Class-12 HS Political science notes
Class-12 (HS )
Political science notes
C. Analytical Type Questions :
8 Marks
1. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
(International
Relations)
[H.S. 2020]
Vvvi* 1. शक्ति किसे कहते है ? शक्ति के मुख्य तत्वों को संक्षिप्त व्याख्या कीजिए) (What is power? Explain briefly the main elements of power.)
Ans. राजनीतिविद् मार्गेन्दाऊ के अनुसार शक्ति प्रभुत्व है जो दूसरों के मस्तिष्क और कार्यों पर लागू होने में समर्थ है। (Power is authority capable of being applied over other mind and works) कार्ल ड्यूस (Deutch) का मानना है कि शक्ति एक प्रकार का सिक्का है जिसकी सहायता से उसका स्वामी अपना उद्देश्य प्राप्त कर सकता है या दूसरी तरह से इस शक्ति की सहायता से अपना अस्तित्व बनाये रखना संभव है और वर्तमान समस्याओं में बाधाओं को पार किया जाता है। (Power is a kind of coin with the help of which its owner can attain his objective or in other way with the help of this 'power' it is possible to survive and overcome obstacle in the prevailing conflict.)
राष्ट्रीय शक्ति के मूल तत्व :-किसी राज्य की राष्ट्रीय शक्ति का विकास अनेक महत्वपूर्ण तत्वों के आधार पर होता है। प्रो. ई. एच. कार (E. H. Carr) ने इन तत्वों को क्रमश: सामरिक तत्व, आर्थिक तत्व एवं जनमत पर प्रभाव इत्यादि वर्गों में बाँटा है। प्रो. पामर एवं परकिन्स ने शक्ति के सात तत्वों की व्याख्या की है। उनके अनुसार - (a) भूमि (b) प्राकृतिक संसाधन (c) जनसंख्या (d) तकनीक ज्ञान (c) आदर्श (1) आत्मनिर्भरता (g) राष्ट्रीय नेतृत्व इत्यादि शक्ति के मौलिक तत्व हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के व्याख्याता वॉन डाइक (Van Dyke) के अनुसार शक्ति के निम्नलिखित बारह मूल तत्व हैं-
(i) भौगोलिक आधार (ii) जनसंख्या (iii) उत्पादन क्षमता (iv) यातायात एवं परिवर्तन (v) वैज्ञानिक कुशलता (vi) सरकारी संगठन (vii) आर्थिक प्रशासन (viii) सामरिक स्थिति (ix) आदर्श (x) गुप्तचर विभाग (xi) सैनिक व्यवस्था एवं (xii) नेतृत्व की क्षमता।
शक्ति के कुछ मूलभूत तत्वों की व्याख्या निम्नलिखित रूप में की जा सकती है।
(1) भूगोल (Geography) :- राष्ट्रीय शक्ति के रूप में भूगोल का महत्व बहुत अधिक है। राष्ट्रीय शक्ति के ऊपर भौगोलिक तत्वों का गहरा प्रभाव पड़ता है। भूगोल से निम्नलिखित चार तत्व जुड़े हुए हैं.
(i) भूमि का आकार (Size of the land) :- भूमि का आकार अपने आप में शक्ति का एक महत्वपूर्ण तत्व है। विस्तृत क्षेत्र वाली भूमि अधिक जनसंख्या का भरण-पोषण करती है। विस्तृत क्षेत्र होने से राष्ट्र के पास प्राकृतिक संसाधनों का असीम भण्डार होता है जिससे वह औद्योगिक एवं सामरिक क्षेत्र में लाभ उठा सकता है। विस्तृत भूखण्ड को जीत कर उस पर अधिकार बनाये रखना कठिन है। अतः राष्ट्रीय शक्ति के निर्धारण में भूमि के आकार की भूमिका महत्वपूर्ण है।
(ii) भौगोलिक स्थिति (Geographical location) :- भूमि के आकार की अपेक्षा भौगोलिक स्थिति का स्थान राष्ट्रीय शक्ति के निर्धारण में महत्वपूर्ण है। यह किसी भी राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक शक्ति तथा संस्कृति को प्रभावित करती है। उसके साथ ही साथ यह कूटनीति और युद्ध को भी प्रभावित करता है। (iii) जलवायु (Climate) :- जलवायु का निर्धारण भौगोलिक स्थिति, वर्षा एवं पवनों के द्वारा होता है।
जलवायु लोगों के स्वास्थ्य, शक्ति और संस्कृति को निर्मित करती है। इस प्रकार यह राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण
करती है। जलवायु के कारण ही जापान एवं यूरोप के लोग साहसी, स्वस्थ एवं शक्तिशाली होते हैं।
(iv) भू-प्रकृति (Topography) :- राष्ट्रीय शक्ति के उत्थान के लिए भू-प्रकृति का स्थान महत्वपूर्ण है। भू-प्रकृति के अन्तर्गत पहाड़, नदियाँ, समुद्र, मरुभूमि इत्यादि आते हैं। सामरिक दृष्टिकोण से भी पहाड़ों, नदियों, बन्दरगाहों आदि का महत्व अधिक है। इनसे सामरिक शक्ति के साथ-साथ आर्थिक शक्ति का विकास भी होता है।
(2) जनसंख्या (Population) :- किसी देश के शक्ति के निर्धारण में जनसंख्या का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी देश में इतनी जनसंख्या का होना आवश्यक है जिससे कि उस देश में मौजूद संसाधनों का उपयोग है सके। अगर किसी की जनसंख्या का बड़ा भाग 25 से 50 वर्ष की आयु का है तो वह देश आर्थिक व सामरिक दृष्टिकोण से सबल होगा। किसी देश की जनसंख्या इतनी अधिक नहीं होनी चाहिए जिससे लोगों के द्वारा संसाधनों का बहुत अधिक दोहन होता रहे आयु, लिंग अनुपात, जन्म-दर, स्वास्थ्य, साक्षरता, संस्कृति इत्यादि जनसंख्या के गुणों को निर्धारित करने वाले तत्व है।
(3) प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) :- राष्ट्रीय शक्ति के निर्धारण में देश के प्राकृतिक संसाधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक संसाधनों के अन्तर्गत मुख्यतः कच्चे पदार्थ एवं खनिज, खाद्य एवं कृषिगत उत्पाद आते हैं। अगर किसी देश के पास पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं तो वह देश अधिक प्रभावपूर्ण रूप से अपने राष्ट्रीय हितों में वृद्धि कर सकता है।
(4) औद्योगिक शक्ति (Industrial Strength) :- किसी राष्ट्र के राष्ट्रीय शक्ति के उद्भव में औद्योगिक
शक्ति का महत्व उल्लेखनीय है। विश्व के महान शक्तियों के उत्थान के पीछे औद्योगिक शक्ति ही है। औद्योगिक दृष्टिकोण से कोयला, इस्पात, खनिज तेल एवं अन्य खनिजों में सम्पन्न देश आर्थिक एवं सामरिक शक्ति प्राप्त कर सकता है। (5) सैन्य शक्ति (Military Strength) :- राष्ट्रीय शक्ति के विकास के लिए सैन्य शक्ति का विकसित होना आवश्यक है। किसी देश की सैन्य शक्ति सेना के आकार, उसकी क्षमता, अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग सेनापति का नेतृत्व इत्यादि पर निर्भर करता है। आज संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत रूस विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हैं क्योंकि ये सैन्य दृष्टि से काफी मजबूत हैं।
(6) सरकार (Government ) :- सरकार की गुणवत्ता बहुत हद तक राष्ट्रीय शक्ति के आकार का निर्धारण
करती है। यह सरकार ही है जो लोगों को आदर्श, नैतिक बल एवं नेतृत्व प्रदान करती है। यह वस्तुगत एवं मानव संसाधनों के बीच संतुलन स्थापित करती है। यह राष्ट्रीय हित को सुरक्षित रखती है एवं विदेश नीति का निर्धारण करती है। (7) कूटनीति (Diplomacy) :- राष्ट्रीय शक्ति के विकास के तत्वों में से कूटनीति सबसे महत्वपूर्ण ताव
है। किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक संसाधन, आत्म-निर्भरता, सामरिक शक्ति, जनसंख्या, भू-प्रकृति तब तक अर्थहीन होता है जब तक उसे कूटनीतिक सफलता नहीं प्राप्त होती । निष्कर्ष :-अतः कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण किसी एक तत्व द्वारा नहीं होता, बल्कि इसके निर्माण में अनेक महत्वपूर्ण तत्वों का योगदान रहता है जिनमें से कुछ स्थायी एवं कुछ परिवर्तनशील त हैं। अंततः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शक्ति के निर्धारण के सारे आन्तरिक रूप से एक दूसरे से
सम्बन्धित है।
Vvvi.*** 2. राष्ट्रीय हित की परिभाषा दीजिए। राष्ट्रीय हित को सुरक्षित रखने की विविध पद्धतियों का उल्लेख कीजिए। (Define National Interest. Mention the various methods of protecting National Interest.)
