Class-11 Hindi Sahitya ka Itihas Notes

 Class-11 

Hindi Sahitya ka Itihas

 Notes

हिन्दी साहित्य का इतिहास

1. निम्नलिखित में से किसी एक प्रश्नों के उत्तर 200 शब्दों में लिखिए 

Q.1.हिंदी भाषा के उद्भव विकास पर संक्षिप्त लेख लिखें।
(5 x 1 = 5)

उत्तर : डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना की मान्यता है कि भारत के मध्य-देश एवं अन्तर्वेद में शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी भाषा का विकास हुआ। इस विकास का आभास 1000 ई०के आस-पास भली प्रकार से मिलने लगता है। वैसे बोलचाल के रूप में इसका विकास और भी पहले हो गया होगा, परन्तु प्रमाणों के अभाव में कोई निश्चित तिथि देना कठिन है और जो प्रमाण मिलते हैं, वे साहित्यिक रचना के रूप में मिलते हैं। ईसा के दसवीं शताब्दी से ही हिन्दी साहित्य के जब दर्शन होने लगते हैं, तब इससे पूर्व ही हिन्दी की उत्पत्ति हो जाना नितान्त स्वाभाविक है। हिन्दी के आरम्भिक रूपों का आभास हमें सर्वप्रथम 'हेमचन्द्र शब्दानुशासन' में उद्धृत उदाहरणों में मिल जाता है। उससे ज्ञात होता है कि हिन्दी में वे सभी ध्वनियाँ विकसित हो गई थीं, जो तत्कालीन अपभ्रंश में उपस्थित थीं।
         - प्रायः यह सर्वमान्य है कि हिन्दी की उत्पत्ति अथवा उद्गम शौरसेनी अपभ्रंश से हुई। सुविधा के लिए निम्न तालिका पर ध्यान दिया जा सकता है -


हिन्दी साहित्य के इतिहास का आरम्भ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सन् 1000 ईसवी के लगभग (सम्वत् 1050 अथवा सन् 993) से माना है। अधिकांश विद्वान इससे सहमत हैं।"

आधुनिक आर्य भाषाओं के विकास को डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी की उपभाषाओं का विकास कहा है। उन्होंने इसे निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया है.

(1) प्राचीन काल या आदि-काल (सन् 1000 से 1500 तक)

(2) मध्य-काल (सन् 1500 से 1800 तक)

 (3) आधुनिक काल (सन् 1800 से अब तक)

(1) प्राचीन काल - यह काल हिन्दी का विकास-काल था। हिन्दी इस समय अपनी उपभाषाओं एवं बोलियों से शब्द ग्रहण करती हुई इस काल में आयी। इस काल के हिन्दी में तद्भव शब्दों की प्रधानता है। विदेशी भाषाओं के कुछ शब्द रूप बदलकर इस काल की हिन्दी का अंग बनने लगे थे। इस समय हिन्दी की उपभाषाएँ अथवा बोलियाँ प्रमुख रूप से डिंगल, ब्रजभाषा, मैथिली, खड़ीबोली, पंजाबी एवं अवधी थीं। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने इस काल की सामग्री की उपलब्धि के निम्नलिखित स्रोत  स्वीकार किए हैं।

(क) शिलालेख, ताम्रपत्र एवं प्राचीन पत्र। 
(ख) अपभ्रंश काव्य। 
(ग) चारण काव्य। 
(घ) हिन्दी अथवा प्राचीन खड़ीबोली में साहित्य |

