HS EVS notes

 HS EVS notes



















FULLNAME:-

**1. SPM - Suspended Particulate Matters.

 ***2. JFM- Joint Forest management.

 **3. GAP - Ganga Action Plan.

4. ETP - Effluent Treatment Plant.

 5. IUC - International Union for Congenation of Nature.

 6. EIA - Environment Impact Agency Assessment.

7. EIS - Environment Impact Statement. 

***8. WWF - World Wild Fund for Nature.

9. UNCED - United Nations Conference on Environment and Development. 

***10. DDT - Dichloro Diphenyl Tri-chloroethane.

**11. CPCB - Central Polllution Contral Board.

12. SPCB - State Pollution Control Board.

*13.IBWL - Indian Board for Wild Life.

**14. ZSI - Zoological Servey of India.

 15. NBA - Narmada Bachao Andolan.

16. MBP – Man and Biosphere Programme.

**17. RDB - Read Data Book.

**18. UNESCO – United Nation Educational Scientific and Cultural Organisation.

**19. CITES - Convention of International Trade in Endengoured Species. 

Note:-(3 March 1973) of Wild Floria and Pouna is known as wasington conventional.


1. जैव-विविधता [Biodiversity]


 (C) विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (Descriptive Questions) -

(8 अंक)



***1. 'वन्य-जीवन व्यवसाय' पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (Write a short note on 'Wildlife Trade'.) [H.S.2020]



Ans. वन्य-जीवन व्यवसाय (Wildlife in Trade ) - यद्यपि विगत 2000 वर्षों से भारत में वन्य जीवन संरक्षण का कार्य चल रहा है। परन्तु वास्तव में भारत वन्य पशुओं एवं पौधों के व्यापार में मुख्य भूमिका निभाता है, इसकी जानकारी पिछले कुछ समय तक नहीं थी। भारत एक आयातक, निर्यातक एवं मध्यस्थता के माध्यम से प्रति वर्ष 25 बिलियन डॉलर का वन्य जीवन के लिए वैश्विक व्यापार (Global trade) करता है। इस सन्दर्भ में भारत सरकार ने नौतियाँ निर्धारित की है एवं इससे सम्बंधित कुछ ऐसे नियम बनाए हैं जिसका अर्थ या मतलब कई तरह से निकाला जा सकता है। अर्थात् ये नियम अस्पष्ट ही हैं। अधिकतर वन्य पशुओं को भारत में सुरक्षित घोषित कर दिया गया है एवं इनका शिकार करना कानूनी जुर्म है। इसके लिए सजा का भी प्रावधान है। अपवाद के रूप में चूहे, चुहिया, कौआ, चमगादड़ जैसे जन्तुओं को इस कानून से बाहर रखा गया है। कानूनी तौर पर अनेक पेड़-पौधों को भी सुरक्षा प्रदान की गई. है। सभी वन्य जीवों का आयात-निर्यात एवं उनके विभिन्न भागों का आयात-निर्यात पूर्णतः प्रतिबन्धित है। केवल मोर के झरे हुए पंख को इस कानून से अलग रखा गया है। इसी तरह की निषेधाज्ञा चालीस से अधिक पौधों की प्रजातियों पर लागू है। भारत आरम्भ से ही वन्य पशुओं एवं वनस्पतियों की विभिन्न संकटग्रस्त प्रजातियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संविदा CITES) का प्राथमिक सदस्य रहा है। अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए एक आदर्श याचक है। घरेलु (राष्ट्रीय) एवं अन्तर्राष्ट्रीय वन्य-जीवन की नीतियों पर भारत का दृष्टिकोण मजबूत संरक्षणात्मक नैतिकता को बनाए हुए है जो इस देश का इतिहास एवं संस्कृति का एक हिस्सा है। 

संकटग्रस्त प्रजातियों से प्राप्त उत्पादों के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर लगे प्रतिबन्ध के बावजूद करोड़ों रुपये का उत्पाद अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में उपलब्ध होता रहता है। इनमें वैज्ञानिकों की खोज के लिए 'जीन (Gene)' का व्यापार, हाथी दाँत, जंगली जानवरों की खाल, चमड़ा, रेशम, ऊन आदि सम्मिलित हैं। कागज उद्योग, रेशम उद्योग, कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग आदि जंगली जीवों एवं वनस्पतियों पर ही आश्रित है। एशिया, अफ्रीका एवं मध्य तथा दक्षिण अमेरिका के क्षेत्र जैव-विविधता के प्रमुख केन्द्र हैं।

इन सभी कानूनों तथा नीतियों के लागू होने के बावजूद भी वन्य जीवों का गैर कानूनी तरीके से व्यापार फल फूल रहा है। कुछ वन्य पशुओं का शिकार भारी आर्थिक लाभों के कारण किया जाता है। बाघों की खालें एवं हड्डियाँ, हाथियों के दाँत, गैंडों की सींगे और कस्तूरी मृग की कस्तूरी का विदेशों में व्यापक उपयोग होता है। चेन्नई, कन्याकुमारी और अण्डमान-निकोबार के समुद्रतटों पर प्रवालों और सीपियों को भी निर्यात के लिए जमा किया जाता है अथवा बेचा जाता है। गैर कानूनी व्यापार के लिए बागों में जमा किए जाने वाले पौधों में ऑर्किड, फर्न और मॉस शामिल है। औषधीय पौधों में सर्पगन्धा, नक्स वोमिका, धतूरा, कालमेघ, वासक आदि शामिल हैं। हम अज्ञानतावश अल्पकालिक महत्त्व के कार्य करने लगते हैं, जिनका जैव-विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है एवं जिनसे प्राणियों के आवास नष्ट होते हैं तथा प्राणियों का विनाश होता है। मानव के कार्यकलाप से प्रजातियों का विनाश नैतिक अपराध है। केवल कानून बना देने से समाज में वन्य जीवों के प्रति बढ़ते हुए अपराध को कम नहीं किया जा सकता, बल्कि जंगली जानवरों का शिकार एवं तस्करी, बहुमूल्य वृक्षों की कटाई एवं इनके व्यापार को रोकने के लिए कठोर कदम उठाना
 होगा एवं इन कानूनों एवं नीतियों का पालन सकारात्मक तरीके से करना होगा। 


Vvi.2. जननिक अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) से आप क्या समझते हैं ? (What do you understand by genetic Engineering?)

[H.S.2018)

Ans. जननिक अभियांत्रिक (Genitic Engineering) : जननिक या अनुवांशिक शब्द अंग्रेजी के genitie engineering का हिन्दी रूप व अर्थ है किसी जीव के जीन (जीनोम) में हस्तक्षेप कर उसे परिवर्तित करने की वैज्ञानिक तकनीकी व प्रणाली को जननिक अभियांत्रिकी कहा जाता है।

मानव प्राचीनकाल से ही पौधों और जीवों की प्रजनन क्रियाओं में हस्तक्षेप करके उनमें नस्लों को नई प्रजातियों को विकसित करता आ रहा है। इस क्रिया में लम्बा समय लगता है लेकिन ठीक इसके विपरीत जननिक अभियांत्रिकी में सीधे आणविक स्तर पर रासायनिक तथा जैव तकनीकि की विधि से जीवों के जीनों को बदल दिया जाता है। जिससे एक नई किस्म या नस्ल विकसित हो जाती है।

जननिक अभियांत्रिकी द्वारा प्रकृति में नहीं पाये जाने वाले कई जीवों के नये लक्षण बनाये जा चुके हैं। जैसे जेली मछली अंधेरे में स्वयं चमकते हैं उसका जीन या DNA लेकर खरगोश शिशुओं के जीनों में बदलने से रात्रि में चकमने वाले खरगोश बनायए गये हैं। इसी तरह मूंगफली के जीन में परिवर्तित कर एक नई किस्म विकसित की गई है जिसके पत्ते में जहर बनता है और उस पत्ते को मक्खी या शाकनाशी छेदक नामक कीट खाकर मर जाते हैं और फसलों का उत्पादन अच्छा होता है।