[H.S. 2020]
Ans. राष्ट्रीय हित की प्रकृति अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का मूलभूत विषय विदेश नीति है क्योंकि कोई भी राष्ट्र एका में या सभी राष्ट्रों से अलग रहकर अपने वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता है। आज प्रत्येक राष्ट्र एक दूसरे से आपस में जुड़े हैं और इस प्रकार के सम्बन्धों के द्वारा वे अपने हित को पूरा करना चाहते हैं। फ्रैंकेल ने राष्ट्रीय हित को परिभाषित करते हुए कहा है कि "राष्ट्रीय हित राष्ट्रीय मूल्यों का कुल योग है।"
राष्ट्रीय हित का स्वभाव यह है कि इसके अन्तर्गत राष्ट्र की आशाओं और आकांक्षाओं पर जोर दिया जाता है। मार्गेनथाऊ के अनुसार "राष्ट्रीय हित का आकलन नैतिकता, आदर्शात्मक और कानूनी स्तर के आधार पर नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय हित किसी भी देश की न्यूनतम आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत विदेशी राज्य से अपनी भौगोलिक सीमा की रक्षा और सुरक्षा, राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्तित्व की रक्षा इत्यादि विषय आते हैं। राजनीतिक अस्तित्व का अर्थ है राज्य की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को सुरक्षा प्रदान करना। सांस्कृतिक अस्तित्व की सुरक्षा का अर्थ है देश की जातियों, वंशों, भाषा और इतिहास को सुरक्षित रखना। राजनीतिविद् राबर्ट ऑसगुड के शब्दों में " National interest is a state of affairs valued solely for its benefit to the nation."
राष्ट्रीय हित को सुरक्षित रखने के तरीके (Methods of protecting national interest) : राष्ट्रीय हित को सुरक्षित रखने के निम्नलिखित पाँच तरीके है -
(1) कूटनीति (Diplomacy) : राष्ट्रीय हित को सुरक्षित रखने का सबसे प्रधान तरीका कूटनीति है। कूटनीति अन्य राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध-निर्माण की एक कला है। जिन व्यक्तियों द्वारा यह काम किया जाता है उन्हें कूटनीतिज्ञ कहते हैं। कुशल कूटनीतिज्ञ वहीं होता है जो ऐसी नीति का निर्माण करे जो राष्ट्रीय हित में भी हो और विदेशी सरकार और जनता को भी स्वीकार्य हो। अपने राष्ट्रीय हित को दूसरे स्वीकार करें, इस सम्बन्ध में कूटनीतिज्ञ तीन तरीकों का अनुसरण करतें है - (i) प्रोत्साहन (ii) समझौता (iii) बल प्रयोग की धमकी।
(2) प्रचार (Propaganda ) प्रचार भी राष्ट्रीय हित को सुरक्षित रखने का एक तरीका है। एक देश की सरकार दूसरे देश की सरकार और नागरिकों को प्रभावित करने के लिए अपने राष्ट्रीय पक्ष का प्रचार भी करती है, विशेष रूप से अपनी विदेश नीति के सम्बन्ध में सरकार रेडियो, टेलीविजन, अखबारों द्वारा अपनी नीतियों का
प्रचार करती है। (3) आर्थिक सहायता एवं ऋण (Financial aid and debt) : धनी और सम्पन्न देश विकासशील देशों को आर्थिक सहायता और ऋण देते हैं। इस प्रकार का ऋण या आर्थिक सहायता देने का उद्देश्य होता है कि ऋणी देश ऋणदाता देश का समर्थन अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर करे।
(4) संधि का निर्माण (Formation of alliance) : अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए दो या दो से अधिक देश आपस में समझौता कर सकते हैं। वैसे आपसी समझौता कभी-कभी गुटबंदियों को जन्म देती है जिससे विश्व में युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(5) बल प्रयोग (Use of force) : अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हित की सुरक्षा के लिए देशों को कभी-कभार बल का भी प्रयोग करना पड़ता है या बल प्रयोग करने का दिखावा करना पड़ता है। ऐसा भी देखा जाता है कि बड़ी शक्तियाँ अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए छोटे राष्ट्रों पर आक्रमण भी कर देते हैं।
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि राष्ट्रहित को सुरक्षित रखने में एक या दो तरीकों को क्रियान्वित किया जा सकता है। प्रत्येक देश को आक्रामक नीति को त्याग कर सुरक्षात्मक एवं शांतिपूर्ण नीति को अपनाना चाहिए ताकि विश्व में शांति व सामूहिक सुरक्षा की भावना को बनाए रखा जा सके।
5. कुछ प्रमुख राजनीतिक
सिद्धान्त (Some Major
Political Doctrines))
Vvvi.***1. उदारवाद किसे कहते है ? उदारवाद की मूल विशेषताओं की चर्चा कीजिए। (What is Liberalism? Discuss the basic features of Liberalism) H.S.2020]
Ans. इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार, "उदारवाद" एक विचार है जो सरकार की नीति और पद्धति के रूप में समाज के एक संगठनात्मक सिद्धान्त के रूप में और व्यक्ति तथा समुदाय के लिए जीवन की शैली के रूप में स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध है।
उदारवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
(क) सभी मनुष्य समान हैं, मनुष्य मूलतः एक अच्छा और सामाजिक प्राणी है।
(ख) व्यक्ति को अपने विकास के लिए कुछ अधिकार चाहिए जिन्हें किसी भी स्थिति में छीना नहीं जा सकता।
(ग) किसी भी राष्ट्र में कानून सर्वोच्च है।
(घ) वह सरकार अच्छी है जो व्यक्ति के जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप करे ।
(ङ) व्यक्ति और राज्य का सम्बन्ध परस्पर समझौते पर आधारित है। (च) उदारवाद का आग्रह है कि मनुष्य को धर्म और नैतिकता के सन्दर्भ में स्वतंत्रता प्राप्त हो। व्यक्ति अपने
कार्यों में अपनी इच्छा और चेतना से बाधित हो ना कि धर्मान्धता के बंधन से। (छ) उदारवाद मुक्त व्यापार और उत्पादन की स्वतंत्रता का पक्षधर है।
(ज) उदारवाद राजनीतिक क्षेत्र में, शक्तियों के पृथक्करण, स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव, शासित के प्रति शासकों। के उत्तरदायित्व, सार्वभौम वयस्क मताधिकार, प्रेस तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा तथा विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करता है।
जॉन लॉक (1632-1704) को उदारवाद का जनक कहा जाता है। लॉक ने उदारवाद की विशेषता बताते हुए सरकार को समाज की सहमति (consent ) पर आधारित माना है। उसने उदारवाद की सफलता के लिए सीमित सरकार का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसके अनुसार सरकार एक न्यास (Trust) है। 19वीं शताब्दी के आते-आते पूँजी के केन्द्रीकरण ने एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों (Monopolistic Tendencies) को जन्म दिया। ऐसी स्थिति में उदारवाद के औचित्य को बरकरार रखने के लिए जो एस. मिल और टी. एच. ग्रीन ने कुछ संशोधनों के साथ सकारात्मक उदारवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
सकारात्मक उदारवाद की अपनी अलग विशेषताएँ थी। इसने सार्वजनिक हित के पक्ष में व्यक्ति की स्वतंत्रता राज्य के हस्तक्षेप का समर्थन किया। ग्रीन ने अज्ञानता, नशाखोरी और भिक्षावृति के उन्मूलन में राज्य को सकारात्मक भूमिका का आग्रह किया। इंग्लैण्ड में लॉर्ड बेवरिज की रिपोर्ट (1943 ई०) में बेरोजगारी, बीमारी, भुखमरी, अज्ञानता तथा भिक्षावृत्ति को दूर करने में राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका की संस्तुति की गई। अंततः हम कह सकते हैं कि सकारात्मक उग्रवाद ने ही लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जन्म दिया।
Vvi.**2. मार्क्स के राष्ट्र सम्बन्धी सिद्धान्त या तत्व की चर्चा कीजिए। (Discuss the Marxian theory of the state.)
[H.S. 2018]
Ans. उदारवाद एवं मार्क्सवाद, राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में दो मुख्य विचारधाराएँ हैं। ये दोनों विचारधाराएँ परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत करते हैं। उदारवाद राज्य को एक स्वाभाविक तथा अनिवार्य संस्था स्वीकारता है, वहीं मार्क्सवाद राज्य को एक वर्गीय संस्था के रूप में देखता है। यह राज्य को केवल शक्तिशाली वर्ग के हितों का रक्षक मानता है।
मार्क्स और एंजेल्स राज्य को निजी सम्पत्ति और गुलाम प्रथा के विकास का परिणाम मानता है, राज्य दमनकारी सत्ता है, यह शक्तिशाली वर्ग की रक्षा करता है। मार्क्सवाद "बुर्जुआ राज्य" को समाप्त कर "श्रमजीवी राज्य" की स्थापना करना चाहता है।
कार्ल मार्क्स के सहयोगी एंजेल्स के अनुसार "राज्य किसी प्रकार समाज पर बाहर से लादा गया है। राज्य राजनीतिक विचार की वास्तविक या 'बुद्धि की मूर्ति और वास्तविकता' भी नहीं है, जैसे कि हीगेल का कहना है- राज्य विकास की एक विशेष मंजिल पर समाज की उपज है।" (The State is, therefore, by no means power forced on society from them, just a little as it "reality of the enthical idea, the image and reality of reason's as Hegel maintains. Rather it is a product at society of a certain state of development.")