(2) मध्य काल (सन् 1500 से 1800 ई。तक) - इस काल में अपभ्रंश का प्रभाव हिन्दी पर से हटने लगा और इसमें निखार आने लगा। साथ ही हिन्दी की प्रकृति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन यह आया कि वह देशज एवं अपभ्रंश तद्भव शब्दों के स्थान पर संस्कृत तत्सम शब्दों को ग्रहण करने लगी थी। इस समय विदेशी ध्वनियाँ - क, ख, ग, ज, फ़ भी हिन्दी में साम्मिलित हो गई थीं, साथ ही बहुत से अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी प्रचलित हो उठा था। वातावरण की दृष्टि से भक्ति-आन्दोलन आरम्भ हो चुका था। राजनीति की दृष्टि से एक प्रमुख परिवर्तन यह हुआ कि भारत का शासन तुर्कों से निकलकर मुगलों के पास पहुँच गया था। इस काल में साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी की दो बोलियाँ - ब्रजभाषा एवं अवधी ही समृद्ध हुई। वास्तविकता तो यह है कि इस काल में ब्रजभाषा ही साहित्य की भाषा बन गई थी। इस समय हिन्दी ने अपनी समृद्धि हेतु अन्य भाषाओं के शब्दों को भी निःसंकोच ग्रहण करना आरम्भ कर दिया था। डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार इस काल-खण्ड में 3500 फारसी शब्दों, 2500 अरबी शब्दों एवं 100 तुर्की शब्दों के अतिरिक्त पुर्तगाली, फ्रांसीसी एवं डच भाषाओं के भी बहुत से शब्द ग्रहण किए गए। संस्कृत तो हिन्दी की जननी ही थी। उसके तो सम्पूर्ण शब्द-भण्डार पर हिन्दी का अधिकार था।
साहित्यिक दृष्टि से यह काल भक्तिकाल का उत्तरार्द्ध एवं रीति-काल के पूर्वार्द्ध की सीमा को स्पर्श करता है। भक्तिकाल में हिन्दी कविता का भाव पक्ष एवं रीति-काल में कला पक्ष कितना समृद्ध हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। इस
काल के प्रमुख कवि-कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, भूषण, बिहारी, देव एवं घनानन्द हैं। खड़ीबोली उर्दू भी इस काल में समृद्ध होने लगी थी। अनेक मुसलमान कवियों ने इसे समृद्ध बनाया। इसमें 'मीर' एवं 'सौदा' के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल में ब्रजभाषा साहित्यिक भाषा ही नहीं बनी, अपितु इसमें बहुत से परिवर्तन भी हुए। सूरदास एवं बिहारी के ब्रजभाषा में आकाश-पताल का अन्तर है। सूर की ब्रजभाषा जहाँ दैनिक व्यवहार की ब्रजभाषा है, वहीं बिहारी की ब्रजभाषा साहित्यिक है।


 (3) आधुनिक काल (सन् 1800 से अब तक) - यह काल हिन्दी के पूर्व विकास का काल है। इस काल में हिन्दी के रूप में पर्याप्त निखार आने लगा। इस काल में सबसे बड़ा राजनीतिक परिवर्तन यह हुआ कि हिन्दी प्रदेश पर अधिकार जमाने का प्रयत्न अंग्रेजों, मराठों एवं अफगानियों ने किया, जिनका भाषा पर भी प्रभाव पड़ा। हिन्दी-गद्य का प्रचलन करने में अंग्रेजों का बहुत बड़ा योगदान है। मध्य देश अर्थात् हिन्दी भाषा प्रदेश पर अंग्रेजों के अधिकार एवं हिन्दी गद्य के लिये खडीबोली के प्रयोग का ब्रजभाषा पर बहुत प्रभाव पड़ा, ब्रजभाषा का साहित्यक साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसका स्थान खड़ीबोली ने ग्रहण कर लिया। कुछ ही वर्षों तक हिन्दी गद्य खडीबोली में एवं पद्य ब्रजभाषा में लिखी गई। बाद में खड़ीबोली ने पद्य पर भी अधिकार कर लिया। आज बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश में हिन्दी के नाम पर खड़ीबोली का साम्राज्य है। यह साहित्य, शिक्षा एवं प्रशासन की भाषा बनी हुई है। डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार- "इसी भाषा को विदेशों में भारत की 'हिन्दी भाषा माना' जाता है, इसी में भारत की समस्त पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, इसी भाषा में अत्यधिक साहित्य की रचना हो रही है। इसी में हिन्दी का सर्वोत्कृष्ट गद्य साहित्य (उपन्यास, कहानी, आलोचना, जीवनी, रेखाचित्र - संस्मरण, रिपोर्ताज, नाटक, एकांकी आदि) लिखा जा रहा है और यही आजकल अधिकांश हिन्दी. कवियों की काव्य-भाषा है। इसी परिनिष्ठित भाषा में अब जनसाधारण के अन्तर्गत पत्र व्यवहार होता है और इसी भाषा को भारतीय संविधान में 'राष्ट्रभाषा' घोषित किया गया है।" आज उर्दू को इसी की एक शैली विशेष माना जाता है। आजकल इस हिन्दी की तीन शैलियाँ प्रचलित हैं- 
(1) संस्कृतनिष्ठ हिन्दी जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता है।
 (2) उर्दू जिसमें अरबी-फारसी के शब्दों का आधिक्य है 
(3) हिन्दुस्तानी-जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी एवं उर्दू के बीच की भाषा है, जिसमें उर्दू एवं संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में होता है तथा जो आजकल शिष्ट एवं सुशिक्षित भद्रजनों की बोलचाल की भाषा है। 
इस दृष्टि से संस्कृतनिष्ठ परिनिष्ठित हिन्दी का सर्वाधिक प्रयोग साहित्य-रचना के लिए होता है और आजकल हिन्दी का समूचा गद्य एवं गद्य साहित्य इसी भाषा में निर्मित हो रहा है। इस प्रकार हिन्दी आज अपने परिनिष्ठित रूप में विकसित होकर भारत की राष्ट्रभाषा के समुत्रत पद पर प्रतिष्ठित है।




