा। इसी कारण उन्होंने अपने ग्राम अंचल में एंग्लो-संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। उच्च शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने मेट्रोपोलिटन संस्थान को स्थापना की। यह प्रथम स्कूल था जिसमें सभी पदों पर भारतीय कार्यरत थे। इस विद्यालय को सरकारी सहायता प्राप्त नही थी। सन् 1872 ई० में इसे द्वितीय श्रेणी के कालेज के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। पुनः इसे सन् 1879 ई० में प्रथम श्रेणी को भी मान्यता प्राप्त हो गई।
पाठ्यक्रम में सुधार (Curriculum Reforms):- विद्यासागर ने जनसाधारण और समाज के हितों को ध्यान में रखकर शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार किया जो प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा और कालेजों तक आज भी काफो महत्व रखता है। उन्होंने कुछ आदर्श स्कूलों की स्थापना की। इन स्कूलों में भूगोल, इतिहास, ज्यामिति, अंकगणित, प्रकृति विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, तर्कशास्त्र की शिक्षा देने की योजना बनाई, उन्होंने पाठ्यक्रम को छात्रों की आयु और कक्षा के स्तर को ध्यान में रखकर तैयार किया तथा अंग्रेजी पर विशेष बल दिया। यहाँ तक कि अंग्रेजी को संस्कृत भाषा के साथ जोड़ दिया। उन्होंने निम्न कक्षाओं से लेकर उच्च कक्षाओं तक पुस्तकें लिखी, पाठ्यक्रम के अनुसार पुस्तकों को रचना की। उन पुस्तकों में व्याकरण कौमुदी, वर्णपरिचय बहुत प्रसिद्ध है।

 स्त्री शिक्षा (Women's Education) :- विद्यासागर का समस्त जीवन मानव जाति की सेवा के लिए समर्पित रहा। शिक्षा प्रसार, समाज सुधार और नारी उत्थान हेतु किये गये उनके प्रयास विशेष ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया। उनके प्रयत्नों से बंगाल में स्त्री शिक्षा में काफी सुधार हुआ। कलकत्ता फिमेल स्कूल, नैटिभ फिमेल स्कूल, बेथुन गर्ल्स स्कूल में सन् 1850 ई० में सेक्रेटरी के पद पर इन्हें नियुक्त किया गया। सन् 1854 के घोषणा पत्र में कहा गया कि स्त्री शिक्षा का दायित्व सरकार का है। इस प्रकार बंगाल के लोगों में अपनी पुत्रियों को शिक्षित करने की इच्छा जगी। उनके प्रयत्नों से लगभग 35 कन्या विद्यालयों की स्थापना हुई। विधवाओं की मुक्ति एवं उनकी स्थिति में सुधार हेतु उन्होंने बंगाल में तीव्र आन्दोलन छेड़ दिया और आजीवन उससे जुड़े रहे। वे विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे और बाल विवाह का जोरदार विरोध किया। सन् 1856 में तत्कालीन सरकार ने विधवा विवाह कानून पारित कर विधवा विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की। भारत में पहला कानूनी विधवा विवाह कलकत्ता में 7 दिसम्बर, 1856 को विद्यासागर की देखरेख और उनके निजी खर्च पर सम्पन्न हुआ।


VViQ.3.राजा राम मोहन राय के शैक्षणिक तथा सामाजिक योगदान का उल्लेख करें। (Write down tha contribution of Raja Ram Mohan Roy in educational and social development)
 अथवा, समाज सुधारक तथा एक शिक्षाविद् के रूप में राजा राम मोहन राय के योगदान को चर्चा करें। 
(Or, Discuss Raja Rammohan Roy's contribution as a social reformer and as an educationalist.) 
अथवा, शिक्षा के क्षेत्र में राजा राम मोहन राय के योगदान का सक्षिप्त में वर्णन करो। (State in brief the contribution of Raja Ram Mohan Roy in the field of Education.)

