Madhyamik History Last minute suggestion

 Madhyamik History Last minute suggestion


4 marks important question

1. नारी शिक्षा के क्षेत्र में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के योगदानों का वर्णन करें। (Describe the role of Ishwar Chandra Vidyasagar in field of women education.) 

Ans. नारी शिक्षा के क्षेत्र में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का योगदान विद्यासागर के जीवन का संकल्प : था- शिक्षा सुधार, शिक्षा का प्रचार तथा स्त्रियों की हर प्रकार की सामाजिक स्वतंत्रता, स्त्री शिक्षा के प्रचार के लिए उन्होंने अत्यधिक कार्य किया। उन्होंने अनुभव किया कि शिक्षा के बिना स्त्रियों की दशा में सुधार नहीं हो सकता। हिन्दू बालिका विद्यालय की स्थापना के लिए उन्होंने बेथून साहब की सहायता से बेथून कॉलेज की स्थापना की। बंगालियों के सामाजिक इतिहास में इसका काफी महत्त्व है। शिक्षा निदेशक के पद पर कार्य करते हुए उन्होंने बंगाल में अनेक बालिका विद्यालयों की स्थापना की। उन्होंने देशी शिक्षा के प्रसार के लिए सरकार को अधिकाधिक देशी विद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया। शिक्षा जगत में धार्मिक संकीर्णता को दूर करने के लिए संस्कृत कॉलेज में गैर ब्राह्मण छात्रों को पढ़ाने का अवसर दिया। बच्चों को आसानी से बंगला सीखने के लिए उन्होंने वर्ण परिचय, लघु सिद्धान्त कौमुदी, बोधोदय, कथा माला आदि पुस्तकों की रचना की। वे हिन्दू विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे और उन्हीं के प्रयास से 1856 ई० में लॉर्ड डलहौजी ने विधवा पुनर्विवाह कानून पास किया। शिक्षा प्रसार तथा नारी उत्थान में विद्यासागर का योगदान अविस्मरणीय है।


2."हूतोम पेंचार नक्शा" ग्रन्थ उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाली समाज का किस प्रकार का चित्र प्रस्तुत करता है? (What picture of 19th century Bengalee society is revealed in the book"Hutom Pyanchar Naksha"?)


Ans. बंगला व्यंगात्मक साहित्य में हुतोम प्यानचार की भूमिका :- हुतोम प्यानचार नक्शा या उल्लू का नक्शा (Naksha of the owl) काली प्रसन्न सिंह (Kali Prasanna Singha) के द्वारा लिखा गया व्यंगात्मक गद्य साहित्य था। यह पुस्तक 140 पृष्ठों की है। इस पुस्तक में उस समय के समाज में व्याप्त धार्मिक आडम्बरयुक्त त्योहार, पुरोहितवाद, बाबू (Babus) एवं साहेब (Saheb) जैसी परम्पराओं का मजाक उड़ाया गया है। हुतोम प्यानचार नक्शा में उस समय की 'चलित भाषा' (running language) अर्थात् बोल चाल की भाषा का भी प्रयोग बहुतायत देखने को मिलता है।

हुतोम प्यानचार नक्शा उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल के गद्य साहित्यों में सबसे अधिक लोकप्रिय पुस्तक है। परवर्ती लेखकों ने काफी संख्या में इस पुस्तक का अनुकरण किया। नक्शा का तात्पर्य इस पुस्तक में व्यंगात्मक चित्रों को शब्द का रूप देने से है। कालीप्रसन्ना सिंह ने उस समय के समाज में व्याप्त अराजकता तथा बंगाली समाज में पाश्चात्य संस्कृति के आगमन के पश्चात् के बदलाव को शब्दों में पिरोने का कार्य किया है।


3. बाम बोधिनी पत्रिका ने किस प्रकार महिलाओं की दशा को सुधारने का कार्य किया ? (How did Bambodhini magazine reform the condition of women?)


Ans. महिलाओं की दशा सुधारने में बामबोधिनी पत्रिका की भूमिका बामबोधिनी पत्रिका के माध्यम से स्त्रियों में कई प्रकार के परिवर्तन देखने को मिले। समाज तथा परिवार में स्त्रियों की बदलती हुई दशा की यह पत्रिका गवाह बनी। इस पत्रिका ने निराश्रित तथा अत्याचार सहती महिलाओं को समाज में एक सम्मानित स्थान दिलाने में मदद किया।

बामबोधिनी पत्रिका ने महिलाओं के जीवन में अद्भुत परिवर्तन को लाने में मदद किया। इस पत्रिका के माध्यम से महिलाएँ शिक्षा के प्रति अग्रसर हो सकीं। बहुतों ने तो इस पत्रिका में अपने विचारों को लिखकर भेजना भी शुरू कर दिया और कालांतर में वे अच्छी लेखिका भी बनीं। यह बंगाल की प्रथम मासिक पत्रिका थी जिसने समाज में महिलाओं के उत्थान के लिए इतना प्रयास किया। इस पत्रिका ने साधारण एवं सरल भाषाओं का प्रयोग कर बंगाल के जन समूह को आकर्षित किया। जब बामबोधिनी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था, उस समय भारतीय समाज महिलाओं के उत्थान को लेकर बड़ा संकीर्ण था। इस पत्रिका ने सामाजिक बुराइयों से त्रस्त एवं मूक महिलाओं को अपनी आवाज दी तथा उनकी अवस्था में परिवर्तन लाने में महान भूमिका अदा की।


4. चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की क्या भूमिका थी। (What role did the Calcutta Medical College play in the field of medical science in this country?)


Ans. बंगाल में विज्ञान के विकास में कलकत्ता विज्ञान कॉलेज की भूमिका - शिक्षा को महत्त्व देने के लिए विश्वविद्यालय नियम के आधार पर आशुतोष मुखर्जी ने 1904 ई० में कलकत्ता बंगाल में वैज्ञानिक विज्ञान कॉलेज की स्थापना की। उस समय के महान वैज्ञानिक पी.सी. रॉय, सी.वी. रमन, के.एस. कृष्णन इस कॉलेज से जुड़े थे। इस कॉलेज में भौतिकी, रसायन, जैविक विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के अनुसंधान किए जाते थे। विशेषकर बायो-कैमिस्ट्री, बायो-टेक्नोलॉजी तथा बायो मेडिकल विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर यहाँ चर्चा की जाती थी। यहाँ युवा शोधकर्ताओं को अनुसंधान के लिए प्रेरित किया जाता है। बंगाल में विज्ञान के शिक्षा को बढ़ावा देने में इस संस्था की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी । इस कॉलेज के प्रमुख शिक्षकों में आचार्य प्रफुल्लचन्द्र रॉय, सर चन्द्रशेखर बेंकट रमन, शिशिर कुमार मित्र के सानिध्य में रहकर स्नातकोत्तर के प्रमुख शिक्षार्थी सत्येन्द्रनाथ बोस, ज्ञान चन्द्र घोष, ज्ञानेन्द्र मुखर्जी तथा अन्य विद्यार्थियों ने विज्ञान में नई ऊँचाइयों को हुआ।

इस कॉलेज में शोधकार्य से सी. भी. रमन को काफी फायदा मिला तथा उन्होंने नोबल पुरस्कार प्राप्त कर नई उपलब्धियों को हासिल किया। आचार्य प्रफुल्लचन्द्र रॉय ने बंगाल केमिकल एवं फार्मास्यूटिकल वर्क्स (Bengal Chemical and Pharmaceutical Works) की स्थापना की। मेघनाद साहा तथा ज्ञानचन्द्र घोष ने आजादी के बाद राष्ट्रीय योजना आयोग से जुड़ कर देश में वैज्ञानिक प्रगति को एक नई दिशा दी।


5. पाश्चात्य शिक्षा के विकास में राजा राममोहन रॉय की भूमिका का वर्णन कीजिए। (Discuss the role of Raja Rammohan Roy in the spread of Western Education.)


Ans. पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार में राजा राममोहन रॉय का योगदान भारत में पाश्चात्य शिक्षा के - प्रसार में भारत के आधुनिक पुरुष राजा राममोहन रॉय एवं राजा राधाकान्त देब की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी। राजा राममोहन रॉय अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, लैटिन, यूनानी, हिब्रू इत्यादि भाषाओं के ज्ञाता थे। ये पश्चिम के आधुनिक देशों के उदारवादी, बुद्धिवादी सिद्धान्तों से बहुत प्रभावित थे। वे हिन्दू शिक्षा को यूरोपीय शिक्षा के वैज्ञानिक आदर्श पर संगठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने भूगोल, ज्योतिष शास्त्र, ज्यामिति और व्याकरण आदि विषयों पर बंगला में पाठ्य पुस्तकें लिखीं। उन्होंने सन् 1817 ई० में पाश्चात्य शिक्षा को अपना समर्थन देने के लिए डेविड हेयर की सहायता से कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज (Hindu College) की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने आधुनिक भारत में पाश्चात्य शिक्षा की नींव रखी। इसीलिए उन्हें भारत का आधुनिक पुरुष (Modern Man of India) कहा जाता है।


V.I.6.उपनिवेशिक सरकार ने किस उद्देश्य से जंगल कानून लागू किया ? (With what objectives the Colonial Government enacted the Forest Laws?)******

Ans. औपनिवेशिक वन अधिनियम ने आदिवासियों के अधिकार का हनन किया। जंगलों के इस्तेमाल व जंगल की सम्पदा पर सरकारी नियंत्रण और इजारेदारी की स्थापना का कार्य लॉर्ड डलहौजी के समय में आरम्भ किया गया। जंगल विभाग की स्थापना 1864 ई० में की गई तथा वन कानून को 1865 ई० में पारित किया गया। 1878 ई० में दूसरा कानून बनाकर सरकार ने अपने अपने अधिकारों का क्षेत्र बढ़ा लिया। इन कानूनों के फलस्वरूप 1900 ई० तक भारत की जमीन के क्षेत्र का पाँचवा हिस्सा आरक्षित सरकारी जंगलों में बदल गया। जंगलों पर बढ़ते सरकारी अधिकारों का आदिवासियों ने कई प्रकार से विरोध किया, जिसमें सरकारी अधिकारियों पर हमला व उनकी हत्या भी शामिल थी। आदिवासी क्षेत्र में वन अधिनियम के पारित होने से उनके जीवन निर्वाह पर असर पड़ा क्योंकि ये कानून उन्हें वन में प्रवेश करने तथा वन सम्पदा का व्यवहार करने से रोकते थे। अत: उन्होंने इसके खिलाफ कई स्थानों पर विद्रोह कर दिया। 19वीं सदी के अन्तिम वर्षों में रम्पा तथा गुदेम विद्रोह, चुआरं विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह एवं मुण्डा विद्रोह वन अधिनियम के प्रतिवाद स्वरूप किये गए विद्रोह थे ।

V.I.7.तीतूमीर के बारासात विद्रोह का वर्णन कीजिए (Describe in brief the Barasat Rev of Titumir.)******

Ans. तीतूमीर का बारासात विद्रोह (Barasat revolt of Titumir)- बंगाल में वहाबी आन्दोलन का नेता तीतूमीर (मीर नासिर अली) था। 1830 ई० में उसने मुसलमानों के धार्मिक सुधार के साथ ही जमींदारों तथा सूदखोरों के शोषण एवं अत्याचार का विरोध करने के लिए भी उन्हें प्रेरित किया। इनके विचारों से प्रभावित निर्धन एवं निम्न श्रेणी के असंख्य हिन्दू एवं मुसलमान इनके समर्थक बन बये तीतूमीर ने अपने 600 समर्थकों को लेकर बारासात के पास नारकेलबेरिया में बाँस का एक किला बनवाया तथा नदिया, बारासात और चौबीस परगना की बहुत सी नील कोठियों तथा जमींदारों के घरों पर आक्रमण किया। तीतूमीर अंग्रेजों के कट्टर विरोधी थे तथा उन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 1831 ई० का यह विद्रोह 'बारासात विद्रोह' के नाम से विख्यात है।

