Class-11 Geography notes

 Class-11 Geography notes

Lesson-1



















































GROUP - C


7 MARKS QUESTIONS & ANSWERS


भूगोल एक विषय के रूप में


Lesson-1


Vvi.Q.1What do you mean by Geography ? Discuss the aim of the study of Geography.(भूगोल से क्या समझते हो ?भूगोल के अध्ययन के उद्देश्य की विवेचना कीजिए।)(2+5)

Ans-'भूगोल' शब्द Geography का पर्याय है । Geography' यूनानी भाषा के दो शब्दों 'Geo' एवं 'Grapho' से मिलकर बना है । ‘Geo' शब्द का अर्थ है- पृथ्वी और 'Grapho' शब्द का अर्थ है- वर्णन करना। मानव विकास के साथ साथ भूगोल के विषय क्षेत्र का विस्तार होता गया। आज मनुष्य उन समस्त प्राकृतिक दशाओं का अध्ययन भूगोल विषय के अन्तर्गत करता है जो पृथ्वी के भूदृष्यों एवं इस पर निवास करने वाले जीव जन्तुओं को प्रभावित करते है । इस प्रकार भूगोल वह विषय है जो मानव एवं प्रकृति के सम्बन्धों का अध्ययन करता है।

भूगोल का उद्देश्य (Aim of Geography)

भूगोल का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। 
1-इसके अध्ययन से विद्यार्थियों को अपने परिवेश का ज्ञान होता है जिसके द्वारा वे अपने को परिवेश द्वारा अनुकूलित करने में सफल होते हैं।
2- मनुष्य के जीवन में निरन्तर मानव एवं पर्यावरण के बीच हो रही अन्तर्क्रिया का प्रेक्षण करने में पाठकों का सहयोग भूगोल के अध्ययन से होता है।
3- भूगोल के अध्ययन से पृथ्वी के विभिन्न भागों के प्राकृतिक संसाधनों का ज्ञान होता है। 
4-विश्व में विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के बल पर इन संसाधनों का उपयोग किस प्रकार हो रहा है और कौन-कौन से देश अपने इन संसाधनों का उपयोग किस प्रकार कर रहे हैं, इसका ज्ञान हमें भूगोल के अध्ययन से होता है ।
5- इस आधार पर हमें अपने संसाधनों का सही तरीके से उपयोग किस प्रकार कर रहे है, इसका ज्ञान हमें भूगोल के अध्ययन से होता है। इस आधार पर हमें अपने संसाधनों का सही तरीके से उपयोग कर उन्नति करने का अवसर मिलता है। विश्व के विभिन्न भागों में संसाधनों की भरमार है किन्तु उनका सही दिशा में उपयोग नहीं हो पा रहा है, अत: ऐसे भाग आर्थिक रूप में पिछड़े हैं । 6-भूगोल के अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि आज विश्व के हर देश एक दूसरे पर निर्भर है।  कोई देश ऐसा नहीं है जो पूरी तरह आत्म निर्भर है। इस प्रकार भूगोल का उद्देश्य लोगों के मन में अन्तर्राष्ट्रीयता के भाव को बढ़ाना भी है ।
7-भूगोल वह विज्ञान है जो पृथ्वी के धरातल, इसके विविध स्वरूपों, भौतिक लक्षण, राजनैतिक विभाजन, जलवायु, जनसंख्या एवं उत्पादन आदि का अध्ययन करता है । 
8- भूगोल की शाखाओं में अब दूरस्थ संवेदन (Remote Sensing), वायु फोटोग्राफी, एवं सांख्यिकी भी जुड़ गया। इस समय भू-उपग्रह के माध्यम से पृथ्वी के विभिन्न संसाधनों एवं जलवायु का अध्ययन भी किया जाने लगा। इस प्रकार भूगोल क्षेत्र निरन्तर गतिशील बना रहा और भविष्य में इसमें अनेक परिवर्तन हो सकते हैं। अतः भूगोल एक गतिशील विज्ञान है जो मानव एवं प्रकृति के सम्बन्धों का अध्ययन करता है।


Vi.Q.2.भौतिक भूगोल के दो शाखाओं का वर्णन कीजिए। (Discuss about any two branches of Physical Geography.) अथवा, भौतिक भूगोल के मुख्य शाखाओं का व्याख्या कीजिए। (Describe in the main branches of Physcial Geography.)

Ans. भौतिक भूगोल की शाखाएँ (Branches of Physical Geography): भूगोल की वह शाखा जिसमे भौतिक अथवा प्राकृतिक तत्वों का अध्ययन किया जाता है भौतिक भूगोल कहलाती है। भौतिक भूगोल का निम्नलिखित शाखाएँ हैं-

(i) भू-आकृति विज्ञान (Geomorphology) : भू-आकृति विज्ञान में केवल स्थलमण्डल से सम्बन्धित लक्षणों का अध्ययन किया जाता है इसके अन्तगर्त पृथ्वी की चट्टानों की संरचना तथा संघटन जानना आवश्यक है तथा पृथ्वी की आंतरिक प्रक्रियाओं जैसे पटल विरूपण तथा ज्वालामुखी क्रिया और वाह्य प्रक्रियाओं जैसे अपक्षय और अपरदन को भी जानना आवश्यक है।
(ii) जलवायु विज्ञान (Climatology) : जलवायु विज्ञान के अन्तर्गत पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए वायुमण्डलीय घटनाओं के बारे में अध्ययन किया जाता है जैसे- तापमान, वर्षा, वायुभार, बादल, ओस, आर्द्रता, चक्रवात आदि ।
(iii) जल विज्ञान (Hydrology) : नदियों, जलाशयों, भूमिगत जल, जल प्रवाह की गतियों का अध्ययन इस विज्ञान में आता है महासागरो, नदियों और हिमानियों के माध्यम से प्रकृति में जल की भूमिका की जानकारी मिलती है।
(iv) मृदा भूगोल (Soil Geography): इस विज्ञान में मिट्टी के गुण, प्रकार, मृदा की संरचना, उपयोग तथा प्रदेशिक वितरण का अध्ययन किया जाता है।
 (v) जैव-भूगोल (Bio-Geography) : इस विज्ञान में वनस्पति जैव के विकास, विभिनताएँ तथा उनके वितरण का अध्ययन किया जाता है।
(vi) अंतरिक्ष विज्ञान (Astronomy) : इस विज्ञान के अन्तर्गत सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि आकाशीय पिंडो का अध्ययन किया जाता है पृथ्वी की भौगोलिक घटनाओं पर सूर्य तथा चन्द्रमा की क्रियाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार अंतरिक्ष विज्ञान भी भौतिक भूगोल का एक महत्वपूर्ण शाखा है।

Vvi.Q.3-मानव भूगोल के बारे में तुम क्या जानते हो ? इसकी शाखाओं का उल्लेख करो। (What do you know about Human Geography ? Mention its branches.)(2+5)

Ans. मानव भूगोल (Human Geography) : मानव भूगोल में मनुष्य निर्मित लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। जनसंख्या के रूप में स्वयं मानव का अध्ययन भी मानव भूगोल का मुख्य अंग है इसके अतिरिक्त प्रजातियों, मनुष्य के क्रियाकलापों जैसे कृषि, उद्योग, व्यवसायों और बस्तियों, गांवों, नगरों, सड़कों, रेलमार्गों, नहरों आदि का अध्ययन भी मानव भूगोल में ही किया जाता है। पर्यावरण का मानव जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अत: पर्यावरण और मानव के पारस्परिक संबंध ही मानव भूगोल की मुख्य विषयवस्तु है। मानव भूगोल में भी बड़ी तेजी से विशिष्टीकरण हुआ है। अत: मानव भूगोल के कई उपक्षेत्र विकसित हो गए हैं।

सांस्कृतिक भूगोल (Cultural Geography): इसका संबंध मानव के सांस्कृतिक पहलुओं से है। भोजन, वस्त्र, घर, कला-कौशल, उपकरण, धर्म, भाषा, सामाजिक संस्थाएं आदि मनुष्य की संस्कृति की झलक देते हैं। विगत कुछ वर्षों में मनुष्य के सांस्कृतिक अंगों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। सांस्कृतिक भूगोल इन्हीं सबका अध्ययन करता है।
आर्थिक भूगोल (Economic Geography): इसमें मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों का अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, वस्तुओं का उत्पादन, विनिर्माण उद्योगों की स्थिति तथा वितरण, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, संचार और परिवहन आदि आर्थिक भूगोल के अध्ययन के प्रमुख अंग हैं।
जनसंख्या भूगोल (Population Geography): इसमें किसी क्षेत्र, देश या पूरे संसार की कुल जनसंख्या, उसकी विशेषताओं, जन्म-दर, मृत्यु दर, वृद्धि दर, वितरण, जनघनत्व, स्त्री-पुरुष अनुपात, साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नीति आदि का अध्ययन किया जाता है। मकानों के प्रमुख प्रकार, ग्रामीण और शहरी बस्तियां, छोटे से गांव से लेकर आधुनिक महानगरों तक का अध्ययन भी जनसंख्या भूगोल का विषय है।

नगर भूगोल (Urban Geography): नगर भूगोल में नगरीकरण और नगरीय क्षेत्रों का भौगोलिक अध्ययन किया जाता है। नगरीय क्षेत्रों का वितरण, उनके आकार, कार्य और वृद्धि भी नगर भूगोल के विषय हैं।

राजनीतिक भूगोल (Political Geography): इसमें किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के राजनीतिक और प्रशासनिक ख निर्णयों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। राज्य, उनकी सीमाएं और अंतर्राष्ट्रीय संबंध राजनीतिक भूगोल के को अध्ययन के अंग हैं। देश की आंतरिक समस्याओं, संसाधनों के समुचित उपयोग से क्षेत्रीय विकास और प्रादेशिक नियोजन आदि का भी इसमें अध्ययन होने लगा है।

 ऐतिहासिक भूगोल (Historical Geography): इसमें भौगोलिक ज्ञान और विचारों, भौगोलिक शोध की प्रगति = तथा सभी काल के भूगोलवेत्ताओं के साहित्य के इतिहास का अध्ययन किया जाता है। देशों की बदलती सीमाओं और ऐतिहासिक घटनाओं पर भूगोल के प्रभाव का अध्ययन भी इसी का विषय है। इसके अतिरिक्त किसी कालखंड विशेष में किसी क्षेत्र के प्रादेशिक भूगोल का अध्ययन भी इसमें सम्मिलित है।

कृषि भूगोल (Agricultural Geography): यह आर्थिक भूगोल की महत्त्वपूर्ण शाखा है। इसमें एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में कृषि की विभिन्नताओं, फसलों के उत्पादन और वितरण, कृषि प्रणालियों और संगठन आदि का अध्ययन किया जाता है। भूमि उपयोग, बाजार की सुविधाएँ और श्रम की आपूर्ति आदि भी कृषि भूगोल के अध्ययन की विषय वस्तु है।

Lesson-2


भौतिक भूगोल के सिद्धान्त


Vvi.Q.1.पथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित लाप्लास की निहारिका परिकल्पना को संक्षिप्त में लिखें। (Write in brief the Nebular Hypothesis of Laplace regarding the origin of the Earth.