Ans. 19वीं शताब्दी के समाज सुधारकों में राजा राममोहन राय का नाम सर्वोपरि है। इन्होंने सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक सुधारों का जो आन्दोलन चलाया वह भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है। राजा राममोहन राय ने धर्म सुधार के क्षेत्र में 'ब्रह्म आन्दोलन' चलाया। शिक्षा के क्षेत्र में साथ ही सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान है।

शिक्षा क्षेत्र में :- शिक्षा के क्षेत्र में राजा राममोहन राय ने नया दृष्टिकोण अपनाया। वे विद्यालयों में संस्कृत शिक्षा के अन्तर्गत व्याकरण तथा दर्शन आदि शिक्षा को अपर्याप्त मानते थे। इसीलिए उन्होंने वाराणसी में खोले गये संस्कृत कालेज का विरोध किया था। राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे जिन्होंने भारत को आधुनिक बनाने का जोरदार अभियान चलाया।

इनका मानना था कि पाश्चात्य शिक्षा के द्वारा भारतीयों को आधुनिक बनाया जा सकता है। राजा राममोहन राय ब्रिटिश शासन की बराइयों से भलीभाँति परिचित थे, फिर भी उनका विश्वास था कि राष्ट्र निर्माण के लिए भारतीयों को पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है। वह यह भी जानते थे कि आधनिक शिक्षा एवं विज्ञान की सहायता से प्रबद्ध होकर ही नये भारत का निर्माण सम्भव है। वे मानते थे कि भारत को अपने गौरवपूर्ण ज्ञान के साथ-साथ पश्चिम के ज्ञान से परिचित होना चाहिए। उनके अनुसार सरकारी नौकरियाँ उन्ही को मिलेगी जो पाश्चात्य ढंग की शिक्षा प्राप्त किये होंगे। वे ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले शिक्षा प्रचार के प्रवल समर्थक थे लेकिन शिक्षा के द्वारा हिन्दू धर्म पर जो आघात किया गया उसकी उन्होंने कटु आलोचना की। राजा राममोहन राय भारतीय शिक्षा के विरोधी नहीं थे लेकिन पाश्चात्य शिक्षा पर भी इन्होंने अधिक जोर दिया। राजा राममोहन राय ने पाश्चात्य शिक्षा और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए डेविड हेयर और एडवर्ड हाइड ईस्ट के साथ मिलकर 1816 ई. में कलकत्ता में एक संघ की स्थापना की। इसी संघ द्वारा 1817 ई. कलकत्ता में हिन्दू कालेज (वर्तमान प्रेसीडेन्सी कालेज) की स्थापना की गयी। कालेज का मुख्य उद्देश्य प्रतिष्ठित हिन्दू परिवारों के छात्रों को अंग्रेजी तथा भारतीय भाषा एवं साहित्य तय प्राच्य और पाश्चात्य विज्ञान तथा दर्शन की शिक्षा देना था। इन्होंने 1822 ई. में एंग्लो हिन्दू स्कूल की स्थापना की। राजा राममोहन राय नारी शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे। उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए भी कार्य किया। उनके इस कार्य को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने आगे बढ़ाया। राजा राममोहन राय ने कई बंगला पुस्तको की रचना की। उन्होंने भारत में पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली लागू किये जाने के विषय में लार्ड मैकाले के विचारों का समर्थन किया।इस प्रकार यह
स्पष्ट है कि उन्होंने अपने बौद्धिक एवं शैक्षिक विचारों का उपयोग भारत को आधुनिकता की ओर मोड़ने के लिए किया।
समाज सुधार क्षेत्र में:- राजाराममोहन राय ने सामाजिक सुधार के क्षेत्र में वैचारिक एवं संगठनात्मक ढंग से कार्य कर भारतीय समाज को नई दिशा देने का प्रयत्न किया। सामाजिक सुधार के लिए राजा राममोहन राय का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने समाज सुधार के क्षेत्र में कठिन प्रयत्न किया।
इनका उद्देश्य परम्परागत व्यवस्थाओं को नई परिस्थितियों के अनुसार ढालना था।इनका प्रमुख उद्देश्य आधुनिक का निर्माण करना था। इसके लिए राजा राममोहन राय ने सतत् प्रयास किया और भारतीय समाज आधुनिकता की ओर उन्मुख हुआ एक और यह क्रम लगातार बढ़ता ही गया। राजा राममोहनराय के अथक प्रयास से ही भारतीय समाज में विद्यमान जघन्य सामाजिक कुरीति "सतीदाह प्रथा" का अन्त हुआ जो समाज सुधार की दिशा में एक युगान्तकारी घटना साबित हुई।

VI.Q.शिक्षा के वैयक्तिक ध्येय से तुम क्या समझते हो ? इसके लाभ और हानि को लिखो (What do you mean by individualistic aim of education ? Write down its advantages and disadvantages.