तीतूमीर के बारासात विद्रोह के असफल होने के कारण (Causes of the failure of the Barasat revolt of Titumir) - (i) तीतूमीर ने अंग्रेजों का सामना करने के लिए 'बाँस का किला' तैयार करवाया। उस किले में अनेक प्रकोष्ठ बनवाये गये एवं किले के अन्दर तलवारें, बर्छे एवं लाठियाँ हथियार के रूप में रखे गये। लेकिन सरकारी दमन चक्र और ब्रिटिश गोलों की मार से तीतूमीर के बाँस का किला ध्वस्त हो गया। (ii) तीतूमीर मारा गया तथा उसके 350 सहयोगी गिरफ्तार किये गये। नेतृत्त्व के अभाव तथा सरकारी दमन के कारण तीतूमीर का बारासात आन्दोलन (1831 ई०) असफल रहा। 

* V.I.8. 1855 ई. में सन्थाल विद्रोह क्यों हुआ? (Why did the Santhals rebel happened in 1855 A.D.?)*****

Ans. संथाल विद्रोह के कारण - संथालों के विद्रोह के अनेक कारणों में कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
 (1) भू-राजस्व (लगान) - सरकार ने संथालों को बसने के लिए जिन जंगली और पर्वतीय क्षेत्रों को दिया, उसे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ बसने एवं कृषि के योग्य बनाया। इस नए क्षेत्र पर वे अपना स्वतंत्र अधिकार समझते थे। इसी बीच सरकार ने संथालों को जमीन का लगान जमा करने का आदेश दिया। सरकारी कर्मचारी संथालों से राजस्व वसूलने के लिए उनपर अत्याचार करने लगे। पहले तो उनलोगों ने अत्याचार सहा लेकिन असह्य शोषण एवं अत्याचार के कारण उन्होंने 1784 ई० में बाबा तिलका माँझी के नेतृत्व में पहली बार विद्रोह कर दिया। बाद में सिद्धू और कानू के नेतृत्व में भी संथाल विद्रोह हुआ था।

(2) जमींदारों का अत्याचार स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत जमीन पर जमींदारों का अधिकार हो गया। सरकार ने संथाल परगना की भूमि भी जमींदारों को सौंप दी। जमींदार उस भूमि का लगान वसूलने लगे। जमींदार के कर्मचारी या अधिकारी वर्ग संथालों से लगान के अतिरिक्त कई प्रकार के अवैध कर वसूलने लगे। यहाँ तक की संथालों की सम्पत्ति के साथ-साथ बहू-बेटियों का सम्मान भी सुरक्षित नहीं रह पाता था। इस तरह के शोषण एवं अत्याचार को संथाल अधिक दिनों तक सह न सके एवं विद्रोह कर दिए।

(3) ठेकेदारों का अत्याचार - ब्रिटिश शासन में ठेकेदार एवं व्यापारी वर्ग का आविर्भाव हुआ। इन ठेकेदारों एवं व्यापारियों में अधिकांश अंग्रेज थे। अंग्रेज ठेकेदार सरकार से संथालों की जमीन पट्टे पर ले लेते थे। उस जमीन पर वे व्यापारिक खेती करते थे। वे उन खेतों में संथालों से मजदूरी करवाते थे और उचित मजदूरी भी नहीं देते थे। काम न करने पर अंग्रेज ठेकेदारों द्वारा उनपर अत्याचार किया जाता था।

(4) साहूकारों का अत्याचार - शान्त तथा निश्छल संथालों की बस्तियों में साहूकार एवं व्यापारी भी बस गए जो अत्यन्त धूर्त एवं मक्कार थे। वे संथालों की खड़ी फसलों को कम दाम में खरीद लेते थे और उन्हीं फसलों से तैयार अनाज को उन्हें मँहगे मूल्य पर बेचते थे। साहूकार विपन्न संथालों को शादी-विवाह या विशेष अवसरों पर 50 से 500 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण देते थे। कर्ज के रुपये का ब्याज या सूद ही इतना हो जाता था कि कर्ज से मुक्त होना मुश्किल था। इन परिस्थितियों में ये साहूकार उनके पशुओं या घर की सम्पत्ति पर अधिकार कर लेते थे। सूदखोर साहूकार संथालों का शोषण करने लगे। इस प्रकार इन धूर्त साहूकारों तथा व्यापारियों के शोषण ने संथालों के मन में विद्रोह की भावना भर दी।

(5) नीलहे गोरों का अत्याचार - नीलहे गोरे संथालों को अग्रिम राशि (दादन) देकर उनसे इकरारनामा लिखवा लेते थे कि वे एक लम्बी अवधि तक एवं निश्चित मूल्य पर निश्चित मात्रा में नील दिया करेंगे। नील प्लान्टरों द्वारा निर्धारित मूल्य बहुत कम होता था। इन परिस्थितियों में संथालों को नील की खेती से कोई लाभ नहीं होता था। अगर संथाली खाद्यान्न की खेती करते तो इनकी खड़ी फसलों को नष्ट दिया जाता था अथवा तैयार होने पर उसमें आग लगा दी जाती थी। किसानों पर अनेक तरह से अत्याचार होते थे। ये किसान इन नीलहे गोरों के विरुद्ध न्याय के लिए जाते तो नीलहे गोरों का प्रभाव न्यायालयों एवं पुलिस विभाग में रहता था, उन्हें कहीं न्याय नहीं मिलता था बल्कि वे वहाँ भी प्रताड़ित किए जाते। इस प्रकार नीलहे व्यापारियों के शोषण और अत्याचार के शिकार संथालियों में विद्रोह की भावना भड़क उठी।

(6) ईसाई मिशनरियों का धार्मिक प्रचार- ईसाई मिशनरियाँ संथालों की बस्तियों में पहुँचकर ईसाई धर्म का प्रचार करने लगीं। ये संथालों को पहले पैसे और फिर नौकरी का लालच देकर ईसाई बनाने लगीं। संथाली प्रारम्भ से ही अपनी संस्कृति के लिए स्वतंत्र थे। जब ये स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए तो उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाने लगा। इस प्रकार अपने धर्म एवं संस्कृति विनाश के विरोध में संथाली अंग्रेजों से क्षुब्ध हो गए।

(7) न्याय व्यवस्था में असंतोष - संथालों ने अपने ऊपर होने वाले अत्याचार एवं शोषण के विरुद्ध न्यायालयों में न्याय माँगने का प्रयास किया, किन्तु उनकी शिकायत पर किसी ने, चाहे वह अदालत हो या पुलिस विभाग, ध्यान नहीं दिया। जब संथालों के सामने न्याय पाने का कोई विकल्प न बचा तो वे विद्रोह करने के लिए उतारू हो गए।

9. कोल विद्रोह के बारे में जो जानते हैं संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। ****
कोल विद्रोह (Kol Rebellion) : कोल भारत की प्राचीन आदिवासियों की एक जाति है, जो बिहार और झारखण्ड के सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू, मानभूम जिलों में निवास करती है। ये सभी जिले छोटानागपुर क्षेत्र में आते हैं। कोल जाति के लोग भी शान्त प्रकृति के होते हैं। इनकी अपनी स्वतंत्र संस्कृति, सामाजिक परम्पराएँ एवं रीतियाँ हैं।

विद्रोह के कारण - पहले कोल जंगलों को साफ कर खेती करते थे। कई गाँवों के निवासी एकजुट होकर अपना एक मुखिया चुन लेते थे। मुखिया के नेतृत्व में ही खेती की जाती थी तथा फसल तैयार होने पर ये लोग आपस में बाँट लेते थे। लेकिन कम्पनी की सत्ता स्थापित होने के बाद अंग्रेजों ने इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करना शुरू किया। अंग्रेजों ने कोलों से जमीन छीनकर अधिक लगान देने वाले सिक्ख एवं मुस्लिम ठेकेदारों को दे दिया। इससे कोल समुदाय ने क्रुद्ध होकर विद्रोह कर दिया।

विद्रोह का प्रसार- 1831 ई० में बुद्ध भगत के नेतृत्व में कोल विद्रोह राँची क्षेत्र से शुरू हुआ। फिर धीरे-धीरे इसका प्रसार सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू तथा मानभूम के पश्चिम क्षेत्रों में फैल गया। सर्वप्रथम विद्रोहियों ने गैर आदिवासी लोगों के मकानों, दुकानों तथा खेतों को लूटना और जलाना शुरू किया। इस विद्रोह में अन्य आदिवासी जातियों (ओरांव, मुण्डा) ने भी इनकी मदद की। केशव भगत, जोआ भगत, नरेन्द्र शाह के नेतृत्व में यह विद्रोह और हिंसक बन गया। विद्रोहियों ने सरकारी खजानों को लूटा। कचहरी और थानों पर आक्रमण करके कागजात नष्ट कर दिए। सिक्ख एवं मुसलमान ठेकेदारों पर आक्रमण करके उनके घरों को जला दिया गया। विद्रोहियों ने ठेकेदारों की जमीन पर कब्जा कर लिया। 1832 ई० में इस विद्रोह ने भयंकर रूप धारण कर लिया। ठेकेदारों ने सरकार से सहायता माँगी।

विद्रोह का दमन - ब्रिटिश सरकार ने कोल विद्रोह को दबाने के लिए एक सेना भेजी। अंग्रेजी सेना के पास आधुनिक हथियार थे। कोलों के पास अपने परम्परागत हथियार तीर-धनुष, भाले, कुल्हाड़े थे। अत: कोल अंग्रेजी सेना के सामने टिक न सके। 1832 ई० में दोनों पक्ष के बीच घमासान युद्ध हुआ। कोल नेता बुद्ध भगत तथा बहुत सारे विद्रोही मारे गये और कोल विद्रोह दबा दिया गया।

10.बंगाल के सन्यासी विद्रोह के प्रमुख कारण विस्तार तथा प्रभाव या महत्व का संक्षेप में वर्णन कीजिए।*****

उत्तर : सन्यासी विद्रोह : बंगाल में 1763-80 ई० तक के लगभग 40 वर्ष तक वर्द्धमान के सन्यासियों ने अंग्रेजों के धार्मिक शोषण, अत्याचार, कुशासन के विरुद्ध जो आन्दोलन शुरु किया था, उसे सन्यासी आन्दोलन कहा जाता है।
इस आन्दोलन का नेतृत्व भवानी पाठक ने किया था। इसके अलावा चिराग अली, मूसाशाह, सरला देवी चौधरानी ने भी साथ दिया था। इस विद्रोह का मार्मिक वर्णन बंकिम चन्द्र ने अपने उपन्यास आनन्दमठ' में किया है। कारण : बंगाल के ढाका से 1763 ई० में शुरु हुए सन्यासी /विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे

(i) अंग्रेजी शासन का सन्यासियों के आन्तरिक क्रिया-कलाप में हस्तक्षेप करना। 
(ii) सन्यासियों के देश में घूमने-फिरने पर रोक लगाना।

(iii) सन्यासियों के तीर्थ-यात्रा पर कर लगाना और उसे नहीं चुकाने पर उन पर विभिन्न प्रकार से अत्याचार करना
 (iv) अंग्रेजों द्वारा किसानों पर हो रहे शोषण और अत्याचार से तथा, 1770 ई० की महाकाल के प्रभाव से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना था।

उपर्युक्त कारणों एवं परिस्थितियों में सन्यासियों के सामने विद्रोह के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था, फलस्वरूप 1763 ई० में भवानी पाठक के नेतृत्व में सन्यासियों एवं फकीरों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। शुरू में इस विद्रोह का स्वरूप धार्मिक था, किन्तु आगे चलकर किसानों से जुड़ कर आर्थिक ग्रहण कर लिया।