Ans. लाप्लास की निहारिका परकिल्पना (Nebular Hypothesis of Laplace) : फ्रांसीसी गणितज्ञ लाप्लास ने 1796 ई० में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Explosion of the World System में पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित परिकल्पना का वर्णन किया है। लाप्लास महोदय ने काण्ट की परिकल्पना के मुख्य दोष में संशोधन किया तथा सौरपरिवार की उत्पत्ति एक विशाल उष्ण तथा गैसीय निहारिका से मानी। इस निहारिका का व्यास और सौर परिवार के कुल विस्तार जितना था। यह निहारिका तेजी से अपनी धुरी पर घुम रही थी। तीव्र गति के घुन के कारण विकिरण द्वारा उसके ताप का ह्रास होने लगा जिससे निहारिका का बाहरी भाग शीतल होने लगा। शीतल होने के साथ ही उसमे सकुंचन होने लगा। सकुंचन के कारण निहारिका के आयतन एवं आकार में कमी होने लगी, आकार घटने से गति में लगातार वृद्धि होने लगी। तीव्र गति के कारण अपकेन्द्री बल में भी वृद्धि होने लगी गुरूत्वाकर्षण तथा अपकेन्द्री बल के सतुलन हो जाने के कारण निहारिका के विषुवतरेखीय भाग में पदार्थ भारहीन हो गया तथा शनि के वलय की भाँति यह भारहीन पदार्थ निहारिका से अलग होकर उसकी परिक्रमा करने लगा। शेष निहारिका क्रमशः सिकुड़ती गयी तथा चपटे विम्ब (Flat disc) रूपी वलयो का निर्माण होता गया। विभिन्न वलय बाद में घनीभूत होकर ग्रह बने। निहारिका के शेषभाग सूर्य है। निहारिका से ग्रहों का निर्माण हुआ और ग्रहों से उपग्रहों की उत्पत्ति हुई।

VVI.Q.2.
पृथ्वी की उत्पत्ति संबंधी जीन्स एवं जेफ्रेय के परिकल्पनाओं का संक्षेप में चर्चा करो। (Discuss in brief about Jeans and Jeffreys hypothesis of origin of the earth.)

Ans. जीन्स तथा जैफ्रे की ज्वारीय परिकल्पना (Tidal Hypothesis of Jeans and Jeffreys) :
ब्रिटिश विद्वान जीन्स ने 1919 ई० में पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ज्वारीय परिकल्पना प्रस्तुत की। आगे चलकर 1928 में जैफ्रे नामक विद्वान ने इसमें कुछ संशोधन किया। इस सिद्धान्त के अनुसार एक बहुत बड़ा तारा (सूर्य से बड़ा) सूर्य के समीप से गुजरा। सूर्य उस समय गैस का एक विशाल तप्त पिण्ड था। इस तारे की आकर्षण शक्ति के कारण सूर्य में ज्वार उठा। तारा जैसे-जैसे अपनी गति तथा चाल के अनुसार सूर्य के पास आता गया तो सूर्य से वैसे-वैसे ज्वार भी अधिक ऊपर उठने लगा। तारे के बहुत निकट आने पर सूर्य से उभरा हुआ ज्वारीय भाग उससे पृथक हो गया। साथ ही जिस दिशा की ओर तारा बढ़ता गया वैसे ही ज्वारीय पदार्थ भी उस ओर अग्रसित होता गया। तारे के सूर्य से अधिक दूर जाने पर उसकी आकर्षण शक्ति कम होती गयी जिससे सूर्य से निकला हुआ पदार्थ न तो तारे के पीछे जा सका और न आकर्षण शक्ति के अनुसार सूर्य में ही वापस आकर मिल सका, बल्कि वह सूर्य के चारों ओर चक्कर काटने लगा। एक तरफ सूर्य तथा दूसरी तरफ तारे के आकर्षण के कारण पदार्थ की आकृति सिरों पर पतली तथा बीच में मोटी सिगार के रूप में हो गयी। धीरे धीरे ठण्डी होकर यह आकृति गोलाकार रूप में परिवर्तित हो गयी। इस गोल आकृति ने विभिन्न खण्डों में अपना रूप धारण कर लिया तथा बाद में यह खण्ड घनीभूत होकर ग्रह बन गया। ठीक उसी प्रकार सूर्य की आकर्षण शक्ति से उपग्रहों की उत्पत्ति हुई। ग्रहों के ज्वारीय पदार्थ से बनने वाले घनीभूत आंशिक भाग इतने छोटे हो गये कि केन्द्रीय आकर्षण शक्ति के कारण अपने को एकरूप न कर सके। ऐसी स्थिति में ग्रहों से उपग्रह बनना बन्द हो गया।

आलोचना : (1) कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य से अलग हुए उष्ण गैसीय भाग का शीतल होकर ग्रह बनना सम्भव नहीं है, बल्कि इतना गर्म पदार्थ तो अंतरिक्ष में मिल जाना चाहिए था।

(2) प्रसिद्ध विद्वान रसल का कहना है कि यदि इस परिकल्पना से सौर मण्डल की उत्पत्ति हुई है तो इसका आकाश में फैलाव इतना नहीं हो सकता।

(3) पारिस्की ने गणितीय आकलन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि सूर्य एवं ग्रहों के मध्य की इतनी अधिक दूरियों का औचित्य नहीं है।

(4) सूर्य में ज्वार उत्पन्न करने वाला तारा कहाँ चला गया? परिभ्रमण करते हुए पुनः सूर्य के पास क्यों नहीं आया?

Vvi.Q.3. काण्ट की वायव्य राशि परिकल्पना का वर्णन करो।
(Explain Gaseous Hypothesis of Kant)
Or,
इमानुएल कांट द्वारा पृथ्वी की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत का वर्णन करो। (Explain the theory of the origin of the earth as proposed by Immanual Kant. 

Ans. काण्ट का पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पना : जर्मनी के दार्शनिक एवं भूगोलवेत्ता इमैनुअल काण्ट (Kant) ने 1755 ई० में पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पना का प्रतिपादन किया। काण्ट का कथन था, "मुझे पदार्थ दो, मैं पृथ्वी की उत्पत्ति कर दिखलाऊंगा।" Give me matter, I will show you how to make the world it.) काण्ट ने अपनी वायव्य राशि परिकल्पना को न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम पर प्रस्तुत किया। उसने बताया कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम में प्रत्येक वस्तु पृथ्वी की ओर आकर्षित होती है तथा केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) में प्रत्येक वस्तु पृथ्वी से दूर रहने की कोशिश करती है। काण्ट के अनुसार -
 (i) प्रारम्भ में बहुत से आद्य या आदिकालीन पदार्थ या पौराणिक - पदार्थ (Permordial matter) से बने कठोर कण समस्त विश्व तथा आकाश में फैले हुए थे।
(ii) ये सभी पौराणिक कठोर आद्य कण गुरुत्वाकर्षण के कारण एकत्र होकर आपस में टकराने लगे।
 (iii) इन कणों के टकराने से ताप की उत्पत्ति हुई। आद्य पदार्थ ताप से द्रव (fluid) तथा द्रव से गैसीय अवस्था में परिवर्तित हुए। वह गैसीय पुंज केन्द्रित हो जाने पर परिभ्रमण करने लगा। 
(iv) लगातार परिभ्रणशील गति से गुरुत्वाकर्षण बल की अपेक्षा केन्द्रापसारी बल के अधिक बढ़ जाने से गैसीय पुंज के मध्यवर्ती भाग में उभार पैदा हो गया। इससे नौ गोलाकार छल्ले बने जो निहारिका (Nebule) के रूप में अलग हो गये।
 (v) इस प्रकार ग्रह तथा इनके उपग्रह बने और जो बाकी भाग बचा वह सूर्य बना। इस प्रकार सौर परिवार की रचना हुई। बाद में चलकर यह परिकल्पना तर्कहीन प्रमाणित कर दी गयी क्योंकि यह नियम गणित के गलत नियमों पर कल्पित किया गया था।

आलोचना : (i) आद्यकण (Permordial matter) गुरुत्वाकर्षण के कारण आपस में टकराने लगे। यह शक्ति पहले कहाँ थी और बाद में कैसे प्रकट हुई।

(ii) गति विज्ञान (Dynamics) के कोणीय संवेग की सुरक्षा के सिद्धान्त (Principle of conservation of angular momentum) के अनुसार वायुमंडलीय आद्य कणों के आपस में टकराने से कणों में परिभ्रमणशील गति पैदा नहीं हो सकती है।
 (iii) काण्ट ने बतलाया कि निहारिका के आकार में वृद्धि होने के साथ-साथ गति में भी वृद्धि हुई, जबकि कोणीय संवेग की स्थिरता सिद्धान्त में बतलाया गया है कि जब वस्तु का आकार बढ़ता है तो उसकी गति में कमी आती है, साथ ही गति में वृद्धि आती है तो आकार घटता है।
(iv) काण्ट की परिकल्पना को इतना श्रेय अवश्य दिया जाता है कि लाप्लास ने इसके आधार पर निहारिका परिकल्पना प्रस्तुत की।


Vvi Q.4.क्रस्ट, मेंटल और कोर की विशेषताएं लिखो |
(सभी असंततता /वियुक्ति रेखाओं का उल्लेख करें।) (Describe characteristics of crust,mantle,and core.Mention all the discontinuity lines.)
Ans-
भू पर्पटी -Earth crust की प्रमुख विशेषताएँ -पृथ्वी की आंतरिक संरचना में भूपर्पटी पृथ्वी के ऊपरी भाग वाली परत को कहते है।
भूपर्पटी की मोटाई लगभग 34 किलोमीटर है।

भूपर्पटी में सिलिका और एल्युमीना तत्व की प्रधानता है।

सिलिका और एलुमिना तत्वों को Sial (सियाल )के नाम से जाना जाता है।
 
अर्थ क्रस्ट का औसत घनत्व 2.7 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है|
 
भूपर्पटी का आयतन पृथ्वी के कुल आयतन का 0.5 प्रतिशत है।

भूपर्पटी की रचना में निम्नलिखित तत्व की प्रधानता होती है-

ऑक्सीजन 46.60%  

सिलिकॉन 27.72%

एल्युमीनियम 8.13%

लोहा 5% 

कैल्शियम 3.6%

इन तत्वों के अलावा कार्बन, हाइड्रोजन ,फास्फोरस ,मैगनीज, मैग्नीशियम पोटेशियम, टाइटेनियम, आदि तत्व भी सूक्ष्म मात्रा में पाए जाते है।