-Engels
मार्क्सवादी राज्य के विभिन्न युग मार्क्सवादियों ने राज्य के विकास के लिए विभिन्न युगों पर विचार किया है. (1) आदिम युग (Primitive Age) एंजेल्स के अनुसार इतिहास में ऐसे भी युग थे, जब राज्य तथा राज्य नाम की कोई चीज नहीं थी प्राचीन युग (आदिम युग) इसका उदाहरण है। इस युग में पूर्ण समाजवाद था, प्राकृतिक पर सबको सामान्य अधिकार था। अतः इसे आदिम साम्यवाद का युग (Primitive Communism) कहा जाता है। उत्पादन की प्रणाली में परिवर्तन आने के कारण समाज वर्गों में विभाजित हुआ जिसके कारण राज्य की उत्पत्ति हुई आर्थिक रूप में परिवर्तन के कारण गुलाम पर स्वामित्व वाला समाज आया। यह युग सामन्ती युग था और अन्त में पूँजीवादी युग का आगमन हुआ।
(2) गुलाम युग (Slave age) आदिम युग के बाद गुलाम युग का प्रादुर्भाव हुआ। मनुष्यों ने कृषि और करना शुरू किया। आर्थिक कारणों से समाज में परिवर्तन आया। एक कबीले दूसरे कबीले को हराकर अपना गुलाम बनाते थे और उनसे खेती का काम लेते थे। इस गुलामी प्रथा के कारण समाज में दो वर्ग का जन्म हुआ गुलामी के मालिक (Slave owners) तथा गुलाम (Slave)। यहीं से राज्य की उत्पत्ति हुई ऐसा माना जाता है। स्वामियों में प्रभावशाली लोग शासक बन बैठे।
(3) सामन्ती युग (Feudal Age) भूमि का महत्त्व बढ़ते ही सामन्ती युग का आगमन हुआ। राजतन्त्र में राजाओं के पास रहने वाले लोग सामन्त बन बैठे। वे भूमि के स्वामी बन बैठे। वे स्वयं खेती नहीं करते थे, वे किसानों के द्वारा खेती कराते थे। इस युग में औद्योगिक विकास हुआ, नगरों की स्थापना हुई, समाज दो वर्गों में बँट गया। जिसमें भूमिपति और
व्यापारी एक तरफ थे तो दूसरी तरफ किसान और दास इस युग में राज्य की शक्ति में काफी वृद्धि हो गई। (4) पूँजीपति समाज (Capitalist Society ) औद्योगीकरण के कारण लगभग पूरे विश्व में मौलिक परिवर्तन आया। इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका तथा जर्मनी आदि का विकास हुआ। लोग गाँवों को छोड़कर शहर की ओर भागे। पूरे विश्व में समाज दो भागों में बँट गया पूँजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग समाज के ये दो वर्ग काफी परिवर्तन के बाद आज भी कायम हैं। मार्क्स का कहना है कि ''मजदूर वर्ग क्रान्ति द्वारा वर्तमान बुर्जुआ राज्य को समाप्त कर देगा और एक मजदूर
राज्य की स्थापना करेगा।"
(5) वर्गहीन समाज (Classless Society) मार्क्स के अनुसार एक समय ऐसा आयेगा जब वर्ग-विभेद समाप्त हो जायेगा उस समय राज्य की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। पूँजीपतियों का सफाया हो जाएगा और वह जो समाज तैयार होगा, वह वर्गहीन समाज होगा। एंजेल्स के अनुसार "एक नयी प्रणाली का विकास होने से समाज में वर्ग विभेद हो जायेगा और वर्ग विभाजन के साथ ही राज्य भी खत्म हो जायेगा। राज्य जैसे पुरानी चीजों को अजायबघर में रखा जायेगा, जहाँ चर्खा तथा ताँम्बे की कुल्हाड़ी रखी है।"
*Vvi 3. कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक अर्थवाद के सिद्धान्त का वर्णन करें। (Describe the theory of Historical Materialism of Karl Marx.) [H.S. 2016]
Ans. इतिहास की आर्थिक व्याख्या का सिद्धान्त मार्क्स का आर्थिक नियतिवाद का सिद्धान्त उसके - द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त द्वारा इतिहास को समझने व स्पष्ट करने का प्रयास है। इसके अनुसार मानव इतिहास की संरचना आर्थिक कारकों से निर्धारित होती है अर्थात् यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि इतिहास के किसी भी युग में समाज के आर्थिक सम्बन्ध समाज को परिवर्तन करने तथा सामाजिक, राजनीतिक सम्बन्धों का स्वरूप निर्धारित करने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वह कहता है कि सभी सामाजिक, राजनीतिक घटनाएँ आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम हैं। किसी भी समाज की राजनीतिक, कानूनी, न्यायिक, सामाजिक स्थिति को समझने के लिए उस समाज की आर्थिक व्यवस्था के ढाँचे को समझना आवश्यक है, क्योंकि आर्थिक व्यवस्था ही समाज के राजनैतिक व सामाजिक स्वरूप को करती है। इस प्रकार सम्पूर्ण सामाजिक, राजनीतिक तथा कानूनी व्यवस्था के संचालन का मूल तत्त्व आर्थिक है। मार्क्स के अनुसार, "सभी सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक सम्बन्ध, सभी धार्मिक तथा कानूनी पद्धतियाँ, सभी बौद्धक दृष्टिकोण जो इतिहास के विकास क्रम में जन्म लेते हैं, वे सब जीवन की भौतिक अवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं।" यही आर्थिक नियतिवाद है।
अतः स्पष्ट है कि इतिहास के विकास के मार्ग का निर्धारण पूर्ण रूप से तथा अन्तिम रूप से आर्थिक शक्ति द्वारा होता है, इसलिए इस सिद्धान्त को आर्थिक नियतिवाद कहा जाता है। इतिहास की छ: अवस्थाएँ :-इतिहास की आर्थिक व्याख्या करते हुए मार्क्स ने मानवीय इतिहास की छ अवस्थाएँ बताई हैं। यथा-
(1) आदिम साम्यवादी अवस्था :- मानव विकास की यह प्रथम या प्राचीनतम अवस्था है। इस अवस्था में शिकार, मछली पकड़ना तथा जंगल से कन्दमूल एकत्रित करना मुख्य कार्य था। पत्थर तथा ताँबे, कांसे तथा लोहे के बने औजार व तीर-कमान उत्पादन के साधन थे। इस अवस्था में उत्पादन के साधनों पर किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं था। निजी सम्पत्ति तथा परिवार जैसी संस्थाएँ नहीं थीं। समाज में किसी प्रकार की विषमता नहीं श्री। सभी समान थे। न कोई स्वामी था, न कोई दास और न कोई शोषक था, न कोई शोषित। मार्क्स ने इसे आदिम साम्यवाद की अवस्था कहा है।
(2) दास अवस्था :- जब मनुष्य पशुपालन और कृषि करते हुए स्थायी रूप से एक स्थान पर रहने लगा, तो निजी सम्पत्ति का विकास हुआ। कुछ शक्तिशाली लोगों ने भूमि व पशुओं पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया और वे दूसरे लोगों को अपना दास बनाकर बलपूर्वक उनसे काम करवाने लगे। फलत: समाज में स्वामी और दास दो वर्ग अस्तित्व में आए। आदिम साम्यवाद की अवस्था की समानता समाप्त हो गई। स्वामियों द्वारा दासों का शोषण किया जाने लगा। इसके बाद राज्य अस्तित्व में आया।
(3) सामन्तवादी अवस्था :- धीरे-धीरे समाज में उत्पादन के साधनों का विकास हुआ। कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त अन्य कई व्यवसाय भी विकसित हुए। इस अवस्था में जिस व्यक्ति का उत्पादन के साधनों पर अधिक नियंत्रण था तथा जो अधिक शक्तिशाली था उसने विशाल भूमि पर अपना स्वामित्व स्थापित कर जागीरदार या सामन्त का स्वरूप ग्रहण कर लिया। वे कृषि व अन्य कार्य किसानों व श्रमिकों से करवाने लगे। इन्हें अर्द्ध दास कहा जाता था। इस प्रकार सामन्तों के हाथों किसानों व श्रमिकों का शोषण बढ़ता गया और समाज सामन्त और किसान नामक दो वर्गों में बँट गया।
चूँकि सामन्तवादी व्यवस्था में समूची अर्थव्यवस्था पर सामन्तों का नियंत्रण था, अतः सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था का संचालन भी सामन्तों के हाथों में केन्द्रित रहा।
(4) पूँजीवादी अवस्था :- 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति हुई जिससे उत्पादन का कार्य विशाल स्तर पर बड़े कारखानों में होने लगा, जिसका नियंत्रण पूँजीपतियों के हाथों में था। इस प्रकार पूँजीपति वर्ग का उदय हुआ। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और वितरण का आधार अधिकाधिक लाभ कमाना था। अब समाज का बहुसंख्यक श्रमिक वर्ग इन उद्योगों में अपना श्रम बेचकर जीविकोपार्जन करने लगा। इस प्रक्रिया में श्रमिकों का शोषण बढ़ता गया। धीरे-धीरे श्रमिक भी अपने आर्थिक हितों के लिए संगठित होने लगा और सम्पूर्ण समाज दो वर्गों पूँजीपति वर्ग और श्रमिक वर्ग में बँट गया।
इसमें समाज की समस्त सम्पत्ति, उत्पादन और वितरण के साधनों पर पूँजीपतियों का स्वामित्व था । श्रमिक वर्ग शोषित तथा सम्पत्तिहीन था। दोनों के हित परस्पर विरोधी थे। फलतः दोनों वर्गों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। भविष्य में यह वर्ग संघर्ष अन्ततः क्रान्ति का रूप ले लेगा जो पूँजीवाद को समाप्त कर देगा और एक नवीन अवस्था के युग का प्रारम्भ होगा।
(5) सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की अवस्था :-पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग पूँजीपतियों के हाथों से उत्पादन तथा वितरण के साधन छीनकर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेगा और पूँजीवाद का अन्त कर देगा। आर्थिक अवस्था पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के साथ सामाजिक व राजनीतिक अवस्था पर भी सर्वहारा वर्ग का नियंत्रण स्थापित हो जायेगा। अब राज्य पूँजीवाद के शेष अवशेषों को समाप्त करने का कार्य करेगा। सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की अवस्था एक संक्रमणकालीन अवस्था होगी, जो पूँजीवादी युग की समाप्ति और साम्यवादी युग की स्थापना के मध्य की अवस्था होगी।
(6) साम्यवादी अवस्था :- पूँजीवादी वर्ग की पूर्ण समाप्ति के बाद मानवीय समाज की अन्तिम तथा सर्वोत्तम अवस्था साम्यवादी युग की अवस्था होगी। यह साम्यवादी युग शोषण विहीन, वर्ग-विहीन और राज्य-विहीन, समता, पर आधारित एक साम्यवादी समाज होगा। इस प्रकार इस अवस्था के दो प्रमुख लक्षण होंगे-
(i) समाज राज्यविहीन व वर्ग-विहीन होगा। (ii) इस समाज के अन्तर्गत वितरण का सिद्धान्त होगा-"प्रत्येक अपनी योग्यता के अनुसार कर्म करे और उसे आवश्यकता के अनुसार प्राप्ति हो।"
Lesson-6
Vvi.1 शक्ति पृथक्करण के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिए। (Analyse the argument for and against
the principle of Separation of Powers.)