विस्तार : सन्यासी विद्रोह की शुरुआत ढाका से हुआ था, जो धीरे-धीरे बाँकुड़ा, मालदह, रंगपूर, दिनाजपूर, मैमन सिंह फरीदपूर, कूचाविहार आदि जिलों से होते हुए “ओम बन्दे मात्रम" नारे के साथ पूरे बंगाल में फैल गया।

महत्व /प्रभाव : सन्यासी विद्रोह 1763 ई० से शुरु होकर लगभग 1800 ई० तक चलता रहा। इस विद्रोह को आर्थिक मदद देने में वर्द्धमान (बंगाल) के राजा-रानी (सरला) का विशेष योगदान रहा। धन की कमी के कारण संगठन उचित नेतृत्व एकता के भावना की कमी के कारण वारेन हेस्टिंग्स ने इस विद्रोह को भिखारियों एवं डकैतो का उपद्रव की संज्ञा देते हुए सैनिक ताकत के बल पर दबा दिया, इस प्रकार यह विद्रोह लम्बे संघर्ष के बाद भी बिना उद्देश्य प्राप्ति के समाप्त हो गया, किन्तु इस विद्रोह ने बंगाल के आदिवासियों, जनजातियों एवं किसानों में एकता और संघर्ष की भावना पैदा कर दी, इस विद्रोह से प्रेरित देश के कई भागों में आदिवासी एवं किसान विद्रोह होने लगे।

11.वुड घोषणा पत्र से क्या समझते है ? भारतीय शिक्षा के विकास में इसके योगदान का वर्णन कीजिए।***

उत्तर : वुड डिस्पैच का घोषणापत्र : बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के सभापति/ अध्यक्ष 'चार्ल्स वुड' ने 19 जुलाई 1854 ई० को भारतीय शिक्षा में सुधार के सम्बन्ध में तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी को जो विस्तृत योजना प्रस्तुत की ही उसे ‘वुड का घोषणपत्र’ कहा जाता है। इस घोषणापत्र में कुल (100) अनुच्छेद थे। भारत में पहली बार बहुत बड़े पैमाने पर शिक्षा में सुधार की सुझाव और घोषणाए वुड डिस्पैच द्वारा की गयी थी। जिसके फलस्वरूप भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अनेकों सुधार हुए तथा स्कूल, कालेज एवं विश्वविद्यालय स्थापित हुए। इस कारण वुड-डिस्पैच का भारतीय शिक्षा ‘मैग्नाकार्ता' कहा जाता है।

वुड डिस्पैच का भारतीय शिक्षा के विकास में योगदान :- चार्ल्स वुड ने अपने घोषणा पत्र मे भारतीय शिक्षा मे सुधार और विकास के लिए निम्नलिखित प्रमुख सुझाव दिए थे : 
(i) सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिए।

(ii) सरकार की शिक्षा नीति पश्चिमी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की होनी चाहिए।

(iii) स्त्री शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए अलग-अलग स्कूल खोले जाने चाहिए।
 (iv) शिक्षा के विकास के लिए निजी क्षेत्रों को भी बढ़ावा देने के लिए सरकार को आर्थिक सहायता देनी चाहिए। 
(v) गाँव में देशी भाषा के प्राथमिक स्कूल तथा जिला केन्द्रों में अंग्रेजी और देशी दोनों भाषाओं के स्कूल और कॉलेज खोले जाने चाहिए।

(vi) लन्दन में oxford university (आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय) की तरह बम्बई, मद्रास और कलकत्ता में विश्वविद्यालय स्थापित किए जाए तथा उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा हो।

(vii) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रत्येक प्रान्तों में एक-एक डायरेक्टर की अध्यक्षता में शिक्षा विभाग की स्थापना की जाए। जो प्रतिवर्ष नियमित रूप से शिक्षा व्यवस्था की देखभाल करें। और प्रतिवर्ष सरकार को अपनी रिर्पोट प्रस्तुत करें। 
(viii) अध्यापको की ट्रेनिंग, नियुक्ति और वेतन की व्यवस्था सरकार स्वयं करे।

इस प्रकार इस सिफारिस के बाद लार्ड डलहौजी ने 1855 ई० में एक अलग 'लोक शिक्षा विभाग की स्थापना की और पूरी तरह से चार्ल्स के घोषणापत्र को लागू कर दिया गया। इसके बाद भारत में उनकों स्कूल, कॉलेज, महिला कॉलेज, विश्वविद्यालय 1857 [ कलकत्ता, बम्बई, मद्रास] कृषि विश्वविद्यालय ,इंजीनियरिंग कॉलेज खोले गए। इस कार्य में ईसाई मिशनरियों ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार चार्ल्स वुड की घोषणापत्र ने भारत में व्यवस्थित रुप से शिक्षा के विकास में अमूल्य योगदान दिया। जिसके दिखाये रास्ते के अनुसार आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था चल रही है।

12.यंग बंगाल आंदोलन में डिरोजियो के अवदान का अभिमूल्यन करो ।
 अथवा, हेनरी लुई विवियन डेरोजियो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।****

उत्तर : हेनरी लुई विवियन डेरोजियो बंगाल के एक महान समाज सुधारक थे जिन्होंने अपने माध्यम से बंगाल में कम समय में ही ब्रिटिश विरोधी क्रांति को जन्म दिया था। उन्होंने भारतीय समाज में फैले बुराईयों, कुरूतियों तथा बाह्य आडम्बरों को नष्ट करने का आहवान किये। हेनरी डेरोजियो पुर्तगाली पिता तथा भारतीय माता के सन्तान थे। भारतीयता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। उनका जन्म सन् 1809 ई० में हुआ था। 1823 ई० में शिक्षा समाप्त कर वे भागलपुर के कोठी में क्लर्क बन गये। 1827 ई० में वे कलकत्ता लौट आये तथा पत्रकारिता और साहित्य रचना में रूचि लेने लेगे। उन्होंने ‘इण्डिया गजट’, ‘कलकत्ता लिटरेरी गजट' तथा 'बंगाल एनुअल' जैसे कई पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन में भाग लिये । सन् 1828 ई० में देरोजियों ने 'फकीर ऑफ जंघीरा' (Fakir of Janghira) नामक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना किये।

डेरोजियो के नेतृत्व में 'यंग बंगाल' (Young Bengal) नामक संस्था का गठन हुआ और इनके अनुयायी युवा बंगाल' कहलाए। इनके द्वारा चलाया गया आन्दोलन 'यंग बंगाल आन्दोलन' (Young Bengal Movement) कहलाया। 'नव बंगाल' के सदस्यों में कुछ इतने उग्र विचारों वाले थे जो जाति-पाँत, मूर्ति-पूजा, सती-प्रथा, स्त्रियों की उपेक्षा तथा छुआछूत की निन्दा ही नहीं करते थे, बल्कि हिन्दू धर्म का भी विरोध करते थे। सन् 1831 ई० में देरोजियो के आकस्मिक मृत्यु के बाद इनके शिष्य कृष्ण मोहन बनर्जी, राम गोपाल घोष, महेश चन्द्र घोष एवं दक्षिणारंजन मुखर्जी आदि ने युवा बंगाल (Young Bengal) को आगे बढ़ाए।

13. ब्रह्म समाज में फूट क्यों पड़ी? (Why there was division in Brahma Samaj?) ***
अथवा ब्रह्म समाज के विभाजन का उल्लेख कीजिए। (Explain the division of Brahma Samaj.)

Ans. ब्रह्म समाज में विभाजन (Division in Brahma Samaj) : राजा राममोहन रॉय की मृत्यु के पश्चात् ब्रह्म समाज का संगठन एवं काम ढीला पड़ने लगा। देवेन्द्रनाथ टैगोर के इसमें शामिल होने के पश्चात् इस संस्था में एकबार फिर जान आ गई। राममोहन के विचारों के प्रसार के लिए उन्होंने 1833 ई० में तत्त्वबोधिनी सभा की स्थापना की। बाद में केशवचन्द्र सेन ने भी ब्रह्म समाज की सदस्यता ग्रहण की। उनके प्रभाव में समाज ने हिन्दू धर्म के सर्वोत्तम विश्वासों एवं नैतिक आचरणों को बनाए रखने की कोशिश की। मगर शीघ्र ही केशवचन्द्र के उदारवादी दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप ब्रह्म समाज में फूट पड़ गई।

केशवचन्द्र कई बातों में हिन्दू धर्म को संकीर्ण मानते थे और संस्कृत के मूल पाठों के प्रयोग को उचित नहीं समझते थे। अब उनकी सभाओं में सभी धर्मों (ईसाई, इस्लाम, फारसी तथा चीनी) के धर्म ग्रंथों का पाठ होने लगा। ऐसे सवालों पर मतभेद बढ़ता चला गया। फलस्वरूप केशवचन्द्र सेन मौलिक ब्रह्म समाज से अलग हो गए और उन्होंने आदि ब्रह्म समाज की स्थापना की। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने भारतवर्षीय ब्रह्म समाज की स्थापना की। एक ओर जहाँ केशवचन्द्र सेन ने समाज सुधार को अपना उद्देश्य बनाया वहीं दूसरी ओर देवेन्द्रनाथ टैगोर ने धर्म सुधार को अपना लक्ष्य निर्धारित किया।

1878 ई० में आदि ब्रह्म समाज में एक बार फिर फूट पड़ी। केशवचन्द्र एवं उनके अन्य सहधर्मी ब्रह्म समाजियों के लिए विवाह की एक न्यूनतम आयु का प्रचार करते थे, लेकिन 1878 ई० में स्वयं केशवचन्द्र ने अपनी 13 वर्षीया पुत्री का विवाह पूरे वैदिक कर्मकाण्ड के साथ कूचबिहार के राजा के साथ कर दिया। इस पर अन्य समाजियों ने कड़ा विरोध प्रकट किया और अन्ततः आनन्द मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री, द्वारिकानाथ गांगुली आदि ने केशवचन्द्र के समाज से अलग होकर एक नए साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की।

14.***'आनन्द मठ' उपन्यास के द्वारा राष्ट्रीयता का विकास किस प्रकार हुआ? (How did the nationalism spread by the novel 'Anand Math'?

Ans. 'आनन्द मठ' उपन्यास के द्वारा राष्ट्रीयता का विकास :- 'आनन्दमठ' की रचना बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने की थी। इसका प्रकाशन 1882 ई० में बंगला भाषा में हुआ था। इस उपन्यास में 18वीं शताब्दी के संन्यासी विद्रोह की पृष्ठभूमि का वर्णन किया गया है। 'आनन्दमठ' को भारत एवं बंगाल के सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक माना जाता है। इस उपन्यास में समानार्थी शब्दों का प्रयोग करके ब्रिटिश सरकार के अत्याचारपूर्ण नीतियों को बताया गया है एवं लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को भरने का प्रयास किया गया है। ब्रिटिश सरकार ने इस उपन्यास को ब्रिटिश विरोधी बताते हुए इस पर प्रतिबंध लगा दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने इस पुस्तक के ऊपर से लगा प्रतिबंध हटा लिया। भारत का राष्ट्रीय गीत वन्देमातरम् (Vande Matram) सर्वप्रथम इस उपन्यास में ही प्रकाशित किया गया था। इस उपन्यास के प्रमुख पात्र महेन्द्र एवं संन्यासी संत्यानन्द के मातृभूमि के प्रति अटूट देशभक्ति को दिखाकर बंकिमचन्द्र पाठक वर्ग में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करना चाहते हैं और इस उद्देश्य में वे सफल भी होते हैं।

*14. 'इंडियन एसोसिएशन' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। (Write short note on Indian Association.)