Ans. व्यक्तितांत्रिक शिक्षा का उद्देश्य मूलतः व्यक्ति के जीवन का विकास है । इसकी सार्थकता इस बात में है कि एक शिक्षित व्यक्ति अपनी योग्यता और क्षमता का श्रेष्ठतम उपलब्धि कर सके एवं अपने सम्पूर्ण सामाजिक कर्त्तव्य तथा दायित्व का पालन कर सके । अतः इस उद्देश्य के समर्थक विद्वान मानते हैं कि शिक्षा का प्रधान उद्देश्य है परिवेश एवं समाज-निरपेक्ष भाव से व्यक्ति के शरीरिक, मानसिक एवं नैतिक क्षमताओं की उपलब्धि में व्यक्ति की सहायता करना । इस मतवाद के कट्टरपंथी विचारकों का कहना है कि व्यक्ति की आवश्यकताएँ समाज की आवश्यकताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं । 'नन' के अनुसार विशेष व्यक्तित्व का विकास ही उन्नति का सार है । यद्यपि शिक्षा का सामान्य स्तर सबके लिए एक ही तरह का अपेक्षित है जिससे विभिन्न जीवन शैलियों का सम्मिश्रण उपयोगी और ग्राह्य बन सके, तथापि इस सामान्य स्तर को पाने के बाद विशिष्ट योग्यता तो आवश्यक है ही। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह प्रत्येक बालक की जन्मजात रुचियों एवं प्रतिभाओं का पता लगाये और उनके अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था करे जिससे प्रत्येक बालक का विशेष व्यक्तित्व विकसित हो सके । शिक्षा का यही एकमात्र उद्देश्य है । शिक्षा शास्त्री नन के मतानुसार "शिक्षक को ऐसी दशाएँ उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे वैयक्तिकता का पूर्ण एवं समग्र विकास संभव हो सके और व्यक्ति अपनी जन्मजात शक्तियों का पूर्ण विकास करके मानव जाति को अपना मौलिक योग दे सके।

व्यक्तिवादी शिक्षा के महत्व के पक्षधरों ने इसकी विभिन्न सुविधाओं और लाभों की ओर संकेत किया है यथा :

1. जीव विज्ञानी, चिन्तक एवं दार्शनिकों का कहना है कि शिशु अनेक जैविक विशेषताएँ लेकर पैदा होता है जिनमें कुछ साधारण और कुछ विशेष होते हैं। ये असाधारण विशिष्टताएँ ही उसके व्यक्तित्व को अन्य व्यक्तियों से भिन्न बनाती है। शिशु के इस निजी व्यक्तित्व का संपोषण एवं संरक्षण ही शिक्षा का उद्देश्य है।
2. रूसो जैसे महान् दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्री के मतानुसार- "Everything is good as it comes from the hands of Author of Nature but everything degenerate in the hands of man". अर्थात् जन्म की अवस्था में शिशु पूर्ण निर्मल एवं निष्कलुष रहता है किन्तु समाज उसे कलुषित कर देता है।अतः यदि हम उसे सामाजिक कलुषता एवं दुष्प्रभाव से बचाकर उसके आदर्श व्यक्तित्व को विकसित करना चाहते हैं तब हमें उसके लिए व्यक्तितांत्रिक शिक्षा व्यवस्था ही अपनानी पड़ेगी क्योंकि व्यक्तितांत्रिक पद्धति ही शिक्षा की आदर्श प्रक्रिया को सम्भव बना सकती है।

3. ब्रह्मवादी भी व्यक्तितांत्रिक शिक्षा को गुणकारी मानते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति में ब्रह्म की सत्ता विद्यमान । कुछ का मत है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति में अध्यात्म बोध को जगाया जा सकता है। ब्रह्मतत्व की उपलब्धि मानव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है।

4. चिन्तकों का एक वर्ग सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की दृष्टि से व्यक्तिवादी शिक्षा सिद्धान्त को उपयोगी मानता है। व्यक्तिवादी सिद्धान्त परोक्ष भाव से सामाजिक उत्कर्ष में सहायता करता है । प्रयोगवादी वर्ग (Pragmatic Group) मानता कि विशेष गुण सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा ही सभ्यता का विकास होता है। व्यक्तितांत्रिक शिक्षा ही मनीषियों के व्यक्तित्व को पुष्पित पल्लवित कर सकती है।

उपर्युक्त गुणों से युक्त व्यक्तितांत्रिक शिक्षा किन्हीं अर्थों में दोषमूलक भी समझी जाती है। उन दोषों की व्याख्या निम्न रूप में उल्लेखित की गयी है -