[H.S. 2015, 2017]
Ans. शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के जन्मदाता फ्रांस के राजनीतिक विचारक मांटेस्क्यू (Montesquieu) थे। उन्होंने अपनी पुस्तक The Spirit of Laws (कानून की आत्मा) में इस सिद्धान्त का वर्णन किया है। उसने फ्रांस के लुई शासकों के स्वेच्छाचारी और निरंकुश शासन से फ्रांसीसी प्रजा को बचाने के लिए इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। उसके अनुसार सरकार के तीन शक्तियों क्रमश: कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका को अलग-अलग हाथों में रहना चाहिए, इससे शासन सुचारू रूप से चलेगा। वैसे वर्तमान समय में कुछ विद्वानों ने इसके पक्ष एवं विपक्ष में अपने तर्क दिये हैं।
शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के पक्ष में तर्क (Argument in favour of the Theory of Separation of Power) - (i) स्वेच्छाचारी और निरंकुशता से रक्षा कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की शक्तियों का विभाजन इसलिए आवश्यक है क्योंकि एक ही व्यक्ति के हाथ में इन शक्तियों के आ जाने से वह कानूनों का निर्माण अपनी स्वेच्छा से करेगा तथा उसे पूरी निरंकुशता के साथ लागू करेगा। न्यायपालिका एवं व्यवस्थापिका की शक्तियों का विभाजन इसलिए आवश्यक है कि कोई व्यक्ति मनमाने कानून का निर्माण न करे और न कानून की गलत ढंग से व्याख्या ही करे।
न्यायपालिका और कार्यपालिका की शक्तियों को आपस में मिला देने से पूरी न्यायपालिका और कार्यपालिका की शक्तियों को आपस में मिला देने से पूरी न्यायव्यवस्था उप्प पड़ सकती है।
(ii) शासक वर्ग के तानाशाही से रक्षा मॉण्टेस्क्यू का मानना था कि यदि कार्यपालिका, व्यवस्था तथा न्यायपालिका की शक्तियों यदि एक ही व्यक्ति एवं संस्था में केन्द्रित हो जाए तो नागरिकों की स्वतंत्रता, समानता के अधिकार समाप्त हो जाएंगे तथा शासक वर्ग तानाशाह की भूमिका में आ जाएगा। जैसे कि फ्रांस का शासक लुई चौदहवाँ स्वेच्छाचारी एवं निरंकुशता के मद में चूर होकर अक्सर कहा करता था "मैं ही राज्य हूँ।" (I am a state.)। अतः शासक वर्ग के तानाशाही शासन से रक्षा के लिए शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक है।
(iii) शासन में योग्यता में वृद्धि शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को अपनाना इसलिए भी आवश्यक और उपयोगी है क्योंकि इससे सरकार के तीन महत्त्वपूर्ण अंगों कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका के पद पर तीन योग्यतम व्यक्तियों का चुनाव होता है। वे व्यक्ति अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ होते हैं, इससे शासन योग्यतम हाथों में रहने के कारण सुचारू रूप से चलता है। उदाहरण के लिए कानून निर्माण के लिए व्यापक दृष्टिकोण और दूरदर्शिता को आवश्यकता होती है। प्रशासनिक कार्य के लिए सहज विवेक, कुशाग्र बुद्धि, कार्यकुशलता, दृढ़ता इत्यादि गुणों की आवश्यकता होती है। उचित और निष्पक्ष न्याय के लिए दृढ़, स्थिर, चित्तवान तथा सत्य और असत्य में भेद करने वाले व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। अतः इन कार्यों को उचित रूप से सम्पन्न करने के लिए शक्ति पृथक्करण की आवश्यकता होती है।
(iv) कार्य विभाजन से लाभ शक्ति पृथक्करण पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि इसमें तीन महत्त्वपूर्ण पदों पर अलग-अलग योग्यतम व्यक्तियों के बैठने से प्रशासनिक दायित्वों का निर्वाह द्रुत एवं सही तरीकों से होता है। कोई भी विभाग अतिरिक्त कार्यों का रोना नहीं होता है तथा सही समय पर दायित्वों का निर्वाह करना है। भारत, अमेरिका, फ्रांस या विश्व के अन्य प्रजातांत्रिक देशों की सफलता का यह आधार है। (v) न्यायपालिका की निष्पक्षता की रक्षा शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे
न्यायपालिका के स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की रक्षा होती है। शासक वर्ग अपने पद का दुरुपयोग करके न्याय व्यवस्था
को प्रभावित करने की कोशिश नहीं कर सकता है। प्रजातांत्रिक देशों में सभी व्यक्ति कानून की नजर में बराबर
• है (Equality before law) और कानून सबको एक समान संरक्षण देता है। (Equal protection of law) कौ
कहावत इस सिद्धान्त के सही प्रतिपादन पर ही निर्भर करती है।
शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के विपक्ष में तर्क (Arguments against the theory of Separation of Powers.) -
कुछ राजनीतिक विद्वानों ने अपने तर्क के द्वारा शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को वर्तमान समय में त्रुटिपूर्ण बताया है -
(i) ऐतिहासिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण : मॉण्टेस्क्यू ने अपने शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपादन इंग्लैण्ड की तत्कालीन शासन पद्धति के आधार पर किया था परन्तु वास्तविकता यह है कि इंग्लैण्ड की शासन व्यवस्था में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका एक-दूसरे से अलग व स्वतंत्र नहीं है। ये एक-दूसरे के सहयोग पर आश्रित है। अतः यह माना जा सकता है कि इस सिद्धान्त का ऐतिहासिक आधार त्रुटिपूर्ण है।
(ii) शक्तियों का सम्पूर्ण विभाजन सम्भव नहीं कुछ राजनीतिक विद्वानों का मानना है कि सरकार एक आंगिक एकता (Organic Unity) के रूप में कार्य करता है। जिस प्रकार मानव शरीर के विभिन्न अंग एक दूसरे पर आश्रित और परस्पर सम्बन्धित है, वही स्थिति प्रशासन के अंगों की है। इसलिए शासन के अंगों का पूर्ण विभाजन संभव नहीं है। शक्तियों के सम्पूर्ण विभाजन से सरकार के अंगों में विषमता आएगी एवं वे एक-दूसरे के पूरक कार्य करने को बाध्य होंगे।
(iii) न्यायपालिका की निष्पक्षता का अंत यदि शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को कठोरता से अपनाया गया तो यह न्यायपालिका की कार्यकुशलता एवं निष्पक्षता का अन्त कर देगा। इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने पर न्यायाधीशों की नियुक्ति न तो कार्यपालिका द्वारा होगी और न ही वे व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित होंगे, वरन् वे जनता द्वारा निर्वाचित होंगे। जनता द्वारा निर्वाचित न्यायाधीश प्रायः अयोग्य तथा पक्षपातपूर्ण प्रमाणित होंगे। वे न्याय भावना के स्थान पर पक्षपात तथा दलीय भावना के आधार पर कार्य करेंगे।
(iv) शक्ति पृथक्करण अवांछनीय शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त को अपनाना अवांछनीय है। व्यवस्थापिका कानून निर्माण का कार्य तथा कार्यपालिका प्रशासन का कार्य सटीक ढंग से कर सके, इसके लिए दोनों अंगों के बीच पारस्परिक सहयोग नितान्त आवश्यक है। यदि कानून के निर्माण में व्यवस्थापिका और उसका पालन करने में कार्यपालिका उसके रक्षा करने में न्यायपालिका कार्य न करें तो प्रशासन को जनहितकारी रूप प्रदान किया जा सकता है। इतिहासकार जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार "सरकारी विभागों की पूर्ण स्वतंत्रता का अनिवा अर्थ होगा, निरंतर गतिरोध ।” -
हैं निष्कर्ष (Conclusion) : शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त में कई त्रुटियों हैं परन्तु इन त्रुटियों के आधार पर इसे एक-दूसरे महत्त्वहीन नहीं समझा जा सकता है। शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त का आशय यदि यह लिया जाये कि तीनों विभाग द्वारा एक-दूसरे से कोई भी सम्बन्ध नहीं रखा जाना चाहिए तो इस रूप में शक्ति विभाजन सिद्धान्त को अपनान सम्भव नहीं है। शक्ति पृथक्करण के माध्यम से मॉण्टेस्क्यू का मूल आशय सरकार के तीन अंगों को के क्षेत्र में हस्तक्षेप से बचना तथा आवश्यकता अनुसार एक-दूसरे को सहयोग प्रदान करना है।
Vvi.2. एकसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष एवं विपक्ष में लिखो। (Give argument in favour and
against Unicameral legislature.)