Mantle की प्रमुख विशेषताएँ -

यह पृथ्वी की आंतरिक संरचना का मध्य भाग है ,जो की भूपर्पटी एवं केंद्रीय भाग के बीच स्थित है |

मेंटल की मोटाई 2900km है ।

यह मुख्य रूप से बेसाल्ट पत्थरों से बना हुआ है।

 मैग्मा चेंबर इसी भाग में पाए जाते हैं ,इस भाग का आयतन पृथ्वी के संपूर्ण आयतन का 83% है।

मेंटल का घनत्व 3.5 से 5.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर होता है।

इस भाग में सीमा/Sima (सिलिकॉन + मैग्निशियम)तत्व की प्रधानता होती है|

केंद्रीय भाग -Core की प्रमुख विशेषताएँ -
पृथ्वी के केंद्रीय भाग कोर कहलाता है यह द्रव अथवा प्लास्टिक अवस्था में मौजूद है ।

पृथ्वी के केंद्रीय भाग (कोर )का घनत्व 13 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है।

इस भाग का आयतन संपूर्ण पृथ्वी के आयतन का 16% है।

Core (केंद्रीय भाग) Nife अर्थात निकल एवं फेरस (आयरन )से मिलकर बना है।

पृथ्वी का केंद्रीय भाग पृथ्वी के अंदर 2900 किलोमीटर से लेकर पृथ्वी के केंद्र अर्थात 6370 किलोमीटर तक विस्तृत है।

पृथ्वी के केंद्रीय भाग में उच्च तापमान पाया जाता है।

पृथ्वी के Core को दो भागों में आंतरिक क्रोड एवं बाहरी कोर (inner core and outer core )में विभाजित किया जाता है ।

बाहरी कोर आंशिक तरल अवस्था में हैं जबकि आंतरिक कोर ठोस अवस्था में मौजूद है।।

पृथ्वी के अंदर पाँच वियुक्ति रेखा /संक्रमण क्षेत्र हैं:

1-Conrad Discontinuity:ऊपरी और निचले क्रस्ट के बीच संक्रमण क्षेत्र।
Conrad Discontinuity (भूकंपविज्ञानी विक्टर कॉनराड के नाम पर) को ऊपरी महाद्वीपीय क्रस्ट और निचले एक के बीच की सीमा माना जाता है। यह सीमा विभिन्न महाद्वीपीय क्षेत्रों में 15 से 20 किमी की गहराई पर देखी जाती है, हालांकि यह समुद्री क्षेत्रों में नहीं पाई जाती है। 

2- Mohorovicic Discontinuity:
क्रस्ट और मेंटल के बीच के संक्रमण क्षेत्र को मोहरोविकिक डिसकंटीनिटी कहा जाता है। 1909 के वर्ष में एंड्रीजा मोहरोविक द्वारा मोहरोविकिक असंततता की खोज की गई थी। मोहो महाद्वीपों के नीचे 35 किमी की गहराई और समुद्री क्रस्ट के नीचे 8 किमी की गहराई पर स्थित है। 

3-Gutenberg Discontinuity:
मेंटल-कोर ट्रांज़िशन ज़ोन को गुटेनबर्ग डिसकंटीनिटी कहा जाता है। 1912 के वर्ष में वीचर्ट गुटेनबर्ग ने पृथ्वी की सतह के नीचे 2900 किमी की गहराई पर इस असंतुलन की खोज की। 

4-Repiti Discontinuity:
यह बाहरी मेंटल और इनर मेंटल के बीच का संक्रमण क्षेत्र है।

5-Lehman Discontinuity:
यह बाहरी और भीतरी कोर के बीच संक्रमण क्षेत्र है। लेहमैन असंततता 220 किमी की गहराई पर पी-वेव और एस-वेव वेगों की अचानक वृद्धि है। 

Vvi.Q.5.- महाद्वीपीय और महासागरीय क्रस्ट के बीच अंतर लिखो|
Ans.
1. महासागरीय क्रस्ट बेसाल्ट से बना है जबकि महाद्वीपीय क्रस्ट ग्रेनाइट से बना है।
2. महासागरीय क्रस्ट पतला है जबकि महाद्वीपीय क्रस्ट अधिक मोटा है।
3. महासागरीय क्रस्ट महाद्वीपीय क्रस्ट की तुलना में सघन है।
4. महाद्वीपीय क्रस्ट में महासागरीय क्रस्ट की तुलना में अधिक उछाल है।
5. पुनर्चक्रण महासागरीय क्रस्ट में मौजूद होता है जबकि महाद्वीपीय क्रस्ट में यह प्रक्रिया अनुपस्थित होती है।
6. महासागरीय क्रस्ट, महाद्वीपीय क्रस्ट की तुलना में भूगर्भीय रूप से बहुत छोटा है।

जैव मण्डल

Lesson-5


Vvvi.Q.1 उत्पादक एवं उपभोक्ता की परिभाषा लिखो पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह के विभिन्न स्तरों का वर्णन करो। (Define producer and consumer. Discuss the different phases of energy flow in ecosystem.)(3+4)[H.S.2007]

Ans. उत्पादक (Producers) : ये मुख्य रूप से हरी पत्ती वाले स्वपोषी पौधे होते हैं। ये जैविक एवं अजैविक (भौतिक) संघटकों के मध्य बिचौलिया (Mediater) होते हैं क्योंकि ये सौर विकिरण से ऊर्जा प्राप्त करके प्रकाश संश्लेषण विधि द्वारा आहार निर्मित करते हैं। ये अपनी जड़ों द्वारा मिट्टियों से अजैविक पदार्थों को ग्रहण करते हैं तथा जन्तुओं के लिए आहार एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं

उपभोक्ता (Consumers) : ये मानव सहित परपोषित जन्तु होते हैं जो स्वपोषित प्राथमिक उत्पादक पौधे द्वारा उत्पन्न जैविक तत्वों से अपना आहार ग्रहण करते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा प्रवाह (Energy flow in ecosystem) : एक सुनिश्चित अनुपात में ऊर्जा का प्रवाह पारिस्थितिक तंत्र में निरन्तर होता रहता है। इससे पारिस्थितिक तंत्र का सन्तुलन बना रहता है। ऊर्जा के अभाव में जीव मण्डल के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि पोषक तत्वों की चक्रीय व्यवस्था सन्तुलित दशा में बनी रहे और निरन्तर ऊर्जा का प्रवाह होता रहे। सौर विकिरण ही भूतल के समस्त ऊर्जा का स्रोत है। यह ऊर्जा प्रवाह एक नियमित अवस्था में होता है। यह समस्त किया विधि यंत्रवत चलती रहती है। इसमें ऊर्जा का स्थानान्तरण एवं रूपान्तरण होता रहता है। यह ऊर्जा विभिन्न पोषण स्तरों के माध्यम से होती है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती है जिसमें पेड़-पौधे हरी पत्तियों के माध्यम से सौर ऊर्जा को ग्रहण करते हैं और इसे रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं। इससे इनके विभिन्न अंगों का निर्माण होता है। इन पौधों को शाकाहारी जीव खाते हैं जिससे कुछ ऊर्जा का ह्रास होता है। मांसाहारी जीव इन शाकहारी जीवों का आहार करते हैं तो यह ऊर्जा मांसाहारी जीवों में स्थानान्तरित हो जाती है। यहाँ भी कुछ ऊर्जा का ह्रास होता है। सर्वहारी जीव इन समस्त जैविक अपघटकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में ऊर्जा ग्रहण करते हैं। इस प्रकार ऊर्जा का प्रवाह विभिन्न पोषण स्तरों में होता रहता है। समस्त पारिस्थितिक तंत्र में पोषण स्तर एवं उनमें ऊर्जा प्रवाह की व्यवस्था एक समान नहीं होती है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर पर्यावरणीय दशाएं समान नहीं है। यही कारण है कि विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में ऊर्जा का उत्पादन भी समान नहीं होता है। ऊर्जा का प्रवाह पोषण के स्तर के विस्तार पर निर्भर करता है। पोषण स्तर छोटा होने पर ऊर्जा का प्रवाह छोटा होता है और पोषण स्तर लम्बा होने पर ऊर्जा का प्रवाह लम्बा होता है। पर्यावरण सम्बन्धी व्यवस्था में यदि किसी प्रकार की गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय तो पारिस्थितिक तंत्र का सन्तुलन बिगड़ जाता है और ऊर्जा प्रवाह में कमी आ जाती है। जैसे जनसंख्या वृद्धि के कारण वन भूमि में कमी आती गयी। इसका सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव शाकाहरी और मांसाहारी जीवों पर पड़ता है। इससे पोषण स्तरों के विभिन्न जीवों की संख्या में कमी होने लगती है।

Vvvi.Q.2.पारिस्थितिक तन्त्र में उर्जा प्रवाह के स्तरों का वर्णन करें|
 (Describe steps of flow of energy in ecosystem)[H.S.2009]
Ans.
पारिस्थितिक तन्त्र में उर्जा प्रवाह के नियम (Law of flow of energy in ecosystem) : पारिस्थितिक तन्त्र में उर्जा प्रवाह की नियमित यन्त्रवत व्यवस्था होती है, जिसका विवरण निम्नांकित है:-
1. सामान्यतया उर्जा का प्रवाह चार पोषण स्तरों पर होता है। जैसे-जैसे पोषण स्तर का क्रम बढ़ता जायगा उर्जा की मात्रा में क्रमशः कमी होती जायगी। इस कमी को पूरा करने के लिए अन्य पोषण स्तर के जीवों का सहारा लेते हैं ।
 2. एक स्तर के जीव अपने पूर्व के स्तर के जीव से जितनी मात्रा में उर्जा ग्रहण करते है उसकी अधिक मात्रा में और दूसरे रूप में उर्जा का निर्गमन करते है ।
3. पोषण स्तर जैसे-जैसे बढ़ता जायगा अर्थात् प्रथम स्तर से द्वितीय स्तर, द्वितीय स्तर से तृतीय स्तर, तृतीय स्तर से चतुर्थ स्तर पर प्राप्त उर्जा के उपयोग की क्षमता में वृद्धि होती है ।
4. सर्वाहारी जीव एवं मांसाहारी जीव (उच्च पोषण स्तर) पेड़ पौधों एवं शाकाहारी जीवों (निम्न पोषण स्तर) की अपेक्षा प्राप्त उर्जा का उपयोग बड़ी सरलतापूर्वक करते हैं । 
5. पारिस्थितिक तन्त्र में सामान्यतया पोषण स्तरों की संख्या कम होती है। पोषण स्तर कम होने से क्षय होने वाली उर्जा की मात्रा में कमी आ जाती है।

Vvvi.Q.3.खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल की परिभाषा लिखें । खाद्य श्रृंखला एवं खाद्य जाल में क्या अंतर है ? पोषण स्तर की परिभाषा दो (Define Food web and Food chain. What are the differences between food chain and food web? Define trophic level) 2+2+3