1. शिक्षा यदि पूर्णतः व्यक्तितांत्रिक होती है तो शिक्षार्थी सम्पूर्ण रूप से आत्म-केन्द्रित एवं स्वार्थी होगा। ऐसा जीवन स्वभावतः शिक्षार्थी के लिए बोझ बन जायेगा । साथ ही व्यक्ति चरित्र के कई पक्ष ऐसे हैं, जो सामाजिक धरातल पर ही विकसित हो सकते हैं । अतः व्यक्तिवादी सिद्धान्त एकांगी है।

2. परिवेश-निरपेक्ष शिक्षा व्यक्ति के जैविक विकास को पूर्णता प्रदान नहीं कर पायेगी क्योंकि ऐसा जीवन विकसित होने पर भी सामाजिक तथा प्राकृतिक परिवेश के साथ स्वयं को अभियोजित नहीं कर पायेगा और सारी क्षमता एवं कुशलता के होते हुए भी उसे अपना जीवन अर्थहीन प्रतीत होगा ।

3. मनोवैज्ञानिकों का 'व्यक्ति स्वातंत्र्य सिद्धान्त' समाजोपयोगी व्यक्ति की रचनायें सफल नहीं हो सकती और शिक्षा का उद्देश्य अति विकसित एवं समृद्ध व्यक्तित्व को भी समाजोपयोगी बनाता है। सर्वथा समाज-विच्छिन्न व्यक्ति किसी की भी सहानुभूति का पात्र नहीं बन सकता । प्रयत्न तो यही मान्य होगा जो व्यक्ति को अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की रक्षा के साथ-साथ
उसमें सामाजिक दायित्व के निर्वाह की कुशलता भी हो । 

4. व्यक्तितांत्रिक शिक्षा को व्यावहारिक रूप देना कठिन है। यह संभव नहीं कि प्रत्येक बालक के वैयक्तिक विकास के लिए शिक्षा का एक पृथक उद्देश्य, विशेष पाठ्यक्रम, समय विभाग चक्र, विद्यालय आदि की व्यवस्था की जाय ।

VI.Q. बाल्यावस्था के चरण क्या है ? प्रत्येक बाल्यावस्था के दो शरीरिक मांग, मानसिक मांग और सामजिक मांग की चर्चा करें। (What is the stage of childhood ? Mention two physical needs, mental needs and social needs each of childhood.) (2+6=8)

Ans. बाल्यावस्था मानव जीवन के लगभग छः वर्ष से बारह वर्ष के बीच की आयु का वह काल है जिसमें बालक के जोवन में स्थायित्व आने लगता है और वह आगे आने वाले जीवन की तैयारी करता है। बाल्यावस्था की यह आयु शिक्षा आरंभ करने के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने बाल्यावस्था को 'समूह की आयु' (Gang Age) भी कहा हैं। उसे शिक्षा शास्त्री ने प्रारम्भिक विद्यालय की आयु Elementary School Age भी कहते हैं। 
बालक की शारीरिक मानसिक एवं सामाजिक आवश्यकताएँ (Physical, Mental and Social needs of childhood) :

(i) बाल्यावस्था में शारीरिक विकास (Physical Development During Childhood) : छ: वर्ष की आयु तक की अवधि बाल्यावस्था कहलाती है। बाल्यावस्था के प्रथम तीन वर्षों के दौरान शारीरिक विकास तीव्र गति से होता है, परन्तु बाद के तीन वर्षों में यह विकास दृढ़ता की ओर उन्मुख होता है। इसी कारणवश नौ से बारह वर्ष की अवधि को परिपक्व काल भी कहते हैं। बाल्यावस्था में होने वाले मुख्य शारीरिक परिवर्तन इस प्रकार हैं:

1. बाल्यावस्था के प्रारम्भ में बालकों की लम्बाई बालिकाओं की लम्बाई से लगभग एक सेमी अधिक होती है, वहीं इस अवधि की समाप्ति पर बालिकाओं की औसत लम्बाई बालकों की औसत लम्बाई से लगभग एक सेमी अधिक हो जाती हैं। छ: वर्ष से बारह वर्ष की आयु तक चलने वाली बाल्यावस्था में शरीर की लम्बाई पाँच से सात सेमी प्रतिवर्ष की गति से बढ़ती है। 
2. बाल्यावस्था के दौरान बालकों के भार में काफी वृद्धि होती है। नौ-दस वर्ष की आयु तक बालकों का भार बालिकाओं के भार से अधिक होता है, परन्तु इसके उपरान्त बालिकाओं का भार बालकों के भार से अधिक होना प्रारम्भ हो जाता है।
3. बाल्यावस्था में सिर के आकार में धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहता है, परन्तु शरीर के अन्य अंगों की तुलना में यह अपेक्षाकृत बड़ा होता है। शरीर के विभिन्न अंगों की अनुपातहीनता धीरे-धीरे कम हो जाती है। बाल्यावस्था के अन्त तक सिर का आकार प्रौढ़ावस्था के सिर के आकार का लगभग 95 प्रतिशत हो जाता है। बाल्यावस्था में मस्तिष्क का आकार तथा भार दोनों ही दृष्टि से लगभग पूरी तरह विकसित हो जाता है।