Q.2.

आदिकाल का सामान्य परिचय देते हुए उसकी विशेषताओं को लिखें

उत्तर : हिन्दी साहित्य का जन्म ऐसे समय में हुआ जब भारतवर्ष पर उत्तर-पश्चिम की ओर से निरन्तर मुसलमानों के आक्रमण हो रहे थे। राजा और राजाश्रित कवि छोटे-छोटे राज्यों को ही राष्ट्र समझ बैठे थे । राजपूत राजाओं को अपने व्यक्तिगत गौरव की रक्षा का ध्यान अधिक था, देश का कम राज्य एवं प्रभाव वृद्धि की भावना से ये लोग परसर युद्ध करते थे । कभी-कभी उनका उद्देश्य केवल शौर्य प्रदर्शन मात्र होता था या किसी सुन्दरी का अपहरण । राजपूतों में शक्ति, पराक्रम एवं साहस की कमी न थी, परन्तु यह समस्त कोष पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विताओं में समाप्त किया जा रहा था। अतः राजपूत शत्रुओं का सामना करने में एक सामूहिक शक्ति का परिचय न दे सके। मुहम्मद गौरी के भयानक आक्रमणों ने राजपूत राजाओं को जर्जर कर दिया। उस समय के साहित्यकार चारण या भाट थे, जो अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम, विजय और शत्रु-कन्याहरण आदि का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते अथवा युद्ध भूमि में वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरकर सम्मान प्राप्त करते थे। साहित्य में वीरता की भावना आना अवश्यम्भावी था इस काल में दो प्रकार के अपभ्रंश तथा देश भाषा काव्यों का निर्माण हुआ ।

जैनाचार्य हेमचन्द, सौमप्रभसूरि, जैनाचार्य मरुतुङ्ग, विद्याधर कवि अपभ्रंश काव्य के प्रमुख निर्माता थे। देश भाषा में वीरगाथा काव्य दो रूपों में मिलता है— प्रबन्ध काव्य के साहित्यिक रूप में तथा वीर गीतों के रूप में । ये ग्रन्थ ‘रासो’ कहे जाते थे। कुछ विद्वान् रासो का सम्बन्ध "रहस्य" मानते हैं और कुछ रास (आनन्द)
मानते हैं। देश भाषा काव्य में प्रमुख आठ पुस्तकें आती हैं खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचन्द्रप्रकाश, जयमयंकरस चन्द्रिका परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ तथा विद्यापति पदावली इस काल में चन्दबरदायी प्रमुख कवि जिनकी 'पृथ्वीराज रासो' को हिन्दी के प्रथम काल का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है, इसमें वीर भावों की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति है कल्पना की उड़ान तथा उक्तियों की चमत्कारिता का सागंजस्य है ।