Ans. Food web (खाद्य जाल): जब एक पोषी स्तर का एक जीव दसरे पोषी स्तर के अनेक जीवों से अपना आहार प्राप्त करता है अथवा एकपोषी स्तर के एक जीव से दूसरे पोषी स्तर के अनेक जीव अपना आहार प्राप्त करते हैं तो यह -जटिल खाद्य श्रृंखला (Complex food chain) बन जाती है जटिल खाद्य श्रृंखला को खाद्य जाल कहा जाता है। आFood Chain (खाद्य श्रृंखला) : जब एक पोषी स्तर के एक जीव से दूसरे पोषी स्तर का एक जीव, दूसरे से तीसरा तथा तीसरे से चौथा आहार प्राप्त करते हैं तो यह आहार की सरल शृंखला (Simple chain) है। आहार की सरल श्रृंखला को खाद्य श्रृंखला कहा जाता है। जैसे घास, कीट, मेढ़क, साँप|

"खाद्य शृंखला (Food chain) एवं खाद्य जाल (Food web) में अंतर





पोषण स्तर (Trophic Levels) : जीवमण्डल में एक जीव द्वारा दूसरे जीव में ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है। यह प्रक्रिया निम्न बिन्दु से उच्च बिन्दु तथा उच्च बिन्दु से निम्न बिन्दु की ओर होती रहती है जिससे अनेक स्तरों का सृजन होता है जिसे | पोषण-स्तर (Trophic level) कहा जा सकता है। इन स्तरों का क्रम होता है। उच्च स्तर अपने निम्न स्तर पर भोज्य के लिए निर्भर रहता है। प्रत्येक स्तर की संख्या एवं प्रजातियाँ असंख्य होती हैं। इन स्तरों को निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है - 
1. प्रथम पोषण स्तर यह आधार स्तर होता है जिसमें पोषित (प्राथमिक उत्पादक) जीवों को सम्मिलित किया जाता है। ये प्रकाश सश्लेषण विधि द्वारा अपना भोजन स्वयं तैयार करते हैं। दृष्टान्त रूप में हरे पौधों को इसके अन्तर्गत स्वीकार किया जाता है।

2. द्वितीय पोषण स्तर : इस पोषण स्तर के प्राणी स्वपोषित होते हैं अर्थात् पौधों एवं अन्य प्राणियों पर निर्भर रहते हैं।ये अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते हैं बल्कि प्रथम पोषण स्तर के जीव पर अपने भोजन के लिए निर्भर रहते हैं। 
3. तृतीय पोषाण स्तर : इस स्तर के प्राणी द्वितीयक उपभोक्ता कहलाते हैं जिसमें मांसाहारी (Carnivores) आते हैं। बास्तव में इस स्तर के मांसाहारी जन्तु द्वितीय पोषण स्तर के प्राणियों को अपने भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।
4. चतुर्थ पोषण स्तर : यह सबसे उच्च स्तर है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय पोषण स्तरों से भाजन तथा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इसके अन्तर्गत मानव आता है जो अपने बुद्धिचातुर्य, क्रियाशीलता तथा चिन्तनशीलता से अन्य स्तरों से अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है।

Vi.Q.4..उत्पादक एवं वियोजक/अपघटक में अन्तर बताओ। खाधश्रृंखला की विशेषताओं का उल्लेख करो। (Distinguish between producer and decomposer. Write the charateristics of food chain.)
4+3
 Ans, उत्पादक (Producer): उत्पादक मुख्य रूप से हरी पत्ती वाले स्वपोषी पौघे होते हैं। ये जैविक तथा अजैविक सघटकों के बीच अदान-प्रदान का काम करते हैं। ये सौर विकिरण से ऊर्जा प्राप्त करके प्रकाश संश्लेषण विधि द्वारा आहार निर्मित करते हैं। ये अपनी जड़ों द्वारा मिट्टियों से अजैविक पदार्थों को ग्रहण करते हैं तथा जन्तुओं के लिए आहार एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं। पेड़-पौधे, घास आदि उत्पादक के संघटक हैं।

वियोजक / अपघटक (Decomposer): वियोजक सूक्ष्म जीव (Mirco-Organisms) होते हैं जो मृत पौधों तथा वियोजक जीव जैसे- बैक्टीरिया कवक आदि जटिल पदार्थों को एक दूसरे से अलग करके उन्हें सामान्य बनाते हैं जिस जन्तुओं को सड़ा-गला कर वियोजित करते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान वियोजक अपना आहार ग्रहण करते है अर्थात कारण ये तत्व स्वपोषित प्राथमिक पौधों के प्रयोग के लिए पुनः सुलभ हो जाते हैं।

 खाद्य स्तरों की श्रृंखला की विशेषताएँ (Characteristics of Food Chain): पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा का अंतरण क्रमवद्ध श्रृंखला में होता है जिसे खाद्य शृंखला (Food chain) कहते हैं।
खाद्य श्रृंखला में पहले स्तर पर पौधे आते हैं जिन्हें उत्पादक कहा जाता है। पौधे प्रकाश ऊर्जा का प्रयोग करके कार्बन डाई आक्साइड तथा जल को कार्बोहाइड्रेट में बदल देते हैं। खाद्य शृंखला के अगले स्तर पर प्राथमिक उपभोक्ता आते हैं। इनमें पौधों का आहार करने वाले शाकाहारी प्राणी सम्मिलित होते हैं। खाद्य शृंखला के तीसरे स्तर पर द्वितीय उपभोक्ता आते हैं। ये प्राथमिक उपभोक्ताओं से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, इन्हें मांसाहारी कहा जाता है। कुछ जातियों को सर्वाहारी कहते हैं क्योंकि वे मांसाहारी और शाकाहारी दोनो होते हैं।
खाद्य शृंखला: पेड़ पौधे-> शाकाहारी( जैसे हरिण, खरगोश)-> मांसाहारी( जैसे- शेर, बाघ)

Short Question


Vi Q.What is an ecotone?
Ans:-एक इकोटोन एक ऐसा क्षेत्र है जो दो पारिस्थितिक तंत्रों के बीच एक सीमा या संक्रमण के रूप में कार्य करता है। 
इकोटोन के उदाहरणों में दलदली भूमि (सूखे और गीले पारिस्थितिक तंत्र के बीच), मैंग्रोव वन (स्थलीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के बीच), घास के मैदान (रेगिस्तान और जंगल के बीच), और मुहाना (खारे पानी और मीठे पानी के बीच) शामिल हैं।

Vi.Q.What is biomass?
जीवित जीवों अथवा हाल ही में मरे हुए जीवों से प्राप्त पदार्थ जैव मात्रा या जैव संहति या 'बायोमास' (Biomass) कहलाता है। प्रायः यहाँ 'जीव' से आशय 'पौधों' से है। बायोमास ऊर्जा के स्रोत हैं। इन्हें सीधे जलाकर इस्तेमाल किया जा सकता है या इनको विभिन्न प्रकार के जैव ईंधन में परिवर्तित करने के बाद इस्तेमाल किया जा सकता है। उदाहरण- गन्ने की खोई, धान की भूसी, अनुपयोगी लकड़ी आदि|

Vvvi.Q.What is law of Ten Percentage ? (दश प्रतिशत नियम कहा जाता है ?)
Ans. खाद्य श्रृंखला के अन्तर्गत चार पोषण स्तर में उर्जा का स्थानान्तरण होता है। प्रथम पोषण स्तर पर प्राथमिक उत्पादक (हरे पौधे) आते हैं। ऊर्जा का स्थानान्तरण जब एक स्तर से दूसरे स्तर पर होता है तो उसकी मात्रा घटती जाती है । प्रथम स्तर से दूसरे स्तर पर होता है तो उसकी मात्रा घटती जाती है। प्रथम स्तर से दूसरे स्तर ऊर्जा का स्थानान्तरण जब होता है तो उसका 90% उर्जा प्रथम स्तर पर ही उपभोग में चला जाता है, शेष 10% उर्जा द्वितीय स्तर पर पहुँचता है। शेष उर्जा का 90% भाग पुनः द्वितीय स्तर पर उपभोग में चला जाता है। इसी क्रम में उर्जा का स्थानान्तरण अन्तिम पोषण स्तर तक होता है। इसे दश प्रतिशत का नियम कहते है ।

संसाधन

Vi.Q.1
कोणधारी वन में लकड़ी कटाई के विकास के कारण क्या हैं ? सामाजिक वानिकी से तुम क्या समझते हो ? (What are the reasons for the development of lumbering in coniferous forest region? What do you mean by Social Forestry?)4+3

Ans. शीतोष्ण कोणधारी वन (Temperate Coniferous Forest) : यह वन उत्तर अमेरिका तथा यूरेशिया के 1 क्षेत्र के दक्षिण में विस्तृत है। यह कनाडा तथा रूस में पूर्व-पश्चिम दिशा में विस्तृत चौड़ी पट्टी के रूप पाया जाता है। टुण्ड्रा कनाडा की अपेक्षा रूस में यह पट्टी अधिक चौड़ी है और समस्त साइबेरिया में फैली हुई है। दक्षिणी गोलार्द्ध के जिन अक्षांशों में स्थल भाग नहीं है वहाँ पर यह वन नहीं पाया जाता।

वनस्पति : वर्षा की कमी न्यूनतम तापमान से पूरी हो जाती है क्योंकि न्यूनतम तापमान के कारण वाष्पीकरण कम होता । अतः यहाँ पर सदाबहार के वन पाए जाते हैं। फिर भी यहाँ चौड़ी पत्ती के स्थान पर कोणधारी वन उगते हैं। इन कारणों से इसे शीतोष्ण कोणधारी वन के नाम से पुकारा जाता है। कनाडा में ये टैगा वन के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन वनों में साधारण ऊंचाई वाले वृक्ष उगते हैं जिनमें लार्च, स्यूस, पाइन, वर्च, फर प्रमुख हैं। धरातल पर साधारण झाड़ियाँ, घास लाइकेन आदि पाए जाते हैं। सामान्यतः वृक्षों का घनत्व कम होता है जिस कारण इन्हें विरल वन कहा जाता है, परन्तु दक्षिण की ओर तापमान अपेक्षाकृत अधिक होता है जिसके परिणामस्वरूप वृक्षों का घनत्व बढ़ जाता है। कम तापमान, लम्बी शीत ऋतु तथा हिमपात के कारण इन वनों के पेड़ों की किस्मों में कम विविधता पाई जाती है। अतः दूर-दूर तक एक ही जाति के पेड़ उगते हैं। इन वनों के वृक्षों में स्तरीकरण भी न्यून ही होता है। एक ही प्रकार के पेड़ों के झुण्डों की उपस्थिति से यहाँ लकड़ी काटने का व्यवसाय बहुत उन्नत हो गया है।

सामाजिक वानिकी (Social Forestry) : सामाजिक वानिकी से तात्पर्य है लोगों का, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए वन लगाना (Social forestry can aptly be described as forestry of the people, by the people and है for the people)। परम्परागत उद्देश्यों जैसे लाभ कमाने से हटकर परिवेश को सुरक्षा प्रदान करने एवं सामाजिक तथा ग्रामीण विकास के लिए जंगलों का विकास एवं बंजर भूमि पर नये वृक्ष लगाना सामाजिक वानिकी कहलता है।
 सामाजिक वानिकी के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं 
1. सभी बेकार भूमि का उपयोग जंगल लगाने में करना।

2. ग्रामीण लोगों की पूर्ण सहभागिता ।

3. जंगली क्षेत्रों के विकास एवं देख-रेख के सम्बन्ध में पूरी जानकारी

4. आवश्यक प्रशिक्षण की सुविधा।

5. सामाजिक वानिकी क्रियाओं की लगातार देखभाल ।

VVI.Q..2. मैग्रोव वन की अवस्थिति का वर्णन करो उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन की विशेषताओं का वर्णन करो। (Describe the location of Mangrove forest. Describe the characteristics of tropical rain forest.)

