Madhyamik hindi सहायक पाठ notes

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कर्मनाशा की हार'


1-'कर्मनाशा की हार' कहानी में किन समस्याओं को उजागर किया गया हैं? स्पष्ट कीजिए।[ मॉडल प्रश्न पत्र 2017]


 उत्तर- मेरे विचार से 'कर्मनाशा की हार' कहानी में एक साथ कई समस्याओं को लेखक ने उठाया है। ग्रामीण परिवेश के पृष्ठभूमि में लिखी यह कहानी हमारे गाँवों के मूल चरित्र का चित्रांकन करने में सफल हुई है। आज भी हमारे गाँव जहाँ एक ओर गरीबी और अभाव से जूझ रहे हैं, वहीं नाना प्रकार की दकियानूसी विचारधाराओं से अभी भी जकड़े हुए हैं। गाँवों की मूल समस्याएँ इस रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हुई हैं -


(1) अंधविश्वास- हमारे गाँवों में आज भी अंधविश्वास फैला हुआ है। किसी प्राकृतिक आपदा के बारे में हम वैज्ञानिक आधार को समझने की अपेक्षा गाँव में घटित किसी घटना से उसे जोड़कर देखते हैं। आज भी हमारे गाँव भूत-प्रेत, डायन, चुड़ैल, ओझा-गुनी के चंगुल से मुक्त नहीं हुए हैं। बीमार होने पर आज भी लोग डॉक्टर के यहाँ न जाकर ओझागुनी के पास जाकर इसी धारणा को पुष्ट करते हैं।


(2) दिखावे का मकड़जाल - आज भी हमारे गाँव गतानुगतिकता अर्थात् देखा-देखी के मकड़जाल में जकड़े हुए हैं। गाँव में आग लग गई थी, इसमें वे अपनी लापरवाही को नहीं मानेंगे, बल्कि भूत-प्रेत की कारगुजारी को मानेंगे और गंगाजी को पीली चुनरी चढ़ा कर फिर से आग न लगने की लापरवाही से अपने को मुक्त कर लेंगे। अमुक गाँव में कड़ाह चढ़ा था, तो उस गाँव से महामारी दूसरे गाँव में चली गई, हमें भी अपने गाँव में ऐसा करना होगा। इस तरह की देखा-देखी से मुक्त होने की दिशा में बढ़ना होगा।


(3) जाति-पाँति की भावना- आज भी हमारे गाँव में जाँति-पाँति का अजगर कुँफकार मारता रहता है। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े जाति, कुजाति के चक्कर में हम पड़े हुए हैं। हम गुण को नहीं संस्कार को नहीं, उच्च कुल, उच्च जाति को महत्त्व दे रहे हैं। हमारे गाँव इस तरह की दकियानूसी विचारों से ग्रस्त हैं।


(4) जीवन मूल्यों की उपेक्षा - अशिक्षा के कारण या तथाकथित अहंकार से ग्रस्त होने के कारण आज भी गाँवों में सम्पन्न लोग अपने विचारों को दूसरों पर थोपते हैं। दबंग लोगों का विरोध करने की क्षमता किसी में नहीं होती। अतः उनके संवेदनहीन विचार हमें कुछ सोचने नहीं देते और मानव मूल्यों की घोर उपेक्षा होती है।


(5) रूढ़िग्रस्त परम्पराओं की जकड़न- आज भी हमारा समाज, हमारे गाँव रूढ़िग्रस्त परंपराओं के व्यामोह से मुक्त नहीं हुए हैं। हम यह जानते हैं कि रूदिग्रस्त परम्पराएँ प्रगति- मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं; फिर भी हम उससे मुक्त होने का प्रयास नहीं करते। भला कड़ाह चढ़ाकर या ओझागुनी के मंत्र तंत्र से बाढ़ का पानी उतरेगा और देश का विकास होगा।


(6) लोकशिक्षण का अभाव- हमारे गाँवों में अशिक्षा, अज्ञानता आज भी मुँह बाए खड़ी हैं। कुसंस्कार एवं जाति-पाँति की हीनता को दूर करने के लिए सरकारी या कोई सामूहिक प्रयास द्वारा लोक शिक्षण के कार्य नहीं हो रहे हैं। इस दिशा में प्रयासरत रहने की जरूरत पर लेखक ने ध्यान देने की बात कही है। हमें ऐसे संगठन गठित करने होंगे जो गाँवों के लोगों के अंदर अशिक्षा एवं अज्ञानता को दूर कर उन्हें नवीनता की ओर अग्रसर कर सकें। एक सुन्दर समाज की रचना में सहयोग दे सकें।