* Or, एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष एवं विपक्ष का वर्णन करें। (Argue for and against Unicameral legislatur.) 4+4 [H.S. 2016, 2019]
Ans. एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क निम्नलिखित रूप से दिये जा सकते हैं। (i) संप्रभुता का स्थायी रहना-कुछ राजनीतिविदों का मानना है कि व्यवस्थापिका सभा में वैध संप्रभुता रहती है और उनका विभाजन करना राष्ट्र के हित में नहीं है। यदि वैधानिक सम्प्रभुता का विभाजन एक या दो सदन में कर दिया
तो संप्रभुता का अन्त हो जाएगा।
गया (ii) प्रशासनिक कार्यों में सुगमता :-दो सदनों के होने से प्रशासनिक कार्यों में अनावश्यक रूप से विलम्ब होता है। आपात काल में द्विसदनात्मक व्यवस्था उपयुक्त नहीं है। एक सदन वाली व्यवस्थापिका में यह दोष नहीं देखा जाता है। यहाँ प्रशासनिक कार्य बड़ी सुगमता से हो जाते हैं।
(iii) राष्ट्र की प्रगति में बाधा न आना एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में महत्वपूर्ण मसलों पर निर्णय तुरंत हो जाता है। परन्तु द्विसदनात्मक व्यवस्था में उच्च सदन के सदस्य अधिकांशतः प्रतिक्रियावादी होते हैं। ये निम्न सदन के कार्यों में बाधा उत्पन्न करते हैं। फ्रांस के राजनीतिक विचारक एबीसियस का कहना है कि "विधि जनता की इच्छा है, जनता एक ही विषय पर दो भिन्न-भिन्न इच्छायें नहीं रख सकती।" अतः जो व्यवस्थापिका सभा जनता का प्रतिनिधित्व करती है वह
आवश्यक रूप में एक ही होनी चाहिए।
(iv) द्विसदन में व्यवस्थापिका का विभाजन अनुचित-जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति एक ही सदन द्वारा सम्भव है। जनता की सामान्य इच्छा एक ही हो सकती है जिसे एक सदन द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता है। उसे दो सदनों में विभाजित नहीं किया जा सकता।
(v) संघर्ष की सम्भावना :-व्यवस्थापिका में दो सदन होने के कारण कभी-कभी उनमें विरोध, संघर्ष एवं प्रतिद्वन्द्विता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे शासन काम सुचारू रूप से नहीं चल पाता जो देश के लिए हितकर नहीं है परन्तु एक सदनात्मक व्यवस्थापिका में इस तरह के संघर्ष की गुंजाइश नहीं रहती है। एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में तर्क
(i) नियंत्रण का अभाव :- एक सदनात्मक व्यवस्थापिका पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होने पर वह निरंकुश ह
सकती है जिससे अल्पसंख्यक वर्ग के हितों की रक्षा करना संभव नहीं होगा। (ii) परिवर्तनशीलता निम्न सदन के अधिकांश सदस्य प्रगतिशील विचारधारा के होते हैं। मतदाताओं को प्रसन्न करने के लिए वे विधि व्यवस्था में तुरंत ही परिवर्तन कर देंगे। इसका परिणाम यह होगा कि शासन में शिथिलता उत्पन्न ह जायेगी।
(iii) त्रुटियाँ रहने की संभावना :- यह सदन आवेश अथवा शीघ्रता के कारण विधेयकों पर पूर्णरूपेण से विचार नहीं कर सकता है। इसलिए विधेयकों में त्रुटियाँ रहने की सम्भावना अधिक रहती है। (iv) ऐतिहासिक अनुभव :- ऐतिहासिक अनुभव यह है कि जहाँ कहीं भी एक सदनात्मक व्यवस्थापिका का प्रयोग किया गया, वह असफल रहा। फलतः वहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना गई। (v) प्रथम सदन की जल्दबाजी पर रोक :- प्रथम सदन के सदन जनता के द्वारा भावावेश प्रतिनिधि होते हैं। वे जनमत के अनुकूल श्रमिक भावावेश में आकर अनेक बार जल्दबाजी में कानून पास कर देते हैं जो वास्तव में सार्वजनिक हिल या राष्ट्रीय हित के प्रतिकूल होते हैं।
Vvi**3.द्विसदनात्मक व्यवस्था के पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिए। (Arguments in favour of bicam- eralism.)
Ans. द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of bicameralism) :-
[H.S. 2015]
(1) प्रथम सदन की स्वेच्छाचारिता पर रोक (Check on the despotism of the first house.) :- दिसदनात्मक व्यवस्थापिका की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक सदन की स्वाभाविक प्रवृति घृणापूर्ण, अत्याचारी और भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए समान शक्ति वाले द्वितीय सदन का अस्तित्त्व आवश्यक है। गार्नर का मानना है कि, "द्वितीय सदन का अस्तित्त्व स्वतंत्रता की गारण्टी है और एक सीमा तक प्रथम सदन की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगाता है।"
(2) जल्दबाजी, विवेकरहित कानून को बनने से रोकता है (Chukon hasty and ill-considered law framed) :- एक सदनात्मक व्यवस्था में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की क्षणिक भावनाओं और आवेशों से प्रभावित होकर कानून निर्माण में अत्यधिक जल्दबाजी कर सकते हैं। फलस्वरूप कानून एक पक्षीय व तर्कहीन हे सकता है। द्विसदनात्मक व्यवस्था में द्वितीय सदन निम्न सदन द्वारा बनाये गए कानूनों का विवेकपूर्ण ढंग से
समालोचना करता है एवं पक्षहीन कानून के निर्माण में मदद करता है। (3) जनमत प्रकट करने का अवसर देता है (Give opportunity for public opinion):- द्विसदनात्मक प्रणाली में जब एक सदन किसी विधेयक को पारित कर देता है और दूसरा सदन उस पर विचार करता है तो इस बीच के समय में जनमत को संगठित होने व प्रकट होने के लिए पर्याप्त वक्त मिल जाता है।
(4) संघ राज्य के लिए उपयुक्त (Useful for federal states) :- एक संघात्मक राज्य में विविध इकाइयाँ होती हैं, उनमें क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से बहुत अधिक अंतर होता है। ऐसी परिस्थिति में द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के द्वारा प्रथम सदन में जनसंख्या के आधार पर और दूसरे सदन में इकाइयों को समानता के आधार पर प्रतिनिधित्त्व प्रदान किया जा सकता है। द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में तर्क
(1) समय और धन की बर्बादी (Wastage of time and money) :- आलोचकों का मानना है कि द्वितीय
सदन के गठन में बेकार का खर्च होता है तथा इसके द्वारा विधान पास करने में समय की बर्बादी होती है। अब्बे
सियस का कहना है कि - "यदि दूसरा सदन पहले सदन से सहमत होता है तो उसकी कोई आवश्यकता नहीं
है और यदि असहमत है तो हानिकारक है।"
(2) संगठन की समस्या (Problem of organisation) :- द्वितीय सदन के संगठन की समस्या गंभीर है। यदि द्वितीय सदन परोक्ष रूप से निर्वाचित तथा नामजद या वंशानुगत है तो यह हानिकारक और गैरगणतंत्रात्मक है। नामजद सदस्यों से सत्तारुढ़ दल की शक्ति बढ़ती है। व्यवहार में दो सदनों वाले सभी देशों में यह समस्या उत्पन्न हुई है। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड में हाउस ऑफ लाईस को सदैव असंगत कहा जाता है; क्योंकि यह कुलीन वर्ग को छोड़कर अन्य किसी का प्रतिनिधित्त्व नहीं करता। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि द्वितीय सदन का निर्माण एक विकट समस्या है।
(3) दोनों सदनों में संघर्ष की आशंका- दो सदनात्मक व्यवस्था में दोनों सदनों में हमेशा संघर्ष की स्थिति बनी रहती है जिसका शासन व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बेंजामिन फैकलिन का कहना है कि "दो सदन रखना ठीक वैसा ही है जैसा एक गाड़ी में दोनों तरफ घोड़े जोत दिए जायें और वे विरोधी दिशा में जाने का प्रयत्न करें।"
(4) संघ राज्यों के लिए भी द्वितीय सदन आवश्यक है राजनीतिक दलों के आधार पर चुने जाने के कारण द्वितीय सदन के सदस्य अपने इकाई राज्यों के प्रतिनिधि न रहकर, अपने दलों का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। प्रो० लॉस्की का विचार है कि "द्वितीय सदन संघ राज्य की रक्षा के लिए कोई प्रभावशाली गारंटी नहीं हैं।"
7. भारत में कार्यपालिका (Executive in India))
Vvi.*1. भारत के राष्ट्रपति के अधिकारों एवं कार्यों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (Describe briefly the powers and functions of the President of India.)