Ans. मैग्रोव वन विश्व के 118 देशों में जहाँ उष्ण कटिबन्धीय या उप-उष्ण कटिबन्धीय जलवायु पायी जाती है, जाते हैं। 15 देशों में इसका विस्तार अधिक है। एशिया में विश्व के सबसे अधिक 42% मैनोव वन पाये जाते हैं। इसके अफ्रीका (21%), मध्य अमेरिका (15%), ओसेनिया (12%), और दक्षिण अमेरिका (10%) में ये वन पाये जाते हैं।

एशिया में ये वन सबसे अधिक पाये जाते हैं। सुन्दरवन विश्व का सबसे बड़ा मैमोव वन क्षेत्र है जो भारत में गंगा डेल्टा और बंग्लादेश में बंगाल की खाड़ी पर है। गंगा ब्रह्मपुत्र डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा मैमोव वन का क्षेत्र है। कावेरी नदी के डल्ला पर पिचवरम और दक्षिण भारत में चिदम्बरम प्रमुख मैग्रोव वन के क्षेत्र है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह, गोदावरी कृष्ण डेल्टा, महानदी डेल्टा और खंभात की खाड़ी में भी मैग्रोव वन पाये जाते हैं।

अफ्रीका में ये वन केनिया, तंजानिया एवं मेडागास्कर में नमकीन भूमि में पाये जाते हैं। अफ्रीका में नाइजर नदी के डेल्टाई भाग में सबसे अधिक मैग्रोव वन पाये जाते हैं।

अन्य क्षेत्र (1) उत्तरी अमेरिका: फ्लोरिडा प्रायद्वीप, काले मैग्रोव, दक्षिणी लुजियाना के तटीय भाग में एवं दक्षिण रे मैग्रोव वन पाये जाते हैं। (2) मध्य अमेरिका में प्रशान्त महासागर के किनारे और निकारागुवा के कैरीवियन तटए मैक्सिको में प्यूयेटो, क्यूबा, ताइटी, जमैका, त्रिनिदाद आदि (3) दक्षिणी अमेरिका के ब्राजील, इक्वेडोर और पेरू में ये वन पाये जाते हैं।

प्रजातियाँ (Species) : मैप्रोव वन की 110 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जिनमें 40 महत्वपूर्ण हैं। सुन्दरवन का सुन्दरी वृक्ष महत्वपूर्ण प्रजाति है। अन्य प्रजातियाँ गेवा, गरान, पसूक, खेवरा, होगला, गोलपाता, गिलेपाता, हेलात और केया हैं। सुन्द वन अपनी कठोर लकड़ी के लिए जाना जाता है। यह मूल्यवान लकड़ी है।

उष्णकटिबंधीय वर्षा वन (Tropical rain forest) : ये वन भूमध्य रेखीय भागों में उगते हैं, अतः यहाँ का तापमान वर्ष भर अधिक रहता है। यहाँ तापमान प्राय: 25°C से 34°C के मध्य रहता है। औसत वार्षिक तापमान 27°C रहता है। यहाँ वर्षा का औसत 250 सेमी० रहता है। इन भागों में प्रतिदिन दोपहर के बाद संवाहनीय वर्षा होती है। उच्च तापमान और अधिक वर्षा होने के कारण यहाँ घने वन उगते हैं। :

मुख्य विशेषताएँ (Major characteristic)

1. ये वन अत्यन्त सघन होते हैं। सूर्य का प्रकाश प्राप्त करने की होड़ में ये लम्बे हो जाते हैं। वृक्षों की लम्बाई 40 मोटर तक पहुंच जाती हैं। इनमें वनस्पतिक आवरण अत्यन्त सघन होता है और सूर्य का प्रकाश भूमि तक नहीं पहुंच पाता जिससे दिन में भी हल्का अंधेरापन रहता है। यहाँ की मिट्टी हमेशा नम बनी रहती है।

2. यहाँ एक ही स्थान पर और कम क्षेत्र में अनेक किस्म की वनस्पतियाँ उगती हैं। यह विशेषता विश्व के अन्य वन भूमियो

में नहीं पायी जाती है। 3. इन वनों की लकड़ियाँ कठोर होती हैं अत: आर्थिक दृष्टि से इनका महत्व है। इस प्रकार के वन के प्रमुख वृक्ष आयरन 35, बाजील 35, रोज 35, महोगिनी, बांस, बेंत, रबड़ इबोनी जैपोट आदि हैं।

4. उच्च तापमान तथा धरातल नम रहने के कारण यहाँ सघन लताएँ एवं झाड़ोदार वनस्पतियाँ उग आती हैं जो बड़े वृक्षा के तने को 3-4 मीटर ऊंचाई तक ढंके रहती हैं। 
5. यहाँ प्रतिदिन वर्षा होने के कारण वायुमण्डल सदैव नम रहता है। शुष्क मौसम का अभाव होने के कारण यहाँ के वृक्ष में पतक्षड़ नहीं होता है। पुराने पत्ते गिरते और नए पत्ते निकलते रहते हैं। अतः ये वन सदैव हरे भरे बने रहते हैं। 
6. उष्ण व नम जलवायु तथा संघन वन क्षेत्र व लताओं की सघनता के कारण यहाँ असंख्य जहरीले जन्तु जैसे मच्छर, छिपकली, सांप, नेवला, गोजर, बिच्छू आदि पाए जाते हैं।

7. यहाँ की जलवायु मानव निवास के अनुकूल नहीं है अतः यहाँ जनसंख्या का घनत्व कम पाया जाता है। यहाँ निवास करने वाली प्रमुख मानव प्रजातियाँ निम्रोटो, पिग्मी एवं हब्शी हैं जो पूरी तरह असभ्य हैं।

Vvvvi.Q.3.नवीनीकरण एवं अनवीनीकरण संशाधन में अन्तर बताओ। अद्वितीय क्या है ? Distinguish between renewable and non-renewable resources. What is unique ?) 5+2 

Ans. नवीनीकरण तथा अनवीनीकरण संसाधनों में अन्तर :


जो संसाधन एक बार प्रयोग करने के बाद दुबारा प्रयोग में नहीं आते हैं उन्हें अप्रवाहमान संसाधन (Non-renewable resource) कहते हैं। लोहा, कोयला, पेट्रोलियम आदि ऐसे ही संसाधन हैं। 
जिन संसाधनों का प्रयोग बार-बार करने के बाद भी वे समाप्त नहीं होते, बल्कि हमेशा बने रहते हैं अथवा कुछ समय बाद जिनकी पुनः पूर्ति की जा सके उन्हें प्रवाहमान संसाधन (Renewable resource) कहते हैं। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल इसी प्रकार के संसाधन है।

"अद्वितीय (Unique): वह संसाधन जो मात्र एक स्थान पर पाया जाता है अद्वितीय संसाधन कहा जाता है। क्रायोलाइट मात्र ग्रीनलैण्ड में पाया जाता है। भारत में यूरेनियम मात्र जादूगोड़ा में पाया जाता है, अतः यह भारत में अद्वितीय है। अद्वितीय संसाधन को बहुमूल्य संसाधन माना जाता है।

Vvi.Q.4 उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन एवं भूमध्यसागरीय सदाबहार वन की विशेषताओं तथा आर्थिक महत्व का वर्णन करो (Describe the economic importance and characteristics of equatorial evergreen forest and tropical forest.) 7

Ans. उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार के वन (Tropical Evergreen forest) : ये वन विषुवत रेखा के 5° उत्तर तथा 5° दक्षिण अक्षांशों की पेटी में पाये जाते हैं। वर्षा एवं तापक्रम की अधिकता के कारण ये अत्यन्त सघन होते हैं। ये साल भर हरे-भरे बने रहते हैं। इसलिये इन्हें सदाबहार के वन कहा जाता है। भूमध्य पेटी में पाये जाने के कारण इन्हें Equatorial or tropical rian forest भी कहते हैं। ये मुख्य रूप से विषुवतरेखीय प्रदेश के आमेजन बेसिन, कांगो बेसिन, गिनी तट तथा पूर्वी द्वीप समूह में पाये जाते हैं। मानसून और भूमध्य सागरीय प्रदेशों के कुछ अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में भी इस प्रकार के वन पाये जाते हैं। अधिक वर्षा वाले इन वनों को दक्षिण अमेरिका के आमेजन बेसिन में सेलवाज कहा जाता है। यहाँ औसत वर्षा 70 से 200 से. मी. तक होती है और औसत तापक्रम 80° इसे 90° तक रहता है।

भूमध्यसागरीय सदाबहार वन ये वन 30° से 45° अक्षांशों के बीच संसार के दोनों गोलाद्धों में पाये जाते हैं। स्पेन, पुर्तगाल, इटली, चिली, कैलिफोर्निया, अल्जीरिया और ट्यूनीस में ये वन मिलते हैं। यहाँ सर्दियों में कठोर ठंड एवं गर्मी में जल का अभाव रहता है। शीतकाल में वृक्षों को नमी मिल जाती है। अतः वन सदा हरे-भरे रहते हैं। वृक्षों में ओक, जैतुन, पाइन, फर, चेस्टनट प्रमुख हैं। फलों में नींबू, नारंगी, अंगूर, नाशपाती आदि मिलते हैं। भूमध्य रेखीय वनों में रबर, आबनूस, बॉस, रोजउड, महोगनी, सिनकोना, बेंत आदि प्रमुख हैं। लकड़ियाँ विभिन्न उद्योगों के लिये उपयोगी है। पाम के पेड़ों से पाम का तेल मिलता है साथ ही लाख, मोम, रबर आदि चीजें प्राप्त होती हैं।