Ans. इण्डियन एसोसिएशन (Indian Association) :- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व न केवल बंगाल में बल्कि पूरे भारत में सबसे प्रभावशाली संस्था के रूप में इण्डियन एसोसिएशन (Indian Association) या भारत सभा का विकास हुआ था। इसकी स्थापना 26 जुलाई 1876 ई० में कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल (Elbert Hall) में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा आनन्द मोहन बोस ने की थी। इण्डियन एसोसिएशन के संस्थापक यद्यपि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी थे, परन्तु इसके सचिव आनन्द मोहन बोस थे। बाद में इसके अध्यक्ष कलकत्ता के प्रमुख बैरिस्टर मनमोहन घोष चुने गए। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का मानना था कि कोई भी संस्था जनमत के समर्थन के बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। अतः उनका उद्देश्य मध्यम वर्ग के साथ-साथ साधारण वर्ग को भी इसमें सम्मिलित करना था, जिसके लिए इसमें चन्दे की दर, ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन के 30 रुपये वार्षिक के विपरीत मात्र 5 रुपये वार्षिक रखी गई। बहुत जल्द ही यह संगठन शिक्षित वर्ग का केन्द्र बन गया।
भारत सभा या इण्डियन एसोसिएशन के उद्देश्य निम्नलिखित थे 
(i) देश में जनमत की एक शक्तिशाली संस्था का गठन करना।
 (ii) सामान्य राजनीतिक स्वार्थों के आधार पर भारतीयों को सूत्रबद्ध करना। (iii) हिन्दू एवं मुसलमानों के बीच मैत्री भाव को बढ़ाना। 
(iv) निम्न वर्ग के भारतीय जनता को राजनीतिक आंदोलनों में सहयोगी बनाना।
15.'वर्तमान भारत' के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द ने किस प्रकार भारतीयों को पाश्चात्य की नकल करने से रोका ? (How did Swami Vivekanand stop Indian to copy westerm culture by 'Bartman Bharat'?)
 या, राष्ट्रीयता के प्रसार में 'वर्तमान भारत' पुस्तक का क्या योगदान है? 
Ans. पाश्चात्य संस्कृति की नकल रोकने में स्वामी विवेकानन्द रचित 'वर्तमान भारत' का योगदान :- स्वामी विवेकानन्द ने 'वर्तमान भारत' के माध्यम से भारतीयों को मूर्खतापूर्ण तरीके से पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति की नकल नहीं करने की सलाह दी है। उन्होंने प्रतीकात्मक रूप भारतमाता को सम्बोधित करते हुए लिखा है कि "आज भारतवासी जिस प्रकार से पाश्चात्य सभ्यता का नकल करते जा रहे हैं, उसका दुष्परिणाम हमारे धर्म, समाज संस्कृति पर कैसा होगा, कितना लम्बा होगा? इसका निर्णय न तो तर्क और न्याय कर सकता है और न ही जातिगत भेदभाव और हिन्दू धर्मशास्त्र ही।" इन पंक्तियों के माध्यम से उन्होंने सर्वधर्मसम्पन्न, भारतवासियों की असहायता को प्रकट किया है कि 'विश्व धर्मगुरु' देश में उत्पन्न होने के बावजूद वे पाश्चात्य संस्कृति अपनाने के लिए लालायित हैं।

इस पुस्तक के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य संस्कृति के प्रति भारतीयों के नकल की प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास किया है। उनका मुख्य मकसद एक जाति रहित देश का निर्माण करना है जहाँ भारतीय, जाति, धर्म और सम्पत्ति की सर्वोच्चता को त्याग कर भाई-चारे तथा बंधुत्व की भावना को अपनाकर मातृदेश के उत्थान में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने को तैयार हो जाएंगे। इस पुस्तक के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को फैलाने का प्रयास किया है।

16. महारानी के घोषणा पत्र (1858 ई०) का ऐतिहासिक महत्व क्या था? (What was the historical significance of the Queen's Proclamation (1858)?)

Ans. महारानी के घोषणा पत्र (1858 ई०) का ऐतिहासिक महत्त्व:- महारानी विक्टोरिया के घोषणापत्र का ऐतिहासिक महत्त्व निम्नलिखित है

(1) इस घोषणा पत्र के आधार पर भारत अब किसी कम्पनी विशेष का नही बल्कि ब्रिटिश सरकार का औपनिवेशिक अंग बन गया। इससे भारतीयों को ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में अपनी माँगों एवं समस्याओं को उठाने का मौका मिला।

(2) इस घोषणा पत्र के द्वारा भारतीयों को गोद लेने का अधिकार वापस मिला तथा डलहौजी के राज्य हड़प नीति और वेलेजली के सहायक संधि की नीति से छुटकारा मिला।

(3) इस घोषणा पत्र के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों के साथ कम्पनी के पूर्व में किए गए संधि का अक्षरशः पालन करने की प्रतिबद्धता जताई।

(4) इस घोषणा पत्र के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के किसी भी धार्मिक एवं सामाजिक मसले में हस्तक्षेप न करने का संदेश दिया।

(5) इस घोषणा पत्र में उपरोक्त तथ्यों को मंजूरी देकर ब्रिटिश सरकार ने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य को अगले 90 वर्षों के लिए बिखरनें से बचा लिया, क्योंकि इसके बाद कोई भी बड़ा जन आन्दोलन नहीं हुआ।

*17*राष्ट्रवाद के विकास में हिन्दू मेला की भूमिका का वर्णन करें। (Discuss the role of ‘Hindu Mela' in the development of Nationalism.)

Ans. राष्ट्रवाद के विकास में हिन्दू मेला की भूमिका :- 1861 ई० में बंगाल के महान राष्ट्रप्रेमी राजनारायण बोस ने बंगाल के लोगों में संस्कृति और परम्परा के प्रति रुचि उत्पन्न कर उनमें राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया। इसके परिणामस्वरूप उनके एक शिष्य नव गोपाल मित्र (Naba Gopal Mitra) ने 1867 ई० में हिन्दू मेला का गठन किया। यह एक वार्षिक उत्सव था जो प्रत्येक वर्ष चैत्र के महीने में अनुष्ठानिक रूप आयोजित किया जाता था। अत: इसे चैत्र मेला के नाम से भी जाना जाता है। इस मेला का मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बाँधकर उनमें राष्ट्रीयता की भावना का संचार करना था।

हिन्दू मेला मुख्यत: राष्ट्रीय मेला था। युवा नरेन्द्रनाथ (विवेकानन्द) ने भी इस मेला महोत्सव में भाग लिया था। हिन्दू मेला में नव गोपाल मित्र ने जिमनास्टिक, कुश्ती एवं अन्य परम्परावादी खेलों पर जोर दिया। 1868 ई० में उन्होंने अपने निवास स्थान पर एक जिमनास्टिक स्कूल खोला जिसका नाम नेशनल जिमनासियम (National Gymnasium) रखा गया। जिमनास्टिक के साथ-साथ यह स्कूल अभ्यर्थियों को राष्ट्रीयता का पाठ भी पढ़ाती थी। इस स्कूल के छात्रों में बिपिनचन्द्र पाल, सुन्दरी मोहन दास, राजचन्द्र चौधरी एवं स्वामी विवेकानन्द प्रमुख थे। हिन्दू मेला में देश के विभिन्न भागों से लोग आते थे तथा यहाँ उनके आपस में मिलने से राष्ट्रीय जनमत का निर्माण होता था। इस प्रकार हिन्दू मेला ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने का कार्य किया।

***18.***अवनीन्द्रनाथ द्वारा चित्रित की गई भारत माता का चित्र किस प्रकार से भारतीयों के अन्दर राष्ट्रीयता एवं देशप्रेम की भावना को विकास करने में सहायक सिद्ध हुआ।

उत्तर : भारत माता का चित्र : भारत माता का चित्र 1905 ई० में अवनीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा बनाया गया था। इस चित्र ने एक प्रतीक के रुप में देशवासियों के मन में उत्साह, साहस, राष्ट्रीयता एवं देशप्रेम की भावना को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 ई० में अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने बंग-भंग के विरोध में उत्पन्न हुए स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन के समय देशवासियों में वीरता, उत्साह, साहस, देशप्रेम की भावना को जागृत करने के लिए और अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजादी दिलाने के लिए एक प्रतीक के रूप में भारत माता (वंग माता) का चित्र एक सुन्दर सन्यासी युवती के रूप में बनाया था, जिसके देवी लक्ष्मी के समान चार भुजाए थी, जिसके एक हाथ में तलवार, दूसरे हाथ में त्रिशूल, तीसरे हाथ में तिरंगा और चौथे हाथ में माला लिये हुए और उनके बगल में शेर का चित्र दर्शाया गया था। इस प्रकार माँ भारती का यह चित्र एक देवी के रूप में अपने संतानों को सभी प्रकार का सुख देने का वरदान देते हुए दिखाई देती है यह चित्र देखते ही देशवासी अपने सभी भेद-भाव को भूलकर एक-जूट होकर आन्दोलन के लिए मचल कर सक्रिय हो उठते थे। यही चित्र आगे चलकर देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए शक्ति, साहस, संघर्ष और विजय का प्रतीक बन गई, भारत माता की जयकार लगाते हुए देशवासी स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी आहूति देने के लिए तत्पर होने लगे। सर्वप्रथम बनारस में भारत माता की मन्दिर स्थापित किया गया, जिसका उद्घाटन साबरमती के संत महात्मा गाँधी ने किया था, इस प्रकार भारत-माता का चित्र देशवासियों के साहस, शक्ति, संघर्ष, स्वतंत्रता के शक्ति का स्रोत बन कर उन्हें देश-प्रेम के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करता रहा।

**19*. तीतूमीर के नेतृत्व में बंगाल में वहाबी आन्दोलन के महत्व का वर्णन करो। (Discuss the importance of the Wahabi movement in Bengal under the leadership of Titu Mir.)

Ans. तीतूमीर के नेतृत्व में बंगाल में वहाबी आन्दोलन का महत्व (Importance of the Wahabi Movement in Bengal under the leadership of Titumir) - 1830 ई० के अन्तिम चरण में तीतूमीर ने मुसलमानों के धार्मिक सुधार करने के साथ-साथ मुसलमानों को जमींदारों तथा सूदखोरों के शोषण एवं अत्याचार का विरोध करने के लिए भी प्रेरित किया। इनके विचारों से प्रभावित होकर निर्धन एवं निम्न श्रेणी के असंख्य हिन्दू एवं मुसलमान इनके समर्थक बन गये। तीतूमीर ने अपने 600 समर्थकों को लेकर बारासात के पास नारकेलबेरिया में बाँस का एक किला बनवाया। इसी समय पूरे गाँव के जमींदार कृष्णदेव राय ने वहाबी अनुयायी किसानों पर 3 रु० वार्षिक कर लगा दिया। इससे क्रुद्ध होकर तीतूमीर ने पूरे गाँव पर आक्रमण कर दिया। इसके बाद उन्होंने नदिया, बारासात और चौबीस परगना की बहुत सी नील कोठियों तथा जमींदारों के घरों पर आक्रमण किया। इससे जमींदार एवं पूँजीपति वर्ग के लोग भयभीत हुए। तीतूमीर अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 1831 ई० का यह विद्रोह 'बारासात विद्रोह' के नाम से विख्यात है। सरकार को इसके विरुद्ध सेना भेजनी पड़ी। तीतूमीर ने बारासात के पास नारकेलबेरिया में बाँस के बने दुर्ग (किला) में अपने 600 अनुयायियों के साथ मोर्चा बनाकर सरकारी फौज का सामना किया किन्तु अंग्रेजी तोपों के सामने वे टिक नहीं पाये। अन्त में वह युद्ध करता हुआ अपने बहुत से अनुयायियों के साथ मारा गया।

**20*'गोरा' उपन्यास के द्वारा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किस प्रकार भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया था ? (How did Rabindra Nath Tagore spread the idea of nationalism among Indian through his novel 'Gora'?)