इस प्रकार इस नई तकनीकि से कई अनुवांशिक रोगों का उपचार किया जा सकता है। विश्व के कई देश की सरकारें इस तकनीकि को विकसित करने के लिये देश में निवेश कर रही है। इससे भविष्य में एक नई जैविक क्रांति हो सकती है। इसका प्रयोग दवा अनुसंधान, जीन थेरेपी तथा औद्योगिक कृषि संरक्षण मनोरंजन के क्षेत्र में किया जा सकता है। जननिक अभियांत्रिकी पारम्परिक प्रजजन और नये प्रजनन को जोड़ने में एक पुल का काम करता है।

Most important 
Vvvi**3. पालतू जैवविविधता से आप क्या समझते हैं? यथास्थल संरक्षण और बाह्यस्थल संरक्षण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। (What do you mean by domesticated biodiversity? State the difference between In-situ and Ex-situ conservation.) [H.S.2018]

Ans. पालतू जैव विविधता मानव द्वारा विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुवांशिक जैव विविधता की प्रजातियों में परिवर्तन करके अर्थात् जोड़ तोड़ करके नए पौधे और नए जीवों को उत्पन्न करके उसका घरेलू पालन पोषण करना पालतू जैव विविधता कहलाता है।

भौगोलिक स्थिति और जलवायु में विभिन्नता के कारण पालतू पशुओं और फसलों में विभिन्नता पायी जाती। है। आर्द्र जलवायु प्रदेशों में जलीय जीव एवं वनस्पतियों की अधिकता होती है तो वही शुष्क प्रदेशों में शुष्कता सहन करने वाले ज्वार, बाजरा, मक्का फसलों की कृषि तथा ऊँट, भेड़, बकरी जैसे पालतू पशु पाले जाते हैं।

इस प्रकार मनुष्य अपने विशेष कार्य के पूर्ति के लिए अपने वातावरण के उपयोगी पशुओं तथा वनस्पतियों का चयन कर उनका पालन और उत्पादन करता है। आवश्यकता अनुसार उनकी प्रजातियों में जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से अनुवांशिक परिवर्तन कर पौधों की नई नई किस्में जैसे Bt बैगन, IR 36 धान की प्रजाति इसी तरह संकर नस्ल के जरसी गायें, पोल्ट्री की मूर्तियाँ ऐसे ही अनुवांशिक परिवर्तित पालतू पशुओं की प्रजाति इस प्रकार मनुष्य प्रजातियों में परिवर्तन कर घरेलू पालन पोषण और पादकों के उत्पादन द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहता है।





इस प्रकार स्थानिक और बाह्य संरक्षण से सम्बन्धित है। दोनों विधियों द्वारा जैव विविधता का संरक्षण किया जाता है। 


Vvvi.**4. राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य में अन्तर स्पष्ट कीजिए : (State the different between National Park and Sanctuaries.)

Ans. राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य में अन्तर राष्ट्रीय उद्यान और में निम्नलिखित अन्तर है :

Most important

Vvi.**5)जैव-विविधता के कितने प्रकार हैं? उनके नामों का उल्लेख करते हुए प्रत्येक का उदाहरण सहित संक्षेप में वर्णन कीजिए। (How many types of Biodiversity is there? Name them and discuss each of them with example.)[H.S.2017, 2019]


Ans. जैव विविधता के प्रकार :- जैव-विविधता के तीन प्रकार है-

(i) अनुवांशिक या जननिक जैव-विविधता (Genetic bio-diversity)

(ii) प्रजाति जैव-विविधता (Species ethanic bio-diversity) (iii) पारिस्थितिक जैव-विविधता (Eco system bio-diversity)


(i) अनुवांशिक जैव-विविधता :- अनुवांशिक जैव-विविधता का अर्थ एक ही प्रजाति के जीवों में पायी जाने वाली जीनों की विविधता से है। किसी एक ही जाति में पायी जाने वाली अलग-अलग किस्मों या विभिन्नताओं को अनुवांशिक या जननिक जैव-विविधता कहते हैं। यह विभिन्नता प्रत्येक जीवों में अलग-अलग होती है। जो जीवों के जीन तथा क्रोमोसोम में घट-बढ़ के कारण उत्पन्न होती है। यही कारण है कि प्रत्येक प्रजाति या एक ही प्रजाति के जीवों में रंग, रूप, गुण, स्वभाव, ऊँचाई में विविधता पायी जाती है। एक ही माँ - बाप के संतानों के रंग, रूप, गुण का अलग होना, भारत में 50,000 से भी अधिक धान की तथा 1000 से अधिक आम की किस्मों का पाया जाना अनुवांशिक विभिन्नता का सुन्दर उदाहरण है।


(ii) प्रजाति जैव-विविधता :- जाति एवं प्रजाति स्तर पर जीवित प्राणीयों में पायी जाने वाली विविधता को प्रजाति जैव-विविधता कहा जाता है। पृथ्वी तल पर प्रजाति विविधता में विभिन्नता पायी जाती है। कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं जहाँ प्रजाति विभिन्नता की बहुमत होती है। ऐसे क्षेत्र जीवों के विकास के लिए अनुकूल होते हैं। जैसे भूमध्यरेखीय एवं - ऊष्ण मानसूनी प्रदेश। कुछ ऐसे प्रदेश होते हैं जहाँ जैव-विविधता बहुत कम पायी जाती है। ऐसे कम जैव-विविधता वाले क्षेत्रों को अति निर्बल जैव विविधता का क्षेत्र कहा जाता है। यहाँ जीव के अपने पर्यावरण से अनुकूलन करने की सम्भावना सीमित होती है। उष्ण मरू प्रदेश, बर्फीले टुण्ड्रा प्रदेश ऐसे ही दुर्गम जैव विविधता वाले क्षेत्र हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रजाति जैव-विविधता द्वारा किसी क्षेत्र की जैव विविधता की सम्पन्नता और निर्धनता निश्चित होती है।


(iii) पारिस्थितिक जैव-विविधता :- पारिस्थितिक तंत्र स्तर पर पायी जाने वाली जैव-विविधता को पारिस्थितिक जैव-विविधता कहते हैं। इसका दूसरा नाम पार्थिव या आवासीय जैव-विविधता है। इसके अंतर्गत प्राकृतिक वास, पारिस्थितिक प्रणाली के प्रकार, प्रक्रियाओं के बीच अन्तर आदि को शामिल किया जाता है। प्रत्येक पारिस्थितिक प्रणाली में खाद्य-श्रृंखला, खाद्य-जाल, ऊर्जा प्रवाह, जल चक्र की अलग-अलग पद्धतियाँ होती है और उसमें रहने वाले जीवों के अनुकूलन के तौर तरीके भी अलग होते हैं। यही कारण है कि एक आवासीय क्षेत्र से दूसरे आवासीय क्षेत्र के जीवों के रूप, रंग, गुण, स्वभाव अलग-अलग होते हैं और वे एक-दूसरे के पारिस्थितिक तंत्र से अनुकूलन नहीं कर पाते। यही वजह है कि जब-जब जलवायु परिवर्तन होता है तब-तब जीवों की बहुत सी प्रजातियाँ उसके साथ अनुकूलन न कर पाने के कारण नष्ट हो जाती हैं। डाइनासोर, मैमथ हाथी, बर्फीला तेंदुआ इसके उदाहरण हैं। मरुभूमि, घास भूमि, पर्वतीय भाग, झील, नदी, समुद्र आदि क्षेत्र पारिस्थितिक जैव-विविधता के उदाहरण हैं।


Most important

Vvvi.*6. जैव-विविधता के मूल्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। (Discuss in brief the value of Bio- diversity.)