(7) सहकारिता की भावना का अभाव हमारे गाँवों में इस प्रगतिशीलता के युग में सहकारिता का में तथा आपसी सद्भाव एवं प्रेम की कमी नजर आती है। किसी समस्या के समाधान के लिए सहयोग की जरूरत होती है। कहते हैं 'सात-पाँच की लाठी' एक के लिए बोझ बन जाती है। हमें अपनी सोच बदलनी होगी। मिलजुलकर हमें अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना होगा। दुनिया का ऐसा कोई काम नहीं है जो असंभव है। 'कर्मनाशा की हार' कहानी के भैरो पाण्डे का सुझाव कि नदी के बाद को रोकने के लिए हमें अपना खून-पसीना बहाकर इसके तटबंधों को मजबूत बनाना होगा-एक विकास का मंत्र दिया है उन्होंने। हम इसका अनुसरण कर अपने गाँवों का विकास कर सकते हैं।


इस प्रकार कथाकार शिव प्रसाद सिंह जी ने जहाँ एक ओर हमारे समाज में व्याप्त कुसंस्कारों, अंध विश्वासों, जाति-पाँति की भावना एवं गतानुगतिकता को दर्शाया है। वहीं पर भैरो पाण्डे के माध्यम से जाति-पाँति के बंधन को तोड़ने का कार्य किया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर स्वयं अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सामूहिक प्रयास एवं सहयोग पर बल दिया है। फुलमत और उसके बच्चे को मृत्यु के मुँह से निकालकर जातीय बंधन को तोड़कर फुलमत को अपना बहू स्वीकार कर एवं मुखिया एवं गाँव वालों के अत्याचार का विरोधकर भैरो पाण्डे ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जनमत की उपेक्षाकर जीने वाला व्यक्ति दुनिया की सबसे बड़ी ताकत होता है।



2-कर्मनाशा की हार' कहानी के संदेश को प्रस्तुत करते हुए बताइए कि यह कहानी आज के समय में कितनी उपयुक्त सिद्ध होती है?

[मा० प० 2017 ]


उत्तर- 'कर्मनाशा की हार' कहानी डॉ० शिव प्रसाद सिंह द्वारा रचित एक संदशमूलक कहानी है, जिसमें कहानीकार ने भारतीय ग्रामीण जीवन में व्याप्त अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव और शोषण को कथानक का रूप दिया है। कहानी के प्रमुख पात्र भैरो पाण्डे ने नैतिकता एवं वंश मर्यादा के पुरातन संस्कारों को त्यागकर प्रगतिशील एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है। अंधविश्वास की पराजय ही कर्मनाशा की हार और मानवता की विजय है।


भैरो पाण्डे वंश मर्यादा एवं नैतिकता के संस्कारों से जकड़े एक सामान्य ग्रामीण हैं। उनका छोटा भाई कुलदीप पड़ोस की बाल विधवा फूलमत से प्रेम करता है, जो मल्लाह जाति की है। एक दिन भैरों पाण्डे उन दोनों को प्रेमालाप करते हुए देख लेते हैं और अपने भाई को थप्पड़ मारते हैं, जिससे वह नाराज होकर घर छोड़कर चला जाता है।


कर्मनाशा नदी के किनारे बसे इस गाँव में यह अंधविश्वास प्रचलित है कि नदी की बाढ़ मानव बलि लेकर ही शांत होती है। जब नदी में बाढ़ आई तो गाँव के लोग मुखिया के नेतृत्व में फुलमत और उसके बेटे को नदी में फेंक कर नदी के बाढ़ को शांत कराना चाहते हैं लेकिन अपाहित भैरो पाण्डे अपनी दृढ़ता से सभी को चकित कर देते हैं और फूलमत को अपने भाई की पत्नी के रूप में स्वीकार करके बच्चे को संरक्षण देते हैं। वे स्पष्ट स्वर में कहते हैं कि नदी की बाढ़ दुधमुँहे बच्चे की बलि से नहीं बल्कि नदी की बाढ़ बाँध बनाकर रोकी जा सकती है।


इस प्रकार इस कहानी के माध्यम से रूढ़िगत भावनाओं पर प्रगतिशीलता की विजय एवं अंधविश्वास से जुड़ी निर्दयता तथा निर्ममता पर मानवतावाद की वरीयता का संदेश दिया गया है। हमें यह भी संदेश दिया गया है कि हम रूढ़िगत संस्कारों से मुक्त हों तथा नैतिकता, साहस, मानवतावाद एवं कर्मवाद को अपने चरित्र में समावेश करें।


आज इस कहानी में वर्णित अंधविश्वास, जातिपाँति की भावना, जीवन मूल्यों की उपेक्षा, रूढ़िवादी भावना, अशिक्षा, अज्ञानता और बलशाली लोगों का अत्याचार समाज में व्याप्त है। आज भैरो पाण्डे जैसे व्यक्ति की समाज में आवश्यकता है जो समाज में व्याप्त अत्याचार और रूढ़िवादी परंपराओं का विरोध कर सके एवं मानवता और प्रगति की ओर लोगों को अग्रसारित करें। इस प्रकार यह कहानी आज के समय में उपयुक्त सिद्ध होती है।


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