Ans. भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार करने में 'गोरा' उपन्यास का योगदान : ‘गोरा’ एक उपन्यास है जिसकी रचना रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1909 ई० में की थी। यह पुस्तक उनके द्वारा रचित बारह सबसे लम्बे उपन्यासों में से एक है। 1907 से 1909 ई० के बीच प्रवासी (Prabasi) पत्रिका में से क्रमबद्ध रूप दिया गया। यह काफी जटिल उपन्यास है इसी कारण इस उपन्यास पर आज भी विभिन्न प्रकार के अनुसंधान हो रहे हैं। आज भारत के विभिन्न कॉलेज के छात्र एवं प्राध्यापक इसका अध्ययन करते हैं एवं व्याख्या करते हैं। टैगोर ने अपनी इस रचना में मित्रता (Friendship), मातृत्व (Motherhood), प्रेम (Love), जातिगत भेदभाव (Caste discrimination), भाग्य का खेल (The play of destiny), राष्ट्र और राष्ट्रवाद (Nation and National ism), धर्म (Religion), आध्यात्मिकता (Spirituality), समय (time) इत्यादि को विषय-वस्तु बनाकर प्रस्तुत किया है। कृष्णा कृपलानी (Krishna Kriplani) ने सत्य ही कहा है कि, "गोरा मात्र एक उपन्यास नहीं है, यह आधुनिक भारत का महाकाव्य है।" इस पुस्तक में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सामाजिक सचेतनता एवं भारत के प्रबुद्ध वर्ग के उस बौद्धिक जागृति का वर्णन किया है जो उन्हें आत्म-मंथन करने से रोकता है और वे पाश्चात्यकरण का अंधानुकरण करते हैं। कृपलानी का मानना है कि टैगोर रचित 'गोरा' उपन्यास एकमात्र ऐसी पुस्तक है जिसमें जटिल भारतीय सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए भारतीयों को राष्ट्रवाद एवं विश्व मानवता का पाठ पढ़ाया गया है।

21.छपी पुस्तक और शिक्षा के प्रसार में सम्बन्ध का वर्णन कीजिए। (Explain the relation between printed books and the spread of education.) 
Ans. . मुद्रित साहित्य एवं ज्ञान के प्रसार में सम्बन्ध:- भारत में वैसे समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के आने के साथ आरम्भ हुआ। सर्वप्रथम पुर्तगाली भारत में मुद्रणालय (Printing press) लाए और 1557 ई० में गोवा के पादरियों ने पहली पुस्तक भारत में छापी। भारत में पहला समाचार पत्र निकालने का प्रयास कम्पनी के असंतुष्ट कार्यकर्ताओं ने किया था, जिनका उद्देश्य कम्पनी के दुष्कर्मों का भण्डाफोड़ करना था। 1776 ई० में विलियम बोल्ट्स (Willam Bolts) ने त्यागपत्र देकर समाचार पत्र निकालना चाहा, लेकिन उसकी योजना गर्भ में ही समाप्त हो गई और उसे इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जेम्स आगस्टस हिक्की ने भारत में 1780 ई० में पहला समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसका नाम 'द बंगाल गजट' (The Bengal Gazette) अथवा 'द कलकत्ता जेनरल एडवरटाइजर' (The Calcutta General Advertiser) था। बाद में उसके मुद्रणालय को भी नष्ट कर दिया गया। नवम्बर 1780 ई० में प्रकाशित इण्डिया गजट (India Gazette) दूसरा भारतीय पत्र था। 18वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल में कलकत्ता कैरियर (Calcutta Carrier), एशियाटिक मिरर (Asiatic Mirror), ओरिएंटल स्टार (Oriental Star) तथा बम्बई में बम्बई गजट (Bombay Gazette) का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1816 ई० में इसका प्रकाशन शुरू हुआ था। 1818 ई० में ब्रिटिश व्यापारियों ने जेम्स सिल्क बकिंघम नामक पत्रकार की सेवा प्राप्त की जो कलकत्ता जेनरल का सम्पादक नियुक्त हुआ। बकिंघम का पत्रकारिता में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने उदाहरण द्वारा बहुत से पत्रकारों को प्रोत्साहित किया। उन्होंने ही प्रेस को जनता का से प्रतिबिंब बनाया तथा प्रेस को वह रूप दिया था जो आज हम देखते हैं। उन्होंने प्रेस को आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने, जाँच-पड़ताल करके समाचार देने तथा नेतृत्व करने की ओर प्रवृत्त किया। परिणामस्वरूप वे कम्पनी की आँखों में काँटे की तरह खटकने लगे।
इन प्रेसों (मुद्रणालयों) ने लोगों को ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी से अवगत कराया। इनके द्वारा छापी पुस्तकों में ब्रिटिश सरकार की आर्थिक एवं धार्मिक नीतियों का वर्णन मिलता है। प्रेस के प्रसार से मुद्रित पुस्तकों की संख्या बढ़ने लगीं। लोगों के पास ये पुस्तकें सस्ती कीमतों पर एवं सुगमता से पहुँचने लगीं। इससे लोगों के विचारों में नयापन आया। वे अपने अधिकारों को लेकर सचेष्ट होने लगे। उन्हें घर बैठे देश-दुनिया की खबरें मिलने लगीं। विश्व के विभिन्न देशों में घटित आन्दोलनों की कहानियाँ एवं ब्रिटिश सरकार के प्रति आरम्भ हुए भारतीयों के असंतोष की कहानियाँ उनतक पहुँचने लग, फलस्वरूप उनमें राष्ट्रीयता की भावना का संचार बड़ी तेजी के साथ हुआ। पाश्चात्य लेखों एवं समाचार पत्रों को पढ़कर उन्हें अंग्रेजों के मंसूबों का भी पता चला तथा उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संगठित होना आरम्भ कर दिया। मुद्रित पुस्तकों के द्वारा जिस प्रकार भारत में राष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा था, उससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो उठी और उसने विभिन्न अधिनियमों द्वारा उनपर प्रतिबंध लगाने का प्रयत्न किया।

*22. बंगाल में कारीगरी शिक्षा के विकास में बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की क्या भूमिका थी? (What was the role of Bengal Technical Institute in the development of technical education in Bengal?) 
Ans. बंगाल में तकनीकी के विकास में बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की भूमिका :- बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की स्थापना 25 जुलाई, 1906 ई० को तारानाथ पालित (Taranath Palit) के प्रयास से की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य बंगाल के लोगों में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना था। इसकी स्थापना नेशनल काउन्सिल ऑफ एडुकेशन के साथ ही की गई थी। यह बंगाल के स्कूली छात्रों में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना चाहता था ताकि विज्ञान के साथ-साथ तकनीकी का भी विकास हो सके। आरम्भ में बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट तथा नेशनल काउन्सिल ऑफ एडुकेशन एक-दूसरे के विरोधी थे। परन्तु 1910 ई० में ये दोनों ही संस्थाएँ आपस में मिल गईं। 1921 ई० में इन संयुक्त संस्थाओं ने भारत में पहली बार रासायनिक अभियंता (Chemical Engineering) विषय पर शिक्षा देने की व्यवस्था की। 1940 ई० तक यह संस्था एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय के रूप में काम करने लगी थी। आजादी के बाद 1955 ई० में यादवपुर यूनिवर्सिटी एक्ट पास कर इसका नामकरण यादवपुर यूनिवर्सिटी रख दिया गया।

****21.छपी पुस्तक और शिक्षा के प्रसार में सम्बन्ध का वर्णन कीजिए। (Explain the relation between printed books and the spread of education.) 
Ans. . मुद्रित साहित्य एवं ज्ञान के प्रसार में सम्बन्ध:- भारत में वैसे समाचार पत्रों का इतिहास यूरोपीय लोगों के आने के साथ आरम्भ हुआ। सर्वप्रथम पुर्तगाली भारत में मुद्रणालय (Printing press) लाए और 1557 ई० में गोवा के पादरियों ने पहली पुस्तक भारत में छापी। भारत में पहला समाचार पत्र निकालने का प्रयास कम्पनी के असंतुष्ट कार्यकर्ताओं ने किया था, जिनका उद्देश्य कम्पनी के दुष्कर्मों का भण्डाफोड़ करना था। 1776 ई० में विलियम बोल्ट्स (Willam Bolts) ने त्यागपत्र देकर समाचार पत्र निकालना चाहा, लेकिन उसकी योजना गर्भ में ही समाप्त हो गई और उसे इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जेम्स आगस्टस हिक्की ने भारत में 1780 ई० में पहला समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसका नाम 'द बंगाल गजट' (The Bengal Gazette) अथवा 'द कलकत्ता जेनरल एडवरटाइजर' (The Calcutta General Advertiser) था। बाद में उसके मुद्रणालय को भी नष्ट कर दिया गया। नवम्बर 1780 ई० में प्रकाशित इण्डिया गजट (India Gazette) दूसरा भारतीय पत्र था। 18वीं शताब्दी के अंत तक बंगाल में कलकत्ता कैरियर (Calcutta Carrier), एशियाटिक मिरर (Asiatic Mirror), ओरिएंटल स्टार (Oriental Star) तथा बम्बई में बम्बई गजट (Bombay Gazette) का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1816 ई० में इसका प्रकाशन शुरू हुआ था। 1818 ई० में ब्रिटिश व्यापारियों ने जेम्स सिल्क बकिंघम नामक पत्रकार की सेवा प्राप्त की जो कलकत्ता जेनरल का सम्पादक नियुक्त हुआ। बकिंघम का पत्रकारिता में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने उदाहरण द्वारा बहुत से पत्रकारों को प्रोत्साहित किया। उन्होंने ही प्रेस को जनता का से प्रतिबिंब बनाया तथा प्रेस को वह रूप दिया था जो आज हम देखते हैं। उन्होंने प्रेस को आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने, जाँच-पड़ताल करके समाचार देने तथा नेतृत्व करने की ओर प्रवृत्त किया। परिणामस्वरूप वे कम्पनी की आँखों में काँटे की तरह खटकने लगे।
इन प्रेसों (मुद्रणालयों) ने लोगों को ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी से अवगत कराया। इनके द्वारा छापी पुस्तकों में ब्रिटिश सरकार की आर्थिक एवं धार्मिक नीतियों का वर्णन मिलता है। प्रेस के प्रसार से मुद्रित पुस्तकों की संख्या बढ़ने लगीं। लोगों के पास ये पुस्तकें सस्ती कीमतों पर एवं सुगमता से पहुँचने लगीं। इससे लोगों के विचारों में नयापन आया। वे अपने अधिकारों को लेकर सचेष्ट होने लगे। उन्हें घर बैठे देश-दुनिया की खबरें मिलने लगीं। विश्व के विभिन्न देशों में घटित आन्दोलनों की कहानियाँ एवं ब्रिटिश सरकार के प्रति आरम्भ हुए भारतीयों के असंतोष की कहानियाँ उनतक पहुँचने लग, फलस्वरूप उनमें राष्ट्रीयता की भावना का संचार बड़ी तेजी के साथ हुआ। पाश्चात्य लेखों एवं समाचार पत्रों को पढ़कर उन्हें अंग्रेजों के मंसूबों का भी पता चला तथा उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संगठित होना आरम्भ कर दिया। मुद्रित पुस्तकों के द्वारा जिस प्रकार भारत में राष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा था, उससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो उठी और उसने विभिन्न अधिनियमों द्वारा उनपर प्रतिबंध लगाने का प्रयत्न किया।