[H.S.2017)

Ans. जैव-विविधता के विभिन्न मूल्य :- जैव विविधता पर्यावरण तथा मानव दोनों के लिए मूल्यवान पर्यावरण जीव और मनुष्य दोनों के लिए मूल्यवान है। पर्यावरण के जीव और मनुष्य अपनी आवश्यकता की सभी चीजे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जैव-विविधता से ही प्राप्त करते हैं। इस तरह हम जैव-विविधता के विविध मूल्यों को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त कर सकते हैं:-

(i) पर्यावरणीय मूल्य :- - जैव-विविधता का पर्यावरणीय मूल्य अति महत्वपूर्ण है। जैव-विविधता पर्यावरण के तत्वों, जीवों और वनस्पतियों के बीच संतुलन बनाये रखते हैं। वातावरण को शुद्ध और उपयोगी बनाये रखने में अपनाविशेष योगदान देते हैं। भू-रसायन चक्र, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, मिट्टी, जल चक्र को बनाये रखने में योगदान देते हैं। उत्पादक + छोटे जीव + मध्यमाकार के जीव + बड़े आकार के जीव मिलकर परितंत्र में पोषण स्तर और खाद्य श्रृंखला का निर्माण करते हैं जिससे परितंत्र में ऊर्जा का संचार होता है। प्रकृति में पाये जाने वाले चीटी, दीमक, मक्खी, मच्छर, कीड़े-मकोड़े, केचुएँ ये सभी हमारे परितंत्र के सफाई परिजीवी है जो मृत जीवों के शरीरों को विघटित कर ऊर्जा एवं • पोषण संरचना में योगदान देते हैं। जैव विविधता का नष्ट होना परितंत्र को भारी क्षति पहुंचाती है। इस प्रकार जैव-विविधता का पर्यावरण मूल्य यही है कि यह एक तरफ खाद्य और ऊर्जा प्रवाह के बीच संतुलन बनाये रखता है तो दूसरी तरफ पर्यावरण के सौन्दर्य को भी बनाये रखने में योगदान देते हैं।

(ii) आर्थिक मूल्य :- जैव-विविधता का आर्थिक मूल्य सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसके द्वारा ही खाद्यान्नों की प्राप्ति होती है। मनुष्य का भरण-पोषण होता है। जीव-जन्तु एवं वनस्पति के जीन नई जीवों के प्रजातियों के विकास करने में, उनके उत्पादन क्षमता बढ़ाने में योगदान देते हैं। विश्व में 80,000 प्रजातियाँ हैं जो खाने योग्य है। इनमें से 8 ऐसी जातियाँ हैं जिसके द्वारा विश्व के 75% लोगों को भोजन प्राप्त होता है। इसी तरह 50% से भी अधिक ऐसी प्रजातियाँ है जिनका उपयोग औषधि बनाने में किया जाता है। तुलसी, नीम, आँवला, हर्रे-बहेरा, सर्पगंधा ऐसे ही उपयोगी वनस्पतियाँ हैं|

इस प्रकार देखा जाता है कि मनुष्य के जीवन की सभी आवश्यकता की चीजें भोजन, वस्त्र, पर्यटन, मनोरंजन, उद्योगों के कच्चे माल सभी पर्यावरण के जैविक संसाधनों से ही प्राप्त होते हैं। इसलिए जैव विविधता को राष्ट्र की जीवित सम्पत्ति माना जाता है। जैव-विविधता के समाप्त होने का अर्थ मनुष्य के आर्थिक प्रगति व उन्नति का अंत होता है|

(iii) नैतिक मूल्य :- जैव-विविधता के नैतिक मूल्य का अर्थ है कि जीवों और मनुष्य को जीवन जीने की सुविधा प्रदान करने वाले समस्त छोटे-बड़े जीवधारियों को सुरक्षित बनाये रखना । परितंत्र में किसी एक जीवित जाति के नष्ट होने का अर्थ है सम्पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र का अस्त-व्यस्त हो जाना। आज मनुष्य जिस निर्दयता के साथ जीवों और वनस्पतियों को नष्ट कर रहा है जिसके कारण 25,000 वनस्पतियों की और 45,000 जीवों का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर पहुँच गया है। ऐसी संकट की घड़ी में हमारा नैतिक कर्त्तव्य बनता है कि जैव-विविधता के महत्त्व को समझें और उसे सुरक्षित बनाये रखने का प्रयास करें।

(iv) सौन्दर्यात्मक मूल्य :- प्रकृति का बाहरी रूप अति सुन्दर और मोहक है जो सभी मनुष्यों को स्वतः अपनी और आकर्षित करता है। मनुष्य का पेड़-पौधे एवं जीव-जन्तुओं से अनन्य प्रेम होता है। अपने घर के गमलों में या सामने के भूमि की क्यारियों में तरह-तरह के फल-फूल के पौधों को लगाना, जीव-जन्तुओं का पालन करना, इसी भावना का प्रतीक है। भारतीय धर्म साहित्य पर्यावरण और जीव की प्रेम भावना से भरा पड़ा है-

"जीवों पर दया करो, जीव हत्या महा पाप है।" ये सभी उक्तियाँ जीव संरक्षण से ही जुड़ी हैं।

आज संसार के अनेक लोग वनों के प्राकृतिक सौन्दर्य, प्रकृति की सम्पन्नता एवं रहस्य से आकर्षित होकर उन्हें देखने के लिए जाते हैं जिससे प्राकृतिक और वन्य पर्यटन को बढ़ावा मिलता है। साथ ही लोगों को नजदीक से पर्यावरण के जीव-जन्तुओं को देखने और समझने का अवसर मिलता है। रोजगार के नये-नये अवसर पैदा होते हैं। इस प्रकार जैव-विविधता का रचनात्मक और सौन्दर्यात्मक मूल्य दोनों लाभदायक है।

(v) विकासात्मक मूल्य :-पर्यावरण में विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। भले ही कुछ जीव विशेष समाप्त हो जाते हैं किन्तु उन जीवों की जाति या वर्ग समाप्त नहीं होते बल्कि वे अपने पर्यावरण से संघर्ष कर अपने वंश वृद्धि की परम्परा को बनाये रखते हैं। यदि किसी कारणवश जैव-विविधता की जातियाँ नष्ट होने लगती हैं तो पर्यावरण में सतत् चलने वाली विकास की क्रिया भी बाधित होने लगती है, जिसका कुफल समस्त जीवधारियों पर पड़ता है। इसलिए 1992 ई. में पृथ्वी शिखर सम्मेलन में निर्वहनीय विकास और जैव-विविधता संरक्षण का निर्णय लिया गया ताकि विकास की क्रिया सतत् चलती रहे।

निष्कर्ष :- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जैव-विविधता हमारे पर्यावरण, बौद्धिक, धार्मिक, नैतिक,सांस्कृतिक विविधता और उसके विकास का परिचायक है। ये विविधता ही हमें आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनाती है। साथ ही हमें सहयोग, सामंजस्य, संतुलन, धैर्य, निस्वार्थ सेवा जैसे नैतिक मूल्यों का पाठ भी पढ़ाता है।

7-जैव-विविधता की आवश्यकता या महत्त्व का वर्णन कीजिए। (What is the necessity or importance of Biodiversity?)

Ans. जैव-विविधता की आवश्यकता :- जैव-विविधता मानव सभ्यता का स्तम्भ है। इनसे हमें भोजन, कपड़ा, आवास, ईंधन आदि जैसे साधनों की पूर्ति साथ-साथ होती है। ये पर्यावरण संरक्षण, परिस्थितक संतुलन, प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अत: जैव-विविधता उपयोग को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता है-

(i) पृथ्वी का संतुलन :- जैव-विविधता पारिस्थितिक तंत्र की खाद्य श्रृंखला, खाद्य जाल के माध्यम से वनस्पतियों एवं जीव - जन्तुओं के बीच संतुलन बनाये रखते हैं।

(ii) खाद्य सामग्री :- विभिन्न खाद्य सामाग्री को प्रदान करने में जैव-विविधता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। हमें पौधे से चावल, गेहूँ, दाल, फल, फूल सब्जियाँ मिलते हैं तो पशुओं से दूध, दही, घी, माँस भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जैव विविधता के कारण हमें खाद्य पदार्थ प्राप्त होते रहते हैं। जैसे-विविधता के समाप्त होने का मतलब खाद्य सामाग्री से वंचित होना है।

(iii) औषधि निर्माण :- हमें भलि-भाँति मालूम है कि औषधियों को बनाने में बहुत से पेड़-पौधे एवं जीव-जन्तुओं का उपयोग होता है। अतः इसकी प्राप्ति के लिए जैव विविधता का होना हमारे लिए अति महत्त्वपूर्ण है।

(iv) पृथ्वी की सुंदरता :- जैव-विविधता के कारण हमारी पृथ्वी की सुंदरता बढ़ती है। इतना ही नहीं हम अपने घरों के आस-पास एवं घरों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए प्रकाश प्रेमी, छाया प्रेमी पौधे को लगाते हैं। इस तरह पृथ्वी की सुंदरता को बढ़ाने एवं वन्य पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए जैव विविधता का महत्त्वपूर्ण योगदान है।


(v) जैव विविधता का धार्मिक महत्व :- धार्मिक महत्व की दृष्टि से भी जैव विविधता महत्वपूर्ण बन गई हैं। बहुत से ऐसे पेड़-पौधे है जिनकी पूजा की जाती है जैसे- तुलसी, पीपल ऐसे ही धार्मिक महत्व वाले वृक्ष हैं। दूसरी तरफ गाय, सर्प आदि की भी पूजा की जाती है। इस पूजा के पीछे और कुछ नहीं, जैव-विविधता का संरक्षण और उनका मानवीय उपयोगिता का गुण ही निहित है।

इसलिए हमें जैव-विविधता को प्रकृति की तथा अपनी स्वभाविक सम्पत्ति मानकर उसे नष्ट होने से बचाना चाहिए उसके उपयोगिता और गुणों की रक्षा करनी चाहिए। यही आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, माँग है।


8-जैव-विविधता का संरक्षण से आप क्या समझते हैं ?