वीरगाथा काल की संक्षिप्त रूप में प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है -

(1) इस युग के साहित्यकार साहित्य-सृजन के साथ-साथ तलवार चलाने में भी दक्ष थे।
(2) साहित्य का एकागी (एकतरफा) निकास हुआ।
(3) वीर काव्यों की प्रबन्ध तथा मुक्तक दोनों रूपों में रचनाएँ हुईं।
(4) काव्यों में वीर रस के साथ श्रृंगार का पुट भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है ।
 (5) कल्पना की प्रचुरता एवं अतिशयोक्ति की अधिकता ।
(6) काव्य का विषय युद्ध और प्रेम ।
(7) युद्ध का सजीव वर्णन।
(8) इतिवृत्तात्मकता की अपेक्षा काव्य की मात्रा का आधिक्य।
(9) आश्रयदाताओं की भरपूर प्रशंसा ।
(10) केवल वीर काव्य था, राष्ट्रीय काव्य नहीं ।
 (11) साहित्यकारों में वैयक्तिक भावना की प्रधानता तथा राष्ट्रीय भावना का अभाव।

Q.3. भक्तिकाल का सामान्य परिचय दें।

उत्तर: राजपूतों में जब तक शक्ति थी, साहस था, तब तक वीरगाथाओं से काम चलता रहा, परन्तु शक्ति के समाप्त हो जाने पर उत्साह प्रदान करने से भी कोई काम नहीं चलता। भारतवर्ष के राजनैतिक वातावरण में अपेक्षाकृत कुछ  शान्ति उपस्थित हुई। लोगों को दम लेने की फुरसत मिली। युद्ध से हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थक चुके थे। दोनों जातियों के हृदय में परस्पर मिलन की प्रवृत्ति (इच्छा) जाग्रत हो रही थी समय की विभिन्न गतियों से पूर्ण परिचित भक्ति काव्य जनता के अशान्त हृदय को सांत्वना और धैर्य देने के लिए उनकी भक्ति भावना को जगाने लगे। शनैः शनैः भक्ति का प्रवाह इतना विस्तृत हो गया कि उसके प्रवाह में केवल हिन्दू जनता ही नहीं, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमान भी आ मिले। अपने धार्मिक व्यक्तित्व को पृथक् रखकर मृतप्रायः हिन्दू जाति में नव जीवन एवं नवस्फूर्ति संचार करना ही उनका अभीष्ट था। इस प्रकार, देश में निर्गुण और सगुण नाम के भक्ति काव्य की दो धाराएँ विक्रम की 15वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी के अन्त तक सामानान्तर चलती रहीं। निर्गुण धारा दो शाखाओं में विभक्त हुई- ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेममार्गी शाखा |
ज्ञानाश्रयी शाखा के कवि 'सन्त कवि' कहलाये और प्रेममार्गी शाखा के 'सूफी'। निर्गुण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा के कबीर प्रधान कवि थे तथा प्रेममार्गी शाखा के मलिक मुहम्मद जायसी। इसी प्रकार सगुण धारा भी रामोपासना तथा कृष्णोपासना के भेद से दो शाखाओं में विभाजित हो गई। राम-भक्ति शाखा के प्रधान कवि गोस्वामी तुलसीदास तथा कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास थे।

हिन्दी के मध्यकालीन भक्ति-काव्य में भारतीय संस्कृति और आचार-विचार की पूर्णतः रक्षा हुई थी। इसमें ऐसी धार्मिक भावनाओं की उद्भावना हुई जिनका इस्लाम या अन्य किसी भी धर्म से कोई विरोध नहीं था। इसकी धार्मिक भावनाओं में भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों का समावेश था। भक्ति काव्य जहाँ मानव की उच्चतम भावनाओं की व्याख्या करता है, वहीं उसमें उच्चकोटि के काव्य के भी दर्शन होते हैं। एक आलोचक के शब्दों में - "उसकी आत्मा भक्ति है, उसका जीवन स्त्रोत रस है, उसका शरीर मानवी है। वस्तुतः परम्परागत भारतीय संस्कृति के उज्ज्वलतम रूप हमारे भक्ति-साहित्य में ही सुरक्षित रहे हैं।"