Ans. भारतीय संघ की कार्यपालिका के प्रधान को राष्ट्रपति कहा जाता है। संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। भारत में संसदीय प्रणाली होने के कारण राष्ट्रपति कार्यपालिका का नाममात्र का प्रधान है, जबकि मन्त्रिमण्डल वास्तविक कार्यपालिका है। औपचारिक प्रधान होने के बावजूद उसका पद गरिमायुक्त व एकता का प्रतीक है। उसकी स्थिति वैधानिक अध्यक्ष की है। फिर भी शासन में उसका पद एक धुरी के समान है, जो संकट के समय संवैधानिक को संतुलित करता है।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ (Powers of the President) :- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 53(1) में क गया है कि "संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और इसका प्रयोग वह संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।"
राष्ट्रपति की शक्तियों का उल्लेख निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ (Executive powers) :-संघ के सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं। प्रधानमंत्री का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वह राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल के निर्णयों व व्यवस्थापन प्रस्ता से सूचित कराए। प्रधानमंत्री व अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। वह किसी मंत्री के व्यक्तिगत निर्णय को समस्त मंत्री परिषद में विचारार्थ रखवा सकता है जैसे संघ लोक सेवा आयोग, निर्वाचन आयोग, वित्त आयोग राजभाषा आयोग इत्यादि। राष्ट्रपति को संघ की इकाइयों अर्थात् राज्यों को निर्देशन देने व उन पर नियंत्रण का अधिकार होता है।
(2) वैदेशिक और कूटनीतिक शक्तियाँ (Foreign and diplomatic powers ) :-राष्ट्रपति विदेशों में भारतीय राजदूतों व अन्य प्रतिनिधियों की नियुक्ति करता है। वह विदेशी राजदूतों व कूटनीतिज्ञों के प्रमाण पत्रों क स्वीकार करता है। राष्ट्रपति को विदेशों से संधि, समझौते करने का भी अधिकार है, यद्यपि इनका समर्थन संस्ट द्वारा होना अनिवार्य है।
(3) सैनिक शक्तियाँ (Military powers ) :- राष्ट्रपति भारतीय सेना का सर्वोच्च सेनापति होता है। वह जल, थल व वायु सेना के सर्वोच्च पद को ग्रहण करता है एवं उच्च अधिकारियों को नियुक्त करता है।
(4) विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers ) :- संविधान के अनुच्छेद 79 के अन्तर्गत राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है। इसलिए उसे विधायी क्षेत्र में महत्वपूर्ण अधिकार दिया गया है। उसे दोनों सदनों के अधिवेशन बुलारे व स्थगित करने का अधिकार है। वह लोकसभा भंग कर सकता है। संसद के किसी भी सदन में भाषण दे सकत है। वह संदेश भेज सकता है। राज्यसभा में 12. लोक सभा में 2 एंग्लो-इण्डियन और एक सदस्य उत्तर-पूर्व सीमावर्ती क्षेत्र के लिए नामांकित करता है। राष्ट्रपति वित्तीय विधेयकों को छोड़कर अन्य साधारण विधेयकों को सदन में पुनर्विचार के लिए भेज सकता है। जब संसद का अधिवेशन न हो रहा हो तब राष्ट्रपति अध्यादेश जारी कर सकता है, इसका वही प्रभाव होता है जो संसद द्वारा पारित विधि का होता है। राज्यों के सम्बन्ध में भी राष्ट्रपति को कुछ विधायी शक्तियाँ प्राप्त हैं। कुछ विधेयक राज्य विधान मण्डल में राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।
(5) न्यायिक शक्तियाँ (Judicial Powers) :- राष्ट्रपति न्यायालय द्वारा दण्डित अपराधियों को क्षमा प्रदान कर सकता है। इस शक्ति का प्रयोग वह निम्न परिस्थितियों में कर सकता है उन सब परिस्थितियों में जिनमें दण्ड सैनिक न्यायालय ने न दिया हो। उन सब परिस्थितियों में जिनमें दण्ड संघ के किसी कानून का उल्लंघन करने के कारण मिला हो अथवा किसी व्यक्ति को मृत्युदण्ड मिला हो।
(6) वित्तीय शक्तियाँ (Financial powers ) :- राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में संसद के दोनों सदनों के समक्ष आय-व्यय का विवरण अर्थात् बजट रखने की अनुमति देता है। राष्ट्रपति की अनुमति से ही कोई भी वित्तीय विधेयक अथवा अनुदान की माँगे लोकसभा में पेश हो सकती हैं। राष्ट्रपति की अनुमति से हो संसद से पूरक अतिरिक्त और अपवाद भूत अनुदानों की माँग की जा सकती है। भारत की आकस्मिक निधि पर भी राष्ट्रपति का नियंत्रण रहता है। राष्ट्रपति संघ और राज्यों में वित्तीय सम्बन्धों के लिए आयोग नियुक्त करता है।
(7) आपातकालीन शक्तियाँ (Emergency powers ) :- राष्ट्रपति की शक्तियों में सबसे महत्वपूर्ण उसको आपातकालीन शक्तियाँ हैं। यदि राष्ट्रपति चाहे तो इन शक्तियों के प्रयोग से देश में एकात्मक शासन की स्थापना कर सकता है। राष्ट्रपति नागरिकों के मूल अधिकारों को भी स्थगित कर सकता है। भारतीय संविधान के भाग 13 में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन उपबन्धों की व्यवस्था है। राष्ट्रपति बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह राज्यों में संवैधानिक तंत्र के असफल होने तथा आर्थिक अस्थिरता की स्थिति में आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
राष्ट्रपति की स्थिति (Position of President) :- भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई है। अनुच्छेद 53(1) के अनुसार राष्ट्रपति कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग स्वयं भी कर सकता है। संविधान में अनेक अनुच्छेद ऐसे हैं जिनके आधार पर बहुत से विचारक राष्ट्रपति को संवैधानिक या नाममात्र का प्रधान मानने को तैयार नहीं है। ऐसे विचारकों की मान्यता है कि अगर राष्ट्रपति चाहे तो वास्तविक प्रधान बन सकता है।
अनुच्छेद 74(1) के अनुसार, राष्ट्रपति को अपने कार्यों का सम्पादन करने में सहायता व मन्त्रणा देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करेगा। अनुच्छेद 75(1) में कहा गया है कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य सहायक मंत्री प्रधानमन्त्री के परामर्श पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होंगे। संविधान का अनुच्छेद 78 भी राष्ट्रपति को वास्तविक कार्यपालिका का प्रधान बनाने में सहायक है। राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ भी इतनी व्यापक हैं कि उनकी आड़ में राष्ट्रपति वास्तविक शासक बन सकता है। राष्ट्रपति की आपातकालीन घोषणा को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। राष्ट्रपति लोकसभा भंग करने का निर्णय भी दे सकता है।
Vvvi****भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री के अधिकारों एवं स्थिति का वर्णन कीजिए। (Explain the powers [H.S. 2020]
and positions of the Chief Ministers of a State in India.)