Vvi. जैव-विविधता का संरक्षण या महत्त्व क्यों जरूरी है ? इसके संरक्षण के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं? (What do you mean by conservation of Bio- diversity? Why is the conservation of Bio-diversity iss important or necessary? Discuss its remedial measures.)


Ans. जैव विविधता का संरक्षण जैव विविधता संरक्षण का आशय जैविक संसाधनों को सुरक्षित ढंग से बनाये रखने की व्यवस्था से है ताकि इनकी संख्या, व्यापक उपयोग और गुणवत्ता बनी रहे ।


जैव विविधता के संरक्षण का महत्त्व :- प्रकृति को नष्ट होने से बचाने के लिए जैव-विविधता का संरक्षण अति आवश्यक है । अतः हमें निम्नलिखित कारणों से जैव-विविधता का संरक्षण करना महत्त्वपूर्ण है -


(i) प्रकृति की मौलिक नैसर्गिक गुण को बनाये रखने के लिए तथा जीवनदायी शक्तियों की क्रियाशीलता जैव विविधता का संरक्षण के लिए जरूरी है।

(ii) जलवायु के तत्त्वों में संतुलन बनाये रखने तथा जलवायु की स्थिरता के लिए जैव-विविधता का संरक्षण जरूरी है।


(iii) मिट्टी के निर्माण और संरक्षण के लिए जैव-विविधता का संरक्षण करना हमारे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। (iv) दिनो दिन बढ़ते प्रदूषण और उससे उत्पन्न समस्याओं से नियंत्रण पाने के लिए जैव-विविधता को बचाना जरूरी है।


(v) प्राकृतिक आपदाओं से राहत पाने के लिए, पारिस्थितिक तंत्र में संतुलन बनाये रखने के लिए तथा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए जैव-विविधता का संरक्षण आवश्यक ही नहीं परम आवश्यक है।


जैव विविधता के संरक्षण का उपाय :- जैव-विविधता प्रकृति की अमूल्य सम्पत्ति है। इसका क्षय एक प्रकार से प्रकृति का क्षय है। अतः इसे नष्ट होने से बचाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं:-

(i) जैव-विविधता के संरक्षण के लिए स्थानीय, प्रादेशिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थानीय संरक्षण बाह्य संरक्षण, जीन बैंक की स्थापना जैसे उपाय किये गये हैं।

 (ii) संकटापन्न और संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई योजनाएँ और कानून बनाये गये हैं।

(iii) राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जैव-विविधता के संरक्षण के लिए जैव मण्डल, जैव संरक्षण, नेशनल पार्क, पशु पक्षी बिहारी (centurian park) जैसे जीव संरक्षण क्षेत्र की स्थापना की गई है।


(iv) छोटे-छोटे बिखरे संकटग्रस्त जीवों की रक्षा के लिए उन्हें एक स्थान पर एकत्रित कर उनका संरक्षण किया जा रहा है।


(v) जीवों के आवासों को नष्ट होने से सुरक्षा प्रदान की जा रही है और वहाँ पर उनके भोजन, प्रजनन और भरण पोषण की समुचित व्यवस्था की जा रही है।


(vi) अवैध ढंग से पशुओं का शिकार कर उनका किया जाने वाला व्यापार और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नियंत्रण किया गया है।


(vii) समय-समय पर जैव विविधता के संरक्षण और उनके महत्त्व के लिए सरकार जनजागरण अभियान, संगोष्टी सभा, प्रचार-प्रसार जैसे उपाय भी करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में इको क्लब, ग्रीन बेंच की स्थापना तथा पर्यावरण मित्रवत् वस्तुओं की उपयोग के लिए स्वास्तिक चिह्न का प्रयोग किया जा रहा है| 

इन्हीं उपायों को अपनाकर बहुत हद तक जैव-विविधता को बचाया जा सकता है।


9-भारत में संकटग्रस्त या लुप्तप्राय प्रजातियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (Write short note on threatened species of India.)[H.S. 2015]


Ans. भारत की संकटग्रस्त प्रजातियाँ :- भारत अपने उत्तम स्थिति, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, भूस्वरूप की विभिन्नता के कारण विशाल जैव-विविधता वाला राष्ट्र है। यहाँ विश्व की कुल 81000 जीव और प्राणियों की, 45000 वनस्पतियों की, 20,000 से अधिक मछलियों की प्रजातियाँ पायी जाती है जो विश्व की कुल प्रजातियों का 7.5% है । किन्तु वर्तमान में तीव्र जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण और नगरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति, दिनोदिन कटता और सिमटता जा रहा जंगल, प्रतिदिन बढ़ता जा रहा प्रदूषण, प्राकृतिक आपदाएँ, जलवायु परिवर्तन की घटनाएँ आदि दशाएँ भारत में निवास करने वाली बहुत सी जीव-जन्तुओं के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया जिनके समाप्त होने का संकट उत्पन्न हो गया है। ऐसे जीवों में भारतीय बाघ, हाथी, शेर, गेंडा स्वर्ण लंगूर, जंगली गधा, जंगली गाय, कस्तुरी हिरण, काला हिरण, चीटी खोड़, गंगा डॉल्फिन तथा सैकड़ों स्तनधारी और स्तनपायी प्रजातियाँ हैं जिनके ऊपर समाप्त होने का खतरा मँडरा रहा है। ऐसी ही कुछ संकटग्रस्त जीवों की सूची निम्नवत् है -

 


2. निर्वहनीय विकास | Sustainable Development]


V.vi 1. भारत में निर्वहनीय विकास की उपलब्धि में सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका की चर्चा कीजिए। (Discuss the role of governmental and non-governmental organizations in achieving sustainable development in India.)

[H.S.2020]


Ans. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका (सरकारी और गैर सरकारी दोनों) [(Role of National and International Agencies (Both Government and Non Government) ] - जीवन के प्रत्येक पहलू में निजी क्षेत्रों (Private sectors) की भूमिका निरन्तर बढ़ती जा रही है और इसीलिए पर्यावरण एवं उसकी निर्वहनीयता के प्रति निजी क्षेत्रों का उत्तरदायित्व भी होता है। निजी उद्योग की क्षमता अधिक होती है, जिसका उपयोग निर्वहनीय विकास के लिए नियम स्थापित करने, उसका पालन करने एवं उसका सदा निर्वाह करने में अपनी क्षमता के अनुसार सहयोग करना चाहिए। पर्यावरणीय निर्वहनीयता की जरूरतों के अनुसार एक प्रारूपिक उद्योग का दृष्टिकोण उद्योगपतियों एवं अफसरशाहों को अपनाना होगा, जिससे पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ उद्योग के मालिकों को अपना लाभ मिल सके। यदि केवल सरकारी हुक्मरानों द्वारा बनाए गए नियमों तथा नीतियों से दुनियाँ चलती तो, यह अनेक मामलों में कई कारणों से काफी दुःखदायी हो जाएगा। स्वायत्त सेवी एवं वित्तीय संस्थाओं को इस काम में आगे आना चाहिए। इनके आगे आने से इस क्षेत्र में भी एक प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न होगी। प्रत्येक निजी संस्था अपना नाम कमाना चाहेगी, जो पर्यावरण सुधार की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। परितंत्रीय संसाधनों को समृद्ध करने एवं विकसित करने में जब कई औद्योगिक एवं व्यापारिक घराने अपने कार्यक्रमों को एक नया रूप देंगे, तो इससे उनके व्यापार में प्रतियोगी लाभ के सिद्धान्त का अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा और उनके व्यापारिक दक्षता के सिद्धान्त भी नहीं दबेंगे। सरकारी स्तर पर सरकार कानून बना सकती है, लेकिन उसका पालन करना समाज का कार्य होता है। ऐसी स्थिति में उद्योगपतियों तथा व्यापारिक संस्थाओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए, जिससे उनकी संस्थाओं द्वारा पर्यावरण की निर्वहनीयता पर आँच न आने पाए और आवश्यकताएँ भी पूर्ण होती रहें।