सर्वाङ्गपूर्ण श्रेष्ठ काव्य रस की दृष्टि से भी यह साहित्य श्रेष्ठ है। रस-राज श्रृंगार का इतना पूर्ण और उदात्त चित्रण कभी नहीं हुआ। यह काव्य लोक-परलोक को एक साथ स्पर्श करता है। भक्ति काल के सभी सम्प्रदाय यद्यपि आध्यात्मिक भावनाओं को लेकर अग्रसर हुए थे, परन्तु सबका सम्बन्ध जीवन से अत्यधिक घनिष्ठ रहा था। यह काव्य एक साथ ही हृदय, मन और आत्मा की भूख को तृप्त करता रहा है। काव्य-सौन्दर्य और धार्मिक भावनाएँ हृदय और मन को सन्तोष देती रही है। दार्शनिकता और आध्यात्मिकता आत्मा का उन्नयन करती रही है। इसी कारण विद्वान इस काल को हिन्दी का 'स्वर्ण काल' कहते हैं- काव्य-समृद्धि और प्रभाव, दोनों ही दृष्टियों से।

















V.I.Q.2.संत काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियों की संक्षप में चर्चा कीजिए। 

उत्तर: हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल (1375-1700 वि०) में एक काव्य-धारा विशेष का अविर्भाव हुआ जिसे डॉ० राम कुमार वर्मा ने 'संत-काव्यधारा' का नाम दिया है। इस काव्यधारा के कवियों का एक विशेष दृष्टिकोण है, जो 'संत' शब्द द्वारा भली-भांति व्यंजित होता है ।

संत-काव्यधारा की प्रवृत्तियाँ : संत काव्य-धारा की प्रवृत्तियों को मुख्य रूप से निम्नांकित शीर्षकों के अंतर्गत देखा जा सकता है -

(क) आध्यात्मिक विषय-वस्तु : संत-काव्य धारा के काव्य के विषय-वस्तु का संबंध भौतिक जगत से न होकर आध्यात्मिक विचारों से है । इनके काव्य में दार्शनिक एवं सांप्रदायिक विचारों का वर्णन हुआ है। इस धारा के कवियों का प्रमुख उद्देश्य अपने विचारों का प्रचार करना तथा आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रकाशन करना था।

(ख) विधि और निषेध-दोनों पक्षों का समन्वय संत कवियों ने जहाँ एक ओर निर्गुण ईश्वर, रामनाम की महिमा, सत्संगति, भक्ति-भाव, परोपकार, दया, क्षमा आदि का समर्थन पूरे उत्साह से किया है वहीं दूसरी ओर मूर्तिपूजा, धर्म के नाम पर की जानेवाली हिंसा, तीर्थ-व्रत, रोजा, नमाज, बाह्याडबरों तथा जाति-पांति भेद आदि का डटकर विरोध किया है।

(ग) अलौकिक प्रेम-भाव की अभिव्यंजना : संत कवियों में मुख्यतः अलौकिक प्रेम-भाव की अभिव्यंजना हुई है । कुछ विद्वानों ने इस प्रवृत्ति को सूफीवाद से प्रभावित बताया है लेकिन दोनों के भाव में अनेक सूक्ष्म भेद हैं । इन्होंने अपने अलौकिक प्रेम को कुछ इस तरह से व्यक्त किया है कि वह पाठकों की अनुभूति का विषय बन जाता है -

बहुत दिनन की जोबती, बाट तुम्हारी राम । 
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मन नाही विश्राम ।। - कबीर