***22. बंगाल में कारीगरी शिक्षा के विकास में बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की क्या भूमिका थी? (What was the role of Bengal Technical Institute in the development of technical education in Bengal?) 
Ans. बंगाल में तकनीकी के विकास में बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की भूमिका :- बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट की स्थापना 25 जुलाई, 1906 ई० को तारानाथ पालित (Taranath Palit) के प्रयास से की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य बंगाल के लोगों में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना था। इसकी स्थापना नेशनल काउन्सिल ऑफ एडुकेशन के साथ ही की गई थी। यह बंगाल के स्कूली छात्रों में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना चाहता था ताकि विज्ञान के साथ-साथ तकनीकी का भी विकास हो सके। आरम्भ में बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट तथा नेशनल काउन्सिल ऑफ एडुकेशन एक-दूसरे के विरोधी थे। परन्तु 1910 ई० में ये दोनों ही संस्थाएँ आपस में मिल गईं। 1921 ई० में इन संयुक्त संस्थाओं ने भारत में पहली बार रासायनिक अभियंता (Chemical Engineering) विषय पर शिक्षा देने की व्यवस्था की। 1940 ई० तक यह संस्था एक स्वतंत्र विश्वविद्यालय के रूप में काम करने लगी थी। आजादी के बाद 1955 ई० में यादवपुर यूनिवर्सिटी एक्ट पास कर इसका नामकरण यादवपुर यूनिवर्सिटी रख दिया गया।


*23.*****बंगाल में प्रिंटिंग प्रेस के विकास में उपेन्द्र किशोर राय चौधरी की भूमिका का वर्णन करो।
(Board Sample Paper)
उत्तर :-20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बंगला साहित्य एवं प्रेस में अदभुत परिवर्त्तन आया जिसके कारण बंगला साहित्य (Bengali Literature) और मुद्रण (Press) दौर पड़े। ऐसा लगा मानो उनमें जान आ गयी। इसके पहले 19वीं शताब्दी के मध्य तक इन दोनों क्षेत्रों में कोई पहल नहीं था, जिसके कारण बंगला साहित्य एवं मुद्रण (Press) पिछड़ता चला गया था। लेकिन 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक ऐसे व्यक्ति का अभि-उदय हुआ जिनके प्रयास से बंगला साहित्य एवं मुद्रण (Press) का पर्याप्त विकास हुआ। उस महान व्यक्ति का नाम 'उपन्द्रकिशोर राय चौधरी' था।
उपेन्द्रकिशोर रॉय चौधरी का जन्म सन् 1863 ई० में बांग्लादेश के मैमन सिंह जिला के मोउसा या मसूया गाँव में हुआ था जो उस समय बंगाल के अन्तर्गत था, अब यह बंगाल से अलग हो गया है अर्थात् यह गाँव अब बंग्लादेश का हिस्सा बन चुका है। उनके पिता का नाम कालिनाथ राय था। उनके पिता द्वारा दिया गया नाम कामदारंजन राय था । पाँच वर्ष की उम्र में एक अपुत्रक जमींदार ने उन्हें गोद ले लिया था और उनका नया नाम 'उपेन्द्रकिशोर रॉय चौधरी' रखा था। वे द्वारिकानाथ गाँगुली के दामाद, लोकप्रिय हास्य लेखक सुकुमार राय के पिता तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध फिल्म निर्माता सत्यजीत राय के दादा थे । उनकी मृत्यु सन् 1915 ई० में हो गयी ।
उपेन्द्रकिशोर रॉय चौधरी एक प्रसिद्ध बंगाली साहित्यकार थे। इसके साथ ही वे एक प्रसिद्ध चित्रकार, सितारवादक, गीतकार, तकनीशियन तथा उत्साही व्यवसायी भी थे। उन्होंने भारत में पहली बार बच्चों के लिए 'संदेश' नामक पत्रिका का सुभारंभ किया, जो एक बंगाली मिठाई के नाम पर रखी गयी थी । इन्होंने दक्षिण एशिया में प्रेस के क्षेत्र में आधुनिक अक्षर निर्माण कला' (Block making) का निर्माण किया तथा इसके साथ ही 'रंगीन ब्लाक मेकिंग' (Colour block making) का भी शुरूआत किये। इतना ही नहीं, उन्होंने कलकत्ता में भी यह परम्परा शुरू की। उन्होंने स्वयं एक प्रकाशन संस्था का निर्माण किया तथा अपने प्रकाशन घर का नाम 'यू० एन० राय एण्ड सन्स' (U. N. Roy and Sons) रखा जहाँ से अनेकों रचनाएँ प्रकाशित हुई जिनमें 'छेलेदेर या छोटोदेर रामायण', 'छोटोदेर महाभारत', 'गोपी गाइन बाघा बाइन' तथा 'टुनटुनीर बोई' इत्यादि प्रमुख रचनाएँ हैं। इतना ही नहीं, इन्होंने वैज्ञानिक तरीकों से 'छाया प्रति ' (Negative making) का भी निर्माण किये थे। इस कार्य की प्रशंसा न केवल भारत में हुआ था बल्कि ब्रिटेन की पत्रिका
'पेनरोज ऐनुवल वॉल्यूम - XI' (Penrose Annual Volume-XI) में भी काफी कुछ छपा था। 
इनके द्वारा स्थापित मुद्रणालय दक्षिण एशिया का पहला मुद्रणालय या प्रेस था, जहाँ से काले एवं सफेद (Block and White) तथा रंगीन (Colourful) फोटोग्राफ्स मुद्रित होते थे।

24.***बसु विज्ञान मन्दिर (Basu Vigyan Mandir) :- बसु विज्ञान मन्दिर की स्थापना 1917 ई० आचार्य जगदीश चन्द्र बसु ने की थी। इसका प्रमुख उद्देश्य बंगाल में विज्ञान की प्रगति को बढ़ावा देना था। बाद में इसका नाम बदलकर बोस इंस्टीट्यूट (Bose Institute) रखा गया। इस संस्था में अनुसंधान का कार्य होता था तथा अनुसंधान के विषय थे - भौतिकी, रसायन, प्लांट बायोलॉजी, माइक्रो बायोलॉजी, बायोकेमिस्ट्री, बायोफिजिक्स, एनिमल फिजियोलॉजी, इम्यूनो टेक्नोलॉजी, बायो इन्फॉरमेटिक्स एवं पर्यावरण विज्ञान। आचार्य जगदीश चन्द्र बसु भारत में आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान के संस्थापक माने जाते हैं। बसु विज्ञान मन्दिर ने भारत में वैज्ञानिक खोजों एवं अनुसंधानों के क्षेत्र में जो उपलब्धियाँ हासिल की है, उससे न केवल भारत बल्कि पूरा विश्व गौरवान्वित हुआ।

* 25. विश्व भारती को स्थापित करने में टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी अवधारणा का वर्णन कीजिए। (Discuss Tagore's concept of education in the setting up Vishwabharati.)

Ans. शांति निकेतन में विश्वभारती की स्थापना के उद्देश्य - दिसम्बर, 1921 ई० में 'विश्वभारती' विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस विश्वविद्यालय को लोगों को समर्पित कर दिया। 16 मई 1922 ई० को इस संस्था के नियम कानून बनाए गए, जो इसके उद्देश्यों को सबके समक्ष लाते हैं। विश्वभारती विश्वविद्यालय के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं:

(i) भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों के आधार पर शिक्षा प्रदान करना, 
(ii) प्राच्य पाश्चात्य संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करना।
 (iii) विश्व बंधुत्व की भावना विकसित करके विश्व शांति के लिए आधार बनाना। 
(iv) इस संस्था को सांस्कृतिक संश्लेषण के साधन के रूप में बनाना।

विश्वभारती विश्वविद्यालय की अपनी कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं। यह सिद्धान्त: और मौलिक रूप से एक आवासीय शिक्षण संस्थान है, जहाँ भारतवर्ष ही नहीं, विश्व के कोने-कोने से छात्र आकर रहते हैं एवं शिक्षा ग्रहण करते हैं। कुछ छात्र अपने घरों में रहते हुए शिक्षा अध्ययन भी करते हैं। यहाँ छात्र एवं छात्राओं के लिए अलग आवास की व्यवस्था है। यहाँ शिक्षक एवं छात्रों के बीच के सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं। इस विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद से रवीन्द्रनाथ अक्सर यहाँ आते थे और छात्रों के बीच रहते थे। उनके कमरे के दरवाजे छात्रों के लिए हमेशा खुले रहते थे।

**26.***मानव, प्रकृति एवं शिक्षा के समन्वय में रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों का वर्णन कीजिए। (Briefly discuss the ideas of Rabindranath Tagore on the synthesis between Nature, Man and Education.)

Ans. मानव, प्रकृति एवं शिक्षा में रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार • रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मानवतावाद की - वकालत की है। उनका मानना था कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानवों के चरित्र का निर्माण करना है। टैगोर ने शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थियों के शारीरिक विकास पर बल दिया। उनके अनुसार शरीर का विकास स्वस्थ ढंग से हो, ताकि वह सभी ऋतुओं और परिस्थितियों तथा भावी संकटों से अपनी रक्षा कर सके। टैगोर का मत था कि शिक्षा के माध्यम से मानवों के अन्दर एक ऐसे मस्तिष्क का विकास हो जिससे वो स्वतंत्र प्रयास से ज्ञान की प्राप्ति कर सकें, साथ ही उस ज्ञान को आत्मसात कर लें। उन्होंने मानवों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास पर भी बल दिया है।

शिक्षा के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ के विचार:- रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार- "सर्वोच्च शिक्षा वही है जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।" टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नांकित हैं –(1) शारीरिक विकास (2) मानसिक विकास (3) नैतिक एवं चारित्रिक विकास (4) विश्व-बंधुत्व का विकास (5) राष्ट्रीयता का विकास इत्यादि। टैगोर के अनुसार व्यापक पाठ्यक्रम ही शिक्षार्थी के सम्पूर्ण विकास में सहायक बन सकता है। शिक्षण विधि के सम्बन्ध में टैगोर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं- (i) प्रकृति का अनुसरण, (ii) क्रिया के माध्यम से सीखना, (iii) जीवन क्रियाओं द्वारा शिक्षा (iv) खेल द्वारा शिक्षा। टैगोर का विचार था कि प्रारम्भिक अवस्था में बालक को जो कुछ पढ़ाया जाए, उसका पूरा-पूरा बोध कराने पर बल न दिया जाए। प्रारम्भ में उसे आंशिक बोध ही कराया जाए क्योंकि उनकी बौद्धिक क्षमता उन दिनों पूर्ण विकसित नहीं होती है।


**27.बंगाल की राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए|

उत्तर :- राष्ट्रीय शिक्षा नीति :- 1905 ई० में बंगाल विभाजन के फलस्वरूप बंगाल व देश में उभरे स्वदेशी आन्दोलन के ज्वार ने भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद (बंगाल) को जन्म दिया, इस समय बंगाल के तथा देश के कई बुद्ध -जीवियों ने मिलकर 1906 ई० में 'राष्ट्रीय' शिक्षा परिषद की स्थापना की जिसका उद्देश्य देश का निर्माण और विकास करना था। इस परिषद के अथक प्रयास से देश के विभिन्न भागों में देशी भाषा और मातृभाषा में अनेकों स्कूल, तकनीकी कालेज, इंजीनीयरिंग एवं मेडिकल कालेज स्थापित किये गये। इस परिषद की स्थापना में महेन्द्रलाल, तारकनाथ पालित, अरविन्द घोष, रासविहारी बोस, सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी, आशुतोष चौधरी का विशेष योगदान रहा। इनके प्रयास से ही देश में विज्ञान तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा का विकास हुआ और भारत आधुनिक शिक्षा के रास्ते पर चल पड़ा।


Long question-8 marks

V.V.I.
1.)1857 ई. के महान विद्रोह के चरित्र, प्रकृति और महत्व का विश्लेषण करें। शिक्षित समाज ने इस विद्रोह का समर्थन क्यों नहीं किया?******
या,
1857 के महाविद्रोह की प्रकृति का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (Briefly discuss the nature of the Great Revolt of 1857.)