समस्यायें: अधिक गर्मी के कारण लकड़ियाँ इतनी कड़ी होती हैं कि उसे काट कर सामान बनाना बहुत कठिन होता है। ये वन बहुत घने हैं तथा जमीन दलदल है, अतः वनों में प्रवेश कर लकड़ी काटने का काम बहुत कठिन है, आवागमन के साधनों का विकास भी नहीं हो पाया है। वनों की जलवायु भी अस्वास्थ्यकर है।
 भूमध्य सागरीय प्रदेश की वनस्पतियों को दो कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है - सर्दी में कठोर ठंढक तथा गर्मी में जल का अभाव। परन्तु गर्मी तथा शुष्कता से रक्षा के लिये वृक्षों की जड़ें लम्बी तथा खुरदरी छाल वाले होते हैं। पत्तियाँ मोटी, चिकनी एवं रोयेंदार वाली होती हैं, अतः जल वाष्प बनकर उड़ने नहीं पाता। शीतकाल में वृक्षों को काफी नमी मिल जाती है।

आर्थिक उपयोग : ओक की छाल से कार्क मिलता है। गिरी तथा जैतून का तेल यहाँ मिलता है। लकड़ी का उपयोग फर्नीचर, जहाज का मस्तूल एवं खेल के समान बनाने में होता है। फर, चीड़, पोपलर आदि पेड़ों की लकड़ियाँ मुलायम होती है जिनसे लुग्दी बनाकर कागज बनता है, चीड़ के पेड़ से तारपीन का तेल प्राप्त होता है।

Vvvi. Q.Define resource. (संसाधन की परिभाषा दो ।)

 Ans. कोई भी वस्तु तभी संसाधन कहला सकती है जब उसमें उपयोगिता तथा कार्य क्षमता हो तथा जिससे मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हो । अतः संसाधन में उपयोगिता का गुण आवश्यक है। वायुमण्डल, जलवायु, धरातल, जल मिट्टी, प्राकृतिक वनस्पति, खनिज, सूर्य का प्रकाश आदि प्राकृतिक वस्तुएँ तथा ज्ञान, विज्ञान, टेक्नोलॉजी, सरकार, सामाजिक संस्थान, धर्म परम्परा आदि मानव जनित संसाधन हैं।

Vvvi.संसाधनों की विशेषता (Characteristics of resources)
Vvvi.

Vvvi
Vvvi
Vvi


मत्सय-पालन


Vvvi.Q.1.जापान में मत्स्य उत्पादन के पतन का क्या कारण है ? (भारत में मत्स्य उद्योग के विकसित न होने के कारण क्या हैं ? Or,
उष्ण कटिबन्ध में मत्स्य उद्योग के अवनति का कारण क्या हैं ? )(Give reasons for decline of fishing in Japan. What are reasons for the undevolpment of fishing in India or,Tropical areas)
3+4

Ans. जापान में मत्स्योत्पादन के पतन के कारण (Reasons for the decline of fishing in Japan): यद्यपि चीन के बाद जापान विश्व का दूसरा बड़ा मत्स्य उत्पादक देश है किन्तु पिछले कुछ वर्षों में जापान के मत्स्य उत्पादन में भारी कमी आयी है जिसके कारण यहाँ के मत्स्योत्पादन का पतन हुआ है, इसके निम्न कारण हैं

(i) अति उत्पादन द्वारा अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए अंधाधुंध मछलियों के आखेट से बहुत सी समुद्री मछलियों की प्रजातियों के लुप्त हो जाने से मछलियों की कम उत्पत्ति एवं विकास होना। 
(ii) प्रदूषित एवं विषैली जल वाली नदियों, झीलों व समुद्रों में गिरने से जल विषैला जाता है, और बहुत सी मछलियाँ मर जाती हैं, जिसके कारण उत्पादन में कमी आयी है। 
(iii) जापान के तटीय एवं स्थलीय जलाशयों आदि क्षेत्र में परमाक्षियों (Predators) के कारण मछलियों की संख्या सीमित होती जा रही है, इस कारण मछलियों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाने से उत्पादन में दिनों-दिन गिरावट आती जा रही है। 
(iv) जलयानों के आवागमन तथा मछली पकड़ने वाली नौकाओं व जहाजों का एक दूसरे से टकरा जाने भी मछली पकड़ने वाले जलयान, नाव, उपकरण आदि क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। इस कारण भी मत्स्य उत्पादन प्रभावित होता है। (v) जापान में मछलियों के संरक्षण पर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है, इस कारण मछलियों की उत्पादन की मात्रा प्रतिवर्ष घटती जा रही है, ऐसे में स्वाभाविक है कि उत्पादन में कमी आयेगी। इन्हीं सब कारणों से ही जापान के मत्स्य उत्पादन व व्यवसाय में उल्लेखनीय गिरावट आयी है।

भारत में मत्स्य उद्योग के विकसित न होने के कारण : उष्ण कटिबन्ध में मत्स्य उद्योग का विकास अधिक नहीं हुआ है। इन भागों में शीतोष्ण कटिबन्ध जैसी सुविधाएँ नहीं पायी जाती है। चूँकि भारत भी एक उष्ण कटिबन्धीय देश है, अतः यहाँ मत्स्य उद्योग के विकसित न होने के निम्नांकित कारण हैं

1. गर्म जलवायु (Hot climate) : गर्म जलवायु के कारण इस क्षेत्र में प्लैकटन का अभाव होता है। यहाँ मछलियों की प्रजनन शक्ति कम होती है तथा मछलियाँ शीघ्र सड़ती है।

2. सपाट तट (Plane coast) : उष्ण कटिबन्ध में कटे-फटे तट का अभाव है। इस क्षेत्र में सीधी तट रेखा के कारण मछलियों के लिए सुरक्षित स्थान की कमी है। यहाँ मछलियाँ अधिक नष्ट हो जाती है।

3. समुद्र की गहराई (Ocean's Deepness) : उष्ण कटिबन्ध में सागरों की गहराई अधिक है। यहाँ मग्न तटों का विस्तार कम है। गहरे सागरों में मत्स्य ग्रहण का काम कठिन और जोखिम भरा होता है।

4. कृषि की प्रधानता (Agriculturaly Advancement) : उष्ण कटिबन्ध में कृषि भूमियों का विस्तार अधिक है। इस भाग की दशाएँ कृषि के लिए अनुकूल होती है। यहाँ के अधिकांश लोग कृषि कार्य से जुड़ होते हैं। यहाँ पशुपालन का व्यवसाय भी अधिक होता है।

5. पानी में खारेपन की अधिकता (High salinity in water) : उष्ण कटिबन्धीय सागरों में खारापन अधिक रहता है। यही कारण है कि इस क्षेत्र की मछलियाँ न तो पौष्टिक होती हैं और न ही स्वादिष्ट होती हैं।

6. पूँजी की कमी (Scarcity of capital) : उष्ण कटिबन्ध के देश प्राय: आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं। मत्स्य ग्रहण के लिए आधुनिकतम उपकरण की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें खरीदने में अधिक पूँजी को आवश्यकता होती है।

7. इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में नाविक कला का विकास भी बहुत कम हुआ है। यहाँ के लोग शीतोष्ण कटिबन्धीय लोगों की भांति चुस्त और फुर्तीले नहीं होते हैं।

Vvvi.Q.2.वाणिज्यिक मत्स्य उत्पादन में शीतोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र अग्रसर क्यों हैं ? आन्तरिक मत्स्य क्षेत्र एवं समुद्री मत्स्य क्षेत्र से तुम क्या समझते हो ? (Why is temperature belt more advanced in Commercial fishing? What do you mean by inland and marine fisheries?)

4+3

Ans. शीतोष्ण कटिबन्ध में मत्स्य उद्योग की सबसे अधिक प्रगति हुई है। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं :
 (1) शीतोष्ण कटिबंध की जलवायु उष्ण कटिबंध की अपेक्षा अधिक शीतल रहती है । अतः यहाँ पकड़ी हुई मछलियाँ अधिक समय तक रखने में सड़ती तथा खराब नहीं होती है।

(2) इन क्षेत्रों में मछलियों के लिए खाद्य पदार्थ महाद्वीपों के निकटवर्ती उथले समुद्रों से पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है, जिसे खाने के लिये ध्रुवों तथा उष्ण प्रदेशों की करोड़ों मछलियाँ आया करती हैं।

(3) इन क्षेत्रों में ठण्डी गर्म जलधाराएँ मिलती हैं, जिससे यहाँ पर मछलियों को भोजन पर्याप्त मात्रा में मिलता है, जिसे खाने के लिए मछलियाँ इधर-उधर से एकत्रित हुआ करती हैं।

(4) शीतल जलवायु होने के कारण यहाँ की मछलियों में विष नहीं पाया जाता है। अत: इनको खाने के प्रयोग में ला सकते हैं।
 (5) इन क्षेत्रों का समुद्र तट अधिकांशतः कटा-फटा है। अत: जलयानों के ठहरने के लिए अनेक उत्तम बन्दरगाह हैं। 
(6) शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में विशेष प्रकार की मछलियाँ निर्धारित क्षेत्र में मिलती हैं। इस कारण इन्हें पकड़ने में सुविधा होती है ।
(7) शीतोष्ण क्षेत्र के लोगों में मछली का उपयोग खाद्य के रूप में अधिक होता है, अतः माँग अधिक है।
(8) इन क्षेत्रों में मछली से सम्बन्धित उद्योग-धन्धे विकसित हैं तथा उनमें अनेक प्रकार के गौण उत्पादन होते हैं। 

विश्व के मत्स्य क्षेत्रों को दो वर्गों में बाँटा जाता है।

(i) मीठे जल अथवा आन्तरिक मत्स्य क्षेत्र (Fresh water or Inland fisheries) :- नदियों, झीलों एवं तालाबों के मीठे जल में जो मछलियाँ पकड़ी जाती हैं, उसे मीठे जल की मछलियाँ कहते हैं।

(ii) खारे जल के मत्स्य क्षेत्र या समुद्री मत्स्य क्षेत्र (Saline-water or Marine fisheries) :- खारे जल की मछलियों का मुख्य स्रोत समुद्र है जहाँ खारे जल के भण्डार मिलते हैं समुद्री जल की मछलियाँ जल के सतह पर या उसके निकट रहती हैं, उन्हें Pelagic (पैलेजिक) मछलियाँ कहते हैं, जैसे हेरिंग, सारडीन आदि|
 जो मछलियाँ तल पर रहती हैं उन्हें Demersal (तलीय मछलियाँ) कहते हैं, जैसे काड, हेलीवट आदि |
समुद्री मछली क्षेत्र को दो भागों में बाँटा जाता है-
 (a) तटीय मछली क्षेत्र (Coastal fishing areas) :- तटीय मछली क्षेत्र तट से सम्बन्धित होते हैं और इनकी गहराई करीब 180 मीटर तक होती है। ऐसे
पर औरेगन से कनाडा, अलास्का क्षेत्र तट के साइबेरिया निकट उथले तथा नदियों के मुहाने में स्थित हैं। यह क्षेत्र उत्तरी प्रशान्त तट होते हुए जापान तक फैला हुआ है ।
(b) खुले समुद्रों के क्षेत्र या छिछले चबूतरे (Shallow banks or open sea fishing areas) :- खुले समुद्रों के क्षेत्र उत्तरी अटलांटिक में स्पेन से श्वेत सागर तक और ग्रेट ब्रिटेन से लेब्राडोर तक और उत्तरी प्रशान्त में दक्षिणी चीन से उत्तरी कमचटका तक फैले हुए हैं।