ISO 14000 कोड को स्वेच्छापूर्ण अपनाने एवं पूँजी लगाने वालों के कुछ पर्यावरणीय मानकों (Environ- mental Ratings) का उपयोग करने के कारण निजी क्षेत्रों (Private sectors) द्वारा परम्परागत व्यापारिक पद्धति के साथ परितंत्रीय सिद्धान्तों के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहन एवं लगन का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। वित्तीय संस्थाएँ इस सन्दर्भ में बहुत कुछ कर सकती हैं। वे बड़े-बड़े व्यापारिक भवनों के मालिकों से ISO 14000 का प्रमाणिकरण (Certification) प्रस्तुत करने की माँग कर सकती हैं और इसके बाद की अवस्था में वे पर्यावरणीय मानकों (Environmental Ratings) को भी दिखलाने के लिए कह सकती हैं।

सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र की परस्पर सम्पूरकता (Complementarity) एक प्रक्रिया है, जो मूल्यप्रभावी नीतियों (Cost-effective policies) और कार्यक्रमों वृहत्तम सामाजिक लाभों के लिए निर्धारित करती है। इन विशेषताओं की ओर ध्यान देने से नए बाजारों को निर्वहनीय विकास प्रक्रियाओं के लिए वांछित परिवर्तनों के लेन-देन एवं लागू करने की लागत (मूल्य) में कमी होती है। बेहतर पर्यावरण के लिए बाजार-आधारित उपकरणों की कीमत कम हो जाती है, जिससे आर्थिक कार्यक्रमों को लागू करने में सुविधा होती है। इन उदाहरणों से सरकार द्वारा सीधा दखल का पता चलता है, जो सामाजिक लाभदायक परिणामों को सरलतापूर्वक प्रभावकारी बना सकता है। निर्वहनीय विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता का दूसरा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र नई तकनीकी उन्नत्ति एवं सरकार की भूमिका है। विगत दो दशकों से भी अधिक समय से पर्यावरणीय विकास के लिए "अनुसंधान और विकास प्रयासों" (Rand D efforts) में औद्योगिक रूप से विकसित अनेक राष्ट्रों के सरकारी क्षेत्रों में पूँजी लगाने का क्रम अवनति की ओर बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति को संतोषजनक कदापि नहीं कहा जा सकता है। सरकारी क्षेत्र ऐसा समझने लगे हैं कि अनुसंधान एवं विकास का प्रयास करना कुछ निजी औद्योगिक क्षेत्रों के लिए ही है। वे जो अनुसंधान करते हैं, उसका सामाजिक लाभ अधिक होता है किन्तु उस अनुसंधान का निजी लाभ उन्हें कम मिल पाता है। यद्यपि निजी क्षेत्रों द्वारा अनुसंधान कार्यों में पूँजी लगाना कोई लुभावना विकल्प नहीं हो सकता है। 

*2)सतत् विकास के उद्देश्य का उल्लेख कीजिए। (State the objects of Sustainable development.)

[H.S.2016]

Ans. सतत् विकास के उद्देश्य :- 1987 ई० के ब्रटलैण्ड आयोग के अनुसार सतत् विकास के दूरगामी और व्यापक उद्देश्य निम्न हैं .

(1) सतत् विकास का उद्देश्य मनुष्य के शोषणकारी मानसिकता की जानकारी देकर वर्तमान समस्याओं से मुक्ति दिलाना है।


(2) सतत् विकास का उद्देश्य तेजी से नष्ट हो रहे पृथ्वी की अर्थात् विभिन्न राष्ट्र की जैविक सम्पदा को नष्ट होने से बचाना है।

(3) पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों को दुरूपयोग से बचाना तथा ऐसी नयी वैज्ञानिक तकनीकी का खोज करना है जो प्रकृति के नियमों के अनुरूप कार्य कर सके, संसाधनों का उपयोग कर सके।

(4) प्राकृतिक विविधताओं की रक्षा करना तथा विकास की नीतियों में स्थायी नीतियों का उपयोग करना । 

(5) शासन के विभिन्न शक्तियों का विकेन्द्रीकरण तथा अधिक लचीला तथा जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाना है।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों द्वारा ऐसी योजना बनाना जो गरीब देशों की आवश्यकताओं को समझकर उसके पर्यावरण को बिना क्षति पहुँचाए उसकी विकास में मदद कर सके।

(7) विश्व में अधिकांश लोगों के जीवन स्तर को समानता, स्वतंत्रता और न्याय के अनुरूप बनाया जाए।

इस प्रकार सतत् विकास एक मूल आधारित सोच है जो पर्यावरण और समस्त मानव जाति के बीच समानता, अस्तित्व, सामाजिक न्याय व सम्मान जैसी आदर्श का माँग करता है। इसी माँग को पूरा कर सतत् विकास के लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है। यही सतत विकास का परम लक्ष्य है।


21. निर्वहनीय या संपोषणीय विकास के विभिन्न सिद्धांतों का वर्णन कीजिए। (Describe the Different Principle of sustainable developemt.) 

Ans. सन् 1992 में मेनिटोबा शिखर सम्मेलन में निर्वहनीय विकास के जिन सिद्धांतों को अपनाया गया उसका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है -

 (1) पर्यावरणीय सिद्धांत -इस सिद्धांत के अंतर्गत पर्यावरण की सुरक्षा, संरक्षण, सम्बर्द्धन संबंधी निम्न सिद्धांतों को अपनाया गया-


(i) जीवन के विकास के लिये जीवन सहायक तंत्रों की रक्षा किया जाय।


(ii) जैव-विविधता के वृद्धि के साथ-साथ उनकी सुरक्षा की जाय । (iii) परितंत्र की अखण्डता तथा निरंतरता को बनाये रखने के लिये नष्ट हो गये परितंत्रों का पुनः विकास किया जाए।


(iv) विश्व पर्यावरण में हो रहे परिवर्तन और उससे उत्पन्न खतरों से बचने के लिये राजनीति एवं कार्ययोजन तैयार किया जाये और उसे तत्परता के साथ अपनाया जाये।


(2) सामाजिक तथा राजनैतिक सिद्धांत :- इस सिद्धांत के अन्तर्गत कई नियम अपनाये जाने की बात कही गई। 

(i) मानव की भौतिक क्रिया-कलापों को जैव-मण्डल की वहन क्षमता के अन्दर ही रखा जाए।

(ii) पर्यावरण मूल्यों की पहचान कर उसके आर्थिक कार्यों को बढ़ावा दिया जाए।

(iii) पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाले उत्सर्जित अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा को कम किया जाये तथा क्षतिग्रस्त पर्यावरण का पुनः निर्माण किया जाए।

 (iv) निर्वहनीय समाज के निर्माण के लिये आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विभिन्नता को कम कर उसमें क्षमता स्थापित किया जाए।

 (v) पर्यावरण से संबंधित राजनीतिक फैसलों को मजबूती के साथ लागू किया जाए।

(vi) निर्वहनीय विकास के लिये विकसित किये गये कार्य योजनाओं को लागू करने में जनता को भागीदारी बनाया जाए।


(3) सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टिकोण: निर्वहनीय विकास के लक्ष्य को पूरा करने के लिये निम्नलिखित सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोण को अपनाना होगा :- 

(i) निर्वहनीय विकास के आकलन के लिये एक विकसित खुली और प्रभावशाली संस्था की स्थापना की जाये,जो इस विषय से संबंधित हर तरह से निर्णय लेने और लागू करने के लिये सक्षम हो।


(ii) समाज में ऐसी सामाजिक और राजनीतिक सोच विकसित किया जाये तो, जो अत्यधिक सुख-सुविधा को चाह रखनेवाले और आर्थिक भय दिखाकर शोषण करनेवाले परिस्थितियों से भयभीत लोगों को मुक्त किया जा सके।

 (iii) समाज में एक ऐसा स्वस्थ राजनीतिक और आर्थिक तंत्र विकसित किया जाये जिसमें लोग स्वेच्छा से अपनी भागीदारी कर सके।

(iv) समाज में ऐसा सामाजिक न्याय और समानता के न्याय प्रणाली विकसित किये जाये जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के आर्थिक उन्नति का इच्छाशक्ति रखता हो। इन्हीं सिद्धांतों के द्वारा निर्वहनीय विकास की अवधारणा की लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है।


3. निर्वहनीय कृषि (Sustainable Agriculture)

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Vvi(1.) भारत में 'निर्वहनीय कृषि' की आवश्यकता का विवरण दीजिए । (Explain the necessity of Sustainable agriculture' in India.)