Ans. 1857 ई० की क्रान्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है । अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे सैनिक क्रांति अथवा राष्ट्रीय विप्लव या मुस्लिम सत्ता पुनर्स्थापना का अन्तिम प्रयास बताया है और कुछ इतिहासकारों ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा प्रदान की है।

क्या यह सैनिक विद्रोह था -कुछ विद्वानों के अनुसार यह विद्रोह केवल एक सैनिक विद्रोह था। इसे न तो भारतीय - राजाओं का सहयोग मिला और न ही आम जनता का सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ। अत: इसे केवल सैनिक विद्रोह की संज्ञा प्रदान की जानी चाहिए। सीले, जॉन लॉरेन्स, पी० ई० राबर्ट्स के अनुसार यह एक सैनिक विद्रोह था जिसका तात्कालिक कारण कारतूस वाली घटना थी।

क्या यह राष्ट्रीय विप्लव था- कुछ इतिहासकारों के मतानुसार कम्पनी के सौ वर्ष के शासन ने भारतीय जनता का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक शोषण किया जिससे उनमें राष्ट्रीय भावना जाग्रत हुई। लगातार शोषण से जनता का कष्ट बढ़ता गया और उसने 1857 ई० में अपनी स्वाधीनता के लिए अन्तिम प्रयास किया।

क्या मुस्लिम सत्ता पुनर्स्थापना का अन्तिम प्रयास था -जेम्स आउट्रम के विचार से 1857 की क्रान्ति मुस्लिम सत्ता की पुनर्स्थापना का अन्तिम प्रयास था। इसका उद्देश्य बहादुर शाह द्वितीय को पुनः दिल्ली की गद्दी पर बैठाना था। हिन्दुओं के असंतोष का लाभ उठाकर अंग्रेजों को भारत से निकालकर मुस्लिम आधिपत्य को वापस लाना था। आउट्रम का यह कथन निराधार है क्योंकि इस क्रांति में स्पष्ट रूप से हिन्दुओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया था।

क्या यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था- आधुनिक इतिहासकार पण्डित जवाहरलाल नेहरू, वीर सावरकर, अशोक मेहता तथा वृन्दावन लाल वर्मा ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा है। इस स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व बहादुरशाह जंफर ने किया तथा क्रांति का शुभारम्भ सेना के द्वारा हुआ जिसने बाद में स्वतंत्रता संग्राम का रूप धारण कर लिया।

अंग्रेजों के लेखों से यह सिद्ध होता है कि विद्रोह में देश के एक तिहाई मुसलमानों ने भी भाग नहीं लिया फिर भी झाँसी की रानी, नाना साहब, कुँवर सिंह, तात्याँ, टोपे, बेगम हजरत महल तथा अवध के अनेक तालुकेदारों ने क्रांति का संचालन किया। 1857 ई० की क्रान्ति का सम्बन्ध केवल एक वर्ग से न था बल्कि इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलजुलकर साम्प्रदायिकता की भावना का त्याग कर राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर संघर्ष में भाग लिया।

सैनिक विद्रोह का प्रारम्भ उस समय हुआ, जब लोग अंग्रेजों को लुटेरा समझने लगे। 1857 ई० का विद्रोह भारतीयों का अंग्रेजों के प्रति असंतोष तथा घृणा का परिणाम था जिसमें लाखों भारतीय किसान, सैनिक, जमींदार तथा कई अपदस्थ राजाओं तथा नवाबों ने भाग लिया। क्रांति का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से निकालना था।

निष्कर्ष - उपरोक्त तथ्यों के विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि 1857 ई० की क्रान्ति अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शोषित वर्ग की एक भयंकर प्रतिक्रिया थी जिसे भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम (First war of Indian Independence) कहना न्यायसंगत होगा।

2)******शिक्षा प्रसार में प्राच्यवादी एवं पाश्चात्यवादी विवाद क्या है? उच्च शिक्षा के विकास में कलकत्ता यूनिवर्सिटी की भूमिका का वर्णन कीजिए। (What was the Anglicist-Orientalist Contro versy in the field of education? Discuss the role of Calcutta University in the spread of higher (education.) 5+3

Ans. प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा सम्बन्धी विवाद- 1813 ई० के चार्टर में इस बात की व्यवस्था की गई कि भारत में शिक्षा पर कम्पनी लाख रुपये वार्षिक खर्च करे, लेकिन 20 वर्ष तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। 1833 ई० में चार्टर में एक बार फिर संसद ने कम्पनी को यह निर्देश दिया कि वह एक लाख रुपये वार्षिक की रकम भारत में शिक्षा पर खर्च करे। अब कम्पनी इस निर्देश की अवहेलना करने की स्थिति में नहीं थी। इसी चार्टर के मद्देनजर एक समिति का निर्माण किया गया, जो लोक शिक्षा की सामान्य समिति के नाम से जानी जाती है। इस समिति में 10 सदस्य शामिल थे, जिसमें सपरिषद् गवर्नर जनरल भी शामिल था।

इस समिति के गठन के साथ ही भारत में विचारधारा के आधार पर इस समिति के 10 सदस्यों में दो दल बन गए थे। एक दल 'भारतीय शिक्षा पद्धति' और भारतीय भाषाओं की वकालत कर रहा था, जबकि दूसरा दल ब्रिटिश भाषा की वकालत कर रहा था। पहला दल प्राच्यवादी (Orientalist) के नाम से जाना जाता है। इस विचारधारा के समर्थक एच.टी. प्रिंसेप, एच.एच. विल्सन थे। इन्होंने हिन्दुओं एवं मुस्लिमों के पुराने साहित्य के पुनरुत्थान को अधिक महत्त्व दिया। दूसरा दल आंग्लवादी (Angliscist) के नाम से जाने जाते थे। इस पा आंग्ल शिक्षा के समर्थकों का नेतृत्व मुनरो एवं एल्फिंस्टन ने किया, जिसका समर्थन मैकाले ने भी किया। मैकाले भारतीयों में पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के साथ एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहता था जो रंग एवं रक्त से तो भारतीय हों पर विचारों, रुचि एवं बुद्धि से अंग्रेज हों। मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा की वकालत करते हुए 1835 ई० में एक पत्र जारी किया जो मैकाले स्मरण पत्र के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी शिक्षा के समर्थन में शिक्षित भारतीयों का एक वर्ग भी सामने आया जिसका नेतृत्व राजा राममोहन रॉय कर रहे थे। अन्ततः वायसराय लॉर्ड विलियम बेंटिक ने एक प्रस्ताव के द्वारा मैकाले के दृष्टिकोण को अपना लिया। इस प्रकार प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के बीच उत्पन्न गतिरोध समाप्त हो गया तथा अंग्रेजी भाषा भारतीयों के शिक्षा व्यवस्था का आधार बनी।

उच्च शिक्षा के विकास में कलकत्ता विश्वविद्यालय की भूमिका - कलकत्ता विश्वविद्यालय की स्थापना 24 जनवरी 1857 ई० को हुई थी। पूरे दक्षिण एशिया में यह पाश्चात्य सभ्यता का पहला विश्वविद्यालय था जिसमें कई तरह के विषयों में विद्यार्थी ज्ञानार्जन प्राप्त कर सकते थे। इस विश्वविद्यालय ने बंगाल में उच्च शिक्षा के विकास को बढ़ावा दिया। रालैण्ड रॉस, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सी. वी. रमन, यदुनाथ बोस, कादम्बिनी गांगुली तथा चन्द्रमुखी बसु इस विश्व विद्यालय के प्रमुख छात्र रह चुके थे। इस विश्वविद्यालय में इसके स्थापना वर्ष से ही लाहौर से लेकर रंगून तक के छात्र विद्यार्जन करते थे। लार्ड कैनिंग इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति एवं न्यायाधीश सर जेम्स विलियम कोलविल प्रथम उपकुलपति थे। सर यदुनाथ बोस तथा बंकिमचन्द्र चटर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि पाने वाले प्रथम व्यक्ति थे। महिलाओं में चन्द्रमुखी बसु तथा कादम्बिनी गाँगुली ने 1883 ई० में सर्वप्रथम स्नातक की डिग्री प्राप्त की। 30 जनवरी 1858 ई. को कलकत्ता विश्वविद्यालय ने संघ की तरह काम करना शुरू किया। कई शिक्षण संस्थाएँ जुड़ गई। इस प्रकार कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

VVI.*****
3.नील विद्रोह क्या था? इस विद्रोह के कारण और महत्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : नील-विद्रोह :- सन् 1860 ई० में बंगाल के नदिया जिले के नील की खेती करने वाले किसानों ने दिगम्बर विश्वास और विष्णुचरण विश्वास (विश्वास बन्धु) के नेतृत्व में अंग्रेज नील व्यापारी और जमीनदारों के विरुद्ध जो आन्दोलन शुरु किया, उसे नील विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

नील-विद्रोह का कारण :- नील विद्रोह की प्रकृति आर्थिक थी, अंग्रेजों नील व्यापारी एवं जमीन्दार यहाँ के किसानों को कुछ अग्रीम धनराशी (दादनी/दादन) देकर जमीन पर नील की खेती करने के लिए बाध्य किया जाता था। सरकार ने नील के व्यापारियों के पक्ष में ‘तीनकठिया' व्यवस्था लागू की थी कि प्रत्येक किसान को अपने कुल भूमि 3/20 हिस्से पर नील की खेती करना आवश्यक था, जिसे 'तीन कठिया' व्यवस्था कहा जाता था जो किसान इस व्यवस्था को नहीं मानता था तो उन पर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते थे। किसानों को नील की फसल को इतना कम कीमत दिया जाता था, कि किसानों का सालों भर अपने और अपने परिवार का पेट-पालना कठिन हो जाता था। इसी दुर्दशा और अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए नदिया जिले के किसानों ने विष्णु-विश्वास के नेतृत्व में संगठित और एकजुट होकर नीलहे अंग्रेजों और जमीन्दारों के विरुद्ध सन् 1860 ई० में विरोधी/विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को संगठित करने प्रचारित करके तथा सफल बनाने में "हरिश्चन्द्र मुखर्जी द्वारा सम्पादित हिन्दू पेट्रियाट समाचार पत्र दीनबन्धु मित्र द्वारा रचित नाटक नीलदर्पण का बहुत बड़ा योगदान रहा। सर्वप्रथम हिन्दू पैट्रियाट (Patriot) ने ही नील किसानों की दुर्दशा का उल्लेख किया और संघर्ष कर रहे किसानों के समर्थन में घनघोर अभियान चलाया। जिसका प्रभाव हुआ कि बंगाल के पढ़े-लिखें बुद्धजीवी वर्गों के साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम, ईसाई, सेठ साहुकार छात्र, स्त्री, किसान-मजदूर सभी वर्गों के इस आन्दोलन की एकजुटता और व्यापकता के कारण सरकार का रवैया भी आन्दोलनकारियों के प्रति नरम और संतुलित रहा। 1861 ई० में सरकार ने इस विद्रोह को सर्तकता के साथ दबा दिया।

 महत्व / परिणाम :- सन् 1861 ई० में समाप्त हुए नील-विद्रोह का भारतीय किसान आन्दोलन में महत्वपूर्ण प्रभाव एवं महत्व रहा। जिसे हम निम्न रूप में व्यक्त कर सकते हैं।