(घ) विरह और संयोग का वर्णन : इन कवियों के भावुक जीवन में मिलन की घड़ियों का भी आगमन होता है। वे अपना सारा पौरुष, सारा गर्व एवं सारी अक्खड़ता को भूलकर किसी नवयौवना की भांति कोमलता से गदगद, लाज से विभोर तथा प्यार से विह्वल हो उठते हैं

मन परतीत न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग । 
क्या जाणौं उस पीव सूँ, कैसे रहसी रंग ।।-कबीर

और अंत में मधुर मिलन के वे क्षण भी आते हैं, जब उसकी सारी शंकाएँ, सारी लज्जाएँ तथा समस्त तर्क-वितर्क रस के प्रवाह में बह जाते हैं -

जोग जुगत से रंग महल में, पिय पायो अनमोल रे ।
 कहत कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे ।।-कबीर

इस प्रकार इनके काव्य में विरह और संयोग दोनों का ही चित्रण अनुभूतिपूर्ण शब्दों में हुआ है।

 (ङ) मुख्यतः गेय मुक्तक शैली का प्रयोग : संत-काव्य के कवियों ने मुख्य रूप से गेय मुक्तक शैली का प्रयोग किया है।
 गीति काव्य के पाँचों प्रमुख तत्व- (1) भावात्मकता (2) वैयक्तिकता (3) संगीतात्मकता (4) सूक्ष्मता और (5) भाषा की कोमलता- इसमें मिलते हैं। कहीं-कहीं भावात्मकता का स्थान बौद्धिकता ने ले लिया है। इस शैली के अतिरिक्त संत कवियों ने साखी, दोहा, चौपाई की शैली का भी प्रयोग किया है।

(च) लोक-प्रचलित भाषा का प्रयोग : संत कवियों ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम लोक-प्रचलित भाषा को ही बनाया। ऐसा नहीं है कि इसका प्रमुख कारण संस्कृत को कूप-जल एवं भाषा को बहता नीर समझना था ।। दरअसल स्वयं उनका और उनके शिष्यों की अशिक्षा के कारण किसी साहित्यिक भाषा का प्रयोग करने की असमर्थता भी थी। प्रदेशों की भिन्नता के अनुसार संत-कवियों ने प्रारंभिक खड़ी बोली, राजस्थानी, पूर्वी, पंजाबी प्रभावित ब्रज के अलावे विशुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग किया है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा के संबंध में जिस शब्दावली 'वाणी के डिक्टेटर' का प्रयोग किया है, उसे सभी प्रमुख संत कवियों पर लागू करते हुए यह कहा जा सकता है कि भाषा इनके सामने लाचार - सी नज़र आती है। वस्तुतः संत कवियों ने जिस युग में काव्य-रचना की, वह भारत के लिए अज्ञान, अशिक्षा और अनैतिकता का घोर अन्धकारमय युग था। संत कवि जनता के निम्नतम स्तर से संबंध रखते थे, फिर भी उन्होंने ज्ञान की जो ज्योति जलाई वह अद्भुत है, अपूर्व है।

किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए :

Imp.Q.1.सूरदास

उत्तर : सूरदास जी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे। शिष्य होने के पूर्व ये दास्य भाव का पद लिखा करते थे। वल्लभाचार्य जी ने स्वयं कहा “ऐसो घिघियाता काहे को है, कछु भगवत् लीला का वर्णन कर ।" उनके ही आदेश से सूरदास ने श्रीमद्भगवत् की कथाओं को गेय पदों में प्रस्तुत किया। वल्लभ सम्प्रदाय में बालकृष्ण की उपासना को ही प्रधानता दी जाती थी इसलिए सूर ने वात्सल्य-वर्णन बड़े विस्तार से किया है।
कृष्ण जन्म की आनंद की बधाइयों के पश्चात् बाल-लीलाओं का आरंभ होता है। सूर ने शैशवावस्था से लेकर कौमार्यावस्था तक के अनेक चित्रण प्रस्तुत किए हैं। उन चित्रों को कई भागों में बाँटा जा सकता है - 1. रूप वर्णन, 2. चेष्टाओं का वर्णन, 3. क्रीड़ाओं का वर्णन, 4. अंतर्भावों का वर्णन तथा 5. संस्कारों, उत्सवों और समारोहों का वर्णन। केवल इतना ही नहीं, कृष्ण के बाल्य जीवन से संबंधित संपूर्ण क्रीड़ाओं- कृष्ण का पालने में झूलना, अंगूठा चूसना, लोरियों के साथ सोना, प्रभातियों के साथ जागना, हँसना, मचलना, बहाने बनाने आदि का अत्यंत सूक्ष्म और विशद विवेचन सूर ने किया है। सूरदास ने कृष्ण-भक्ति की ऐसी धारा बहायी जो आज भी कृष्णभक्तों के मन को सिक्त कर आनन्द प्रदान कर रही है।