[H.S.2020]


Ans. निर्वहनीय कृषि की आवश्यकता (Need for sutainable agriculture) – निर्वहनशीलता को कृषि विकास के लिए नई दिशाओं की आवश्यकता हैं। ऐसी दिशाएँ जो सिद्धान्तों और पारिस्थितिक तंत्रों के व्यावहारिक ज्ञान के विश्लेषण पर आधारित हों। इसके अन्तर्गत समन्वित नुकसानदेह कीट (Pest) प्रबंधन एवं खेती करने की पद्धतियों के अनुसंधान को शामिल करने से इस दिशा में सहायता मिल सकती है।


“परितंत्र वैज्ञानिक जो कुछ भी अध्ययन करते हैं, जैसे :- वस्तुओं या संसाधनों का वितरण, उपलब्धता, जीव- जन्तुओं के साथ उनका परस्पर सम्बंध, भौतिक वातावरण तथा परितंत्र से होकर ऊर्जा एवं वस्तुओं का प्रवाह आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके फलस्वरूप हमें कृषि-परितंत्र (Agro-ecosystem) की एक सम्पूर्ण पद्धति के रूप में समझने तथा एक निर्वहनीय कृषि की सहायता के लिए नई तकनीकों के विकास में काफी सुविधा होती है। यही ज्ञान हमें नई तकनीक की सहायता से निर्वहनीय कृषि प्रदान कर सकता है।


आज हमें पूरे विश्व के लोगों को भोजन देना है, परन्तु हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमें पृथ्वी को भी पोषित करना है। इसकी मिट्टी, जल, पेड़-पौधे और जन्तुओं को भी भोजन देना उतना ही जरूरी है ताकि हम भविष्य में भी विश्व को भोजन उपलब्ध कराने के योग्य बने रहें।.


निर्वहनीय कृषि का निर्माण तीन विभिन्न प्रकार के, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण योगदानों से होता है, जो निम्नलिखित हैं :- (a) पर्यावरणीय स्वास्थ्य (Environmental health) (b) आर्थिक लाभकारिता (Economic profitability) और (C) सामाजिक तथा आर्थिक समता (Social and economic equity)


अति आवश्यक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें प्रकृति के संरक्षण पर अधिक ध्यान देना ही पड़ेगा। मनुष्य होने के नाते और प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने के नाते हमें प्रकृति और पर्यावरण के विनाश को रोकना ही होगा, जिससे कि हम इस पृथ्वी पर जीवित रह सकें। हमारी जननी प्रकृति का हमें अति-दोहन नहीं करना चाहिए। बल्कि हमें ऐसा रास्ता और ऐसे साधनों को अपनाना चाहिए, जिससे हम अपनी आवश्यकता की पूर्ति करते रहें। तभी इस पृथ्वी पर जीवन सम्भव रह सकेगा।


3) पर्यावरण पर 'कृषि रसायनों' की भूमिका की चर्चा कीजिए। (Explain the role of agro- chemicals' on environment.)

[H.S. 2020]


Ans. कृषि रसायनों का पर्यावरण पर प्रभाव (Impact of Agro-chemicals on Environment) - विकासशील देशों में खेती को जिस तरह संघनित कृषि के रूप में बदल दिया गया है, उसके कारण पर्यावरणीय अवनति हो रही है। दूसरे अर्थ में हम कह सकते हैं कि कृषि का सघनीकरण ही पर्यावरणीय अवनति का कारण है। रासायनिक खादों एवं नई फसल चक्र के उपयोग तथा अत्यधिक उपयोग के चलते मिट्टी की रासायनिक संरचना परिवर्तित होती जा रही है। कृषि की गलत तथा दोषपूर्ण प्रणाली मिट्टी को नष्ट कर रही है। मिट्टी के निर्माण की गतिविधियाँ काफी लम्बी होती. हैं। धरातल पर 2.5 सेन्टीमीटर मोटी मिट्टी की परत बनने में सामान्य कृषिगत परिस्थितियों के अन्तर्गत कम से कम 200 वर्ष से लेकर 1000 वर्ष तक का समय लगता है।

फसलों की सुरक्षा के लिए रसायनों के प्रयोग से निश्चित तौर पर कृषिगत उत्पादन में वृद्धि होती है तथा इससे बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय परिवर्तन होते हैं। उदाहरण के तौर पर फसलों को क्षति पहुँचाने वाले कीड़ों को नष्ट करने के लिए हम डी० डी० टी० (DDT) नामक कार्बनिक क्लोरिन का छिड़काव करते हैं, किन्तु इस रसायन के छिड़काव का वन्य जीव-जन्तुओं पर गम्भीर प्रभाव देखने को मिलता है। चौड़ी पत्ती वाली घासें जो खेतों में निरर्थक उग जाती हैं, उन्हें नष्ट करने के लिए घास नाशक दवाएँ (Herbicides) प्रयोग में लाई जाती हैं, जिससे अन्य दूसरी समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं। घास नाशक दवा एक प्रकार की अवांछित घास को नष्ट करती है, तो दूसरी नई प्रकार की घासें उत्पन्न होने लगती हैं। इस नई समस्या के समाधान के लिए नए पादप सुरक्षा रसायन (Plant protection chemical) की आवश्यकता होती है, जिससे पर्यावरण में और अधिक परिवर्तन होने लगता है। इस प्रकार यह खतरनाक चक्र चलता ही रहता है, जो किसी के लिए उपयोगी या लाभदायक नहीं माना जा सकता है।

नाइट्रोजन युक्त खादों का अत्यधिक प्रयोग ही सबसे बड़ा प्रदूषक है, जिसके कारण मिट्टी में खनिज लवणों की कमी (Leaching) हो जाती है और वह भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। शिशुओं के लिए नाइट्रोजन विषैला (toxic) होता है। नाइट्रोजन की उच्च सान्द्रता से शिशुओं में नीला-शिशु सिण्ड्रोम (Blue baby syndrome) नामक रोग हो जाता है। कुछ खाद मिट्टी को अम्लीकृत करते हैं और इस प्रकार मिट्टी के प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं, जिससे उस क्षेत्र का पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाता है।

डी०डी०टी० (DDT) जैसे कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से उसके बचे हुए अवशेषों का प्रभाव लम्बी अवधि तक पड़ता है। डी०डी०टी० (DDT) के लम्बी अवधि तक बचे हुए अवशेषों के प्रभाव के साथ-साथ जैव-आवर्धन (Bio-magnification) के द्वारा यह औषधि हमारे भोजन और पानी को प्रदूषित कर सकता है, जिसके चलते मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो जाएगा।


4)फसल चक्र से आप क्या समझते हैं? फसल चक्र के लाभ हानि तथा महत्त्व का वर्णन कीजिए। (What do you meant by crop rotation? Describe the advantages and importance of crop rotation. Ans. फसल चक्र :- किसी निश्चित भूमि वाली फसलों को लगातार अदल-बदल कर बोने की कृषि प्रक्रिया को फसल चक्र या सस्यावर्तन कहा जाता है। इसका उद्देश्य पौधों के लिए भूमि में मौजूद पोषक तत्वों के सदुपयोग से मिट्टी के जैविक एवं अजैविक तत्वों में संतुलन बनाए रखना, अधिक उत्पादन प्राप्त करना और मिट्टी को रोग कीटाणु और प्रदूषण से रक्षा करना है।