Vvi.Q.3

Important Short question







भूमि उपयोग पद्धति


Vvi.Q.1भूमि उपयोग क्या है ? अमेरिका के भूमि उपयोग प्रारूप की चर्चा करो। (What is Land Use? Comment on the landuse scenario of the U.S.A.)(2+5)

Ans. भूमि उपयोग (Land Use) : किसी क्षेत्र की सम्पूर्ण भूमि का विभिन्न कार्यों के लिए किया जाने वाला उपयोग ही भूमि उपयोग कहलाता है|
 ग्रेट ब्रिटेन में प्रथम भूमि उपयोग सर्वेक्षण 1930 ई० में डडले स्टाम्प (L. D. Stamp) ने किया था। 

संयुक्त राज्य अमेरिका का भूमि उपयोग प्रारूप (Land Use Pattern of USA) : संयुक्त राज्य अमेरिका जनसंख्या एवं क्षेत्रफल दोनों दृष्टिकोण से विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है। चीन और भारत की जनसंख्या ही अमेरिका से अधिक है और क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से रूस और चीन इससे बड़े हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका का क्षेत्रफल 9,161,923 वर्ग किमी० है। उत्तरी अमेरिका का पूरा मध्यवर्ती भाग इसके अंतर्गत आता है जो पूरब में अटलांटिक महासागर से पश्चिम में प्रशान्त महासागर के मध्य स्थित है। उत्तरी अमेरिका के उत्तर पश्चिमी भाग में स्थित अलास्का भी इसके अंतर्गत आता है। प्रशान्त महासागर में स्थित हवाई द्वीप भी इसका अंग है।
USA को मुख्य भूमि 25°00' उत्तर से 40°00' उत्तर तक उत्तरी गोलार्द्ध में और 20°00' पश्चिमी से 180° पश्चिमी देशान्तर तक स्थित है। यहाँ के भू-स्वरूप में विविधता है। यह पश्चिमी फ्लोरिडा के तट और हवाई द्वीप से वर्फीले अलस्का तक एवं मैदानी भाग प्रेयरी से राकी पर्वत माला तक है।
यह बड़ा देश प्राकृतिक संसाधनों के दृष्टिकोण से संपन्न राष्ट्र है। प्रकृति का दान इसे उनमुक्त रूप से मिला है। यहाँ विस्तृत समतल मैदान, जलप्रवाह और प्राकृतिक वनस्पति पर्याप्त मात्रा में है। यहाँ के भूगर्भ में खनिजों का अतुलनीय भंडार है।




संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल भूमि 2300 मिलियन एकड़ है। यहाँ पर भूमि के प्रमुख उपयोग, जैसे (1) वनभूमि उपयोग 651 मिलियन एकड़ (28.8%), (2) तृणभूमि, चारागाह एवं रैंचेंज 587 मिलियन एकड़ (25.9%), (3) कृषि भूमि 442 मिलियन एकड़ (19.5%), (4) विशेष उपयोग (प्राथमिक पार्क, वन्य जीव क्षेत्र) 297 एकड़ (13.0% ) (5 और 6) शहरी भूमि 60 मिलियन एकड़ (2.6%) ।

VviQ.2.किस देश को सेव का द्वीप कहा जाता है ? ब्राजील के भूमि उपयोग प्रारूप की चर्चा करो। (Which country is called the Apple Island? Comment on the land use scenario of Brazil.)2+5

Ans. तस्मानिया को सेव का द्वीप (Apple Island) कहा जाता है। क्योंकि यहाँ सेव का उत्पादन सबसे अधिक होता है। तस्मानिया को "Holding Island" भी कहा जाता है।

ब्राजील का भूमि उपयोग प्रारूप (Land use pattern of Brazil) ब्राजील देश दक्षिणी अमेरिका का क्षेत्रफल तथा जनसंख्या में सबसे बड़ा देश है। यह दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के लगभग आधे क्षेत्रफल को घेरे हुए हैं। यह संसार का चौथा बड़ा देश है। इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 8.5 लाख वर्ग किमी० है।

ब्राजील भूमध्यरेखा के उत्तर 8° उत्तरी अक्षांश से 45° दक्षिणी अक्षांश तथा 30° पश्चिमी से 85° पश्चिमी देशान्तर पर स्थित है। इसका अधिकांश भाग उष्णार्द्र वर्षा वनों से आच्छादित है जिन्हें सेल्वास (Selvas) कहा जाता है। भूमध्यरेखा पर स्थिति के कारण यहाँ सालभर संवाहनीय वर्षा होती है। यहाँ संसार की सबसे बड़ी नदी आमेजन (Amazon) क्षेत्रफल में सबसे बड़ी नदी है। यहाँ सालभर बादल छाए रहते हैं। इस देश के पश्चिमी भाग में एण्डीज पर्वत श्रृंखला तथा पूर्वी भाग में कम्पास (Campas) तथा पम्पास (Pampas) घास क्षेत्र स्थित है। यहाँ कहवा (Coffee) की खेती Fazenda के रूप में संसार में सर्वाधिक होती है। यहाँ चाय, धान, फल आदि की भी खेती की जाती है। संक्षेप में, ब्राजील की भूमि पर्वतों, जंगलो नदियों, घास के मैदान, दलदल आदि से भरी पड़ी है।

ब्राजीलिय उच्च भूमि भी यहाँ के आर्थिक विकास में सहायक है। ब्राजील की जलवायु निःसंदेह भूमध्यरेखीय प्रकार को है। वैसे देश की विशालता के आधार पर अन्य जलवायु भी अनुभव की जाती है। यहाँ की जलवायु विशेषकर उष्णा (Copious or Humid) तुल्य है।

ब्राजील की अधिकांश जनसंख्या ( 80% से अधिक) समुद्र तट से 300 km के दायरे में ही रहती है। इसके मुख्य शहर साओ-पालो, रियो-डि-जेनेरो, सन्तॉस आदि मुख्य हैं। ब्राजील की एक चौथाई जनसंख्या का जीवन ग्रामीण है।




ब्राजील का कुल क्षेत्रफल लगभग 21.9 करोड़ एकड़ है। ब्राजील की भूमि का उपयोग वन क्षेत्र में 119.53 मिलियन एकड़ (57.2%), चरागाह तथा पर्वतीय क्षेत्र 4.41 मिलियन एकड़ (21.1%) पर, कृषि योग्य भूमि 4.47 मिलियन एकड़ (3.1%), विशेष उपयोग वाली भूमि 19.22 मिलियन एकड़ (9.2%), अन्य उपयोग में 16.92 मिलियन एकड़ (8.1%) तथा नगरीय आवास वाली भूमि 2.23 मिलियन एकड़ (1.1%) पर है।



Vi.Q.3.

Vi.Q.4




जल संसाधन : 

सिंचाई और जल संरक्षण


Vvi.Q.1.भारत में सिंचाई आवश्यक क्यों है ? इसके विभिन्न पद्धतियों का उल्लेक करो। (Why is irrigation necessary in India? Describe its different methods.)7

Ans. भारत में कृषि के लिए सिंचाई क्यों आवश्यक है, इसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है.
1. अनिश्चित वर्षा (Uncertained rainfall) : भारतवर्ष में वर्षा मानसूनी हवाओं से होती है जिसकी प्रमुख विशेषता यह है कि वह समय एवं मात्रा दोनों के अनुसार अनिश्चित है। कभी वर्षा समय से पहले हो जाती है तथा कभी समय पर सूखा पड़ जाता है। कभी बीच में ही वर्षा लुप्त हो जाती है। सिर्फ इतना ही नहीं, एक स्थान पर कभी वर्षा अधिक होती है तो कभी कम। अतः वर्षा की इस अनिश्चिता के कारण यहाँ सिंचाई आवश्यक है।

2. वर्षा का असम वितरण (Unequal distribution of rainfall) : भारत में वर्षा का वितरण बहुत ही असम है। चेरापूँजी में विश्व की अधिकतम वर्षा (1200 सेमी.) होती है और पश्चिमी राजस्थान में सिर्फ 5 सेमी. तक ही। भारत की कुल भूमि के 30% में 70 से 100 सेमी. तक वर्षा से होती है। केवल 10% ही भूमि में पानी की नमी पड़ती है।

3. मौसमी वर्षा (Seasonal rainfall) : मौसमी वर्षा के कारण भारत में वर्षा का वितरण वर्ष भर में समान रूप से सभी जगह नहीं होता है। यहाँ कुल वर्षा का 80% भाग 4 महीने से कम समय में ही होता है। इस प्रकार वर्ष भर कृषि के लिए वर्षा का जल प्रर्याप्त नहीं होता, इसलिए कृषि के लिए सिंचाई का सहारा आवश्यक हो जाता है।

4. वर्षा का स्वभाव (Nature of rainfall) : भारतवर्ष की वर्षा मूसलाधार होती है जिससे भूमि पानी को सोखती नहीं बल्कि वह बाहर नदी नालों के रूप में निकल जाता है। परिणाम यह होता है कि वर्षा का जल पौधों की जड़ों में देर तक नहीं रह पाता। इसलिए वर्षा की पर्याप्त मात्रा भी पौधों के लिए पूरी नहीं होती, इसलिए सिंचाई आवश्यक हो जाती है।

5. मिट्टी की प्रकृति (Character of soil) : भारतवर्ष की मिट्टी सूखी है। नदियों के डेल्टाई भाग को छोड़कर शेष भूमि में नमी की मात्रा कम है। इसलिए इसकी शुष्कता को दूर करने के लिए सिंचाई आवश्यक है।

6. अधिक जल की आवश्यकता (More need of water) : कुछ ऐसी भी फसलें भारत में उगाई जाती हैं जिनके लिए अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। यही नहीं उनके लिए वर्षा का समय के अनुसार समान वितरण होना चाहिए। अतः इन फसलों के उत्पादन के लिए सिंचाई आवश्यक है। 