Ans. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार राज्यपाल को सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी। इसका नेतृत्व मुख्यमंत्री करेगा। भारतीय संघ शासन में जो स्थान प्रधानमंत्री का है वही स्थान राज्य के शासन में मुख्यमंत्री का है। राज्य में मुख्यमंत्री राज्य का नायक और मुख्य प्रवक्ता होता है। मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व और उसकी राजनीतिक स्थिति पर ही राज्य विशेष का आर्थिक विकास, सामाजिक उन्नति और व्यवस्था निर्भर है।
मुख्यमंत्री के कार्य व शक्तियाँ :- राज्य के शासन तंत्र में मंत्रिपरिषद् की शक्तियों का केन्द्र मुख्यमंत्री होता है। मुख्यमंत्री के कुछ कार्य व शक्तियाँ संविधान द्वारा निर्धारित हैं और कुछ कार्य संसदीय शासन व्यवस्था के अनुरूप स्थापित परम्पराओं व व्यावहारिक आवश्यकताओं के अनुसार हैं। यथा- (अ) मुख्यमंत्री के संवैधानिक कार्य व शक्तियाँ- मुख्यमंत्री के संवैधानिक कार्य व शक्तियों का विवेचन
निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(1) मंत्री परिषद् का निर्माण मुख्यमंत्री का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य मंत्री परिषद् का निर्माण करना होता है। उसे अपनी मंत्री परिषद् के निर्माण में उन सब तत्त्वों को स्थान देना पड़ता है, जिन्हें लेने से उसे विधानसभा का पूरा समर्थन प्राप्त होने में सुविधा हो। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए मुख्यमंत्री मंत्रियों का चयन करके राज्यपाल को उनके नाम दे देता है और राज्यपाल उनकी नियुक्ति मंत्रियों के रूप में कर देता है। मंत्रियों की संख्या का निर्धारण तथा उनके मध्य विभागों का वितरण भी मुख्यमंत्री ही करता है।
राजनीतिक, प्रशासनिक अथवा अन्य किसी कारण से यदि मुख्यमंत्री आवश्यक समझे तो विधायिका से बाहर के व्यक्ति को भी वह मंत्री परिषद् में ले सकता है। ऐसा व्यक्ति नियुक्ति के छः माह बाद मंत्री तभी रह सकता है जब वह इस अवधि में विधान मण्डल के किसी सदन की सदस्यता प्राप्त कर ले।
(2) मंत्री परिषद् की अध्यक्षता व उसका कार्य संचालन संविधान के अनुच्छेद 163 के अनुसार मंत्री परिषद् का प्रधान मुख्यमंत्री होता है। मंत्री परिषद् के अध्यक्ष के रूप में वह मंत्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता करता है, बैठकों की कार्य-मूची को अन्तिम रूप देता है। बैठकों में निर्णय प्रायः औपचारिक मतदान द्वारा न होकर आम सहमति से होते हैं, अतः ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री का मत ही प्रायः निर्णायक होता है। बैठकों के निर्णयों की घोषणा भी प्रायः वही करता है।
(3) राज्यपाल को परामर्श देना संविधान के अनुसार केवल उन कार्यों को छोड़कर, जिनके सम्बन्ध में राज्यपाल अपने विवेक से कार्य करता है, अन्य सब कार्यों में राज्यपाल को परामर्श दिया जाना मुख्यमंत्री का अधिकार व कर्त्तव्य है। संसदीय प्रणाली होने के कारण सामान्यतः राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री के परामर्श को महत्त्व दिया जाना आवश्यक है।
(4) राज्यपाल व मंत्री परिषद् के बीच कड़ी मुख्यमंत्री को राज्यपाल और मंत्री परिषद् के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करना होता है। मुख्यमंत्री राज्य के प्रशासन व व्यवस्थापन सम्बन्धी प्रस्तावों के सम्बन्ध में मंत्री परिषद् के निर्णयों से राज्यपाल को अवगत कराता है। इस सम्बन्ध में राज्यपाल द्वारा वांछित सूचना भी मुहैया कराता है। उसे राज्यपाल के निर्देश पर उन विषयों को भी मंत्री परिषद् के समक्ष विचारार्थ रखना होता है, जिन पर किसी मंत्री द्वारा निर्णय किया गया हो, किन्तु उन पर पूरी मंत्री परिषद् द्वारा विचार नहीं किया गया हो।
(ब) मुख्यमंत्री के परम्परागत या व्यावहारिक कार्य:- मुख्यमंत्री निम्नलिखित कार्य परम्परागत रूप में करता है -
(1) मंत्रियों की नियुक्ति तथा पदच्युति राज्यपाल मंत्रियों की नियुक्ति तथा पदच्युति मुख्यमंत्री के परामर्श के अनुसार ही करता है। अतः मंत्रियों की नियुक्ति का अधिकार मुख्यमंत्री के पास ही होता है।
(2) मंत्रियों के बीच कार्य विभाजन मुख्यमंत्री विविध मंत्रियों के बीच शासन के विविध विभागों के कार्य का बँटवारा भी करता है। वही उनके विभागों में परिवर्तन करता है।
(3) शासन के विविध विभागों में समन्वय कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती है कि जब एक विभाग का निर्णय किसी दूसरे विभाग के निर्णय के प्रतिकूल होता है। ऐसी स्थिति में जब दो या अधिक विभागों के मंत्रियों में कोई गतिरोध उत्पन्न हो जाये तो मुख्यमंत्री को ही ऐसे विभागों के बीच समन्वय स्थापित करना होता है। ऐसी परिस्थिति में वह विविध विभागों को आवश्यक आदेश व निर्देश भी दे सकता है।
(4) विधानसभा का नेतृत्व मुख्यमंत्री विधानसभा का नेता होता है। वह विधानसभा को भंग किये जाने के विषय में भी अपना परामर्श राज्यपाल को दे सकता है।
(5) उच्च स्तरीय नियुक्तियाँ राज्यपाल द्वारा की जाने वाली महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों के सम्बन्ध में मंत्री परिषद् निर्णय लेती है, किन्तु व्यवहार में इस सम्बन्ध में निर्णायक भूमिका मुख्यमंत्री की होती हैं।
(6) शासन का प्रमुख प्रवक्ता राज्य सरकार का प्रमुख प्रवक्ता भी मुख्यमंत्री ही होता है। वहीं राज्य सरकार की ओर से सरकारी निर्णयों की अधिकृत घोषणा करता है। दो मंत्रियों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों से उत्पन्न गतिरोध की स्थिति को मुख्यमंत्री अपना निर्णायक वक्तव्य देकर समाप्त करता है।
मुख्यमंत्री की स्थिति मुख्यमंत्री के उपर्युक्त विवेचित कार्य व अधिकारों से स्पष्ट होता है कि राज्य के सम्पूर्ण शासन में मुख्यमंत्री का स्थान महत्त्वपूर्ण है।
यथा -
(1) मंत्री परिषद् के निर्माण, उसके कार्य संचालन तथा उसके विघटन में मुख्यमंत्री की भूमिका निर्णायक होती है।
(2) विधानसभा में मुख्यमंत्री बहुमत दल का नेता होता है। बहुमत के आधार पर वह विधानसभा की कार्यवाही में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है|
(3) राज्य के शासन तंत्र में उसका निर्णय ही प्रायः अन्तिम होता है। शासन के संचालन के विषय में वह अंतिम रूप में उत्तरदायी होता है।
व्यवहार में मुख्यमंत्री की स्थिति यथार्थ राजनीतिक परिस्थितियों द्वारा निर्धारित होती है। इस सम्बन्ध में मुख्यमंत्री की अपने दल में स्थिति, विधानसभा में उसके दल के बहुमत का स्वरूप, दल के केन्द्रीय नेतृत्व के साथ उसका सम्बन्ध, जनता में उसकी लोकप्रियता आदि तत्त्व उसकी स्थिति में निर्णायक रहते हैं।
पाठ-8
VVvvi***1)भारत के सर्वोच्च न्यायालय के गठन तथा कार्यों की चर्चा कीजिए। (Discuss the composition and functions of the Suprement Court of India.)