V.I.Q.2.अमीर खुसरो

उत्तर : अमीर खुसरो इनका उपमान है, इनका असली नाम अब्दुल हसन था। इनका जन्म 1312 ई. में पटियाली जिला के एटा में हुआ इन्होंने अपनी आँखों से गुलाम वंश का पतन, खिलजी वंश का उत्थान तथा तुगलक वंश का आरंभ देखा । इनके सामने ही दिल्ली के शासन पर ग्यारह सुल्तान बैठे जिनमें से सात की इन्होंने सेवा की। ये बड़े ही प्रसन्नचित्त, मिलनसार तथा उदार थे। इन्हें जो धन प्राप्त होता था उसे बांट देते थे। इनमें साम्प्रदायिक कट्टरता किसी भी प्रकार की नहीं थी । डॉ० ईश्वरीप्रसाद इनके संबंध में लिखते हैं-"चे कवि, योद्धा और क्रियाशील मनुष्य थे।" इनके ग्रन्थों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इनके एक लड़की और तीन पुत्र थे। जब सं. 1324 में इनके गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु हुई तो ये उस समय गयासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल में थे । मृत्यु का समाचार सुनते ही शीघ्र दिल्ली पहुँचे और औलिया की कब्र के निकट निम्नांकित दोहा पढ़कर बेहोश होकर गिर पड़े गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस । चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ।। अन्त में कुछ ही दिनों में इनकी भी उसी वर्ष मृत्यु हो गई । ये अपने गुरु की कब्र के नीचे गाड़ दिए गए । सन् 1605 ई. में ताहिरा बेरां नामक एक अमीर ने वहाँ पर मकबरा बनवा दिया ।

ग्रन्थ – अमीर खुसरो अरबी, फारसी, तुर्की और हिन्दी के विद्वान थे तथा इन्हें संस्कृत का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान था। इन्होंने कविता की 99 पुस्तकें लिखीं जिनमें कई शेर थे। पर अब इनके केवल 20-22 ग्रन्थ ही प्राप्य हैं। इन ग्रन्थों में 'किस्सा चाह दरवेश' और 'खालिक बारी' विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने फारसी से कहीं अधिक हिन्दी भाषा में लिखा है । इनके साहित्य में भी समय-समय पर प्रक्षेपों का समावेश होता रहा है। इनकी कुछ पहेलियाँ, मुकरियाँ और
फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं जिनसे इनकी विनोदी प्रकृति का भली-भांति परिचय मिल जाता है ।

पहेली - एक थाल मोती से भरा सब के सिर पर औंधा धरा ।
 चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे ।। (आकाश)

दो सुखने - पान सड़ा क्यों ? घोड़ा अड़ा क्यों ? (फेरा न था)

ढकोसला- खीर पकाई जतन से चर्खा दिया चला । 
आया कुत्ता खा गया बैठी तू ढोल बजा ।।


V.I.Q.3.कबीरदास

 ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाने वाले कबीर का जन्म सन् 1398 ई. में काशी में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। उसने लोक लाज के भय से कबीर को लहरतारा नामक स्थान पर तालाब के किनारे छोड़ दिया। उसी स्थान से नि:संतान नीरु-नीमा गुज़र रहे थे। उन्होंने ही बालक कबीर का पालन किया। कबीर ने बड़े होते ही नीमा-नीरु का व्यवसाय अपना लिया और कपड़ा बुनने लगे। कबीर अनपढ़ रह गए थे। उन्होंने स्वयं कहा है –