भारत एक प्राचीन कृषि प्रधान देश है, अतः यहाँ सिंचाई के लिए विभिन्न स्रोतों का उपयोग होता है-
1. कुएं एवं ट्यूबवेल (Wells and Tubewells) : कुओं द्वारा सिंचाई पूरे देश में प्रचलित है। भारत में वर्तमान में 516 मिलियन कुएं है जिनमें से 9.5 मिलियन खुदे कुएँ हैं, बाकी ट्यूबवेल हैं। कुआँ द्वारा सिंचाई के मुख्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश, पूर्वी पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु हैं। कुओं द्वारा सिंचाई वहीं सम्भव है जहाँ भौम, जलस्तर ऊपर है और जहाँ से पानी को आसानी से उठाया जा सकता है। आजकल ट्यूबवेल से पानी उठाने के लिए डीजल, बिजली चालित पम्प का प्रयोग किया जाता है। पश्चिम भारत में सौर ऊर्जा का भी उपयोग पम्प चलाने के लिए किया जा रहा है।

2. तालाब (Tank) : तालाबों द्वारा भारत में 90 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है जिसमें 34 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में होती है। तालाबों के निर्माण के लिए धरातल असमतल होना चाहिए, भूमि कठोर होनी चाहिए ताकि जल जमीन में न चला जाए और वर्षा अधिक होनी चाहिए ताकि जल तालाबों में भरा रहे।

भारत में तालाबों द्वारा सिंचाई के प्रमुख क्षेत्र तामिलनाडु में हैं। इसके अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा बिहार में भी तालाब सिंचाई के काम आते हैं।

3. नहरों (Canals) : भारत में नहरों द्वारा सबसे अधिक सिंचाई होती है। कुल सिंचाई के 43% भाग की सिंचाई नहरों द्वारा ही होती है। भारत में दो प्रकार की नहरें पायी जाती हैं

(i) अस्थायी नहरें (Inundation canals) : ये नहरें केवल बाढ़ के समय नदियों से जल प्राप्त करती हैं। इनसे वर्ष भर जल नहीं मिलता है।
(ii) सदावाहिनी नहरें (Perennial canals) : ये नहरें सततवाहिनी नदियों से निकली होती हैं, अतः इनमें वर्ष भर जल रहता है। ये नहरें जलाशयों से भी निकाली जाती हैं।

Vvi.Q.2,उत्तर भारत में नहर सिंचाई के विकास का विवरण दो। जल संग्रह प्रबंधन आवश्यक क्यों है? (Account for the development of canal irrigation in North India. Why Watershed Management is important?)

Ans. नहर सिंचाई (Canal Irrigation) : भारत में नहरों द्वारा सबसे अधिक सिंचाई होती है। कुल सिंचाई के 40% भाग की सिंचाई नहरों द्वारा ही होती है। भारत में दो प्रकार की नहरें पायी जाती हैं - 
(i) अस्थायी नहरें (Inundation canals) : ये नहरें केवल बाढ़ के समय नदियों से जल प्राप्त करती हैं। इनसे वर्ष भर जल नहीं मिलता है।
(ii) सदावाहिनी नहरें (Perennial canals) : ये नहरें सततवाहिनी नदियों से निकली होती हैं, अतः इनमें वर्ष भर जल रहता है। ये नहरें जलाशयों से भी निकाली जाती हैं।
उत्तर भारत के गंगा सतलज मैदान में नहरों का विस्तार अधिक है। इस भाग में नहरों के निर्माण की आदर्श दशाएं हैं। इस भाग की नदियाँ सदावाहिनी है। यहाँ का धरातल समतल है और मिट्टी मुलायम है। नहरों द्वारा सिंचाई से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है और सर्वत्र फसलों के कारण हरियाली रहती है। नहरों द्वारा सिंचाई मुख्यत: उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश में होती है।

जल संग्रह प्रबन्धन (Watershed Management) : जल चाहे वह भू-तल हो और भूमिगत हो उसका दुरुपयोग और उसे व्यर्थ होने से बचाने के उपायों को जल संग्रहण प्रबन्धन कहा जाता है। व्यापक अर्थ में जल संग्रहण प्रबंधन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और मानव समाज के बीच संतुलन पैदा करना है। प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग, इनकी पुनरोत्पादन क्षमता की परिस्थितियाँ एवं विकास के साथ संसाधनों की सुरक्षा इसके लिए आवश्यक कदम हैं। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ सामान्य विधियों को अपनाना फलदायक हो सकता है, जैसे तालाबों की संख्या बढ़ाना तथा उनमें जल एकत्र करना, पुनर्भरण कुओं के जल का संचय और पुनर्भरण। छोटे पौधे और घास भी मिट्टी में जल संचयन को प्रवृत्ति बढ़ाते हैं। जल संरक्षण का कार्य मूलतः जल जागृति और जन सहयोग पर आधारित है। बहते हुए एवं संरक्षित जल को बचाना ही जल संग्रहण प्रबंधन का प्रमुख उद्देश्य है। इसके अन्तर्गत सभी संसाधनों (जैसे भूमि, जल, प्राकृतिक वनस्पति, पौधे और जीव) आदि आते हैं। इसका लक्ष्य एक तरफ प्राकृतिक संसाधनों का विकास और दूसरी तरफ समाज के बीच संतुलन लाना है, जो सामूहिक हिस्सेदारी द्वारा ही संभव है |
केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार तथा कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने जल संरक्षण प्रबंधन कार्यक्रम अपनाया है। उनमें से (i) आंध्र प्रदेश में नीरु-भीरु (जल और तुम) (ii) राजस्थान के अलवर जिले में आखरी पानी पसंद (iii) केन्द्र सरकार का हरियाली कार्यक्रम आदि प्रमुख उदाहरण हैं। तमिलनाडु में गृह निर्माण के लिए निर्देश दिया गया है कि घर ऐसा बनाया जाय जिसमें जल संरक्षण की पर्याप्त सुविधा हो ।



ऊर्जा संसाधन



Vvi.Q.1.अमेरिका और भारत में लौह अयस्क/कोयले का वितरण का विवरण दें |
Ans 









Vvi.2. पारंपरिक और गैर-पारंपरिक ऊर्जा के बीच अंतर लिखो| 
Difference between conventional and non conventional source of energy.

VVi.Q.वर्षा जल संचयन क्या है? (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) What is Rainwater Harvesting ?

Ans:-वर्षा जल संचयन या रेन वाटर हारवेस्टिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिस में हम वर्षा के पानी को जरूरत की चीजों में उपयोग कर सकते हैं। वर्षा के पानी को एक निर्धारित किए हुए स्थान पर जमा करके हम वर्षा जल संचयन कर सकते हैं।
इसको करने के लिए कई प्रकार के तरीके है जिनकी मदद से हम रेन वाटर हारवेस्टिंग कर सकते हैं। इन तरीकों में जल को मिट्टी तक पहुंचने (भूजल) से पहले जमा करना जरूरी होता है।

इस प्रक्रिया में ना सिर्फ वर्षा जल को संचयन करना साथ ही उसे स्वच्छ बनाना भी शामिल होता है। वर्षा जल संचयन कोई आधुनिक तकनीक नहीं है यह कई वर्षों से उपयोग में लाया जा रहा है परंतु धीरे-धीरे इसमें भी नई टेक्नोलॉजी का उपयोग बढ़ते चले जा रहा है ताकि रेन वाटर हारवेस्टिंग आसानी और बेहतरीन तरीके से हो सके।

वर्षा जल संचयन के तरीके व उपाय 
वर्षा जल संचयन करने के कई तरीके हैं। इनमें से कुछ तरीके वर्षा जल का संचयन करने में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। संचयन किए हुए वर्षा जल को हम व्यावसायिक और साथ ही घरेलू उपयोग में भी ला सकते हैं।

इन तरीकों में कुछ तरीकों के जमा किए हुए पानी को हम घरेलू उपयोग में ला सकते हैं और कुछ तरीकों से बचाए हुए पानी का हम व्यापारी क्षेत्र में उपयोग में ला सकते हैं। चलिए रेन वाटर हारवेस्टिंग के इन बेहतरीन तरीकों को जानते हैं।

1. सतह जल संग्रह सिस्टम Surface Water Collection Systems
सतह जल वह पानी होता है जो वर्षा के बाद ज़मीन पर गिर कर धरती के निचले भागों में बहकर जाने लगता है। गंदी अस्वस्थ नालियों में जाने से पहले सतह जल को रोकने के तरीके को सतह जल संग्रह कहा जाता है।

बड़े-बड़े ड्रेनेज पाइप के माध्यम से वर्षा जल को कुआं, नदी, ज़क तालाबों में संग्रहण करके रखा जाता है जो बाद में पानी की कमी को दूर करता है।

2. छत प्रणाली Rooftop system
इस तरीके में आप छत पर गिरने वाले बारिश के पानी को संजय करके रख सकते हैं। ऐसे में ऊंचाई पर खुले टंकियों का उपयोग किया जाता है जिनमें वर्षा के पानी को संग्रहण करके नलों के माध्यम से घरों तक पहुंचाया जाता है।

यह पानी स्वच्छ होता है जो थोड़ा बहुत ब्लीचिंग पाउडर मिलाने के बाद पूर्ण तरीके से उपयोग में लाया जा सकता है।

3. बांध Dams
बड़े बड़े बांध के माध्यम से वर्षा के पानी को बहुत ही बड़े पैमाने में रोका जाता है जिन्हें गर्मी के महीनों में या पानी की कमी होने पर कृषि, बिजली उत्पादन और नालियों के माध्यम से घरेलू उपयोग में भी इस्तेमाल में लाया जाता है।

जल संरक्षण के मामले में बांध बहुत उपयोगी साबित हुए हैं इसलिए भारत में कई बांधों का निर्माण किया गया है और साथ ही नए बांध बनाए भी जा रहे हैं।

4. भूमिगत टैंक Underground Tanks
यह भी एक बेहतरीन तरीका है जिसके माध्यम से हम भूमि के अंदर पानी को संरक्षित रख सकते हैं। इस प्रक्रिया में वर्षा जल को एक भूमिगत गड्ढे में भेज दिया जाता है जिससे भूमिगत जल की मात्रा बढ़ जाती है।
साधारण रूप से भूमि के ऊपर ही भाग पर बहने वाला जल सूर्य के ताप से भाप बन जाता है और हम उसे उपयोग में भी नहीं ला पाते है परंतु इस तरीके में हम ज्यादा से ज्यादा पानी को मिट्टी के अंदर बचा कर रख पाते हैं।
यह तरीका बहुत ही मददगार साबित हुआ है क्योंकि मिट्टी के अंदर का पानी आसानी से नहीं सूखता है और लंबे समय तक पंप के माध्यम से हम उसको उपयोग में ला सकते हैं।

5. जल संग्रह जलाशय Water Collection Reservoirs
यह साधारण प्रक्रिया है जिसमें बारिश के पानी को तालाबों और छोटे पानी के स्रोतों में जमा किया जाता है। इस तरीके में जमा किए हुए जल को ज्यादातर कृषि के कार्यों में लगाया जाता है क्योंकि यह जल दूषित होता है।

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