लाभ :- फसल चक्र आधुनिक कृषि तथा धारणीय कृषि का एक तरीका है जिसके अपनाने से भूमि पर्यावरण फसल के उत्पादन, रोग के रोकने में कई तरह के लाभ है जिसे संक्षेप में निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता है:


(1) फसल चक्र के अपनाने से मिट्टी की उर्वरता शक्ति में वृद्धि होती है तथा उपाजउपन लम्बे रहता है। समय तक बना 

(2) फसल चक्र के अपनाने से मिट्टी में अम्लीय एवं क्षारीय तत्व तथा पोषक एवं जैविक पदार्थों की मात्रा संतुलित बनी रहती है।

 (3) इसको अपनाने से फसलों में लगने वाले रोग और किटाणुओं से रक्षा होती है।

(4) इस कृषि विधि को अपनाने से फसलों की पैदावार अधिक मात्रा में होती है और उत्पादित फसलों की गुणवत्ता भी अच्छी होती है।

(5) इस विधि को अपनाने से मिट्टी में रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं करना पड़ता है इस कारण मिट्टी रोग ग्रस्त एवं प्रदूषित नहीं होती है। इससे किसानों को खाद पर दवाईयों पर होने वाले खर्च में बचत होती है।

 (6) फसल चक्र अपनाने से खेतों में खर पतवार नष्ट हो जाते हैं जिससे फसलों की उपज अच्छी होती है। इस प्रकार फसल चक्र के अपनाने से किसानों को मिट्टी को पर्यावरण में रहने वाले जीवों को लाभ ही लाभ है।

 हानि :- फसल चक्र के जहाँ एक तरफ लाभ ही लाभ है वहीं इसके कुछ निम्नलिखित दोष और कमियाँ है-


(1) फसल चक्र अपनाने के लिए फसलों के उत्पादन की तकनिकी का ज्ञान आवश्यक होता है।


(2) जलवायु अनुकूल न होने पर पसलों की पैदावार में कमी आती है जिससे किसानों को नुकसान होता है।


(3) फसल चक्र सके कारण व्यवसायिक कृषि फसलों का उत्पादन प्रभावित होता है। इस कारण इन फसलों पर


आधारित उद्योग के उत्पादन में गिरावट आने लगती है।

 (4) फसल चक्र में फसल सघनता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए दलहनी फसलों की कृषि आवश्यक होती है।


(5) इस प्रक्रिया को अपनाने के लिए अधिक पूंजी और कार्य कुशलता को जरूरत पड़ती है। 


* 5. फसलों के उत्पादन में मिट्टी का महत्त्व का उल्लेख कीजिए। (Mention the importance of soil

[H.S. 2016, 2017]


in production of crops.) Ans. धरातल का सबसे उपरी पतली ढ़ीली हल्की असंगठित वह परत जो पेड़ पौधे और वनस्पतियों के उत्पादन के लिए आवश्यक होती है उसे मिट्टी कहते हैं मिट्टी कृषि का आधारी तत्व है इसी से पौधे जल और पोषक तत्व प्राप्त कर अपनी वृद्धि करते हैं इसी दृष्टि से फसलों के उत्पादन में मिट्टी के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में देखा जा


सकता है :- (1) पोषक तत्व के रूप में:- पौधे मिट्टी के माध्यम से ही पोषक तत्व प्राप्त करते हैं इस प्रकार पौधों की पोषक तत्व प्राप्त कराने में मिट्टी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।.


(2) जल उपलब्ध कराने में :- किसी भी पौधे के विकास के लिए जल आवश्यक है। अतः मिट्टी द्वारा पौधों को जल प्राप्त होता है जिस मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता अधिक होती है उसमें फसल अच्छी होती है शुष्क मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता कम होने से उपज कम होती है।


(3) फसल के बोने को नियंत्रित करने में :- मिट्टी फसलों के बोने के प्रकार को नियंत्रित करता है किस मिट्टी में कौन सी फसल बोने में अच्छी होती है वह मिट्टी को उत्पादकता और प्रकार पर निर्भर करती है। जैसे चिकनी मिट्टी में धान की, काली मिट्टी में कपास की, बलुई मिट्टी में ज्वार बाजरा की खेती अच्छी होती है।


(4) जैविक तत्वों के वृद्धि में :- जिस मिट्टी में चींटी, केचुआ, दीमक जैसे सूक्ष्म जीव निवास करते हैं उस मिट्टी में जैविक तत्व अर्थात् ह्युमस की मात्रा अधिक होती है ऐसी मिट्टी में फसलों का उत्पादन अधिक होता है उनके दाने प्रौण एवं गुणवत्ता वाले होते हैं।

कृषि की कार्य योजना को लागू नहीं किया जा सकता है अतः ऐसे क्षेत्र में इसे लागू करने की जरूरत है।


Vvi6. निर्वहनीय कृषि के उद्देश्य तथा सिद्धान्त या नियमों का उल्लेख कीजिए। (State the objects, [H.S. 2019

principles and laws of sustainable agriculture.)


Ans. निर्वहनीय कृषि के उद्देश्य :- निर्वहनीय कृषि के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं- (1) निर्वहनीय कृषि का प्रथम परम उद्देश्य -फसलों की उत्पादकता को बढ़ाना और लोगों के भोजन, वस्त्र की आवश्यकता को पूरा करना है। (2) निर्वहनीय कृषि का दूसरा उद्देश्य- मिट्टी के अनुपजाऊपन, अपक्षरण, प्रदूषण, रोग आदि को नियंत्रित करना और उसकी गुणवत्ता तथा उपजाऊपन को बढ़ाना है।

(3) निर्वहनीय कृषि का तीसरा उद्देश्य- कृषि में रासायनिक खादों, कीटनाशक एवं तृणनाशक रासायनों के प्रयोग की मात्रा को नियंत्रित करना और उसकी जगह जैविक खादों तथा एकीकृत कीट प्रबन्ध व्यवस्था को अपनाना है।

(4) निर्वहनीय कृषि का चौथा उद्देश्य पर्यावरण जीव-जन्तु के साथ समन्वय स्थापित करते हुए उसका संरक्षण और विकास करना है।

(5) निर्वहनीय कृषि का पांचवा उद्देश्य कृषि फसलों के उत्पादन के साथ-साथ, कृषि वानिकी, पशु पालन, मत्स्यपालन एवं जल संरक्षण का विकास करना है। 

इस प्रकार निर्वहनीय कृषि का मुख्य लक्ष्य पर्यावरण, संरक्षण एवं संवर्द्धन के साथ कृषि उत्पादकता में वृद्धि करना तथा किसानों के जीवन-स्तर में सुधार लाना है।



Vvi7)एकीकृत कीट प्रबंधन क्या है? इसके उद्देश्य एवं प्रभाव का उल्लेख कीजिए। (What is integrated Pest Management ? Mention its objects and effects.)


Ans. एकीकृत कीट प्रबन्धन ( Integrated Pest Manangement) : एकीकृत या समन्वित कीट प्रबन्धन एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें फसलों को हानिकारक कीटों तथा रोगों से बचाने के लिए किसानों को एक से अधिक तरीकों को जैसे व्यवहारिक यांत्रिक, जैविक तथा रासायनिक नियंत्रण के प्रयोग में लाना सिखाया जाता है जिससे हानि पहुँचाने वाले कीटों की संख्या को आर्थिक हानि के स्तर से नीचे रहे। जब यह तरीका सफल न हो तब रासायनिक दवाओं का प्रयोग किया जाय।


इस प्रकार समन्वित कीट प्रबन्धन कीटनाशी जीवों के नियंत्रण की वृहद आधार वाली सस्ती विधि है। जो नाशी जीवों के नियंत्रण की समुचित तालमेल पर आधारित है। इसका लक्ष्य हानिकारक जीवों की संख्या को एक सीमा के नीचे बनाये रखना है जिसे आर्थिक क्षति सीमा (Economic injury level EIL) कहते हैं।