(ii) बाल्यावस्था में मानसिक विकास (Mental Developmet During Childhood): मानसिक विकास तात्पर्य मानसिक शक्ति का उदय होना, पुष्ट होना, चरम सीमा पर पहुँचने के साथ-साथ व्यक्ति में उस योग्यता का विकास होता है जिसके द्वारा वह वातावरण की परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार करता है। मानसिक विकास के अन्तर्गत संवेदनशीलता, प्रत्यक्षीकरण, प्रत्यय निर्माण, अवलोकन, ध्यान, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, तर्क-निर्णय, बुद्धि, भाषा अधिगम  क्षमता आदि संज्ञानात्मक शक्तियाँ आती हैं। परिपक्वता तथा अधिगम के फलस्वरूप बालक का मानसिक विकास होता है।

शारीरिक विकास व अभिवृद्धि तथा मानसिक विकास की सम्बद्धता एवं अन्तर को स्पष्ट करते हुए स्किनर (Skinner) ने कहा है, "साधारण नियम के अनुसार मानसिक क्रियाओं के विकास का सर्वश्रेष्ठ अभिसूचक शारीरिक प्रगति की मात्रा है। फिर भी शारीरिक और मानसिक विकास में एक बहुत बड़ा अन्तर है। जहाँ शारीरिक विकास में जैव कारक मुख्य निर्धारक है वहाँ मानसिक विकास में पर्यावरण बहुत अंशों में प्रधान कार्य करता है।" मानसिक विकास शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का आधार होता है। बाल्यावस्था के विभिन्न वर्षों में बालक का मानसिक विकास निम्न प्रकार से होता है-

1. छठे वर्ष में बालक बिना हिचके 15 तक गिनती सुनाने लगता है, सरल प्रश्नों के उत्तर देने लगता है, शरीर के विभिन्न अंगों के नाम बता देता है, चित्रों को पहचानना सीख लेता है और उनकी वस्तुओं के बारे में भी बता देता है।
 2. सातवें वर्ष के दौरान बालक छोटी-छोटी घटनाओं का वर्णन कर लेता है। वस्तुओं में समानताएँ तथा अन्तर बताता है।संयुक्त तथा जटिल वाक्यों का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास करता है।
3. आठवें वर्ष में बालक में छोटी कहानियों और कविताओं को याद करके, उन्हें सुनाने की क्षमता का विकास हो जाता कहानी से संबन्धित उत्तर भी देने लगता है। वह 16-17 शब्दों के वाक्य को दोहराने लगता है तथा प्रतिदिन की साधारण समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास हो जाता है।

(ii) बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Soceial Development During Childhood): बाल्यावस्था वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड (Ferend) के अनुसार, "बालक का विकास वर्ष की आयु तक हो जाता है, बाल्यावस्था विकास की वह सम्पूर्ण गति प्राप्त करती है और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है। शैशवास्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों की निर्माण होता है।"

बाल्यावस्था में, सामाजिक व्यवहार में काफी मात्रा में वृद्धि हो जाती है। बालक प्राय: किसी न किसी समूह के सदस्य होकर भिन्न-भिन्न प्रकार की योजनाएँ बनाते हैं, खेलते हैं, आपस में वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं। कोई बालक, यदि समाज विरोधी व्यवहार करता है तो समूह के सभी सदस्य उसे ऐसा करने से रोकते हैं। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार बाल्यावस्था में सामाजिक विकास निम्नलिखित रूप से होता है।

1. छ: या सात वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों में दृढ़ता उत्पन्न करती है। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व और वह स्वयं वयस्क जैसे लगता है। रॉस (Ross) के अनुसार, "शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।"

2. बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। वह साधारण बातों पर अधिक देर तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है। उसमें अपने पूर्व अनुभवों को समान रखने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है।

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