[H.S. 2020]
Ans. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय भारतीय न्यायपालिका के शीर्ष बिन्दु पर है। यह देश के सभी मामलों का अंतिम न्यायालय है। भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को बहुत व्यापक क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है. जिसका विवेचन निम्न प्रकार से किया गया है - :
(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) :- उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार में कुछ ऐसे विषय आते हैं जिनकी सुनवाई सीधे सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(i) प्रारम्भिक अनन्य क्षेत्राधिकार (Exclusive original Jurisdiction) :- प्रारम्भिक अनन्य क्षेत्राधिकार से अभिप्राय उन विवादों से हैं जिनकी सुनवाई केवल भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा सकती है अर्थात जिन मामलों की सुनवाई करने का अधिकार किसी उच्च न्यायालय या अधीनस्थ न्यायालयों को नहीं है। इसके अन्तर्गत अग्र विषय आते हैं। -
(क) भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद
(ख) भारत सरकार, संघ का कोई राज्य या राज्यों तथा एक राज्य तथा अधिक राज्यों के बीच विवाद ।
(ग) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच संवैधानिक विषयों के सम्बन्ध में उत्पन्न कोई विवाद ।
(ii) प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार (Concurrent Original Jurisdiction) :-मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से सम्बन्धित ऐसे विवाद समवर्ती क्षेत्राधिकार में आते हैं जो चाहे तो पहले किसी राज्य के उच्च न्यायालय में और चाहे तो सीधे सर्वोच्च न्यायालय में उपस्थित किये जा सकते हैं। अर्थात् संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ उच्च न्यायालयों को भी अधिकार प्रदान किया गया है।
(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate jurisdiction) :- सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्न चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। -
(i) सांविधानिक (Constitutional ) :- संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित कानून का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न निहित है, तो उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय की अपील सर्वोच्च न्यायालय में भी की जा सकती है। यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण पत्र देना अस्वीकार भी कर दे तो भी उच्चतम
लयको अधिकार प्राप्त है कि वह ऐसी अपील की विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है, यदि उन न्यायालय को यह विश्वास है कि उस विषय में संविधान की व्याख्या का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न निहित है।
(ii) दीवानी (Civil) (अनुच्छेद 133) 1972 के 30वें संशोधन के द्वारा धन राशि के आधार पर अपील के अधिकार को निरस्त कर दिया गया है और अब सर्वोच्च न्यायालय में उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सभी अपील की जा सकती है जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद में कानून की व्याख्या से सम्बन्धित सार्वजनिक महत्व तथा प्रकृति का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न या सामान्य महत्व का प्रश्न निहित है।
(iii) फौजदारी (Criminal) :- इस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्न स्थितियों में उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है-
(a) यदि उच्च न्यायालय ने निचले के न्यायालय के ऐसे किसी निर्णय को रद्द करके अभियुक्त को मृत्युदण्ड दे दिया हो, जिसमें निचले न्यायालय ने अभियुक्त को अपराध मुक्त कर दिया हो।
(b) उच्च न्यायालय ने निचले न्यायालय में चल रहे किसी विवाद को अपने यहाँ मँगवाकर अभियुक्त को मृत्युदण्ड दे दिया हो।
(c) यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचार के योग्य हो।
(iv) विशिष्ट (Special) :- संविधान के अनुच्छेद 136 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं भी यह अधिकार प्राप्त है कि वह सैनिक न्यायालय को छोड़कर भारत राज्य क्षेत्र के किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध अपने यहाँ अपील की अनुमति दे सकता है।
(3) निर्णय या आदेशों के पुनर्विचार सम्बन्धी क्षेत्राधिकार (Revisional Jurisdiction) :- अनुच्छेद 137 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह स्वयं द्वारा किये गये आदेश या निर्णय पर पुनर्विचार कर उचित समझे तो उसमें आवश्यक परिवर्तन कर सके। ऐसा उस समय किया जाता है जब सर्वोच्च न्यायालय को यह संदेह हो कि दिये गए निर्णय में किसी पक्ष के प्रति न्याय नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, 1967 ई० में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ के मुकदमें एवं शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के मुकदमें में दिए गए अपने ही निर्णयों को रद्द घोषित किया था।
(4) परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdictions ) :- अनुच्छेद 143 में संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श सम्बन्धी अधिकार प्रदान किया है जिससे यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न पैदा हुआ हो, जो सार्वजनिक महत्व का है तो उस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श माँग सकता है न्यायालय के परामर्श को स्वीकार या अस्वीकार करना राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर है। सन् 1991 में 'कावेरी जल विवाद' के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय से परामर्श प्राप्त हुआ था। राष्ट्रपति ने जनवरी, 1993 में उच्चतम न्यायालय से विवादास्पद बाबरी मस्जिद के विषय में परामर्श माँगा था लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर परामर्श देने से इंकार कर दिया था।
(5) संविधान का संरक्षक न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति (Custodian of Constitution Power of Judicial Review) :- संविधान के द्वारा न्यायालय को कानूनों की वैधानिकता की जाँच करने की शक्ति प्राप्त है। अनुच्छेद 131 और 132 सर्वोच्च न्यायालय को संघीय तथा राज्य सरकारों द्वारा निर्मित विधियों के पुनरावलोकन का अधिकार देता है। अतः यदि संघीय संसद या राज्य विधानमण्डल संविधान का अतिक्रमण करते हैं या मौलिक अधिकारों के विरूद्ध विधि का निर्माण करते हैं तो संघीय संसद या राज्य विधान मण्डल द्वारा निर्मित ऐसी विधि को सर्वोच्च न्यायालय अवैधानिक घोषित कर सकता है।
(6) उच्चतम न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र का प्रशासन (Judicial administration of Supreme Court) - उच्चतम न्यायालय को न्यायिक क्षेत्र के प्रशासन का अधिकार भी प्राप्त है। संविधान के अनुच्छेद 146 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारियों की नियुक्ति तथा उसकी सेवा शर्ते निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है लेकिन राष्ट्रपति आवश्यक समझे तो यह निर्देश दे सकता है।
(7) अभिलेख न्यायालय (Court of Record) :- अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। अभिलेख न्यायालय से आशय यह है कि इस न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय सब जगह साक्ष्य के रूप में स्वीकार किये जायेंगे तथा इस न्यायालय के द्वारा न्यायालय की अवमानना के लिए किसी भी प्रकार का दण्ड दिया जा सकता है।
VVvvi.***** 2)उपभोक्ता न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए (Write a short note on the Consumer.)
Ans. उपभोक्ता अदालत - उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण हेतु तथा उपभोक्ता विवादों के निपटारे हेतु 1986 ई० में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को पारित किया गया। यह अधिनियम 1 जुलाई 1987 ई० से जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर समस्त भारत में लागू किया गया। उक्त अधिनियम के अन्तर्गत उपभोक्ताओं के विवादों को हल करने के उद्देश्य से जिला स्तर पर जिला फोरम (District Forum), राज्य स्तर पर राज्य आयोग (State Commission) राष्ट्र स्तर पर राष्ट्र आयोग (National Commission) के रूप में उपभोक्ता अदालतों की स्थापना की गई।
उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 1993 के द्वारा 1986 के अधिनियम में व्याप्त कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया तथा उपभोक्ता अदालतों के कार्य क्षेत्र एवं अधिकार क्षेत्र को और अधिक विस्तृत किया गया। 2002 ई० में पारित उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम के द्वारा विगत के वर्षों में आयी विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया गया तथा प्रावधानों को और स्पष्ट करने का प्रयास किया गया। उपभोक्ता अदालत के महत्व को देखते हुए उपभोक्ताओं ने क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से विभिन्न आयोगों का आश्रय लेना शुरू किया, परिणामतः आयोगों के कार्यों में विसंगतियाँ आ गई। इसे दूर करने के लिए ही 2002 के अधिनियम के द्वारा प्रावधानों में व्यापक बदलाव किए गए।
उपभोक्ता अदालत की शक्तियाँ :-जिला फोरम, राज्य आयोग एवं राष्ट्रीय आयोग पर क्षेत्र के विस्तृति के आधार पर शक्तियाँ प्राप्त है। जिला फोरम प्रतिवादी या साक्षी को समन जारी करती है, साक्ष्यों को परीक्षा करती है तथा दस्तावेजों की जाँच करती है तथा उपभोक्ता के हितों की रक्षा करने का प्रयास करती है। जिला फोरम के समक्ष हुई कार्यवाही न्यायिक कार्यवाही मानी जाती है। यह एक दीवानी अदालत के रूप में कार्य करता है। वैसे जिला फोरम के फैसले के विरूद्ध राज्य आयोग तथा राज्य आयोग के फैसले के विरूद्ध राष्ट्रीय आयोग में अपोल की जा सकती है। यदि कोई पक्ष राष्ट्रीय आयोग के निर्णय से भी संतुष्ट न हो तो वह 30 दिन के अन्दर उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील कर सकता है।
उपभोक्ता अदालत का महत्त्व (Importance of Consumer Court) :- (i) उपभोक्ता अदालत उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करते हैं तथा उन्हें उचित न्याय प्रदान करते हैं। (ii) उपभोक्ता अदालत उपभोक्ताओं के नुकसान की भरपाई करवाते हैं तथा विक्रेताओं एवं कम्पनियों से उन्हें क्षतिपूर्ति दिलवाते हैं। (iii) जिला फोरम में 20 लाख तक के विवादों से सम्बन्धित शिकायतों का समाधान किया जाता है। (iv) राज्य आयोग में 20 लाख से लेकर 1 करोड़ तक के मूल्य के विवादों का निपटारा किया जाता है। इसके ऊपर के विवादों का शिकायत तथा समाधान राष्ट्रीय आयोग में होता है। (v) उपभोक्ता अदालत के भय से विक्रेता किसी भी रूप में क्रेताओं को धोखा नहीं देते हैं और यदि कोई ऐसा करता है तो उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ता है (vi) उपभोक्ता अदालत इस बात का भी ख्याल रखता है कि कोई क्रेता विक्रेता को भी धोखा देने की कोशिश करता है तो उसके ऊपर भी जुर्माना लगाया जाता है। (vii) उपभोक्ता अदालत क्रेता-विक्रेता के सम्बन्धों को बिगड़ने से बचाता है और बिगड़े सम्बन्ध को सुलझाता है।
Comments
Post a Comment