मसि कागज छूयो नहिं, कलम गही नहिं हाथ।

कबीर ने अनुभव से ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने दोहे साखियों के रूप जो कुछ कहा उनके शिष्यों ने उसे संकलित किया। उनके शिष्यों ने उनके नाम पर एक मठ चलाया, जिसे कबीर पंथी मठ कहा जात है। उनकी साखियों, सबद और रमैनी का संकलन ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में किया गया है। कबीरदास उच्चकोटि के साधक, संत और विचारक थे। वे भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास, बाह्य आडंबर, मूर्ति पूजा, धार्मिक कट्टरता और धार्मिक संकीर्णता पर चोट की है। 
उन्होंने हिंदुओं की आडंबरपूर्ण भक्ति देखकर कहा –

पाहन पूजे हरि मिले, मैं पज पहार।
ताते यह चकिया भली पीसि खाए संसार।।

उन्होंने ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग करने पर मुसलमानों पर प्रहार करते हुए कहा –

काँकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय।
ता पर मुल्ला बाँग दे, का बहरा भया खुदाय।

कबीर की भाषा मिली-जुली बोलचाल की भाषा थी, जिनमें ब्रज, खड़ी बोली, अवधी, राजस्थानी तथा पहाड़ी भाषाओं के शब्द मिलते हैं। इसे संधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी भी कहा जाता था।
कबीर संत कवि थे। उन्होंने समाज की बुराइयों पर जिस निर्भयता से प्रहार किया वैसा किसी अन्य कवि ने नहीं।हमें उनके मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

V.I.Q.4

जायसी

मलिक मुहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि थे।[1] वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। जायसी मलिक वंश के थे। मलिक मोहम्मद ने बहुत कम उम्र में अपने पिता को खो दिया था और उसके कुछ सालों बाद अपनी माँ के मातृत्व से भी वंचित होना पड़ा. बचपन में एक हादसे के कारण मलिक मोहम्मद एक आँख से अंधे हो गए थे और चेचक की बीमारी के कारण चेहरा भी खराब हो गया था. मलिक मोहम्मद जायसी के सात पुत्र थे और दुर्घटना में उनके सातों पुत्रों की मृत्यु हो गई थी. जिसकी बाद ही इन्होनें अपना गृहस्थ जीवन त्याग दिया और सूफी संत बन गए.

जायसी के शिक्षक शेख मुबारक शाह बोडले थे, जो शायद सिमनी के वंशज थे. इतिहासकारों के अनुसार जायसी के ग्रंथो की संख्या 20 बताई जाती है परन्तु इनमें से “पद्मावत” “अखरावट” “आखिरी कलाम” “कहरनामा” और “चित्ररेखा” पांच ही उपलब्ध हैं. इनमे से पद्मावत सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य हैं. जायसी ने बाबर के शासनकाल में ही आखिरी कलाम (1529-30) और पद्मावत (1540-41) की रचना की थी.

जायसी हिंदी भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। उनकी रचना का महानकाव्य पद्मावत हिंदी भाषा के प्रबंध काव्यों में शब्द अर्थ और अलंकृत तीनों दृष्टियों से अनूठा काव्य है। इस कृति में श्रेष्टतम प्रबंध काव्यों के सभी गुण प्राप्त हैं।अवधी भाषा के इस उत्तम काव्य में मानव- जीवन के चिरंतन सत्य प्रेम- तत्व की उत्कृष्ट कल्पना है। पद्मावत में सूफी और भारतीय सिद्धांतों का समन्वय का सहारा लेकर प्रेम पीर की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की गई है।

मलिक मोहम्मद जायसी की मृत्यु को लेकर भी कई विरोधाभास हैं. क़ाज़ी सैयद हुसेन की अपनी नोटबुक के अनुसार वर्ष 1542 में मलिक मुहम्मद जायसी की मृत्यु हुई थी.








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