(i) यह भारत का पहला संगठित किसान जन आन्दोलन था। जिसमें समाज के सभी वर्गों ने भाग लिया था। 
(ii) इस आन्दोलन का ईसाई मिशनरियों ने भी समर्थन किया था, अत: इस आन्दोलन से सभी धर्मों की एकता को बढ़ावा मिला।

(iii) इस आन्दोलन की व्यापकता के सामने अंग्रेजी सरकार को घुटने टेकने पड़े उन्होंने किसानों के शोषण की जाँच के लिए सेर्टनकर आयोग की स्थापना की।

(iv) सेर्टनकर आयोग ने अपनी जाँच में किसानों के आरोपों को सही पाया, फलस्वरूप लार्ड कैनिंग ने सीधे ही निलहे व्यापारी और जमींदारों से ददनी प्रथा, तीन कठिया प्रथा को समाप्त कर राहत प्रदान की।

(v) इस आन्दोलन की सफलता से प्रेरित होकर ही महात्मा गाँधी ने अपना पहला सफल चम्पारण आन्दोलन शुरु किया था। इसी आन्दोलन के द्वारा गाँधीजी ने चम्पारण जिले में चल रही तीन कठिया व्यवस्था को समाप्त कराने और उसके शोषण से किसानों को मुक्त कराने में सफल रहे। चम्पारण की सफलता ने ही गाँधौजी को पूरे देश का राष्ट्रीय नेता बना दिया।

इस प्रकार नील विद्रोह ने भारत में किसान आन्दोलन को प्रेरित किया जो आगे चलकर देश की स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए मार्ग दर्शन का कार्य किया। इस कारण इस आन्दोलन का महत्व और भी बढ़ जाता है।

2 marks important questions


*****1. ब्रिटिश सरकार ने 1878 ई० में नियतकालिक पत्रिका 'सोमप्रकाश' का प्रकाशन बन्द क्यों कर दिया ? (Why did the British Government ban the publication of the periodical 'Somprakash'in 1878?)

Ans. ब्रिटिश सरकार ने 1878 ई० में नियतकालिक पत्रिका 'सोमप्रकाश' का प्रकाशन इसलिए बन्द करवा दिया था क्योंकि इस पत्रिका ने ब्रिटिश सरकार की शोषण पूर्ण आर्थिक एवं राजनीतिक नीति की आलोचना की थी। नील विद्रोह के समय इसने नील की खेती करने वाले किसानों का पक्ष लिया तथा नीलहे गोरों की नीतियों का पर्दाफाश किया था।

2.स्थानीय इतिहास से क्या समझते हैं? (What is meant by local history?) 
Ans. स्थानीय इतिहास की विषय-वस्तु किसी स्थान विशेष की स्थानीय भौगोलिक अवस्था एवं स्थानीय समुदायों, समाज एवं सांस्कृतिक अवस्था का वर्णन है।
***3.निम्नवर्गीय इतिहास से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by the 'Subaltern History?)

Ans. निम्नवर्गीय इतिहास से आशय उस इतिहास लेखन से है जिसके अन्तर्गत कृषक, मजदूर एवं समाज के निम्नवर्ग के लोगों के रहन-सहन, भाषा, खान-पान एवं आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है।

**4.आधुनिक इतिहास की संस्कृति में इंटरनेट के दो लाभ लिखिए। (Write two advantages of Internet for the culture of the Modern History.)
 Ans. (i) इलेक्ट्रानिक क्षेत्र में आए इंटरनेट की क्रांति के द्वारा हमें इतिहास के क्षेत्र में हो रहे नित नए शोध कार्यो का पता चलता है।
(ii) इंटरनेट के व्यवहार ने इतिहास अध्ययन को सुगम बना दिया है।

5. पर्यावरण के इतिहास की विषय-वस्तु क्या है? (What are the subject matter of Environmental History ?)

उत्तर- पर्यावरण इतिहास की मुख्य विषय-वस्तु प्रकृति एवं उसके अन्दर होने वाले स्वत:बदलाव के कारण - और जमीन, जल, वायुमण्डल तथा जैव मण्डल के ऊपर उनका प्रभाव है।

*6. परिवेश के इतिहास का क्या महत्व है? (What is the importance of history of environment?)

Ans. पर्यावरण के इतिहास का महत्व यह है कि इसके माध्यम से हम पर्यावरण के विभिन्न पहलुओं तथा उनसे जुड़ी समस्याओं से अवगत हो पाते हैं।

***7. महिलाओं के इतिहास के अन्तर्गत आप क्या अध्ययन करते हैं? (What do you study under women's history?)

उत्तर महिलाओं के इतिहास के अन्तर्गत इतिहास में महिलाओं की भूमिका का अध्ययन किया जाता है। इसके अलावा इसमें इतिहास में महिलाओं के अधिकार, समाज में उनकी स्थिति एवं राजनीति में उनके अवदानों का अध्ययन किया जाता है।
***8.नवीन सामाजिक इतिहास से क्या समझते हैं?
Ans-नवीन सामाजिक इतिहास (New Social History) - इसका आरम्भ 1960 ई० के दशक के बाद हुआ माना जाता है। इस तरह के इतिहास लेखन का सबसे अधिक विकास 1970 और 1980 के दशक में सबसे अधिक हुआ। इस नव शैली में इतिहास लेखन परम्परा की शुरुआत अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा एवं फ्रांस में बड़े तीव्र गति से हुआ। इसमें केवल राष्ट्र एवं व्यक्ति विशेष के सामाजिक संरचना एवं विकास का वर्णन किया जाता है। 

*****9.ब्रह्म समाज के किन्हीं दो समाज सुधार क्रियाकलापों का उल्लेख कीजिए।(Board Sample Paper)
 उत्तर : (i) ब्रह्म समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धान्त एकेश्वरवाद का सिद्धान्त था। ब्रह्म समाजी एक ब्रह्म अथवा ईश्वर को मानते थे और केवल उसकी उपासना में ही विश्वास रखते थे।

(ii) ब्रह्म समाज के अनुयायी मूर्ति पूजा एवं अन्य बाह्य आडंबरों के विरोधी थे। वे प्रार्थना में विश्वास करते थे, उनकी प्रार्थना प्रेम तथा सत्य पर आधारित थी।

***10.सामाजिक सुधार में यंगबंगाल की क्या भूमिका थी ? (What was the role of Young Bengal in social reform?)

Ans. सामाजिक सुधार के क्षेत्र में यंग बंगाल के बाल-विवाह, बहु विवाह का विरोध किया तथा नारी शिक्षा एवं नारी अधिकारों की माँग की।

*11. ललन फकीर को क्यों याद किया जाता है? (Why was Lalan Fakir remembered?) 
Ans. ललन फकीर को बंगाली बाउल कवि एवं संगीतज्ञ तथा समाज सुधारक के रूप में याद किया जाता है।

* 12. बंगाल में नारी शिक्षा के विस्तार में राजा रांधाकान्त देब की भूमिका का विश्लेषण कीजिए। (Analyse the role of Raja Radhakanta Deb in promoting womens' education in Bengal.)

Ans. राजा राधाकान्त देव नारी शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अपने खर्च पर कई प्राथमिक बालिका विद्यालयों की स्थापना की थी।

***13.फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के पीछे प्रमुख उद्देश्य क्या था? (What was the aim behind the foundation of the 'Fort William College?)

Ans. लॉर्ड वेलेजली ने 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना भारत के ब्रिटिश कर्मचारियों को प्राच्य भाषा, साहित्य एवं राजनीति की शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से की।

***14. हिन्दू कॉलेज की स्थापना किसने और कब की? (Who and when founded Hindu College?) 
Ans. हिन्दू कॉलेज की स्थापना डेविड हेयर एवं राजाराममोहन रॉय ने 1817 ई. में की।

***15. हिन्दू कॉलेज की स्थापना किस उद्देश्य से हुई? (On what objective Hindu college was established?)

Ans. हिन्दू कॉलेज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं तथा यूरोप और एशिया के साहित्य व विज्ञान की शिक्षा देना था।

****16.डेविड हेयर क्यों प्रसिद्ध है?

उत्तर भारत में पश्चिमी अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने, हिन्दू, स्कूल एवं स्कूल बुक सोसायटी जैसी संस्थाओं की स्थापना के कारण डेविड हेयर भारत में प्रसिद्ध है।

****17. मैकाले का विवरण पत्र क्या है ?

उत्तर: पाश्चात्य व प्राच्य शिक्षा विवाद सुलझाने के लिए 1835 ई० में नियुक्त समिति के अध्यक्ष लार्ड मैकाले ने अपनी रिर्पोट में पश्चिमी शिक्षा का सर्मथन करते हुए अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारत में शिक्षा देने का सर्मथन किया था। उसे ही मैकाले का विवरण (मिनटस) कहा जाता है।

****18. वुड का घोषणा पत्र क्या है ?

उत्तर : बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष चार्ल्स वुड ने 19 जुलाई 1854 ई० को भारतीय शिक्षा के सम्बन्ध में एक विस्तृत योजना लॉर्ड डलहौजी को प्रस्तुत किया। उसे ही "वुड का घोषणा पत्र कहते है।

****19.कलकत्ता मेडिकल कालेज की स्थापना के दो उद्देश्य बताओ ।

उत्तर : (i) इस कॉलेज के साथ एक वृहद अस्पताल की भी स्थापना की गई थी जिसमें हजारों मरीजों का इलाज रियायती दर पर की जाती थी ।

(ii) कलकत्ता मेडिकल कॉलेज भारत में पहली ऐसी संस्था थी जो पूरी तरह पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान का ज्ञानदेने के लिए स्थापित की गई थी।

****20.नव्य (नव) वेदान्त क्या है?

उत्तर : 19वीं सदी में हिन्दू धर्म की विशेषताओं को नये सिरे से परिभाषित किया जा रहा था जिसे नव्य वेदान कहते हैं।

21.मधुसूदन गुप्ता क्यों स्मरणीय हैं ?

उत्तर : पं० मधुसूदन गुप्ता का जन्म 1800 ई० में हुगली जिला के वैद्यवाटी नामक स्थान में हुआ था। वही प्रथम भारतीय थे जिन्होंने सबसे पहले पाश्चात्य मेडिसिन के अनुसार किसी मानव शव का विच्छेदन (चीड़-फाड़) किया था। इस लिए वे चिकित्सा के क्षेत्र में स्मरणीय है।

22.'हिन्दू मेला' की स्थापना के दो उद्देश्य लिखिए। (Write two objectives for founding the Hindu Mela.)

Ans. हिन्दू मेला का प्रमुख उद्देश्य हिन्दुओं को एकता सूत्र में बाँधना एवं उनमें राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना था।

23.उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध 'सभा समिति का युग' क्यों कहा जाता है? (Why is the second half of the nineteenth century called the 'age of associations'?)

Ans. उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध 'सभा समिति का युग' :- भारत में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध को संस्थाओं के युग के रूप में चिह्नित किया गया है। इस काल में कई राजनीतिक संगठनों की स्थापना हुई, जिनके माध्यम से लोगों में राष्ट्रीय स्तर पर एकता व एकजुटता देखने को मिली। इस दिशा में बंग भाषा प्रकाशिका सभा, जमीन्दार सभा, इन्डियन एसोसिएशन, बाम्बे एसोसिएशन, लंदन इण्डिया कमेटी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इत्यादि संस्थाओं की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
24.'भारत सभा' की स्थापना के कोई दो उद्देश्य लिखें।

उत्तर : 'भारत सभा' की स्थापना के दो उद्देश्य निम्नवत् है -

1. देश के लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना ।

2. सभी वर्गों, जातियों तथा धर्मों के लोगों में एकता का भाव स्थापित करना था।

**-मुण्डा लोगों में सामूहिक खेती का प्रचलन था, जिसे खूँटकट्टी कहा जाता था



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