एकीकृत कीट प्रबन्धन के उद्देश्य (Objects of Integrated Pest Management) – इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं- (i) फसल की बुआई से लेकर कटाई तक हानिकारक कीटों, रोगों तथा उनके प्राकृतिक शत्रुओं की लगातार व्यवस्थित तरीके से निगरानी करना। (ii) कीटों एवं रोग को आर्थिक हानि स्तर से नीचे रखना तथा यथासंभव सभी कीट नियंत्रण विधियों का प्रयोग करना। (iii) कीटनाशक विधियों का सही समय पर सही मात्रा में प्रयोग करना ताकि अधिक आर्थिक क्षति न हो। (iv) कृषि उत्पादन लागत को कम कर अधिक उत्पादन व लाभ प्राप्त करना। (v) पर्यावरण में जीवों के संतुलन को बनाये रखने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण को कम करना। इस प्रकार जीव, जीवन पर्यावरण के बीच संतुलन बनाये रखना I.P.M. का उद्देश्य है।


• एकीकृत कीट प्रबन्धन का प्रभाव (Effects of IPM) : एकीकृत कीट प्रबन्धन एक ओर किसानों के लिए वरदान सिद्ध हुआ है तो दूसरी तरफ इसके कारण कई समस्याएँ व दुष्प्रभाव भी पैदा हुए हैं जो निम्नलिखित हैं-

 (i) अन्धाधुंध कीटनाशक रसायनों के प्रयोग से हमारा पर्यावरण ज्यादा प्रदूषित हो रहा है, साथ ही नई-नई बीमारियाँ पैदा हो रही है, जिनका इलाज करना भी आसान नहीं है। 

(ii) एक ही कीटनाशक के बार-बार प्रयोग करने से कीटों तथा रोगों में प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है, जिससे कीट व रोग को मारने के लिए अधिक मात्रा में तथा नये-नये रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है। जिसका दुष्प्रभाव अन्ततः जीव और पर्यावरण पर पड़ता है।

(iii) कीटनाशकों के प्रयोग से हानिकारक कीटों के साथ-साथ मित्र कीटों को भी क्षति पहुँचती है, जिसका कुप्रभाव फसल उत्पादन की कमी के रूप में पड़ता है।

 (iv) कीटनाशकों के कुछ अंश खाद्य श्रृंखला का अंग बनकर मनुष्य एवं अन्य प्राणियों में पहुँचकर उनके स्वास्थ्य जीवन को प्रभावित कर रहा है। उनकी उम्र व प्रजनन क्षमता कम होती जा रही है। 

(v) रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग से फसलों का उत्पादन खर्च बढ़ जाता है जिससे किसानों के लाभ में काफी कमी हो जाती है।

(vi) कीटनाशक रसायन एवं दवाओं के प्रयोग से बहुत सूक्ष्म जीव-जन्तु मर जाते हैं, जिससे जैव-विविधता में कमी आती है। इस प्रकार कीटनाशक रासायनों के दुष्प्रभाव को ध्यान में रखकर उसका प्रयोग करना ही उचित होगा।

Vvvi ** Q.पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 

या, भारत के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के प्रस्ताव, उद्देश्यों और मुख्य प्रावधानों पर संक्षेप में चर्चा करें।***

 Ans:-

भारत का पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986:

भारत के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की प्रस्तावना: 1984 में भोपाल गैस दुर्घटना के बाद, जो व्यापक क्षति और मृत्यु का कारण बना, भारत सरकार ने विभिन्न प्रकार के प्रदूषण को नियंत्रित करने के अलावा पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं की रक्षा के लिए और पर्यावरणीय कारणों से प्रभावित व्यक्तियों को मुआवजा प्रदान करने के लिए 1986 में एक व्यापक अधिनियम बनाया जिसका नाम पर्यावरण संरक्षण अधिनियम था|

इस अधिनियम में, पर्यावरण की रक्षा के लिए केंद्र सरकार को विभिन्न जिम्मेदारियां और शक्तियां दी गई हैं।


भारत के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के उद्देश्य: अधिनियम के मुख्य उद्देश्य हैं-

[1] पर्यावरण की रक्षा और सुधार , 

[2] पर्यावरण प्रदूषण को नियंत्रित करने या रोकने के लिए, 

[3] प्रदूषणकारी पदार्थों को हटाने और खतरनाक पदार्थों को संभालने के लिए नियमों को लागू करने के लिए, 

[4] पर्यावरण के लिए किसी भी हानिकारक दुर्घटना के मामले में त्वरित कार्रवाई करें और 

[5] पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों को दंडित करना।


 भारतीय पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के प्रमुख प्रावधान: उपरोक्त उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अधिनियम में कई प्रावधान शामिल हैं, जिनमें से प्रमुख हैं- 


[1] केंद्र सरकार को पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से सभी प्रकार के उपाय करने का अधिकार है। 

[2] पर्यावरणीय दुर्घटना से प्रभावित कोई भी नागरिक मुआवजे का दावा करते हुए अदालत में न्याय मांग सकता है। 

[3] पर्यावरण प्रदूषण का उल्लंघन करने वालों को अधिकतम पांच साल की कैद या एक लाख रुपये तक का जुर्माना दोनों समवर्ती रूप से दिया जा सकता है। दोषी पाए जाने के बाद अगर प्रदूषण सीमा का उल्लंघन एक साल से ज्यादा समय तक जारी रहता है तो सजा सात साल तक बढ़ सकती है। 

[4] सरकार किसी भी स्थान से साक्ष्य के रूप में हवा, पानी, मिट्टी आदि के नमूने एकत्र और परीक्षण कर सकती है। यदि यह सिद्ध हो जाता है कि प्रदूषण किसी सार्वजनिक एवं निजी संस्था से फैल रहा है तो प्रदूषण फैलाने वाली संस्था के विभागाध्यक्ष के लिये दण्ड का प्रावधान है। 

[5] एक्ट खतरनाक पदार्थों के उपयोग और परिवहन पर विशेष प्रतिबंध लगाता है। कोई भी व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करते हुए खतरनाक पदार्थों का प्रयोग नहीं करेगा। 

[6] केंद्र सरकार या उसकी अधिकृत एजेंसी किसी भी समय किसी स्थान या प्रतिष्ठान का निरीक्षण या तलाशी ले सकती है। 

[7] इस कानून के अनुसार सरकार प्रदूषण फैलाने वाली किसी भी कंपनी या कंपनी के उत्पादन को कभी भी बंद कर सकती है। सरकार को इसके लिए कोर्ट से इजाजत लेने की जरूरत नहीं है।

 

Most important 

Vvvi Q.बशुंधरा सम्मेलन में अपनाए गए कोई चार सिद्धांत लिखिए। अथवा बशुंधरा सम्मेलन में कोई चार नीतियाँ अथवा उठाए गए कदम लिखिए।


(1) बशुंधरा सम्मेलन 1992 में रियो डी जनेरियो, ब्राजील में आयोजित किया गया था। बशुंधरा सम्मेलन में अपनाई गई नीतियों में से एक पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण था। देश की वर्तमान और भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण किया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र चार्टर, अंतर्राष्ट्रीय कानून और देश की पर्यावरण नीति के अनुसार किसी देश के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के सभी अधिकार उस देश के पास रहेंगे। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि किसी भी देश की आंतरिक गतिविधियों को पड़ोसी देशों या देश के बाहर के क्षेत्रों को प्रभावित नहीं करना चाहिए।

(2) दुनिया के सभी देशों को सहयोग की भावना से पर्यावरण के सुधार और संरक्षण पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। विकासशील और अपेक्षाकृत कम विकसित देशों तथा ऐसे देशों के मामले में जिनका पर्यावरण संकटपूर्ण है, विशेष परिस्थितियों में उनकी समस्याओं के समाधान पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

(3) पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने के लिए दुनिया के हर देश के नागरिकों की सक्रिय भागीदारी की आवश्यकता है। राज्य को इस संबंध में पर्याप्त जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। राज्य को पर्यावरण के संरक्षण और विकास के संबंध में विभिन्न प्रबंधन के लक्ष्यों को निर्धारित करने, कानून बनाने, सीमा निर्धारित करने आदि का उत्तरदायित्व लेना पड़ता है। हालाँकि, यह नीति हर राज्य में लागू नहीं हो सकती है।

(4) देश के विकास और पर्यावरण प्रबंधन में स्वदेशी लोग और उनके समुदाय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि वे अपने विभिन्न प्राचीन रीति-रिवाजों और संस्कृतियों के माध्यम से पर्यावरण की रक्षा करते हैं, जो अधिकतर प्रभावी होते हैं। इसलिए राज्य को इन समुदायों की रक्षा करनी चाहिए और सतत विकास में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए।



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